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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • मनमाना मन

       (0 reviews)

    माना

    मानता नहीं मन

     

    मनाने पर भी

    मनमाना  

    करता है माँग

     

    मना करने पर भी

    फिर भी

    विषयों की ओर...!

    बार-बार

    गतिमान / धावमान

    स्वयं बना है।

    नादान

     

    हिताहित के विषय में  

    स्व-पर बोध

    नहीं रखता

    अनजान!

     

    इसकी इस

    स्वच्छन्दता

    उच्छूखलता

    देख जान

    होंगे आप

    पीड़ित परेशान

     

     

    और इसे

    नियंत्रित सेवक बनाने

    अथवा पूर्ण मिटाने

    षड्यंत्र की योजना में

    इसी की सहायता से

    होंगे सतत

    प्रयत्नवान

    फिर भी आप

    जानते मानते

    अपने आप को

    धीमान सुजान!

    इससे मैं

    विस्मितवान !

    मन को मत छेड़ो

    बिना मतलब

    उसे

    मत मारो, छोड़ो

    सँभालो / सुधारो

    दया द्रवीभूत

    कण्ठ से

    विनय भरे

    हित-मित-मिष्ट

    वचनों से

    वह नादान

    नादानी तज

    बने मतिमान

     

    सही सही समितिमान

    मोक्ष-पथ का पथिक

    गतिमान औ प्रगतिमान

     

    बिना मन

    चढ़ नहीं सकता

    मोक्ष-महल का

    वह सोपान

    यह असुमान!

     

    बिना मन

    हो नहीं सकता...

    वह अनुमान

    केवलज्ञान !

    पूर्ण प्रमाण !

     

    बिना मन

    हो नहीं सकता

    मोक्ष महल का

    आविर्माण

    नवनिर्माण !

     

    तनिक हो सावधान

    उस ओर दो

    तनिक ध्यान

    कि

    मन का मत करो

    उतना शोषण !

     

    मत करो मन का

    उतना पोषण !

     

    पोषण से

    प्रमाद् पवमान

    अप्रमाद्वान

    प्रवहमान

    तब बुझता है आत्मा का

    शिव पथ सहायक

    वह रोशन !

     

    मन का शोषण

    उल्टा तनाव

    उत्पन्न करता है

     

    तनाव का प्रभाव

    उदित हो निश्चित

    विभाव / विकार भाव

     

    फलतः

    जीवन प्रवाह...!

    विपरीत दिशा की ओर...!

    होता प्रवाहित

    भरता आह...!

     

    श्राव्य/श्रुति मधुर

    स्वर लहरी

    लय ध्वनियाँ

    सुनना है यदि

    वीणा का तार

     

    इतना मत कसो

    कि

    टूट जाय...

     

    संगीत संवेदना की धार

    छूट जाय...

     

    और...

    इतना ढीला भी नहीं

    कि

    अनपेक्षित रस विहीन

    स्वर लयों का झरना

    फूट जाय…

     

    माना

    मन करता

    अभिमान

    चाहता है गुरुओं से भी

    उच्च उत्तुंग स्थान

     

    चाहता अपना

    सम्मान / मान

    सदा सर्वथा

    तीन लोक से

    पद-प्रणाम

    पूजा नाम

     

    तथापि उसे समझाना है

    स्वभाव की ओर लाना है

     

    क्योंकि उसे

    अज्ञात है

    गुण गण खान

    अव्यय द्रव्य

    भव्य दिव्य...

     

    ज्ञात है केवल

    पर प्रभावित

    वह पर्याय

     

    यदि उसमें जागृत हो

    स्वाभिमान

    तभी बनेगा

    वही बनेगा

    निरभिमान

     

    मानापमान

    समझ समान

     

    फिर...

    .....फिर क्या !

     

    आरूढ़ हो ध्यान यान

    पल भर में

    प्रयाण...

    जिस ओर ओ..

    ...है निज धाम

    .....है निर्वाण...!

     

    वही मन

    भावित मन

    करे स्वीकार

     

    मेरे इन

    शत-शत प्रणाम !

    शत-शत नमन !


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