सराग पथ का वर्धक
साधक !
विराग पथ का
बाधक !
निस्सार
निष्प्रयोजन !
जान / मान
अनुभव कर
जात-पात से
पक्षपात से
ऊपर उठा हुआ
मैं
भगवद् भक्त !
मेरे साथ
केवल गात
मुझे मिले
भाव भक्तिमय
सबल धवल
दो पंख !
पंख के बल पर
और लघुतम हुआ
अर्कतूल !
ऊपर उड़ता हुआ उड़ता हुआ
अपरिचित ऊँचाईयाँ
लाँघता लाँघता हुआ
वहाँ पहुँच गया हूँ
विषय वासना व्याप्त
धरती का गुरुत्वाकर्षण
नहीं करता आकर्षित
हर्षित, तर्षित
किन्तु यह कैसा
अद्दभुत ! अदम्य ! चुम्बकीय !
परम गुरु का आकर्षण
गुरुत्वाकर्षण !
प्रयत्न / प्रयास
आवश्यक नहीं
सब कुछ सहज / सरल
स्वतंत्र
और
मैं तैर रहा हूँ
चेतना के विशाल / विस्तृत
निरभ्र आकाश मण्डल में
नयन-मनोहर
विहंगम दृश्य का
अनिमेष
अवलोकन करता हुआ
अपने को पाया
घिरा हुआ
स्वतंत्रता के दिव्य तेजोमय !
आभा-मण्डल में
विदित हुआ है
कि
शुद्ध किन्तु सहज क्रिया का
यह सूत्रपात है
यथाजात है
यही सचमुच
रहा सब कुछ
मात, तात है
तभी एक साथ
हो भू सात्
तीनों करण
मन वचन तन
सानन्द् सादर
किया प्रणिपात है
फलस्वरूप
विशाल भाल पर
चरणरज कुन्दन कुंकुम
अंकित हुआ है
लग रहा है।
तृतीय नेत्र उग रहा है
सारा तिमिर
भग रहा है
सोया जीवन
जग रहा है
जग रहा है
जग रहा है
कि
जिससे फूटती हुई
प्रचंड ज्वालामुखी सी
त्रिकोणी लपटों में
आगामी अनंत काल के लिए
काल काम त्रस्त हो रहे हैं शनैः शनैः
पूर्ण ध्वस्त हो रहे हैं
एकमेव !
देवाधिदेव !
जय महादेव
शेष .... ....