आखिर यह
अपार सिन्धु
क्या है सागर
अगर...।
बिन्दु ....... बिन्दु...
अनन्त बिन्दु
वात्सल्य सौहार्द सहित
हो कर परस्पर
मुदित-प्रमुदित
आलिंगित-आकुंचित नहीं होते।
मगर!
मगरमच्छ कच्छप
मारक विषधर अजगर
वहीं चरते हैं
वहीं चलते हैं
हिंसकों के डगर
अनेक महानगर
वहीं बसते हैं
वहीं पलते हैं
महासत्ता नागिन
फूत्कार करती
अपनी फणावली
उन्नत उठाकर
अपनी सत्ता सिंहासन
वहीं जमाती है
किन्तु काल्पनिक
इसलिए
यह परम सत्य है
सिन्धु अंशी नहीं है
बिन्दु अंश नहीं है उसका
बिन्दु का वंश सिन्धु नहीं है
किन्तु ! बिन्दु...!
अंश अंशी स्वयं है
स्वयं का स्वयं आधार आधेय...।
परनिरपेक्षित जीवन जीता है
केवल सागर ...... लोकोपचार...
इसी से अकथ्य सत्य वह
सार तथ्य वह...।
और पूर्ण फलित हो रहा है
कि
लय में लय होना
यह सिद्धान्त जो रहा है
अनुचित सिद्ध हो रहा है
और!
प्रकाश प्रकाश में
लीन हो रहा है
यह भी उपचार है
कारण यह है
कि
प्रकाश प्रकाशक की
अभिन्न-अनन्य
आत्मीय परिणति है
गुण-धर्म-भाव
धर्म धर्मी से
गुण गुणी से
परत्र प्रवास करने का
प्रयास तक नहीं कर सकते
क्योंकि
धर्मी का धर्म
गुणी का गुण
प्राण है, श्वास है
यह बात निराली है
कि
बिना प्रयास प्रकाश से
प्रकाश्य प्रकाशित होते हैं
यह उनकी योग्यता है
किन्तु
प्रकाश्य या प्रकाशित में
स्व-पर प्रकाशक का
अवतरण अवकाश नहीं
यह भी बात ज्ञात रहे
कि जिनमें
उजली उजली उघड़ी
पूरी कलायें हैं
झिलमिलाये हैं
गुण-धर्म-जाति की अपेक्षा
एक से .......लसे हैं
पर! बाहर से
उनमें
अपने अपने
अस्तिपना
निरे.......निरे हँसे हैं
फिर ! ऐक्य कैसे ?
शिव में शिव
जिन में जिन
चिर से बसे हैं
निज नियति से
सुदृढ़ कसे हैं
भ्रम भ्रम है
ब्रह्म ब्रह्म है
भ्रम में ब्रह्म नहीं
ब्रह्म में भ्रम नहीं...।
अहा! यह कैसी ?
विधि विधान-व्यवस्था
प्रति-सत्ता की
स्वाधीन स्वतन्त्रता
परस्पर
एक दूसरे के
केवल साक्षी...।
जिनमें कन्दर्प......दर्प न
कहाँ करते ?
अर्पण-समर्पण
दर्पण में दर्प न...।