अनिर्वचनीय व्यक्तित्व आचार्यश्री विद्यासागर
6 फरवरी 2018 - कल के लिए आचार्य विद्यासागर जी के रूप में आज एक ऐसी कथा बुनी जा रही है। जिसकी सच्चाई आने वाले पीढ़ियों के लिए एक प्रेरणा बनी रहेगी। वे एक ऐसी सत्ता है। जो अपने आसपास से एक लय में दिखाई पड़ती है। उनका आसपास माने पर्यावरण। उनकी कृश काया की लय जिसमें किसी चिड़िया का गीत है, जिसमें किसी बादल की उमड़ घुमड़ है, जिसमें बांसवन की सरसराहट है लेकिन अपने आस-पास की बहुत अलंकृत और बनावटी सामाजिकता में वह बहुत अलग भी पड़ते हैं। उनका वह स्वरूप जो दिगंबर है, आज के आडंबर के स्पष्ट प्रत्याख्यान में है। आचार्य जितने बड़े आदर्श के निर्वाह में लगे हैं, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि तपस्विता की गौरवपूर्ण परंपरा का भविष्य अभी भी सुरक्षित है। आचार्य विद्यासागर की श्रेष्ठता इसमें है कि उन्होंने विद्या को सृजन में बदला है। उनकी साधना-प्रणाली में बहुत सी दार्शनिकता है लेकिन वे उसकी रूक्षता और शुष्कता से आक्रांत नहीं हुए। उन्होंने उसे रचनात्मकता की सरसता में परिणत किया। जैन दर्शन वैसी भी बहुत गूढ़ है। किन्तु आचार्य जी की हार्दिकता ने उसे इतने मधुर और सरल रूप में पेश किया है। प्रायः दर्शनों का एक बड़ा-सा प्रोटोकॉल होता है। स्वयं आचार्य जी के जीवन क्रम में बहुत से नियम-उपनियम, विधियां-उपविधियां हैं जिन्हें उन्होंने बहुत साधना के साथ निबाहा भी है, लेकिन अपनी कविताओं में वे जैसे सारे बंधनों को तोड़ते और शब्दों के साथ अपनी ही क्रीड़ाओं को स्वते हुए दिखाई देते हैं। उनका ‘मूक माटी' जैसा महाकाव्य तो अब विश्वसाहित्य की एक धरोहर है और संभवतः इस मायने में वह अनूठा है कि कोई मानव-मानवी उसका नायक-नायिका नहीं है और इसके बाद भी वह हमारी मानवीयता के सारे भावों-अनुभावों, संचारी भावों को जगाता है। हमें बहुत से स्थाई और संचारी भावों से आलोड़ित करता है और कोई हवाई बात करने की जगह जमीनी बात कहता है। इसी का परिणाम यह है कि आचार्य श्री आज स्वयं ग्रंथलेखक ही नहीं रह गए हैं, बहुत से ग्रंथों के कारण बन गए हैं, स्वयं उन पर बहुत सी पीएचड़ी हो चुकी हैं और उन पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। उनकी लिखी पुस्तक के अंश विश्व-विद्यालयों के पाठ्यक्रम में हैं। वे कितना आगे चले आए हैं। जिसके लिए विश्व ही विद्यालय हो, उसके लिए विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम भी समर्पित होने ही होने थे। हालांकि मेरा मत यह है कि प्रज्ञात्मा आचार्य श्री को निरंजना शतक, भावना शतक, सुनीति शतक दि रचनाओं के माध्यम से भी जानना चाहिए।
विद्यासागर जी ने अपना पूरा जीवन धर्म की प्रभावना के लिए लगा दिया है। यह युग ऐसा है कि जब धर्म को जिंदगी की ज्यादातर चुनौतियों के लिए अप्रासंगिक माना जा रहा है और कई बात तो ऐसा भी है। कि धर्म स्वयं जिंदगी के लिए चुनौती बन गया है। ऐसे में वह जिंदगी को जिंदगी देने में कम और जिंदगी छीनने में ज्यादा काम आ रहा है और इसी कारण लोग अब धर्म से उचार भी हो रहे हैं। इसके कारण एक ऐसा भौतिकवाद भी बढ़ रहा है जो साफ-साफ धर्म को उलाहना भी देता है कि अच्छा है कि वो धर्म नहीं हुआ। ऐसे में आचार्यश्री अपने जीवन-दृष्टांत से यह स्थापित करते हैं कि धर्म विश्व भर के अपनी व्यक्तिगत इकाई के समर्पण का नाम है, विश्व भर को संत्रस्त करने का नाम नहीं है।
आचार्य श्री जिंदगी से न्यूनतम मांग रखते हैं स्वयं के लिए और उसे अपना सर्वस्व देते हैं। वे जीवन की पुष्टि करते हैं और उसे लोगों को मरने-मारने के उद्योग में अपघटित करने के फैशन से मुक्त करते हैं। धर्म की उनके द्वारा की जा रही ऐसी प्रभावना ही 21वीं की दुनिया के लिए एक बड़ी उम्मीद है।
आचार्य श्री का महत्व इसमें भी है कि वे उत्तर और दक्षिण के सेतु हैं। जन्म उनका कर्नाटक के बेलगांव जिले के सदलगा गांव में हुआ लेकिन उन्होंने पूरे उत्तर भारत को अपने तप और विद्वता से अभिभूत किया है। वे देश के एकीकरण के एक बहुत बड़े सार्थवाह हैं। कर्नाटक में ऐतिहासिक रूप से देखें तो जैन धर्म की उपस्थिति बहुत प्रबल रही हैं और प्राचीन समय में ही बहुत से जैन वहां बसते आए हैं लेकिन आचार्यश्री वहीं नहीं रूके, वे भारत की माटी के कण-कण को उतने ही स्नेह और आत्मीयता से सिंचित करने जो निकले तो उनके साथ-साथ एक कारवां जुड़ता चला गया। आज उनके असंख्य अनुयायी हैं जो देशभर में अपनी चर्या करते हैं। वे लोग जिनकी रूचि इन दिनों उत्तर और दक्षिण के भेदों को रेखांकित । करने में ज्यादा रही है। आचार्यश्री के जीवन क्रम को। देखकर अपनी रुचि की आत्म-समीक्षा, संशोधन और परिमार्जन कर सकते हैं।
आचार्य श्री की एक विशेषता , जो मुझे उनका मुरीद बनाती है, उनका हिंदी के प्रति अगाध प्रेम है। आचार्य जी का कई भाषाओं पर समान अधिकार है, लेकिन बात भाषाओं में हासिल की गई उनकी दक्षता या कौशल की नहीं है, बात इसकी है कि उन्होंने हिंदी के प्रति- उसके राष्ट्रभाषा होने के प्रति अपनी किस हद तक प्रतिबद्धता प्रकट की है। आज जब हम देखते हैं कि हिंदी की राष्ट्रभाषा के रूप में प्रयुक्ति और प्रांसगिकता को लेकर स्वंय कई महानुभावों के मन में सशंय पैदा हो गया है तब आचार्यश्री हिंदी की इस भूमिका को लेकर जितने आश्वस्त और आग्रही हैं, वह महत्वपूर्ण है। इसलिए कि वह उन अहिंदी भाषी राष्ट्रनेताओं की उस महान कड़ी से जुड़ता है जिसने स्वातंत्र्य-पूर्व भारत में राष्ट्रीय चेतना के विकास के लिए हिंदी की जरूरत समझी थी। गांधी हों या तिलक हों या सुभाषचंद्र बोस हों- सभी ने हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में आवश्यक माना था, सिर्फ राजभाषा की तरह ही नहीं। आचार्यश्री के रूप में वह परंपरा अपने प्रामाण्य के साथ पुनः प्रस्तुत हुई है। ऐसा तपस्वी का स्मरण हमारे लिए एक शाश्वत प्रेरणा है।
सभार - प्रबोध जैन
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