समय-समय पर
शून्य में से
अनागत का अपना
निरा सन्देश
प्रचारित-प्रसारित हो रहा है.....
गुप्त रूप से!
कि
‘ज्ञात रहे’
ऐसा कोई नहीं है
आवास! मेरे पास!
नहीं पा सकोगे मुझ में
अवकाश ! हो विश्वास!
नहीं कर सकोगे मुझ में
पलभर भी
वास! विलास!...
मेरा कोई विधिरूप-जीवन नहीं है
निषेध की सत्ता से निर्मित...
..... जीवन जीता हूँ
मेरे पैरों के नीचे
धरती नहीं है
निराधार ‘हूँ' / था,
कैसे दे सकता हूँ ? निराधार हो
आधार औरों को !
नीचे की ओर लम्बायमान
...दण्डायमान
दोनों हाथ
नहीं है मेरे मस्तक पर
अवकाशदाता
आकाश का हाथ
ना है कोई साथ
.......मैं अनाथ!
चारों ओर निरालम्ब
सब अनाथ
सनाथ बनते हैं
मेरी उपेक्षा करने से
अनाथ बनते हैं
अपेक्षा करने से
मेरा दर्शन किसी को होता नहीं
होता भी हो .....तो
व्यवहार! उपचार!...
दिव्य ज्ञानी को भी
मेरा साक्षात्कार नहीं
मैं एक अथाह गर्त हूँ
मुझ में भरा है केवल
अभावात्मक आर्त ही आर्त
पिपासा बुझाने
जिसमें
आशा झाँकती है
बार! बार!!
खाली हाथ लौटती
निराश हुई आशा की पीठ
अनिमेष निहारता रहता हूँ
यही मेरी विशेषता है
मैं अनागत, नहीं तथागत!
और विगत की घटना
मौन
किन्तु
तुझे इंगित कर रही है
अपने इंगनों से
अरे! मन !
उसकी चपेट में आकर
मत पिटना
अमित बल को खोकर
अनेक भागों में
मत बँटना!
संवेदन से शून्य है वह
भाव की परिणति
अभाव में परिवर्तित
वह अपना
बन चुका है सपना
असंभव बन चुका है
अनुभव से
उसका नपना!
संभव है केवल
अब उसका
शब्दों में जपना!
जिस जपन की वेला में
अनुभूति का स्रोत
ढक जाता है सहज
अघ के कणों से
अवचेतन के रजोगुणों से
और यही हुआ है
भवों-भवों से
युगों-युगों से
अरे! मन
विगत की घटना से
पल भर तो
हट ना! हट ना !! हट ना !!!
विगत में
समता रस से आपूरित
क्लान्ति निवारक
शान्ति प्रदायक
ओ ‘घट' ना! ओ ‘घट' ना!! ओ ‘घट' ना!!!
अरे मन
भूल जा
ओ घटना! ओ घटना !! ओ घटना !!!
इसलिए हो जा
अरे मन!
विगत से, अनागत से
पूर्ण रूप उपराम!...
अन्यथा और कहीं खोजा
सत् चित् आनन्द-धाम
यदि अनुभूत होगा
तो वह है निश्चित
एक ललित ललाम
....पूर्ण काम!
विरत काम!
आगत! आगत!! आगत!!!
यही है मुख्य अतिथि
महा अभ्यागत!
सदा जागृत
चिर से अब तक तुझ से
अनपेक्षित है अनादृत।
प्रतीक्षा से
भिक्षा से
शिक्षा से भी परे
अप्रमत्त ईक्षा की पकड़ में
केवल आता है
आगत! आगत!! आगत!!!
इसी का आज
स्वागत! स्वागत!! स्वागत!!!