बिन तन बिन मन वचन बिन,
बिना करण बिन वर्ण।
गुण गण गुम्फन घन नमूँ,
शिवगण को बिन स्वर्ण ।।१।।
पाणि-पात्र के पाद में,
पल-पल हो प्रणिपात।
पाप खपा, पा, पार को,
पावन पाऊँ प्रान्त ।।२।।
शत-शत सुर-नर-पति करें,
वंदन शत-शत बार।
जिन बनने जिन-चरण रज,
लूँ मैं शिर पर सार ।।३।।
सुर-नर-यति-पति पूजते,
सुध-बुध सभी बिसार।
गुरु गौतम गुणधर नमूँ,
उमंग से उर धार ।।४।।
नमूँ, भारती तारती,
उतारती उस तीर।
सुधी उतारें आरती,
हरती खलती-पीर ।।५।।
तरणि ज्ञानसागर गुरो!
तारो मुझे ऋषीश।
करुणाकर करुणा करो,
कर से दो आशीश ।।६।।
कौरव रव-रव में गये,
पाण्डव क्यों शिव-धाम।
स्वार्थ तथा परमार्थ का,
और कौन परिणाम? ।।७।।
पारसमणि के परस से,
लोह हेम बन जाय।
पारस के तो दरस से,
मोह क्षेम बन जाय ।।८।।
एक साथ लो! बैल दो,
मिल कर खाते घास।
लोकतन्त्र पा क्यों लड़ो?
क्यों आपस में त्रास ।।९।।
दिखा रोशनी रोष ना,
शत्रु, मित्र बन जाय।
भावों का बस खेल है,
शूल, फूल बन जाय ।।१०।।
उच्च-कुलों में जन्म ले,
नदी निम्नगा होय।
शांति, पतित को भी मिले,
भाव बड़ों का होय ।।११।।
सूर्योदय से मात्र ना
ऊष्मा मिले प्रकाश।
सूर दास तक को मिले,
दिशा-बोध अविनाश ।।१२।।
मानव का कलकल नहीं,
कल-कल नदी निनाद।
पंछी का कलरव रुचे,
मानव! तज उन्माद ।।१३।।
भू पर निगले नीर में,
ना मेंढक को नाग।
निज में रह बाहर गया,
कर्म दबाते जाग ।।१४।।
कब तक कितना पूछ ना,
चलते चल अविराम।
रुको रुको यूँ सफलता,
आप कहे यह धाम ।।१५।।
जिनवर आँखें अध-खुलीं,
जिन में झलके लोक।
आप दिखे सब, देख ना!
स्वस्थ रहे उपयोग ।।१६।।
ऊधम से तो दम मिटे,
उदयम से दम आय।
बनो दमी हो आदमी
कदम-कदम जम जाय ।।१७।।
दोष रहित आचरण से,
चरण-पूज्य बन जाय।
चरण-धूल तक शिर चढ़े
मरण-पूज्य बन जाय ।।१८।।
तन से मन से वचनसे,
चेतन में अब डूब।
डूबा अब तक खूब है,
तन से अब तो ऊब ।।१९।।
एक साथ सब कर्म का,
उदय कभी ना होय।
बूंद-बूंद कर बरसते,
घन, वरना सब खोय ।।२०।।
नदी बदलती पथ नहीं,
जब तक मिले अनन्त।
मानव पथ क्यों बदलता,
बनकर भी हे सन्त ! ।।२१।।
आत्मामृत तज विषय में,
रमता क्यों यह लोक?
खून चूसता दुग्ध तज,
गो थन में क्यों जोंक।।२२।।
मदन मान का मूल मन,
मूल मिटा प्रभु आप।
मदन जयी, जित मान हो,
पावन अपने आप ।।२३।।
देह गेह का नेह तज,
आतम हो अनुभूत।
स्नेह जले दीपक तभी,
करे उजाला पूत ।।२४।।
ज्ञान तथा वैराग्य ये,
शिव-पथ-साधक दोय।
खड्ग ढाल ले भूप ज्यों,
श्री यश धारक होय ।।२५।।
नाम बने परिणाम तो,
प्रमाण बनता मान।
उपसर्गों से क्यों डरा?
पार्श्व बने भगवान ।।२६।।
प्रभु चरणों में हार कर,
शस्त्र डाल कर काम।
विनीत हो पूजक बना,
झुक झुक करे प्रणाम ।।२७।।
तभी शूल सब फूल हो,
पूजन साधन सार।
सत्-संगति का फल मिले,
भव-सागर का पार ||२८।।
काया का कायल नहीं,
काया में हूँ आज।
कैसे - काया कल्प हो,
ऐसा कर तप - काज ।।२९।।
छुप - छुपकर क्यों छापते,
निश्छल छवि पर छाप।
ताप - पाप संताप के,
रूप उघड़ते आप ||३०।।
पेटी भर ना पेट भर,
खेती कर, नाऽऽ खेट।
लोकतन्त्र में लोक का,
संग्रह हो भरपेट ।।३१।।
नम्र बनो मानी नहीं,
जीवन वर ना मौत।
वेत बनो ना वट बनों
फिर सुर-शिव-सुख का स्रोत ।।३२।।
अलख जगा कर देख ले,
विलख, विलख मत हार।
निरख, निरख निज को जरा,
हरख, हरख इस बार ।।३३।।
चल, चल जिस पर विभु हुये,
चल, चल तू उस पन्थ।
चल, चल वरना बीच से,
चल चल होगा सन्त! ।।३४।।
वश में हों सब इन्द्रियाँ,
मन पर लगे लगाम।
वेग बढ़े निर्वेग का,
दूर नहीं फिर धाम ।।३५।।
फड़ - फड़ - फड़ - फड़ बन्द कर,
पक्ष-पात के पाँख।
सुदूर खुद में उतर आ,
एक - बार तो झाँक ।।३६।।
शील, नसीले द्रव्य के,
सेवन से नश जाय।
संत - शास्त्र - संगति करे,
और शील कस जाय ।।३७।।
जठरानल अनुसार हो,
भोजन का परिणाम।
भावों के अनुसार ही,
कर्म - बन्ध - फल - काम ।।३८।।
नस नस मानस - रस नसे,
नसे, मोह का वंश।
लसे हृदय में बस भले,
जिनोपासना अंश ।।३६।।
यम - संयम - दम - नियम ले,
कर आगम अभ्यास।
उदास जग से, दास बन -
प्रभु का सो संन्यास ।।४०।।
गुरु-चरणों की शरण में,
प्रभु पर हो विश्वास।
अक्षय - सुख के विषय में,
संशय का हो नाश ।।४१।।
स्वयं तिरे, ना तारती -
कभी अकेली नाव।
पूजा नाविक की करो,
बने पूज्य तब नाव ||४२।।
नहीं व्यक्ति को पकड़ तू,
वस्तु - धर्म को जान।
मान तथा बहुमान दे,
विराटता का गान ||४३।।
वर्ण - लाभ वरदान है,
संकर से हो दूर।
नीर - दूध में ले मिला,
आक - दूध ना भूल ||४४।।
गगन चूमते शिखर हैं,
भू-स्पर्शी क्यों द्वार?
बता जिनालय ये रहे,
नत बन, मत मद धार ।।४५।।
सार सार का ग्रहण हो,
असार को फटकार।
नहीं चालनी तुम बनो,
करो सूप-सत्कार ||४६।।
नयन - नीर लख नयन में,
आता यदि ना नीर।
नीर पोंछना पूछना,
उपरिल उपरिल पीर ।।४७।।
बड़े बड़े ना पाप हों,
बड़ी बड़ी ना भूल।
चमडी दमडी के लिए,
पगड़ी पर क्यों धूल? ||४८।।
एक तरफ से मित्रता,
सही नहीं वह मित्र।
अनल पवन का मित्र ना,
पवन अनल का मित्र ||४९।।
विगत अनागत आज का,
हो सकता श्रद्धान।
शुद्धातम का ध्यान तो,
घर में कभी न मान ।।५०।।
मात्रा मौलिक कब रही,
गुणवत्ता अनमोल।
जितना बढ़ता ढोल हैं,
उतना बढ़ता पोल ||५१।।
चाव - भाव से धर्म कर,
उज्ज्वल कर ले भाल।
माल नहीं पर-भाव से,
बन तू मालामाल ||५२।।
मोही जड़ से भ्रमित हो,
ज्ञानी तो भ्रम खोय।
नीर उष्ण हो अनल से,
कहाँ उष्ण हिम होय ||५३।।
सागर का जल तप रहा,
मेघ-बरसते नीर।
बह बह वह सागर मिले,
यही नीर की पीर ||५४।।
न्यायालय में न्याय ना,
न्यायशास्त्र में न्याय।
झूठ छूटता, सत्य पर
टूट पड़े अन्याय ।।५५।।
सीमा तक तो सहन हो,
अब तो सीमा पार |
पाप दे रहा दण्ड है,
पड़े पुण्य पर मार ।।५६।।
सौ सौ कुम्हडे लटकते,
बेल भली बारीक।
भार नहीं अनुभूत हो,
भले संघ गुरु ठीक ।।५७।।
जिसके स्वामीपन रहे,
नहीं लगे वह भार।
निजी काय भी भार क्या?
लगता कभी कभार ||५८।।
कर्तापन की गन्ध बिन,
सदा करे कर्तव्य।
स्वामीपन ऊपर धरे,
ध्रुव - पर हो मन्तव्य ।।५९।।
सन्तों के आगमन से
सुख का रह न पार।
सन्तों का जब गमन हो,
लगता जगत असार ।।६०।।
सुन, सुन गुरु उपदेश को,
बुन बुन मत अघजाल।
कुन कुन कर परिणाम तू,
पुनि पुनि पुण्य सँभाल ।।६१।।
निर्धनता वरदान है,
अधिक धनिकता पाप।
सत्य तथ्य की खोज में,
निर्गुणता अभिशाप ।।६२।।
नीर नीर है क्षीर ना,
क्षीर क्षीर ना नीर।
चीर चीर है जीव ना,
जीव जीव, ना चीर ।।६३।।
कर पर कर धर करणि कर,
कल कल मत कर और
वरना कितना कर चुका
कर मरना ना छोर ।।६४।।
यान करे बहरे इधर,
उधर यान में शान्त।
कोरा कोलाहल यहाँ,
भीतर तो एकान्त ।।६५।।
सूरज दूरज हो भले,
भरी गगन में धूल।
सर में पर नीरज खिले,
धीरज हो भरपूर ।।६६।।
बान्धव रिपू को सम गिनो,
संतों की यह बात।
फूल चुभन क्या ज्ञात है?
शूल चुभन तो ज्ञात ।।६७।।
क्षेत्र काल के विषय में,
आगे पीछे और
ऊपर नीचे ध्यान दूँ,
ओर दिखे ना छोर ।।६८।।
स्वर्ण - पात्र में सिंहनी,
दुग्ध टिके नान्यत्र।
विनय पात्र में शेष भी,
गुण टिकते एकत्र ।।६९।।
परसन से तो राग हो,
हर्षण से हो दाग।
घर्षण से तो आग हो,
दर्शन से हो जाग ।।७०।।
माँग सका शिव माँग ले,
भाग सका चिर भाग।
त्याग सका अघ - त्याग ले,
जाग सका चिर जाग ।।७१।।
साधुसन्त कृत शास्त्र का,
सदा करो स्वाध्याय।
ध्येय, मोह का प्रलय हो,
ख्याति लाभ व्यवसाय ।।७२।।
आप अधर मैं भी अधर,
आप स्व-वश हो देव।
मुझे अधर में लो उठा,
परवश हूँ दुर्दैव ।।७३।।
मंगल में दंगल बने,
पाप कर्म दे साथ।
जंगल में मंगल बने,
पुण्योदय में भ्रात! ।।७४।।
धोओ मन को धो सको ,
तन को धोना व्यर्थ।
खोओ गुण में खो सको,
धन में खोना व्यर्थ ।।७५।।
त्रिभुवन जेता काम भी,
दोनों घुटने टेक।
शीश झुकाते दिख रहा,
जिन - चरणों में देख ।।७६।।
तोल तुला मैं अतुल हूँ
पूरण वर्तुल - व्यास।
जमा रहूँ बस केन्द्र में,
बिना किसी आयास ।।७७।।
व्यास बिना वह केन्द्र ना,
केन्द्र बिना ना व्यास |
परिधि तथा उस केन्द्र का,
नाता जोड़े व्यास ||७८।।
केन्द्र रहा सो द्रव्य है,
और रहा गुण व्यास।
परिधि रही पर्याय है,
तीनों में व्यत्यास ||७९।।
व्यास केन्द्र या परिधि को,
बना यथोचित केन्द्र।
बिना हठाग्रह निरख तू,
निज में यथा जिनेन्द्र ।।८०||
वृषभ चिंह को देखकर,
रमरण वृषभ का होय।
वृषभ-हानि को देख कर,
कृषक-धर्म अब रोय ।।८१।।
काला पड़ता जा रहा,
भारत का गुरु भाल।
भारी बढ़ता जा रहा,
भारत का ऋण भार ||७२।।
वर्णो का दर्शन नहीं,
वर्षों तक ही वर्ण।
चार वर्ण के थान पर,
इन्द्र - धनुष से वर्ण ।।८३।।
वर्ण - लाभ से मुख्य है,
स्वर्ण-लाभ ही आज।
प्राण बचाने जा रहे,
मनुज बेच कर लाज ।।८४।।
विषम पित्त का फल रहा,
मुख का कडुवा स्वाद।
विषम वित्त से चित्त में,
बढ़ता है उन्माद ।।८५।।
कानों से तो हो सुना,
आँखों देखा हाल।
फिर भी मुख से ना कहे,
सज्जन की यह ढाल ।।८६।।
दीप कहाँ दिनकर कहाँ,
इन्दु कहाँ खदयोत।
कूप कहाँ सागर कहाँ,
यह तोता प्रभु पोत ।।८७।।
धर्म - धनिकता में सदा,
देश रहे बल जोर।
भवन वही बस चिर टिके,
नींव नहीं कमजोर ।।८८।।
बाल गले में पहुँचते,
स्वर का होता भंग।
बाल, गेल में पहुँचते,
पथ-दूषित हो संघ ।।८९।।
बाधक शिव - पथ में नहीं
पुण्य - कर्म का बन्ध।
पुण्य - बन्ध के साथ भी।
शिव पथ बढे अमन्द ||९०||
पुण्य-कर्म अनुभाग को,
नहीं घटाता भव्य।
मोह-कर्म की निर्जरा,
करता है कर्त्तव्य ।।९१।।
तभी मनोरथ पूर्ण हो,
मनोयोग थम जाय।
विद्यारथ पर रूढ हो,
तीन - लोक नम जाय ।।९२।।
हुआ पतन बहुबार है,
पा कर के उत्थान।
वही सही उत्थान है,
हो न पतन सम्मान ।।९३।।
सौरभ के विस्तार हो,
नीरस ना रस कूप।
नमूँ तुम्हें तुम तम हरो,
रूप दिखाओ धूप ।।९४।।
नहीं सर्वथा व्यर्थ है,
गिरना भी परमार्थ।
देख गिरे को, हम जगें,
सही करें पुरुषार्थ ।।९५।।
गगन गहनता गुम गई.
सागर का गहराव।
हिला हिमालय दिल विभो!
देख सही ठहराव ।।९६।।
निरखा प्रभु को, लग रहा,
बिखरा सा अघ-राज।
हलका सा अब लग रहा,
झलका सा कुछ आज ।।९७।।
ईश दूर पर मैं सुखी,
आस्था लिए अभंग।
ससूत्र बालक खुश रहे,
नभ में उड़े पतंग ।।९८।।
हृदय मिला पर सदय ना,
अदय बना चिर-काल।
अदया का अब विलय हो,
चाहूँ दीन दयाल! ।।९९।।
चेतन में ना भार है,
चेतन की ना छाँव।
चेतन की फिर हार क्यों?
भाव हुआ दुर्भाव ।।१००।।
चिन्ता ना परलोक की,
लौकिकता से दूर।
लोक हितैषी बस बनूँ ,
सदा लोक से पूर ।।१०१।।
स्थान एवं समय-संकेत
रामटेक में, योग से,
दूजा वर्षायोग।
शान्तिनाथ की छाँव में,
शोक मिटे, अघ रोग ।।१०२।।
गगन - गन्ध - गति गौत्र का,
भादों - पूनम् - योग।
“पूर्णोदय” पूरण हुआ,
पूर्ण करे उपयोग ।।१०३।।
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