आय
भारत में अंग्रेज़ सरकार की आय के मुख्य साधन मालगुज़ारी और नमक तथा अफीम पर लगे कर थे । आयकर केवल १८८६ से लागू किया गया । कृषि को सहायता देने के बहाने महाजन भू-स्वामी और बागान - मालिकों को जिन सबका अस्तित्व ब्रिटेन के लाभ में था, करों से मुक्त किया गया। इसके अतिरिक्त आयकर की दरें इसलिए नहीं रखी जा सकती थीं, क्योंकि ऐसा करने से अधिकांशतः सैन्य व असैन्य अंग्रेज़ अधिकारियों पर ही आघात होता ।
बहुसंख्यक भारतीयों के शाकाहारी भोजन एवं यहां की जलवायु के दृष्टिकोण से नमक स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त आवश्यक था और है। यही कारण था कि अंग्रेज़ी शासन के पूर्व लोगों को अपने निजी या व्यापारिक उद्देश्यों के लिए नमक बनाने की खुली छूट थी । ईस्ट इंडिया कम्पनी ने नमक के उत्पादन और बिक्री पर एकाधिकार करके इस छूट को समाप्त कर दिया और करों में भी अतिशय विलक्षण वृद्धि कर दी । उदाहरणार्थ, ३ अप्रैल १७८९ "जीवन की केवल एक आवश्यकता (नमक) से एक इंग्लैंड में नमक पर लगे कर की राशि औसतम में 'कलकत्ता गज़ट' के अनुसार १७८९ में अतिविशाल धनराशि एकत्रित की गई २००,००० पौंड है, जोकि भारत से लगभग चोथाई है । ३३७ उन्नीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक के अन्त में चार्ल्स ग्रांट ने हिसाब लगाया कि बंगालवासियों को एकाधिकृत नमक का मूल्य उसकी लागत मूल्य से लगभग २८८ प्रतिशत अधिक देना पड़ता है। सन् १८४४ में उत्तर - पश्चिमी राज्य प्रान्त के लेफ़्टीनेंट गवर्नर ने गवर्नर-जनरल को लिखा कि नमक पर लगाये गये कर के कारण इसकी कीमतों में ३२०० प्रतिशत वृद्धि हुई । कम्पनी के प्रारम्भिक नियंत्रण - काल की तुलना में, सन् १८४४ में नमक से प्राप्त राजस्व में ३००० प्रतिशत की वृद्धि हुई थी अर्थात, १००,००० पौंड से बढ़कर राजस्व लगभग ३२५,००० पौंड हो गया था। नमक व्यापार की अंग्रेज़ों की इस अनुचित नीति के बारे में, चार्ल्स ग्रांट लिखता है :
" जबकि ऐसे अत्याचार, जैसे कि अफ़गान युद्ध, में किये गए हैं; जबकि सेनापतियों को, उन नागरिक कर्तव्यों के लिए जो कभी नहीं निभाये गए और न ही उन द्वारा निभाये जाने की कभी आशा की गई, कुछ ही वर्षों में पांच-पांच लाख पौंड जेब में डालने दिया गया; जबकि सरकारी अधिकारियों को वेतन बादशाही स्तर पर, अत्यन्त सुसंस्कृत और फलते-फूलते देशों से भी कहीं अधिक, दिये जाते हैं, और जबकि ब्रिटेन की सरकार और बहुत से व्यर्थ व्यय करती है -- ऐसी स्थितियों में निःसन्देह ऐसे कर को हटाना असंभव है, चाहे वह कितना ही अन्यायपूर्ण हो, और चाहे वह देश के उद्योग के लिए कितना ही घातक हो । लोगों द्वारा झेले गए कष्टों के वर्णन का प्रयत्न करना और सरकार के नमक विभाग के मातहतों द्वारा किए जा रहे दमनों, लूट-खसोट और डकैतीपूर्ण कृत्यों का वर्णन करना मुझे अपनी सीमाओं से बहुत परे ले जायेगा।"
जबकि निर्धनता बढ़ती जा रही थी और दुर्भिक्ष प्रचण्ड होते जा रहे थे, नमक तथा अन्य वस्तुओं पर कर बढ़ाये जा रहे थे। डब्ल्यू० सी० ब्लंट ने अनुमान लगाया कि सन् १८८३ तक नमक राजस्व बढ़कर ६० लाख पौंड हो गया था और नमक की कीमत अपने लागत मूल्य से १२०० से २००० प्रतिशत तक बढ़ चुकी थी । २६ नवम्बर, १८८३ को ब्लंट ने अपनी डायरी में लिखा, "पुलिस को दिन हो या रात, घरों में घुसने का अधिकार है, और उनके दोषारोपण पर कि वहां भूमि से निकाला गया थोड़ा-सा भी नमक है, मकान मालिक पर पन्द्रह रुपए जुर्माना या एक मास का कारावास हो सकता है। इस तरह के अनेक झूठे अभियोग लगाये जाते हैं और पुलिस द्वारा किसानों का दमन किया जाता है। यदि ग्रामवासी अपने पशुओं को चराने के लिए किसी ऐसे स्थान पर भेजते हैं जहां भूमि पर प्राकृतिक रूप से नमक पाया जाता है, तब मालिक पर जुर्माना लगाया जाता है या उसको कैद की सजा दी जाती है और नमक को ढेरियों में फेंक कर जला दिया जाता है। नमक की कमी के कारण पशु मर रहे हैं और लोगों को बहुत कष्ट है।"
ब्लंट आगे कहता है, "नमक कर का दमनकारी लक्षण... यह शिकायत का एक बहुत बड़ा विषय है।...दक्षिण में इसका दमन और भी क्रूर है, क्योंकि वहां की भूमि पर तो प्राकृतिक रूप से नमक पाया जाता है; किन्तु लोग इसके अभाव में भूखे रहते हैं यह देखते हुए भी कि नमक बहुतायत में उनकी आंखों के सामने विद्यमान है। गुज़रते हुए बहुत से ग्रामों में मुझे किसानों ने बतलाया, कि वे अब अपने पशुओं को रात्रि में ऐसे स्थानों पर ले जाने तक के लिए भी विवश हो गए हैं, जहां नमक पाया जाता है ताकि वे चोरी-छिपे थोड़ा बहुत नमक चाट सकें। परन्तु यदि पहरेदार उनको इस प्रकार कानून तोड़ते हुए पकड़ लें तो उन पर टूट पड़ते हैं और हाल ही में पुलिस को यह आदेश दिये गए हैं कि वे भूमि के ऊपर प्राकृतिक रूप से पाये जाने वाले नमक को ढेरों में इकट्ठा करके नष्ट कर देवें मैंने सुना है कि कुछ अन्य भागों में आहार की इस कमी के कारण लोगों में कोढ़ का प्रकोप फैला है, विशेषतया बम्बई के दक्षिण के समुद्र तटीय भागों में, रोग अधिक फैला हुआ बताया जाता है।
सन् १९३६–३७ में नमक कर से कम से कम ६६ लाख पौंड आय हुई जो मालगुज़ारी का चौथाई भाग था। इस लम्बी दमन कथा का सार यह है कि इसके बावजूद भी, कि भूतपूर्व ब्रिटिश प्रधानमन्त्री रैम्जे मैक्डॉनल्ड ने नमक कर को एक अपहरण और दमन घोषित किया था, इस कर को १९४६ में आकर ही नेहरू की उपाध्यक्षता में अन्तरिम सरकार ने हटाया । २३८
अफ़ीम और मद्य पर भी ब्रिटिश कम्पनी और भारत सरकार का एकाधिकार था ! दुर्भिक्ष के दिनों में भी किसानों को भारी जुर्माना, उत्पीड़न और कोड़े लगा कर खाद्यान्न के स्थान पर पोस्त उगाने के लिए विवश किया जाता था। किसानों को पेशगी दी जाती और उन्हें सरकार द्वारा निश्चित की गई कीमतों पर अफ़ीम की निर्धारित मात्रा सरकार को देनी पड़ती थी। फ्रीमैन कहता है, "पेशगी लेने और अपनी भूमि के एक भाग में अफ़ीम उगाने को विवश करने के लिए किसान को चपरासियों की टोली द्वारा अतीव पीड़ा दी जाती है।... अफीम उगाने वाले ज़िलों में मेरी विस्तृत भूमि रही है । मैने किसानों पर जुल्म होते देखे हैं और अपने आपको उत्पीडन से बचाने के लिए किसानों को मेरी भूमि पर भी और यहाँ तक की मेरे घर के होते की भूमि पर भी, जिसको मैंने किसी और उद्देश्य के लिए उनको दिया था, अफीम उगाने पर विवश करते हुए देखा है । "३३९
इस प्रकार के बर्बर कृत्यों के पीछे अंग्रेज़ों द्वारा अत्यधिक लाभ कमाना था (अफ़ीम का विक्रय मूल्य इसकी उत्पादन लागत से २०० प्रतिशत से भी अधिक था), जोकि भारतीयों को अफ़ीम बेचकर एवं चीनियों और बर्मियों से अफीम का अवैध व्यापार करके अंग्रेज़ कमाते थे । इसके विरुद्ध भारतीयों ने कड़ा विरोध किया परन्तु कोई भी लाभ नही हुआ । उदाहरणार्थ, सन् १९२१ में केन्द्रीय विधान परिषद ने भारत में अफीम उगाने या बेचने का निषेध करने के लिए एक प्रस्ताव पास किया, परन्तु अंग्रेज़ों ने इस पर अमल करने से इनकार कर दिया । ३४० अनेक विश्व अफ़ीम सम्मेलनों में इंग्लैंड ने भारत में अफीम को त्यागने से इनकार किया, ३४१ यद्यपि इंग्लैंड में अफीम के मुक्त प्रयोग पर प्रतिबंध था । (ब्रिटिश कानून के अनुसार अफीम का ‘जहर' कहा जाता था)। अंग्रेज़ों ने पूरे भारतवर्ष में खास-खास स्थानों पर अफीम और मदिरा की दुकानें खोलीं और " इस धनलोलुप और अमानवीय नीति के विरुद्ध सारे हिन्दू - विरोधों को रद्द कर दिया। भारतीय जनता को अफीम बेचने की धुन में अनगिनित लोगों को सर्वनाश कर दिया गया।”३४२ यह एक व्यापक रूप से सर्वमान्य तथ्य है कि “भारत में अंग्रेज़ी शासन के दौरान मदिरापान और नशीली दवाओं का प्रयोग असामान्य रूप में बढ़ा। " ३४३
भारत, इंग्लैंड और स्कॉटलैंड में आय और करों के सरकारी आंकड़ों की तुलना करने के बाद सन् १९००-०१ के बारे में वि० डिग्बी का निष्कर्ष था, जो निष्कर्ष भारत में अंग्रेज़ी शासन के आद्यंत लगभग सत्य रहा; कि “आय के अनुपात में ब्रिटिश राज्य के भारतीय नागरिक पर स्कॉटलैंड निवासी की अपेक्षा चार गुने से भी अधिक और इंग्लैंड की अपेक्षा तीन गुने से अधिक कर लगाया जाता है। "३४४
ऐसी सरकार को कोई क्या कहे, जो एक सर्वाधिक निर्धन देश के सर्वाधिक निर्धन व्यक्तियों द्वारा प्रयोग किये गए मिट्टी और पत्तों पर भी कर लगाती है ? स्वाधीनता से केवल १३ वर्ष पहले हमें बताया जाता है कि, "देश के निर्धनतम भागों में लोग इतने छितरे रहते हैं कि सरकार की समझ में नहीं आता कि किस वस्तु पर कर लगाये । अतः प्रशासन के वन-विभाग के अन्तर्गत मध्य भारत के ग्रामीणों की भैंसों पर कर लगाया जाता है। केवल यहीं नहीं, अपनी झोंपड़ियों को साफ़ रखने के लिए सफेद मिट्टी के प्रयोग पर, और प्लेटों के अभाव में प्रयोग किए गए पत्तों पर भी कर लगाया जाता है । ३४५
व्यय
इन भारी-भरकम करों का प्रयोग नज़राना (जो १८५० के बाद गृह-शुल्क कहा गया) चुकाने, सेना, पुलिस और अन्य सरकारी सेवाओं के खर्चे करने और राष्ट्रीय ऋण को चुकाने में होता था ।
इस बात का वर्णन हम पहले कर चुके हैं कि किस प्रकार ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी और उसके कर्मचारी भारत से विशाल धनराशि ऐंठकर अपने देश ले गये, जिसके कारण इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति सम्भव हो सकी। यह भी कहा जा चुका है कि किस तरह भारतीय राजस्व का एक बड़ा भाग अंग्रेज़ भारत में सामान खरीदने पर व्यय करते थे, जिसको वे अपनी जेब से एक खोटी दमड़ी भी खर्च किए बिना, यूरोप में बेचकर मनमाना पैसा कमाते थे । बदले में भारत को बहुत लम्बे समय तक न तो किसी प्रकार की सामग्री अथवा सोना-चांदी, या सेवाएं ही प्राप्त हुई ओर भारत को जब कुछ मिला तो वह उसका जो उसने दिया था बहुत ही कम अंश था।
भारतीय सम्पदा के अवशोषण की यह प्रक्रिया अंग्रेज़ी राज के अन्त तक दिन पर दिन बढ़ती चली गई। इस नज़राने या तथाकथित गृह-शुल्क पर एक सम्पूर्ण ग्रन्थ लिखा जा सकता है जिसको तो वास्तव में ब्रिटिश ज़ज़िया कहा जाना चाहिए। ये गृह-शुल्क ऐसे शुल्क थे जिनका भुगतान भारत को इंग्लैंड में अपने राजस्व से एवं अथवा आयात के मुकाबले में निर्यात की अधिकता से चुकाना पड़ता था । जैसा कि पहले कहा जा चुका है, भारत के निर्यात, कमरतोड़ मालगुज़ारी और इंग्लैंड में गृह - शुल्क चुकाने के लिए मजबूरी के निर्यात थे । सन् १८५७ के विद्रोह की बहुत थोड़ी-सी अवधि के अतिरिक्त भारत से इंग्लैंड को निर्यात सदा भारत को इंग्लैंड से आयातों की अपेक्षा अधिक थे । परन्तु भारत को लाभ नसीब नहीं हुआ । यह लाभ इंग्लैंड में भारत के तथाकथित गृह-शुल्कों की पूर्ति के मद में मान लिया जाता था ।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी के एक विशिष्ट निदेशक कर्नल साईक्स ने (इंग्लैंड के) लोकसदन की प्रवर समिति के सम्मुख सन् १८४८ में इस 'नज़राने' (उसी के यह शब्द है) का अनुमान ३३ से ३७ लाख पौंड प्रतिवर्ष अनुमान लगाया। और उसने यह सत्य ही कहा कि " भारत इस नज़राने का भुगतान आयातों से अधिक निर्यात द्वारा ही कर सकता है । ३४६ जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि पौंड की गिरती क्रय-शक्ति को पूरा करने के लिए आज इन आंकड़ों को कम से कम सौ से गुणा करना चाहिए।
ब्रिटिश उपनिवेशों के एक प्रख्यात इतिहासकार ने इसी समिति के आगे गृह-शुल्कों की अथवा १८१४–१५ से १८३७-३८ तक भारतीय राजस्व से इंग्लैंड में खर्च की गई राशि की, एक सूची प्रस्तुत की। इन गृह-शुल्कों का लगभग पांचवां भाग इंग्लैंड से भारत को भेजी जाने वाली सामग्री के लिए था। मौंट - गुमरी मार्टिन ने कहा, " शेष राशि भारत के राजस्व पर पूर्णत: भार है, और जिसके लिए कभी भी भारत को किसी प्रकार का प्रतिफल नहीं मिला,... यह प्रदर्शित करने के लिए एक अद्भुत हिसाब यह है कि पिछले तीस वर्षों में तीस लाख प्रतिवर्ष के हिसाब से अंग्रेज़ी - भारत से ली गई अनुमानित धनराशि १२ प्रतिशत चक्रवृद्धि ब्याज (भारतीय दर) के हिसाब से ७२३, ९९७, ९७१ पौंड बैठती है; अथवा यदि हम इसे पचास वर्षों में २० लाख प्रतिवर्ष के हिसाब से जोड़ें तो भारतवर्ष से आने वाली यह फलित पूंजी की राशि अविश्वसनीय ८४० करोड़ पौंड हो जाती है । ३४७
भारतवर्ष में एक प्रख्यात अंग्रेज़ी प्रशासन जॉन सलीवान ने, जो १८०४ से १८१४ तक भारत में अनेक उच्च पदों पर रहा, १८४८ में उसी समिति के सम्मुख साक्षी दी। उसने अंशत: कहा: "उस (भारत) के अपने वंश के शासकों के राज्य में, देश में एकत्रित सारे के सारे राजस्व को देश के भीतर ही खर्च किया जाता था; परन्तु हमारे शासन में राजस्व का एक बड़ा भाग प्रतिवर्ष वहां से परिशोषित कर लिया जाता है, जिसके बदले में किसी प्रकार की कोई वस्तु नहीं दी जाती। पिछले साठ-सत्तर वर्षों से यह परिशोषण जारी है और घटने से स्थान पर बढ़ ही रहा है।.. यह पद्धति लगभग एक स्पंज की भांति कार्य करती है; जो गंगा के किनारों से प्रत्येक अच्छी वस्तु का अवशोषण कर थेम्स नदी के किनारों पर निचोड़ देती है।...उन करों को लगाने में भारत की जनता की कतई कोई आवाज़ नहीं है, जो उसे चुकाने के लिए कहा जाता है, न ही कोई कानून बनाने में उनकी आवाज़ है जिनका उन्हें पालन करना पड़ता है; और न ही उनका अपने देश के प्रशासन में किसी प्रकार का कोई वास्तविक भाग है। उन्हें इन अधिकारों से धृष्टतापूर्वक और अपमानजनक बहाने लगाकर वंचित कर दिया जाता है कि वे इस प्रकार की ज़िम्मेदारियों के लिए दिमाग़ी और नैतिक तौर पर अयोग्य हैं।"
१८३० के दशक में अंग्रेज़ी - भारत के योग्यतम सरकारी अधिकारियों में से एक एफ० जे० शोर था जिसने सन् १८३७ में दो खंडों में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'नोट्स ऑन इण्डियन अफेयर्स' में अपने भारतीय अनुभवों के विषय में लिखा है : 'परन्तु भारत के उन्नत दिन अब समाप्त हो गये हैं, जो कमी उसकी सम्पदा थी उसका एक बहुत बड़ा भाग अवशोषित कर लिया गया। उसकी शक्ति कुशासन के क्रूर शिकंजों में जकड़ दी गई है और लाखों लोगों के हितों का मुट्ठीभर लोगों के लाभ के लिए बलिदान कर दिया गया है।... अंग्रेज़ी शासन की छत्रछाया में धीरे-धीरे भुखमरी की ओर बढ़ रहीं भारतीय जनता और समूचे देश की दरिद्रता ने उन (पुराने व्यापारी राजघरानों) का पतन शीघ्रता से ला दिया है।"
"अंग्रेज़ सरकार की पीसने वाली लूट-खसोट ने लोगों और देश को ऐसी चरमसीमा तक दरिद्र व असहाय बना दिया है जिसका लगभग कोई मुकाबला नहीं है । ३४९
मेजर विनगेट ने, जो बम्बई सरकार में अनेक ऊंचे पदों पर रह चुका था, सन् १८५० में 'आवर फाइनेंशियल रिलेशंज़ विद इण्डिया' नामक पुस्तक में लिखता है : "यह है उस नज़राने का स्वरूप जिसे हम भारत से इतने लम्बे समय से ऐंठते रहे हैं ।... इस व्याख्यान से भारतीयों पर नज़राने के क्रूर दमानात्मक प्रभाव की एक हल्की-सी धारणा बनाई जा सकती है ।... हम चाहे न्याय के पलड़े पर तोलें, चाहे हम अपने स्वार्थी की दृष्टि से देखें, भारतीय नज़राना मानवता के सामन्य बुद्धि के और राजनीति - शास्त्र के माने गये सिद्धान्तों के विरुद्ध है । "३५०
यह तो १८५७ से पूर्व घटित कहानी का केवल प्रारम्भ ही है। सन् १८५७ के बाद अंग्रेज़ों को दिए जाने वाले इस 'क्रूर' एवं 'दमनकारी' नज़राने की मात्रा दिन दूनी रात चौगुनी दर से बढ़ती गई । सन् १८५७ में इसकी मात्रा ३५ लाख पौंड थी । और इसके लगभग चालीस वर्ष बाद, अंग्रेजों के प्रत्यक्ष शासनाधिकार में बढ़कर सन् १९००-०१ में १,७०,००००० पौंड हो गई, जिसमें वह रकम शामिल नहीं थी जो भारत में नियुक्त यूरोपीय अधिकारियों द्वारा विदेश भेजी जाती थी। विदेश भेजी जाने वाली इस रकम को भी यदि मिलायें तो भारत से अवशोषित सम्पत्ति उसके असली राजस्व का लगभग आधी थी, जबकि इस काल में लोगों की आय में निश्चय की किसी प्रकार की वृद्धि नहीं हुई, बल्कि शायद हास ही हुआ। इस वार्षिक नज़राने का भिन्न-भिन्न लेखकों ने भिन्न-भिन्न अनुमान लगाया है। १८८६ में इंग्लैंड के एक नेता एच० एम० हिन्डमॅन ने आंकड़ों का सारांश देने के बाद लिखा : "इस प्रकार हमारे पास ३० करोड़ पौंड का मूल अंतर है और २० वर्षों में १२ करोड़ पौंड का अवशोषण है जो कुल मिलाकर ४२ करोड़ पौंड या २ करोड़ १० लाख पौंड प्रति वर्ष बनता है। यह प्रदर्शित करना अधिक सरल होगा कि वास्तविक अवशोषण इससे भी बहुत अधिक है।.. भारत का निर्यात - व्यापार देश के अत्यधिक अशक्तकारी अवशोषण को चित्रित करता है। " ३५१
जिस 'बेसब्री से अंग्रेज़ भारत का चरमतम शोषण कर रहे हैं', उसका वर्णन करने के बाद सन् १८८२ में ए० जे० विल्सन ने लिखा: “मैं एक बार पुनः दोहराना चाहता हूं कि हर प्रकार का खर्च - समस्त सार्वजनिक कार्यों का व्यय सारे गारण्टीकृत ब्याज और रेलवे के लाभांश, राज्य-ऋणों के ब्याज एवं राज्य के सिविल और सैनिक खर्चे-सारा का सारा बिना किसी कटौती अथवा कमी के निश्चित रूप से किसान देता है जैसे कि मानो देश से बाहर ले जाई गई सम्पत्ति के प्राप्तकर्ताओं ने घर-घर जाकर एक-एक दमड़ी इकट्ठी की हो। इसके साथ वह हमारे उच्च पदाधिकारियों - गवर्नरों और गवर्नर-जनरल, सर्वोच्च परिषद के सदस्यों, जो जान-बूझकर मन्त्रणा करने का बहाना करते हैं, सेनापतियों और समूची सेना, न्यायाधीशों और कलेक्टरों को भारत में वेतन देने के अतिरिक्त, उनको अपने देश के बाहर ३ करोड़ पौंड प्रतिवर्ष से भी अधिक भेजना पड़ता है। और, इस सबके बदले में उसे क्या मिलता है ? आशावादियों की अपनी स्वीकृति के अनुसार भी भुखमरी और अकालग्रस्त मृत्यु... अंग्रेज़ों का भारत में आरम्भ से लेकर अन्त तक का आचरण मूर्खताओं और अपराधों से पूर्ण है ।३५२
एडिनबरो की यंग स्कॉट्स सोसायटी के सम्मुख ३१ अक्टूबर, १९०६ को विल्सन ने एक भाषण में कहा कि सन् १८८२ से लेकर अब तक अवशोषण कम से कम ३,०००,००० पौंड बढ़ गया है और सम्भवतया ५,०००,००० पौंड से ७,०००,००० पौंड भी बढ़ा हो सकता है।'' विल्सन अवशोषण की साढ़े तीन करोड़ की रकम को बहुत कम बतलाता है । भारत ओर इंग्लैंड के लिए इसका क्या अर्थ है ? ".... भारतीयों द्वारा दिये गए करों का अधिकांश भाग, जिसको हमारे अधिपति होने के नाते जीवनपर्यन्त प्रतिवर्ष देना पड़ता है, उनके ऊपर महाभार है जो उनको दरिद्र और हमें धनी बनाने वाला है । " ३५३
सन् १८९० में हेनरी कॉटन ने भी भारतीय सम्पदा के अवशोषण को भारत की निर्धनता का एक कारण बताया। इस अवशोषण के बारे में वह लिखता है : "यह एक संयत संगणन है कि भारत से ब्रिटेन को अवशोषित वार्षिक धनराशि कुल मिलाकर ३ करोड़ पौंड होती है । ३५४
सन् १९०१ में विलियम डिग्बी (ब्रिटेन के संसद सदस्य) ने लिखा, "शताब्दी के पिछले तीस वर्षों में औसत अवशोषण ३ करोड़ पौंड वार्षिक अथवा तीस वर्षों में बिना ब्याज के १०० करोड़ पौंड से कम नहीं हो सकता । "३५५
इस भारी आर्थिक अवशोषण का भारत और ब्रिटेन पर क्या प्रभाव पड़ा ? डिग्बी उत्तर देता है : ''यदि हम अपने ही देश की १७६९ से १८०० तक और १८६९ से १९०० की अवधि के बीच एक बार पुनः तुलना करें तो हमें ज्ञात होता है कि इस अवधि में हमारा देश उस गति से अधिक सम्पन्न होता गया जिस गति से भारत निर्धनताग्रस्त । 'निर्धनताग्रस्त ?' नहीं-नहीं, इससे भी अधिक बुरा, दुर्भिक्षग्रस्त। इस तुलना को और आगे ले जाएं तथा इस बात पर ध्यान दें कि भारत से इंग्लैंड द्वारा अवशोषित सम्पत्ति का, जिसके बदले में भारत को कुछ नहीं दिया जाता, भारत में अकाल की परिस्थितियां और इंग्लैंड में अद्भुत सम्पन्नता को लाने में कम योगदान नहीं है। वास्तव में, यही आर्थिक अवशोषण भारत की खेदजनक अवस्था का मुख्य
कारण है।' '३५६
अब हम उस राष्ट्रीय ऋण की चर्चा करेंगे जो गृह - शुल्कों का केन्द्र-बिन्दु था और भारतीय सम्पत्ति के अवशोषण का एक बड़ा साधन था ।
'भारत के राष्ट्रीय ऋण से तात्पर्य उस ऋण से था जिसे भारतीय जनता समग्र रूप में स्वयं को या इंग्लैंड का देनदार थी। भारत के राष्ट्रीय ऋण का अधिकांश भाग ब्रिटेन को देय था। उदाहरणार्थ, सन् १८९० में कुल राष्ट्रीय ऋण का केवल १०० प्रतिशत भारत और ९० प्रतिशत ब्रिटेन को, देय था ।” ३५७
राष्ट्रीय ऋण स्वयं में कोई बुरा नहीं यदि इसका उपयोग लोक-कल्याण कार्यों के लिए किया जाता। परन्तु यदि इसका उपयोग अंशत: या पूर्णत: विदेशियों के हित के लिए किया गया, जैसी कि भारत के राष्ट्रीय ऋणों की वस्तुस्थिति थी तो उसका परिणाम अन्तत: दरिद्रता और अकालों के सिवाय कुछ भी नहीं होगा। ब्रिटिश पूर्व के भारत में कोई भी राष्ट्रीय ऋण नहीं था। हिन्दू और मुस्लिम राजाओं ने यदि कभी-कभार उधार लिया भी तो अपने स्वयं की साख पर लिया, न कि राज्य की साख पर, जैसा कि आधुनिक काल के पूर्व योरप में लिया जाता था।
किन्तु भारत के राष्ट्रीय ऋण की शुरुआत अंग्रेज़ी राज्य के साथ हुई । सन् १८३३ में ईस्ट इण्डिया कम्पनी का व्यापार पर एकाधिकार पूर्णतया समाप्त कर दिया गया; इसके बाद कम्पनी केवल एक प्रशासनिक निकाय थी । परन्तु इसका अर्थ यह नहीं था कि इसके भागीदारों को लाभांश देने बन्द कर दिये गए । कम्पनी के व्यावसायिक एकाधिकार को समाप्त करते समय ब्रिटेन सरकार ने नियम बनाया कि कम्पनी के हिस्सेदारों को भारतीय राजस्व अर्थात भारतीय जनता पर लगाये गए करों में से १०1⁄2 प्रतिशत लाभांश मिलता रहेगा। इस प्रकार भारतीय जनता ने १८३३–५८ तक कम्पनी के अंग्रेज़ अंशधारियों को लाभांश रूप में १,५१,२०,००० पौंड दिए । ३५८
सन् १७९२ में राष्ट्रीय ऋण ७०,००,००० पौंड था जो १८३६ में बढ़कर ३,३०,००,००० पौंड हो गया। इसके मुख्य कारण कम्पनी द्वारा देश के भीतर व बाहर किये जाने वाले अभियानों पर खर्चे और देश से बाहर स्थापित कम्पनी के प्रतिष्ठानों पर किये जाने वाले खर्चे थे। दूसरे शब्दों में, भारतीय जनता को ऐसे ऋणों का बोझ उठाना पड़ा और उन पर ब्याज भी देना पड़ा, जिनसे अंग्रेज़ अपने व्यवसाय वाणिज्य और साम्राज्य के लिए भारत व अन्य देशों को जीत सकें।
इसके बाद अफगानिस्तान, वर्मा और पंजाब के ब्रिटिश साम्राज्यिक और व्यावसायिक हितों के लिए युद्ध किये गए। भारतीय ब्रिटिश सरकार को विदेशों के साथ युद्ध करने में ब्रिटिश सरकार की नीति का पालन करना पड़ता था । इसके बावजूद भी कि भारत की सरकार तक ने और कुछ उदार हृदय के अंग्रेज़ राजनेताओं ने इस बात का जोरदार प्रतिवाद किया, फिर भी इन महंगे युद्धों का खर्चा पूर्णतया केवल भारतीय करदाताओं को ही उठाना पड़ा।
ऋण का दूसरा महत्त्वपूर्ण कारण था - सर्वाधिक महंगा नागरिक एवं सैन्य प्रशासन जो लगभग पूर्णतया उच्चतम वेतन प्राप्त अंग्रेज़ पदाधिकारियों द्वारा ही चलाया जाता था जिसका वर्णन हम आगे करेंगे। इन युद्धों एवं अंग्रेज़ पदाधिकारियों पर इतने भारी फिजूल खर्चे करने के बाद भी अंग्रेज़ी के आरम्भ से सन् १८५८ तक भारतीय राजस्व भारतीय व्यय से अधिक ही था। एक प्रख्यात भारतीय अर्थशास्त्री, जिन्होंने अपना निर्णय सरकारी आंकड़ों के आधार पर दिया, कहते हैं, “यदि भारत को अपने स्वामियों को किसी प्रकार का नज़राना या गृह-शुल्क न देना पड़ता, तो १८५८ में ब्रिटिश ताज को सौंपने तक भारत पर राष्ट्रीय ऋण न होता, बल्कि उसके पक्ष में विशाल बकाया रोकड़ होता । कम्पनी के एक शताब्दी के शासन में सारे का सारा राष्ट्रीय ऋण इंग्लैंड में किये गए खर्चे को भारत के नाम लिखने के कारण निर्मित हुआ, जिसके लिए न्याय और औचित्य की दृष्टि से भारत को ज़िम्मेदार नहीं ठहराना चाहिए था ।... ब्रिटेन ने गृह- शुल्कों से चित्रित किये जाने वाली राशि से कहीं अधिक लाभ भारत से उठाये थे; न्याय और औचित्य की दृष्टि से ब्रिटेन को वे शुल्क अदा करने थे; और नैतिक और संगत रूप से भारत को १८५८ में कोई राष्ट्रीय ऋण नहीं था, बल्कि उल्टे उसके खाते में अधिक अदायगी के कारण विशाल राशि जमा होनी चाहिये थी । "३५९
सन् १८३६ में भारत का राष्ट्रीय ऋण ३३० लाख पौंड था, जो १८५७ के तथाकथित 'विद्रोह' तक बढ़कर ५९० लाख पौंड हो गया । इस 'विद्रोह' के कारण भारतीय करदाताओं पर १ करोड़ पौंड से भी अधिक का बोझ लाद दिया गया। परिणामस्वरूप, ३० अप्रैल, १८५८ को भारत का कुल ऋण ६ करोड ९५ लाख पौंड तक पहुंच गया । ३६०
'विद्रोह' के दमन में कुल ४ करोड़ पौंड का खर्चा आया । इस खर्चे में ब्रिटिश सेना पर खर्च की गई वह राशि ही शामिल नहीं थी, जबकि वह सेना भारत में भी, अपितु भारत के लिए जलयात्रा करने से ६ मास पूर्व जब वह इंग्लैंड में ही थी । ३६९ इस सेना का प्रयोग उन लोगों के दमन के लिए किया गया जिन्होंने अंग्रेजों को उनका तथाकथित 'बोझ' दूर करने के लिए कहने का साहस किया था। ब्रिटेन ने कभी भी भारतीय सेनाओं के लिए एक पैसा तक भी नहीं दिया, जबकि भारतीय सेनाएं देश से बाहर ब्रिटेन के लिए लड़ती थीं । जब ब्रिटेन की सेनाएं भारतीय जनता को दबाने के लिए यहां आयीं, ब्रिटेन ने उनका कोई खर्चा नहीं उठाया, बल्कि भारत के लिए जहाज में रवाना होने से छः मास पहले से ही भारतीयों ने उनका खर्चा उठाया। तात्पर्य यह है कि भारतीयों को दोनों ही स्थितियों में अंग्रेज़ों को भुगतान करना पड़ा।
'विद्रोह' के बाद ब्रिटिश सरकार ने कम्पनी को एक करोड़, बीस लाख में खरीदकर भारत का प्रशासन प्रत्यक्षत: अपने हाथ में ले किया। इस क्रय मूल्य को ब्रिटिश करदाताओं ने नहीं, बल्कि भारतीय करदाताओं ने कम्पनी को दिया । अंग्रेज़ों द्वारा भारत को खरीदने के लिए, भारत ने ही अंग्रेज़ों को अपना धन दिया। केवल इतना ही नहीं भारत ने ब्रिटिश सरकार के उन ऋणों को भी चुकाया, जो उसने कम्पनी से उधार लिए थे, क्योंकि सन् १७६९ के अधिनियम के अधीन कम्पनी को ४ लाख पोंड वार्षिक धनराशि ब्याज पर ब्रिटिश सरकार को देनी होती थी । "३६२
यह वार्ता यहीं पर समाप्त नहीं हो जाती। ब्रिटेन या बाकी संसार में कहीं भी कम्पनी द्वारा लिखे गए सभी ऋणों, इकरारनामों और ऋणपत्रों को 'केवल भारत के राजस्व से ही आदेय' करार किया गया। इन भारी और अनुचित ऋणों को अदा करने के लिए अंग्रेज़ों द्वारा मुख्यत: अंग्रेज़ों से ही उधार लिया गया था जिस पर अब केवल भारतीयों की जेबों से ही अंग्रेज़ों को ब्याज चुकाया जाना था । यह कैसा न्याय था और कैसी नैतिकता ?
परिणामस्वरूप, प्रत्यक्ष अंग्रेज़ी राज्य के केवल बारह वर्षो में (१८५८ से १८७०-७१ ) में ही भारत का राष्ट्रीय ऋण ६ करोड ९५ लाख पौंड से बढ़कर २९९ करोड़ ९० लाख पौंड से भी अधिक हो गया, हालांकि इस अवधि में करों में ५० प्रतिशत से अधिक वृद्धि हुई । १८७६-७७ में यह ऋण १३ करोड़ ९० लाख तक पहुंच गया था। इसका अर्थ यह है कि १९ वर्षों में ही ब्रिटिश सरकार ने भारत का राष्ट्रीय ऋण दुगुना कर दिया । १३ करोड ९० लाख पौंड से केवल २ करोड़ ४० लाख पौंड राजकीय रेलवे तथा सिंचाई विभाग पर खर्च किया गया, जो मुख्य रूप से ब्रिटेन के ही लाभ के लिए आरम्भ किये गए थे।
ये आंकड़े निर्बाध गति से निरंतर बढ़ते ही चले गए - यहां तक कि द्वितीय विश्वयुद्ध की पूर्व संध्या के समय १९३९ में ८८ करोड़ ४२ लाख पौंड तक पहुंच गए, जो १८५८ की राशि की अपेक्षा १२ गुना से भी अधिक थे। इसके बावजूद जनता के ऊपर करों का भार भी बढ़ता ही चला गया । विशेषतया महत्त्वपूर्ण था इंग्लैंड के ऋण में अत्यधिक वृद्धि, जिसके लिए ब्याज भी ऊंची दर से चुकाना था । १८५६ में इंग्लैंड का ऋण ४० लाख पौंड था जो ऊंची छलांग लगाकर १९३९ में ३५ करोड़ १८ लाख पौंड तक पहुंच गया था।
करों एवं राष्ट्रीय ऋण की इस वृद्धि को अंशत: समझा जा सकता है कि यदि हम उस भारी-भरकम खर्चे की ओर झांकते हैं जो भारत के शोषणार्थ भारतीय सिविल तथा सैन्य व्यवस्था पर किये जाते थे।
सर वैलेन्टाइन शिरोल ने १९२६ में लिखा : "भारतीय करदाता द्वारा वहन किये जाने वाले भारों में सैन्य व्यय का भार स्वयं में ही सर्वाधिक कमरतोड़ है । जिस करदाता के पास ...न तो इस खर्चे की राशि को और न ही इसके उद्देश्य को नियंत्रित करने का कोई साधन है। " ३६३
ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में इतिहास के 'बेट' प्राध्यापक प्रो० डी० के० फील्डहाउस के अनुसार सन् १८९१ - ९२ में भारतीय थलसेना पर व्यय कुल भारतीय राजस्व का ४२ प्रतिशत, १९११ - १२ में ३६ प्रतिशत और १९२९-३० में ३१ प्रतिशत था । (१८९१ - ९२ से पहले यह ५० प्रतिशत से भी अधिक था) इसके विपरीत तुलनार्थ इतने वृहद साम्राज्य के
स्वामी इंग्लैंड ने १८९० में अपने समूचे बजट का ३८ प्रतिशत तथा १९२० में केवल १४ प्रतिशत प्रतिरक्षा पर व्यय किया। ऑर्नल्ड टायनवी के अनुसार १९२९ (शान्तिवर्ष) में विभिन्न देशों के राष्ट्रीय बजटों में सैन्य व्यय के प्रतिशत इस प्रकार थे : भारत-४५.२९, जापान - २६.५७, इटली-२३.८६, फ्रांस- १९.७५, अमेरिका-१६.०९, इंग्लैंड-१४.७५, और जर्मनी (हिटलर से पूर्व ) ७.१६ । ३६५
भारतवर्ष में दो तरह की सेनाएं थीं। पहली थी ब्रिटिश सेना जिसमें पूर्णतया अंग्रेज सैनिक ही थे जिनका मुख्य कर्तव्य "भारतीयों द्वारा अंग्रेजी राज को उखाड़ कर फेंकने के लिए किसी भी प्रकार के प्रयत्न का दमन करना था। दूसरी सेना-भारतीय सेना के नाम से जानी जाती थी जिसका मुख्य कर्तव्य अंग्रेजों के लिए गैरों से इस 'सबसे चमकदार हीरे' (अर्थात् भारत) की रक्षा करना था और देश से बाहर जाकर दूसरों को दास बनाना था और यह भी अंग्रेज़ो के ही लिए । भारत तो केवल दोनों ही सेनाओं के लिए युद्धबलि अथवा तोपों का आहार और विशाल धन जुटाने के लिए था।
तथाकथित 'भारतीय सेना' में सैनिक तो भारतीय थे परन्तु अधिकांश अधिकारी अंग्रेज़ थे । भारतीयों को प्लाटून- कमाण्डर से बड़े पदों पर शायद ही कभी अधिकारी बनाया जाता था, ओर अंग्रेज़ी राज की समाप्ति (१९४७) तक कोई भी भारतीय ब्रिग्रेडियर के पद से ऊपर नियुक्त नहीं किया गया । २६७ द्वितीय विश्वयुद्ध में भी, जबकि अंग्रेज अधिकारियों की कमी थी, केवल तीन भारतीयों को ब्रिगेडों का नायकत्व दिया गया जबकि भारतीय सेना २० लाख लोगों की थी । " ३६८ इन दोनों सेनाओं का आर्थिक भार पूर्णरूपेण भारतीयों पर ही था । अधिकारियों (लगभग सारे के सारे अंग्रेज़ों) के वेतन उस समय से सबसे धनी देश इंग्लैंड की तुलना में भी बहुत अधिक थे । " ३६८
इंग्लैंड के लिए भारतीय थल सेना क्या महत्त्व था ? फील्डहाउस इस प्रश्न का उत्तर देता है : " थल सेना का महत्त्व १९वीं शताब्दी में ब्रिटेन की अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति को ध्यान में रखकर समझा जा सकता है। ब्रिटेन सर्वोच्च नौसैनिक शक्ति था, परन्तु थल सेना की दृष्टि से उसका महत्त्व नगण्य था और विश्वव्यापी साम्राज्य की प्रतिरक्षा का भार उसकी लगभग ढाई लाख नियमित सेना के कन्धों पर था । भारत की लगभग डेढ़ लाख स्थल सेना - शक्ति ने, जो युद्ध के समय तत्काल ही बढ़ाई जा सकती थी, उसे पूर्व में सर्वोच्च क्षेत्रीय शक्ति बना दिया था। ब्रिटेन के लिए यह एक विशुद्ध लाभ था क्योंकि इसके खर्चे का समूचा भार भारतीय राजस्व पर ही था । इसके विपरीत तुलना में, १८८० के बाद स्वशासित उपनिवेशों द्वारा अदना-सी देन भी, जिसकी साम्राज्यवादियों को आशा हो सकती थी, महत्त्वहीन सिद्ध होती है । भारत ने ब्रिटेन को विश्व घटनाक्रम में भाग लेने के लिए समर्थन बनाया जिसके लिए ब्रिटिश करदाता पैसा देने के लिए कदापि तैयार नहीं था । पूर्वी अफ्रीका और दक्षिण - पूर्वी एशिया के विभाजन में मुख्य भाग लेने और प्रथम विश्वयुद्ध में ऑटोमन साम्राज्य के बड़े भाग पर विजय प्राप्त करने में समर्थ भी भारत ने ही ब्रिटेन को बनाया । ३६९
भारत ने न केवल दोनों सेनाओं अपितु ब्रिटिश नौसेना का भी भारी खर्चा उठाया, इस बहाने पर कि वह भारत के व्यापार एवं समुद्र तटों की रक्षा करती थी । 'तटों की रक्षा' का तर्क ठीक उन डाकुओं द्वारा दिये गए तर्क के समान है जो उस घर के द्वार की रक्षा करते हैं जहां वे अपना जघन्य कार्य कर रहे होते हैं। ठीक इसी प्रकार का तर्क, कि इंग्लैंड १३ उपनिवेशों (बाद में संयुक्त राज्य अमेरिका) की रक्षा करता है, अमरीकी क्रान्ति के समय दिया गया। थॉमस पेन द्वारा दिया गया उस तर्क का उत्तर भारत पर भी लागू हो सकता है । पेन ने कहा : "ब्रिटेन ने हमारी हमारे लिए हमारे शत्रुओं से रक्षा नहीं की, अपितु अपने लिए अपने शत्रुओं से रक्षा की, जबकि हमारा उनके साथ किसी और कारण से कोई झगड़ा नहीं था, और जो हमारे उसी कारण से सदा के लिए शत्रु बने रहेंगे । ३७०
भारतीय व्यापार के बारे में भारत सरकार के एक सेवानिवृत्त अधिकारी जे० एस० कॉटन ने, जो सरकारी 'इम्पीरियल गज़ेटियर' के सम्पादक भी थे, कहा: “देहाती बाज़ारों तक में भी भारतीय निर्यात व्यापार मुख्यत: कुछेक यूरोपीय फर्मों के हाथों में है, जो आढ़तियों के माध्यम से खरीददारी करते हैं, और बन्दरगाहों पर जहाज़रानी का लगभग सारे का सारा व्यापार यूरोपीय फर्मों द्वारा किया जाता है, जिनकी भारतीय व्यापारी रेलों द्वारा सामान भेजते हैं। आयात व्यापार भी मुख्यत: यूरोपियों के हाथों में ही है। '३७१
सरल शब्दों में, अंग्रेज़ों के लाभ के लिए अंग्रेज़ों द्वारा अंग्रेज़ी जहाज़ों में अंग्रेज़ी फर्मों द्वारा बीमाकृत और अंग्रेज़ों द्वारा वित्तीय विदेशी व्यापार का संरक्षण अंग्रेज़ी नौसेना द्वारा किया जाता था; भारत तो केवल बिल का भुगतान करता था, ठीक उसी प्रकार जिस तरह से वह थल सेना के लिए भुगतता था ।
नागरिक सेवाएं भी, जो ब्रिटेन के स्वार्थों की पूर्ति के लिए ही थीं, और जो पूर्णत: या मुख्यतः अंग्रेज़ अधिकारियों द्वारा चलाई जाती थीं, एक और भारी खर्चे का कारण थीं। कम्पनी की प्रसंवदित (उच्च) सेवाओं में तो एक भी भारतीय नहीं था ३७२ यद्यपि निम्न स्तर के कार्यों के लिए अंग्रेज़ों को आवश्यकतावश भारतीयों को भर्ती करना पड़ा । सन् १९१५ तक केवल ५ प्रतिशत भारतीय प्रसंवदित (आई० सी० एस० ) सेवाओं में नियुक्त किये गए थे । ३७३ बीसवीं शताब्दी में जब राष्ट्रवादियों के दबाव और अंग्रेज़ों की आई० सी० एस० में भर्ती की बढ़ती कठिनाइयों के कारण अंग्रेज़ों को "अच्छी नौकरियां, अच्छे भविष्य के लिए वेतन का लालच देकर असंतोष को खरीदना पड़ा; ३७४ और आई० सी० एस० की परीक्षा १९२२ से भारत में भी आरम्भ करनी पड़ी (इससे पहले यह केवल इंग्लैंड में ही होती थी ) । परिणामतः भारतीयों को आई० सी० एस० की नौकरियां अधिकाधिक मिलने लगीं, यद्यपि भारतीय नागरिक (सेना छोड़कर) सेवाओं का ‘भारतीयकरण' स्वाधीनता के केवल १२ वर्ष पूर्व अर्थात् सन् १९३५ से होता दिखाई पड़ता है । परन्तु इन थोड़े से भारतीय अधिकारियों ने अंग्रेज़ों की मूल व महत्त्वपूर्ण नीतियों को किसी प्रकार भी प्रभावित नहीं किया, बल्कि ये तो भारत में अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद के एक और एजेंट, पिट्ठू व आधारस्तम्भ ही साबित हुए।
बहुत कुछ अनाप-शनाप कहा जाता है कि ये आई० सी० एस० ब्रिटेन के बुद्धिजीवी वर्ग का सर्वोत्तम अंश थे । अतः भारत के प्रशासन ( या लूट ? ) के लिए ब्रिटेन ने स्वयं को इन बुद्धिजीवियों से वंचित करके दुर्बल बनाया । सत्य तो यह है कि 'प्रतियोगिता पद्धति के आरम्भ करने के केवल चार वर्ष बाद १८५८ में सिविल सेवा आयुक्तों ने सिविल सेवा रंगरूटों की योग्यता के प्रति असंतोष प्रकट किया।...( उन्नीसवीं शताब्दी के परवर्ती काल में) काफी प्रतियोगियों ने किसी विश्वविद्यालय से शिक्षा ग्रहण नहीं की थी, जो तथ्य बाद की प्रतियोगिताओं में अधिकाधिक स्पष्ट होने लगा ।... किसी भी प्रकार की भारतीय सेवा चाहे वह असैनिकों द्वारा भरे गये उच्चतम पदों की ही क्यों न हो, व्यापक रूप से मध्य स्तर के नागरिकों और घटिया दर्जे की बुद्धि के लोगों के लिए समझी जाती थी । ३७५
यदि किसी भी निर्धन देश के सरकारी कर्मचारियों का उद्देश्य लूटना और खून चूसना न हो तो उन्हें धनी देश के सरकारी कर्मचारियों की अपेक्षा कम वेतन मिलेगा। परन्तु भारत के मामले में ऐसा नहीं था; उच्च पदाधिकारियों को तो बहुत अधिक वेतन दिये जाते थे, जबकि भारतीयों द्वारा पूर्व श्रेणी की सेवाओं के लिए बेहद कंजूसी से वेतन दिए जाते थे।
सबसे निर्धन देश (भारत) के आई० सी० एस० अधिकारियों के वेतन एवं पेंशन उस समय के सबसे धनी देश ब्रिटेन के "सरकारी अधिकारियों की अपेक्षा लगभग ५० प्रतिशत अधिक थे।" यही नहीं, उनको कई विशेषाधिकार भी प्राप्त थे जैसे कि एक वर्ष की सेवा के बाद पूर्ण वेतन सहित ढाई मास एवं अर्द्धवेतन सहित पांच मास का अवकाश और भारत से ब्रिटेन तक सपरिवार आने-जाने का पूरा खर्चा भी मिलता था । ३७६ इन आई० सी० एस० अधिकारियों की शानदार पेंशनों का अनुमान केवल इस बात से ही लगाया जा सकता है कि केवल एक अंग्रेज़ अधिकारी स्ट्राची की पेंशन मद्रास के १२०० कृषकों की वार्षिक आय के बराबर थी।’’३७७ अतः, इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि इन अंग्रेज़ नवाबों में से बहुत से (५० प्रतिशत) अपनी आयु के चालीसवें वर्ष में ही ऐसी राजसी पेंशनें लेकर सेवानिवृत्त हो जाते थे।८ सन् १९३८ में एक अमेरिकी लेखक ने लिखा, कि भारत के समस्त ११०७ आई० सी० एस० असैनिक अधिकारियों का कुल खर्चा लगभग ढाई करोड़ रुपये (२५०,००० डालर) प्रतिवर्ष है जो समूचे बजट का लगभग १.२५ प्रतिशत है। इसके विपरीत कृषि पर, जिस पर लगभग ३० करोड़ लोग निर्भर हैं, १1⁄2 प्रतिशत से भी कम खर्चा किया जाता है । ३७९
तथापित, इन आंकड़ों में बाइसराय और (ब्रिटेन के) (राज्य अथवा ) विदेशमन्त्री एवं उसके कर्मचारियों के शानदार वेतन और महान सुविधाओं का खर्चा शमिल नहीं है; यद्यपि विदेशमन्त्री का वेतन ब्रिटिश मंत्रिमंडल का सदस्य होने के नाते अंग्रेज़ी करदाताओं द्वारा दिया जाना चाहिये था । "संसार के सबसे अधिक शक्ति शाली व्यक्ति" और भारत के निकटवर्ती तानाशाह (ब्रिटेन का विदेशमन्त्री भारत का दूरवर्ती तानाशाह था ) वायसराय का वेतन "किसी मी ब्रिटिश पदाधिकारी से अधिक था। रोमन साम्राज्य के बाद से, जबकि जनसंख्या वैसे ही बहुत थोड़ी होती थी, ऐसे (भारत जैसे ) राज्यपाल का वैभवशाली पद किसी भी सरकार को उपहार के रूप में नहीं मिला था।३३०
महात्मा गांधी ने सन् १९३० में कठोर नमक कर के विरुद्ध राष्ट्रव्यापी शांतिपूर्ण आंदोलन आरम्भ करते समय भारत के तत्कालीन वायसराय को एक पत्र यह इंगित करते हुए लिखा कि, "भारतीय प्रशासन सारे विश्व में दिखाने योग्य, सर्वाधिक खर्चीला है।" गांधी जी ने लिखा : " आप अपने वेतन को ही लीजिए। वर्तमान विनिमय दर के अनुसार आपका वेतन २१,००० रुपये मासिक से भी अधिक है। आपको दैनिक ७०० रुपये से अधिक मिलते हैं, जबकि भारत की औसत आय २ आने (९६ आने -१ रुपया) प्रतिदिन से भी कम है। (ब्रिटेन के) प्रधानमन्त्री को केवल १८० रुपये प्रतिदिन मिलते हैं, जबकि वहां की औसत आय २ रुपए प्रतिदिन है। जो बात वायसराय के वेतन के विषय में है वही संपूर्ण प्रशासन के सम्बन्ध में भी
सत्य है । ३८९
शेरे-ए-पंजाब के नाम से विख्यात, भारत के एक अन्य महान् नेता लाला लाजपतराय ने १९१७ में भारत, जापान और अमेरिका के प्रशासनों के खर्चे की तुलना करते हुए लिखा :
"अमेरिका के राष्ट्रपति का, जिसकी हैसियत संसार के बड़े सम्राटों जैसी है, वार्षिक वेतन बिना किसी भत्ते के ७५,००० डालर है । जापान का प्रधानमन्त्री १२,००० येन या ६००० डालर पाता है। भारत का वायसराय और गवर्नर-जनरल अनेकों भत्तों के रूप में बहुत बड़ी राशि प्राप्त करने के अलावा २,५०,००० रुपये या ८३,००० डालर वेतन लेता है। अमरीका के प्रत्येक मन्त्री का वेतन १२,००० डालर है, जापान में ८००० येन अथवा ४००० डालर है और वायसराय की परिषद के प्रत्येक सदस्य का वेतन २६,७०० डालर है । " ३८२
लाला लाजपतराय ने अपनी पुस्तक 'इंग्लैंड का भारत के प्रति ऋण' के परिशिष्ट में इन तीनों देशों के अनेक पदाधिकारियों के वेतनों की तुलना करके उनकी आय में आश्चर्यजनक अन्तर दिखाया है। यह पुस्तक १९१७ में अमेरिका में प्रकाशित हुई थी। भारत की अंग्रेज़ सरकार ने इसके भारत प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया।
भारत को केवल इस महाभरकम प्रशासन का ही खर्चा नहीं उठाना पड़ता था, अपितु किसी भी कल्पनीय खर्चे को उठाना पड़ता था जिसका सम्बन्ध किसी भी तरह से भारत से जोड़ा जा सकता हो । प्रोफेसर एल० एच० जेंक्स ने १९२७ में लिखा :
" ( ब्रिटेन द्वारा) हर प्रकार के खर्चे को भारत के मत्थे मढ़ देना बेहद अनुचित लगता है। १८५७ के विद्रोह का खर्चा, ब्रिटिश ताज द्वारा कम्पनी की खरीदने का खर्चा, चीन और अबीसीनिया के साथ-साथ हो रहे युद्धों के खर्चे, लन्दन में हर प्रकार के सरकारी खर्चे जो दूरदराज़ भी भारत के साथ जोड़े जा सकते हों, जैसे कि भारतीय कार्यालय में झाडू देने वाली नौकरियों के खर्चे ओर उन जहाज़ों के खर्चे जिन्होंने (भारत के लिए) प्रस्थान तो किया परन्तु लड़ाई में भाग नहीं लिया तथा भारत को प्रस्थान करने के छ: मास पहले से सैनिकों के प्रशिक्षण के खर्चे - यह सारे के सारे प्रतिनिधित्वहीन (भारतीय) किसान को देने पड़े । सन् १८६८ में तुर्की के सुलतान ने लन्दन की सरकारी यात्रा की, जिसके स्वागत में सरकारी नृत्य का आयोजन भारतीय कार्यालय पर किया गया और जिसका बिल भी भारत को ही भुगताना पड़ा । ईलिंग में पागलखाने का खर्चा, जंजीबार मिशन के सदस्यों को दिये जाने वाले उपहारों के खर्चे, चीन और पर्शिया (ईरान) में ब्रिटेन के वाणिज्यिक एवं राजनयिक संस्थानों के खर्चे, भूमध्यसागरीय बेड़े के स्थायी व्यय के अंशतः खर्चे और इंग्लैंड से भारत तक तार-लाइन और लगाने का सम्पूर्ण खर्चा - ये सब सन् १८७० से पहले भारतीय कोष से ही चुकाए गये। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि ब्रिटिश ताज के अधीन पहले तेरह वर्ष के प्रशासन में भारतीय राजस्व (अर्थात कर) ३ करोड़ ३० लाख पौंड से बढ़कर ५ करोड़ २० लाख पौंड प्रतिवर्ष हो १८६६ से १८७० तक घाटा १ करोड़ पन्द्रह लाख पौंड तक जा पहुंचा । सन् १८५७ और १८६० के बीच ३ करोड़ का गृह ऋण स्थापित कर दिया गया, जो बराबर बढ़ता ही गया जबकि भारतीय लेखाओं में विवेकपूर्ण हेरा-फेरी के माध्यम से मितव्ययिता एवं वित्तीय चतुराई के लिए अंग्रेज़ राजनयिकों ने ख्याति अर्जित की।”३८३
भारत को लूटने के उद्देश्य से और बहुत से छोटे-मोटे खर्चे किये गए। यहां केवल एक उदाहरण दिया जाता है, यद्यपि ऐसे उदाहरण लगभग अपरिमित है। ३८४ जहां गैर-ईसाइयों के देश को उनके शासकों के मज़हब (अर्थात ऐंग्लीकन चर्च व स्काटलैंड के चर्च) की सहायता के लिए कर देने पड़ते थे, अंग्रेज़ी राज्य के दौरान एक लम्बी अवधि तक बड़े पादरियों (बिशपों ) और (ईसाई ) पुरोहितों को वेतन भारतीय लोगों के करों से दिये जाते थे, जो सब प्रकार के ऐशो-आराम का जीवन बिताते थे और पूरे ठाट-बाट के साथ शानदार भवनों में रहते थे। सन् १९३७ में आर० रेनाल्ड बताते हैं कि २ लाख पौंड की वार्षिक राशि ईसाई धर्म की सहायता के लिए भारतीय राजस्व में से अब भी चुकाई जाती है...जो भारतवासियों की ओर से अपनी विजेताओं के प्रमुख धार्मिक संस्थापनों को दिया जाने वाला तुच्छ-सा नज़राना है।” ३८५ सन् १९०९ के आस-पास, कलकत्ता ओर बम्बई के बड़े पादरियों की और गर्वनर - जनरल की परिषद के एक सदस्य की केवल तैयारी और विदेश गमन के लिए क्रमश: २४५० पौंड तथा १२०० पांड की राशियां ब्रिटेन द्वारा भारत को दिये गए ऋण में से भुगतान की गई, ३८६ जिस पर भारत को व्याज भी देना पड़ा।
इस प्रकार, भारतीय जनता द्वारा दिये जाने वाले लगभग सारे ही भारी कर किसी न किसी बहाने से जनता को लूटने के उद्देश्य से ही व्यय किये जाते थे। जनता के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक और अन्य किसी भी प्रकार के विकास के लिए, जिनके लिए सरकारों के अस्तित्व की कल्पना तथा ओचित्य होता है, लगभग कुछ भी नहीं बच पाता था । उदाहरण के लिए शिक्षा को लीजिए । सन् १८९० में : "सरकार के कोष से भारत में प्राथमिक शिक्षा पर कुल खर्चा इस समय २ लाख पौंड से अधिक नहीं है। निःशुल्क शिक्षा तो दूर रही, अभी तक यह भी अनिवार्य नहीं है। स्कूल जाने योग्य लड़कों की १ / ६ संख्या से अधिक लड़के स्कूल नहीं जा पा रहे हैं और पांच गांवों के बीच केवल एक ही प्राथमिक पाठशाला है । १३८७
लगभग ३० करोड़ जनसंख्या (उस समय ) वाले देश में यह २ लाख पौंड का - व्यय भारत के केवल मुट्ठीभर शीर्षस्थ अंग्रेज़ पदाधिकारियों के वेतनों के बराबर होगा ।
यह उस देश में था, जिस देश में अंग्रेज़ी शासन से पहले सारे निष्पक्ष विद्वानों के अनुसार, "प्रत्येक गांव में कम से कम एक प्राथमिक पाठशाला अवश्य थी।" ब्रिटेन की इन्डपेण्डेंट लेबर पार्टी के नेता, जो वर्तमान ब्रिटिश लेबर पार्टी की अग्रवर्ती थी, और ब्रिटिश संसद के सदस्य जे० केर० हार्डी ने सन् १९०९ में लिखा :
"यह डींग भी अक्सर सुनने को मिलती है कि हमने भारत में शिक्षा के लिए क्या-क्या किया। यहां पर भी, जहां तक भारत के प्राचीन प्रांतों का सम्बन्ध है, यह डीग बिलकुल बेबुनियाद है। देशी राज्यों सहित सम्पूर्ण भारत में स्कूल जाने वाले बच्चों की कुल संख्या लगभग ५० लाख होगी। और भारत सरकार द्वारा शिक्षा पर व्यय केवल लगभग १1⁄2 पेन्स (१२ पैन्स=१ शिलिंग और २० शिलिंग = एक पौंड) प्रति बालक पड़ता है। प्रसंगवश यह मैं कह दूं कि कुल जनसंख्या के प्रति व्यक्ति पर सेना का खर्चा औसतन एक शिलिंग है । अंग्रेज प्रभुत्व से पहले बंगाल में शिक्षा के विषय में एक ईसाई धर्मप्रचारक की रिपोर्ट के, तथा सरकारी दस्तावेज़ों के आधार पर मैक्समूलर का दावा है कि "बंगाल में उस समय ८०,००० अर्थात ४०० की जनसंख्या के लिए एक, स्थानीय पाठशाला थी।" अपने 'अंग्रेज़ी भारत का इतिहास' में लुडलॉक कहता है, "मुझे विश्वास दिलाया गया है कि प्रत्येक हिन्दू गांव में, जिसमें उसका पुरातन रूप शेष रह गया है, बच्चे प्राय: पढ़-लिख और गणित कर सकते हैं। परन्तु जहां-जहां हमने ग्राम व्यवस्था को, बंगाल की तरह, नष्ट कर दिया गया है, वहां-वहां ग्रामीण पाठशालाएं भी लुप्त हो गई हैं। मेरे विचार में यह कथन हमारी इस डींग को, कि हम भारतीयों को शिक्षा दे रहे हैं, भली भांति ध्वस्त कर देता है । ३८८
ट्रावनकोर के देशी राज्य ने (वर्तमान केवल राज्य का एक भाग - जहां साक्षरता का प्रतिशत भारत में सर्वाधिक है ) "अंग्रेज़ी राज के दौरान भी १८०१ में सार्वजनिक शिक्षा को संगठित करना आरम्भ कर दिया था; ३८९ जबकि इंग्लैंड में ऐसा १८७० में प्रारम्भ हुआ, यद्यपि इंग्लैंड द्वारा शासित भारत में सार्वजनिक शिक्षा को कभी चालू ही नहीं किया गया। हमें बताया जाता है कि १९०९ में मैसूर और बड़ौदा के देशी राज्यों में शिक्षा निःशुल्क एवं अनिवार्य
है थी । ३९०
जब १९४७ में अंग्रेज़ों ने देश छोड़ा तब उन्होंने न केवल आर्थिक स्थिति में, बल्कि निरक्षरता में भी समस्त संसार के अन्दर घोरतम अन्धकार का एक धब्बा भारत के भाल पर छोड़कर गये, जहां केवल लगभग १५ प्रतिशत लोग ही पढ़ने-लिखने योग्य थे जो भारत के प्रशासनार्थ क्लर्कों के रूप में अंग्रेज़ों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए, और वेतनों को कम रखने के लिए पर्याप्त थे, क्योंकि उनकी पूर्ति मांग से अधिक होने के कारण शिक्षित बेकारों का तांता बना रहता था जो आश्चर्यजनक कम वेतन पर भी काम करने के लिए तैयार रहते थे। एक दक्षिण अमेरिकी लेखक ने ठीक ही लिखा है कि "जनता को शिक्षा से वंचित रखना निस्सन्देह उपनिवेशी शक्ति के स्वार्थ में है। शिक्षित भारतीयों का एक छोटा-सा वर्ग शेष देशवासियों पर शासन चलाने में अंग्रेज़ों की सहायता करने के लिए पर्याप्त था । ३९९ इस १५ प्रतिशत में शिक्षित भी शामिल थे जो गैर-सरकारी एजेंसियों, जनता के और इस शताब्दी के चौथे दशक में प्रान्तों में स्थापित लोक-मंत्रिमंडल के प्रयासों के कारण शिक्षित थे।
चूंकि क्लकों के लिए किसी प्रकार की तकनीकी या अर्द्ध-तकनीकी शिक्षा की आवश्यकता नहीं है, अतः इस प्रकार की शिक्षा से जनता को वंचित रखना अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद के हितों में था । अंग्रेज़ी शासन के अन्त के समीप १९३४ में एक अमेरिकी विद्वान ने लिखा : " आइओवा जैसे एक छोटे-से अमेरिकी राज्य में भी जहां की जनसंख्या अंग्रेज़ी भारत की जनसंख्या का एक प्रतिशत है, कृषि, वाणिज्य, अभियांत्रिकी जैसे क्षेत्रों में भारत से अधिक छात्र हैं । ३९२
आइये, राष्ट्रीय ऋण की चर्चा पर पुनः लौटें। इस प्रकार के भरकम और अनुत्पादक खर्ची के कारण राष्ट्रीय ऋण १९३९ तक ८८ करोड़ ४२ लाख पौंड की विकराल राशि तक पहुंच गया। इसके बाद द्वितीय विश्वयुद्ध हुआ । प्रथम विश्वयुद्ध की ही भांति, भारतीय जनता अथवा नेताओं से किसी भी प्रकार के सलाह-मशविरे के बिना, तानाशाही शासन के प्रतिनिधि, भारत ब्रिटिश वायसराय, ने इस देश को भी द्वितीय विश्वयुद्ध की भट्ठी में झोंक दिया। एक विदेशी ने ४० करोड़ जनता के एक राष्ट्र को ऐसे महायुद्ध की भट्ठी में झोंक दिया जो उसके तनिक भी हित में नहीं था! अंग्रेज़ों की लड़ाई, जो उन्होंने अपने पुराने ढांचे को यथापूर्व रखने के लिए लड़ी, प्रथम विश्वयुद्ध की ही भांति इस युद्ध में भी भारतीयों को जन-धन-माल सहित सब कुछ बलिदान करना पड़ा। ब्रिटेन ने भारत में कृत्रिम रूप से नियंत्रित कम कीमतों पर सामान और सेवाएं खरीदीं। इसका अर्थ यह था कि भारतीयों को अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी बहुत भारी कीमतें चुकानी पड़ती थीं। बदले में भारत को अंग्रेज़ों के ऋणपत्र तथा मुद्रा - नोटों के बंडल मिले जिन्होंने घनी स्फीति एवं अकाल के रूप में पहले से ही दु:खी जनता के कष्टों में अपार वृद्धि कर दी । नितांत निर्धनता में बदला हुआ भारत अब संसार के सर्वाधिक धनी देश का ऋणदाता बन गया। ऐसा केवल इसीलिए हो सका क्योंकि भारत एक गुलाम देश था जिसे इस सीमा तक इतनी मात्रा में सामग्री और सेवाएं अपने स्वामी को बेचनी पड़ीं कि पिछले लगभग १५० वर्षों से विशाल पर्वत की भांति इकट्ठा हुआ भारत का ब्रिटेन के प्रति राष्ट्रीय ऋण का भुगतान दूसरे विश्वयुद्ध के कुछ ही वर्षों में देय से भी अधिक हो गया। अब इंग्लैंड भारत का लगभग ५५ करोड़ पौंड का ऋणी हो गया था । ३९३ परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि भारत अब एक लाभकारी उपनिवेश नहीं रहा। आंकड़ें और तथ्य देने के बाद एक अमेरिकी लेखक ने १९४५ में यह निष्कर्ष निकाला कि "युद्ध - पूर्व की ही भांति आज भी भारत विश्व भर के उपनिवेशों में सर्वाधिक मूल्यवान है । " ३९४