इसी की गवेषणा
करनी थी इसे
कि
किस कारण से
समग्र-सत्ता-सिन्धु
उमड़ रहा है यह
तट का उल्लंघन तक
कर गया है अब !
नाच नाचते
उछल उछल कर
उज्ज्वल उज्ज्वल
ये बिन्दु ! बिन्दु!
हे! राकेन्दु !
तभी तो
चन्दन-गन्ध लिये
कर कमल बन्द हुए
मन्दी-बन्दी
नयन कुमुदिनी
मुदित हुई
मन्दं मन्द मुस्कान लिये
मधुरिम मार्दव
अधरों पर
और
यह चतुर-चातुर
चेतन चातक
चकित हुआ
भाव चाव से
शीतल चाँदनी का
चिदानन्दिनी का
पान कर रहा है
इतना ही नहीं
और भी गोपनता
बाहर आ प्रकाश को छू रही है
मुक्ता फल सम
शान्त शीतल
शुभ्र शुभ्रतम्
सलिल सीकर
लीला सहित
बरस रहे हैं
इस के इस
मानस की इन्दुमणि से
इसलिए
सुधा-सिन्धु हो तुम !
सौम्य-इन्दु हो तुम !