अपनी ही भूल
चल-चल चाल
प्रतिकूल
विषय-विलासता में
लीन विलीन
झूला झूल
दिन रात...
क्षणिक नश्वरशील
संवेदित सुखाभास से
मृदुल लाल उत्फुल्ल
गुलाब फूल से भी
अधिक फूल
मोहभूत के
वशीभूत हो
भूत सदृश
भूतार्थ मूल
भूत में
दुःख वेदना / यातना
निरंतर अनुभव किया...
प्रभूत !...
आपने भी
जब यह गूढ़तम रहस्य
तपःपूत गुरुओं की
सुखदायिनी \ दुःखहारिणी
वाणी
सुनकर
प्रशस्त मन से!....
विदित हुआ
आपको
कि
अपनी चेतना की
निगूढ़ सत्ता में
मायाविनी सत्ता
बलवत्ता से आकर
प्रविष्ट हुई है
अदृष्ट!...
दृष्टि अगोचर!
कृत-संकल्प
हुए आप
नहीं विलंब स्वल्प भी ,
अविलम्ब...!
अल्पकाल में ही
कल्पकाल से आगत का
बहिष्कार आवश्यक
काल ने करवट लिया अब
वह काल नहीं रहा
स्वागत का
रहा केवल स्वारथ का
उतर गया...
माया की गवेषणा को
गवेषक
....बेशक
उपयोग की केन्द्रीय सत्ता पर
सत्ता के कोन-कोन
बौद्धिक आयाम से
अविराम....!
चिंतन की रोशनी में
छन गये
पर...
....पर क्या ?
माया की सत्ता का
पता ?
....लापता...
उसी बीच
गवेषक की बुद्धि में
सहज बिना कसरत
एक युक्ति झलक आयी
कि
उपयोग की समग्र सत्ता को
जला दिया जाय।
....तो
....निश्चित...!
अनंत लपटों से
धू धू करती
धधकती
परम ध्यानमय
निर्धूम अग्नि से-
उपयोग की विशाल सत्ता
तपने लगी
जलने लगी
तभी
गहराई में गुप्त / लुप्त / सुप्त
माया की सत्ता
ज्वर-सूचक यंत्रगत
पारद रेखा सम!
उपयोग केन्द्र से
यौगिक परिधि में
मन-वचन-तन के वितान में
चढ़ती फैलती देख
पुरुष ने
योग-निग्रह
संकोच किया
सूक्ष्मीकरण
विधान से
उपयोग योग से
बहिर्भूत / स्थूलकाय में
उसे ला, जलाना प्रारम्भ किया
फलस्वरूप
वह पूर्ण काली होकर
बाहर आकर
विपुल / जटिल / कुटिल
आपके उत्तमांग में उगे
बालों के बहाने
अपने स्वरूप
कुटिलाई का परिचय
देती हुई वह माया
जड़ की जाया
छाया...!
हे निरामय!
हे अमाय!