गुरो ! दल दल में मैं था फँसा, मोह-पाश से हुआ था कसा ।
बन्ध छुड़ाया, दिया आधार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। १ ।।
पाप पंक से पूर्ण लिप्त था, मोह नींद में सुचिर सुप्त था ।
तुमने जगाया किया उपचार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। २ ।।
आपने किया महान उपकार, पहनाया मुझे रतन-त्रय हार ।
हुए साकार मम सब विचार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। ३ ।।
मैंने कुछ ना की तब सेवा, पर तुमसे मिला मिष्ठ मेवा ।
यह गुरुवर की गरिमा अपार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। ४ ।।
निज-धाम मिला, विश्राम मिला, सब मिला, उर समकित-पद्य खिला ।
अरे! गुरुवर का वर उपकार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। ५ ।।
अँधा था, बहिरा था, था मैं अज्ञ, दिये नयन व करण, बनाया विज्ञ।
समझाया मुझको समयसार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। ६ ।।
मोह-मल धुला, शिव-द्वार खुला, पिलाया निजामृत घुला-घुला ।
कितना था गुरुवर उर-उदार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। ७ ।।
प्रवृत्ति का परिपाक संसार, निवृत्ति नित्य सुख का भंडार ।
कितना मौलिक प्रवचन तुम्हार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। ८ ।।
रवि से बढ़कर है काम किया, जन-गण को बोध प्रकाश दिया ।
चिर ऋणी रहेगा यह संसार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। ६ ।।
स्व-पर हित तुम लिखते ग्रन्थ, आचार्य उवझाय थे निर्ग्रन्थ ।
तुम सा मुझे बनाया अनगार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। १० ।।
इन्द्रिय-दमन कर कषाय-शमन, करते निशदिन निज में ही रमण ।
क्षमा था तव सुरम्य शृंगार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार || ११ ||
बहु कष्ट सहे, समन्वयी रहे, पक्षपात से नित दूर रहे ।
चूँकि तुममें था साम्य-संचार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। १२ ।।
मुनि गावें तव-गुण-गण गाथा, झुके तुम पाद में मम माथा ।
चलते, चलाते समयानुसार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। १३ ।।
तुम थे द्वादश विध तप तपते, पल पल जिनप नाम जप जपते ।
किया धर्म का प्रसार-प्रचार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। १४ ।।
दुर्लभ से मिली यह "ज्ञान" सुधा, "विद्या" पी इसे, मत रो मुधा ।
कहते यों गुरुवर यही 'सार', मम प्रणाम तुम करो स्वीकार || १५ ।।
व्यक्तित्व की सत्ता मिटा दी, उसे महासत्ता में मिला दी,
क्यों न हो प्रभु से साक्षात्कार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। १६ ।।
करके दिखा दी संल्लेखना, शब्दों में न हो उल्लेखना ।
सुर, नर कर रहे जय जयकार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। १७ ।।
आधि नहीं थी, थी नहीं व्याधि, जब आपने ली परम-समाधि ।
अब तुम्हें क्यों न वरे शिवनार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। १८ ।।
मेरी भी हो इस विध समाधि, रोष-तोष नशे, दोष उपाधि ।
मम आधार, सहज समयसार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकर ।। १६ ।।
जय हो ज्ञानसागर ऋषिराज! तुमने मुझे सफल बनाया आज ।
और इक बार करो उपकार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। २० ।।
श्री ज्ञानसागराय नम:
Edited by संयम स्वर्ण महोत्सव