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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रस्तावना एवं परिचय

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    Vidyasagar.Guru

    प्रस्तावना 

    विदेशों में मुझसे भारत के विषय में समय - समय पर ढेर सारे प्रश्न किये जाते थे जिनमें भारत में अंग्रेजी शासन से संबंधित ऐसे अनेक प्रश्न होते जो मुझे अपनी मातृभूमि तथा अपने देशवासियों के जीवन और रहन-सहन के अनेक पहलुओं, विशेष कर इतिहास - भूगोल, धार्मिक-आर्थिक और सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर सोचने-विचारने, जानने-समझने और पढ़ने-लिखने के लिए प्रेरित - उद्धेलित करते थे। मेरे अंदर अपने देश के बारे में अधिकतर जानकारी हासिल करने की छटपटाहट ठाठें मार रही थी अतः मैं अध्ययन - मनन और लेखन में जुट गया। इस प्रक्रिया में भारत में अंग्रेजी शासन से संबंधित अध्याय बहुत बड़ा और लम्बा हो गया—इतना कि इसने एक पुस्तक का ही रूप ले लिया इस पुस्तक में मैंने भारत में अंग्रेजी शासन के केवल आर्थिक पक्ष का चित्रण करना ही उचित समझा; क्योंकि अध्ययन के आधार पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि यहाँ इस देश में अंग्रेजी शासन की स्थापना मात्र इसके आर्थिक शोषण के लिए ही हुई थी । अंग्रेज इस देश को 'सोने की चिड़िया' समझते थे औरी उनकी गिद्ध - दृष्टि इस सोने की चिड़िया के परों पर लगी थी । यहाँ के माल—असबाब को लूटकर अपने देश को मालामाल करने का सुखद सपना देखने वाले अंग्रेज अपने लक्ष्य को प्राप्त करने मे पूर्णत: सफल हुए और यह सुनहरा अवसर उन्होंने हाथ से जाने नहीं दिया। अंग्रेजों की क्रूरता - बर्बरता और हिंसक वारदातों - हरकतों से यह देश उतना नहीं टूटा जितना उनके द्वारा की गई आर्थिक लूट के कारण । इस देश की खुशहाली और समृद्धि को जोंक की तरह चूसना अंग्रेज अपना परम धर्म समझते थे और इसे शोषण के दर्द से छटपटाता देखकर खुश होना उनके मिज़ाज में शामिल था । 

     

    यह पुस्तक मूलरूप से मैंने अमरीकियों के लिए अंग्रेजी में लिखी थी जो ‘British-The Magnificient Exploiters of India' के नाम से प्रकाशित हुई थी। तदनंतर श्री गोविन्द सिंह ने पंजाब विश्वविद्यालय के लिए इसका हिन्दी अनुवाद किया जिसे मैंने और मेरी धर्मपत्नी प्रेमलता ने संशोधित कर हिन्दी संस्करण के लिए तैयार किया। 

     

    अंग्रेजी पुस्तक के शीर्षक के अनुसार मैंने इसका हिन्दी नामकरण 'अंग्रेज भारत के शानदार डाकू' किया था क्योंकि तमाम अनुसंधान और अध्ययन के आधार पर यह स्पष्ट था कि भारत में विशाल पैमाने पर लूट-खसोट और धीगा - मुश्ती, जोर-जुल्म और अत्याचार मचाने वाले अंग्रेज क्रूर और निर्दय डाकुओं के अतिरिक्त कुछ नहीं थे। साथ ही एक और विचार मेरे मस्तिष्क में कौंधा कि अंग्रेज वास्तव में यहां इस देश में, जिसे वे 'सोने की चिड़िया' कहते थे, आर्थिक लूट मचाने की मंशा से आये थे - मात्र इसके सुनहरे पंख नोचने के मनसूबे लेकर । अतः मैंने इसका नाम 'सोने की चिड़िया और लुटेरे अंग्रेज' रखना उचित समझा। और अब यह हिन्दी संस्करण आपके हाथों में है । आशा है, नयी-नयी जानकारियों और अंग्रजों की काली करतूतों तथा अनेक वहशियाना कारनामों का चित्रण करने वाली यह पुस्तक मेरे देशवासियों के लिए न केवल ज्ञानवर्द्धक होगी वरन् एक प्रेरणा-स्रोत भी - इस रूप में कि भविष्य में फिर कभी किसी विदेशी लुटेरे की हमारी समृद्धि और खुशहाली पर आँख न लगे और हम अपनी एकता तथा अखंडता को आँच न आने दें। 

     

    सेंट ऐंड्रयूज वैस्ट, ओण्टिरिओ 

    कनाडा 

    सुरेन्द्रनाथ गुप्त 

     

    परिचय 

     

    अंग्रेजी शासन के कम से कम तीन हजार वर्ष पूर्व तक भारत और भौतिक धनाढ्यता समानार्थी शब्द थे, और इसकी धन-सम्पत्ति चिरकाल से अंग्रेज़ों समेत बहुत से विदेशी आक्रमणकारियों के लिए एक चुम्बक समान बनी हुई थी । यह देश बहुत से राष्ट्रों द्वारा उत्सुकतापूर्वक इच्छित ‘इष्ट– भूमि' और 'आशा - भूमि' समझा जाता था। उदाहरणार्थ मिल्टन और शेक्सपियर (दो महान अंग्रेज़ कवियों और लेखकों) के लिए पूर्व - देश धन और उत्पादकता के चरम भण्डार थे, और एलिज़ाबेथ के शासन में और उसके बाद भी भारत को धन-सम्पत्ति और साम्राज्य का रूपक समझा जाता था । पैराडाइज़ लॉस्ट (मिल्टन की प्रसिद्ध पुस्तक) में मिल्टन का वाक्यांश "ऑरमुज़ और इण्ड की धन-सम्पत्ति " बहुत सुप्रसिद्ध है। शेक्सपीयर भारत को "इस संसार के लिए महान सुयोगों की पराकाष्ठा” कहता था, "जिस प्रकार से आने वाले संसार की पराकाष्ठा सदाचार है । " 

     

    हीगल (एक प्रख्यात जर्मन दार्शनिक : १७७० - १८३१) लिखता है: " व्यापक इतिहास की दृष्टि से भारत ' आशा - भूमि' के रूप में आवश्यकतम अवयव रहा हैं पुरातन काल से लेकर अब तक, सारे विश्व के राष्ट्रों ने अपनी इच्छाओं और लालसाओं को इस आवर्श्यजनक देश की निधियों को प्राप्त करने के लिए लगाया है : निधियां जो प्रकृति ने दी हैं - मोती, हीरे और ज्ञान की निधियां | जिस ढंग से ये निधियां आज पश्चिम के पास आ गई हैं, वह सदा ही विश्व के इतिहास में महत्त्वपूर्ण विषय रहा है, जो राष्ट्रों के भाग्य को निर्मित करता रहा है । " २ 

     

    यूरोपियों के लिए, अमेरिका और आस्ट्रेलेशिया के साथ बहुत बडे भाग का जन्म भारत पहुंचने की तीव्र इच्छा और गतिविधियों के कारण से ही हुआ क्योंकि कोलम्बस और अन्य यूरोपीय अनुसंधानकर्ता तो भारत की खोज करना चाहते थे, किन्तु उन्होंने गल्ती से "अमेरिकाओं और आस्ट्रेलेशिया के एक बहुत बड़े भाग को अनायास ही एक नगण्य वस्तु के रूप में प्राप्त किया।”३ गैलवैनो ने लिखा, "यह कहा जा सकता है कि वह (डायज़) मूसा की भांति इष्ट - भूमि भारत को देखने की इच्छा से आया, परन्तु उसके भाग्य में ऐसा पदार्पण नहीं लिखा था।’४ 

     

    एक प्रसिद्ध स्विस लेखक, बज़ोरन लैण्डस्ट्रॉम, जिसने पुरातन मिस्त्रियों से लेकर अमेरिका की खोज तक ३००० वर्ष की साहसी यात्राओं और महान खोज - कर्ताओं की गाथा का अध्ययन किया, अपनी पुस्तक 'भारत की खोज' में लिखता है : " मार्ग और साधन कई थे, परन्तु उद्देश्य सदा एक ही रहा - प्रसिद्ध भारत भूमि पर पहुंचने का, जो देश सोना, चांदी, कीमती मणियों और रत्नों, मोहक खाद्यों, मसालों, कपड़ों से लबालब भरा पड़ा था । "५ 

     

    एक प्रकार से, भारत की ये यथेष्ट प्रशंसा है कि मार्कोपोलो ने 'भारत' शब्द न केवल भारत प्रायद्वीप के लिए प्रयोग किया, अपितु हिन्द महासागर के जावा से लेकर अफ्रीका के समुद्रतट तक सारे क्षेत्र के लिए प्रयोग किया। डायैज़ ने जिस स्थान को 'तूफानों के अन्तरीप' का नाम दिया, उस स्थान का पुनः नामकरण पुर्तगाल के बादशाह ने १४८७ में 'पर्याप्त आशाजनक अन्तरीप' (केप आफ् गुड होप्) रखा क्योंकि "इस स्थान से परे उसे भारत पहुंचने के मार्ग को ढूंढ़ निकालने की पर्याप्त आशा थी।  ̈ 

     

    भारत पहुंचने के मार्ग की दो सौ वर्षो से अधिक तक तलाश करने के पश्चात् एक पुर्तगाली वासको—डी-गामा ने, जिसका 'मार्गदर्शन' मिलिन्दी के राजा द्वारा दिया गया एक नाविक कर रहा था, अन्ततोगत्वा १४९८ में ‘इष्ट-भूमि और आशा - भूमि' को पा लिया ।' वासको-डी-गामा की खोज रोमन युग से लेकर पूर्व की खोज के लिए चिर पुरातन लालसा का अन्तिम सोपान था । और इस खोज ने “यूरोप के न केवल व्यापार और राजनीति के क्षेत्र में, बल्कि सारे नैतिक और बौद्धिक जीवन में” एक क्रान्ति ला दी ।" इसी कारण से आर्नल्ड टोयन्बी ने कहा कि संसार का आर्थिक इतिहास ‘‘तभी समझ में आ सकता है यदि भारत का इसमें योगदान विचारा जाये" क्योंकि 'भारत नितान्त भिन्न आर्थिक क्षेत्र में भी संसार के इतिहास में एक प्रमुख शक्ति रहा है । "११ 

     

    पुर्तगालियों पश्चात् क्रम से डच डेनिश, फ्रांसीसी और अंग्रेज़ भारत के साथ अत्यन्त लाभकारी व्यापार के लिए आपस में स्पर्धा एवं लड़ाई करते रहे । वे भारत से निर्मित वस्तुओं और मसालों को ख़रीद कर यूरोप में बेचकर विशाल लाभ कमाते थे। इन आयातों के बदले यूरोप के पास निर्यात करने के लिए लगभग कुछ भी नहीं था । अतः व्यापार के अन्तर को पूरा करने के लिए यूरोप को भारत में सोने-चांदी की पर्याप्त मात्रा भेजनी पड़ती थी, जो पहले स्पेन ने दक्षिणी अमेरिका से लूटी थी, और जो अन्तत: समस्त यूरोप में बंट गई थी। 

     

    इस प्रकार का व्यापार वाणिज्यवादी यूरोप को अच्छा नहीं लगा, जिसमें सोना और चांदी विदेश जा रहे थे - ब्रिटेन के प्रसंग में, १६०० में ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी बनने के बाद भारत में उसकी १७५७ की पहली विजय तक १५७ वर्ष ऐसा होता रहा । अतः भारत का राजनीतिक नियंत्रण आवश्यक हो गया, ताकि उनको भारतीय आयातों के लिए कुछ देना न पड़ें। यूरोपीय शक्तियों ने, अपनी-अपनी सरकारों की सहायता से, भारत पर अधिकार जमाने के बहुत सारे प्रयत्न किये, परन्तु भारतीय शासकों की अनुमति से प्राप्त कुछेक तटवर्ती नगरों को छोड़ वे असफल ही रहे । उदाहरणार्थ, ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सेनाओं ने १६८७ में "सदा के लिए भारत में एक बड़े पक्के अंग्रेजी राज्य की दृढ़ नीव डालने के लिए '१२ मुगल - साम्राज्य पर आक्रमण किया। इसके बावजूद भी कि जंगी जहाज़ इंगलैंड तक से आए, मुगलों ने इस आक्रमण को इतनी आसानी से कुचल दिया। जैसे कोई मक्खी को मार दे। १७०७ में अन्तिम महत्त्वपूर्ण मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब की मृत्यु के उपरान्त भारत के काफी भाग का राजनीतिक विघटन और विखण्डन हो गया, जिससे यूरोपियों को भारत-विजय की अपनी दीर्घ मनोकामना की पूर्ति का अवसर प्राप्त हुआ । उन्होंने आपस में एवं भारतीयों के साथ लड़ाइयां की । अन्ततोगत्वा अंग्रेज़ भारत पर नियन्त्रण करने में सफल हुए। ब्रिटेन की पहली जीत १७५७ में बंगाल में हुई और अन्तिम १८४९ में पंजाब में। १९४७ तक वे भारत के स्वामी बने रहे । अंग्रेज़ १९० वर्ष में कैसे और क्यों भारत को - समस्त मानव जाति के पांचवें भाग को - समस्त संसार के सर्वाधिक धनी देश से सर्वाधिक निर्धन बनाकर उलट-पुलट कर सका—भारतीय इतिहास की यह अत्यन्त दुःखान्त घटना इन पन्नों में लगभग सारे अभारतीय लेखकों; विशेषकर अंग्रेजों, की साक्षियों के माध्यम से बताई गई है । अंग्रेज़ों द्वारा अपनी ही सरकार की आलोचना को सरलता से रद्द नहीं किया जाना चाहिए। अतः, यदि अन्यथा न गिनती के भारत के हमदर्दों को उनके देशवासी तिरस्कार से 'लघु-इंगलैण्ड समर्थक९३ और 'गोरे बताया जाए, इस पुस्तक से उद्धृत सारे लेखक अभारतीय हैं, जिनमें से बहुधा अंग्रेज़ हैं। इन हब्शी' कहते थे । 

     

    अंग्रेज़ों का झुलसने वाली गर्मी में समुद्रों पार पहाड़ी धरती पर, भारत के दूर-दराज़ ऐसे लोगों के बीच जाने का उद्देश्य जिनकी संस्कृति, भाषा, धर्म, जाति और जलवायु उनसे भिन्न थे, केवल पैसा बनाना था, और कुछ भी नहीं । पुर्तगालियों और स्पेनियों के विपरीत अंग्रेज़, विदेशों में प्रत्येक प्रकार की जोखिम उठाकर तथाकथित विधर्मियों की आत्माओं को बचाने के लिए नहीं गए थे। 

     

    ब्रिटेन के प्रधान मन्त्री विलियम पिट ने १७८४ में भारत में अंग्रेज़ी शासन के दो उद्देश्य बताए। पहला : ‘‘इस देश को जो लाभ भारत के सम्बन्ध से मिल रहे हैं, उनका समर्थन और विस्तार करना” तथा दूसरा : " उस सम्बन्ध को भारतीयों के लिए शुभ बनाना । १५ मुख्य प्रश्न तो यह था कि दोनों में से कौन - सा उद्देश्य सर्वोपरि था ? पिट और उसके उत्तराधिकारियों के १९४७ तक के कारनामों से इसका उत्तर मिलता है कि पहला उद्देश्य सदा पहला ही रहा चाहें वह कुछ भी हो। दूसरों के हितों के स्थान पर अपने हितों को प्राथमिकता देना मानव चरित्र का समान्य आधार है। अंग्रेज़ यदि अपने हितों का विचार न करते, तो वह मानव न होकर कुछ और ही होते । 

     

    इंगलैंड के एक और प्रधानमन्त्री ने १८७५ में भारत के परराष्ट्र मन्त्री के नाते से शब्दों को बिना तोड़े - मरोड़े स्पष्ट कहा : "भारत की हानि बढ़-चढ़कर होती है क्योंकि उसके राजस्व का एक बड़ा भाग बिना कुछ बदले में लिए, निर्यात कर दिया जाता है । भारत का तो लहू तो अवश्य चूसना ही है, परन्तु नश्तर वहां लगाना चाहिए जहां खून घना है या कम से कम पर्याप्त है, न कि उन भागों में जो पहले से ही दुर्बल हैं । ९६ 

     

    अंग्रेजों ने अपने १७५७ से १९४७ तक के शासनकाल में किस प्रकार से भारत का लहू चूस चूस कर उसको सफेद कर डाला - केवल उनकी आर्थिक नीतियों को दृष्टि में रखकर आगे के अध्यायों में इसका विवेचन सामान्य रूप से किया गया है। परोक्ष रूप से यह पुस्तक उन आर्थिक नीतियों के भी उदाहरण प्रस्तुत करती है जो सारे साम्राज्यवादी देशों ने अपने उपनिवेशों में लगभग ७५% मानवता के लिए अपनाई; क्योंकि भारत में अंग्रेजों की भांति, उन सबने भी कम-ज्यादा वैसा ही दु:खद नाटक रचा। इस पुस्तक का उद्देश्य गड़े मुर्दे उखाड़ कर अंग्रेजों या किसी और के विरुद्ध घृणा फैलाना नहीं है, वरना अंग्रेजी शासन से प्रत्यक्ष उत्तराधिकार में प्राप्त भारत की वर्तमान अतिविकराल भौतिक निर्धनता को समझना है । यदि अन्यथा न कहा जाए, इस सारी, पुस्तक में 'भारत' शब्द का अर्थ वर्तमान भारत, पाकिस्तान और बंगला देश है । १९४७ में भारत का वर्तमान भारत और पाकिस्तान (बंगला देश सहित ) में विभाजन और स्वतंत्रता दोनों ही ब्रिटिश - संसद की समवेत क्रियाएं थीं। तत्पश्चात् १९७१ में बंगला देश पाकिस्तान से अलग हो गया। 

     

    इस पुस्तक में केवल १७५७ से १९४७ तक के अंग्रेजी राज का वर्णन किया गया है। किन्तु पहला अध्याय अंग्रेज़ों से पूर्व काल की पृष्ठभूमि को प्रस्तुत करता है, जो अंग्रेज़ी शासन के आर्थिक परिणाम को समझने के लिए एक प्रकार से आवश्यक है। 

     

    * काफी समय तक (१८१२ तक) ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने ईसाई धर्म प्रचारकों तक को भी कई कारणों से भारत में आने की आज्ञा नहीं दी, जिनमें एक कारण यह भी था कि ऐसा करना हिन्दू धर्म में हस्तक्षेप करना होगा जो "विशुद्धतम सदाचारी और पक्के नैतिक पुरुष" पैदा करता है। 

     


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