चिर से छाई
तामसता की
घनी निशा वह
महा भयावह
पीठ दिखाती
भाग रही है।
जाग रही है
शनैः शनैः सो
स्वर्णाभा-सी
सौम्य सुन्दरा
काम्य मधुरिमा
साम्य अरुणिमा
ध्रुव की ओर
बढी जा रही
बढ़ी जा रही…
शनैः शनैः बस!
शैल-समुन्नत
चढ़ी जा रही
चढ़ी जा रही...।
तेज ध्यान में
तेज ज्ञान में
चरम वेग से
ढली जा रही
ढली जा रही...।
स्वैर-विहारी
विकल्प-पंछी
निजी निजी उन
नीड़ों में आ
नयन मूँद कर
शान्त हुए हैं
विश्रान्त हुए।
दूर दूर तक
फैली छाया
सिमिट-सिमिट कर
चरणों में आ
चरण वन्दना
करी जा रही
करी जा रही...।
मौन-भाव को
पूर्ण गौण कर
मुक्त कण्ठ से
मुक्त शैव स्तुति
पढ़ी जा रही...।
पढ़ी जा रही...।
सौम्य सुगन्धित
फुल्लितं पुष्पित
भीगे भावों
श्रद्धांजलियाँ
चढी जा रहीं
चढ़ी जा रहीं...।
अश्रुतपूर्वा
आज भाग्य की
धन्य धन्यतम
घड़ी आ रही
घड़ी आ रही...।
ललित छबीली
परम सजीली
दृष्टि-सम्पदा
निज की निज में
गड़ी जा रही
गड़ी जा रही...।