सूरज सर पर
कसकर तप रहा है
मैं नि:संग हूँ...।
आसीन हूँ
सुखासन पर
ललाट तल से
शनैः शनैः
सरकती-सरकती
भृकुटियों से गुजरती
नासाग्र पर आ
पल-भर टिकी
गिरती है
स्वेद की बूँद...
वायुयान गतिवाली
स्वच्छन्द उड़नेवाली
मक्षिका के पंख पर…!
और वह मक्षिका
भींगे पंख!
उड़ने की इच्छा रखती
पर! उड़ ना पाती है
धरती से ऊपर
उठ न पाती
यह सत्य है कि
रागादिक की चिकनाहट
और पर का संपर्क
परतन्त्रता का प्रारूप है...।