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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 8 करोड़ों की मौत और अंग्रेज़ों की बहानेबाजियां

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    Vidyasagar.Guru

    अकाल 

     

    औद्योगिक क्रांति से पहले संसार का कोई भी भाग, भारत समेत, अकालों से पूर्णत: मुक्त नहीं  रहा। 

     

    ईस्वी पूर्व चौथी शताब्दी में भारत स्थित यूनानी राजदूत मैगस्थनीज़ की धारणा थी कि 'भारत पर अकाल की कोपदृष्टि कभी नहीं पड़ी, और न ही कभी पौष्टिक आहार की कमी रही। '२९३ लगभग १४२० ई० में निकोलोकौन्टी नामक एक इटालवी वणिक् - यात्री ने भारत - यात्रा की । वह लिखता है, "महामारी को तो भारतीय जानते तक नहीं, और न ही वे उन बीमारियों से परिचित हैं जो हमारे देशों में जनता का सफाया कर देती हैं । २९४ विलियम डिग्बी के अनुसार " ग्यारहवीं शताब्दी के आरम्भ से अट्ठारहवीं शताब्दी में अंग्रेजी शासन के आरम्भ सन् १७६९ तक अट्ठारह अकाल पड़े, जो लगभग सबके सब स्थानीय क्षेत्रों तक ही सीमित रहे । '२९५ 

     

    उन्नीसवीं शताब्दी के लगभग, मध्य से, औद्योगिक क्रांति के बाद यूरोप में अकाल लगभग समाप्त हो गये, परन्तु इसी अवधि में भारतवर्ष में अकाल अधिक बारम्बार और भयंकर रूप में आएं ऐसा होना कोई अनपेक्षित बात नहीं थी । जबकि यूरोप निरन्तर अमीर होता जा रहा था, भारत अपने मालिकों के हितसाधन में निरन्तर निर्धनता के दलदल में धंसता जा रहा था। 

     

    भारत में अंग्रेज़ी राज्य के आरम्भ, मध्य और अन्त में भयंकर अकाल पडे । अंग्रेजों द्वारा सन् १७६५ में दीवानी अधिकार (असैनिक प्रशासन ) प्राप्त करने के चार वर्ष बाद ही सन् १७६९-७० में (जैसे पहले बताया गया है) भयंकर अकाल पड़ा । अंग्रेज़ों के भारत छोड़ने से चार वर्ष पहले सन् १९४२ - ४३ में भी भयंकर अकाल पड़ा, यद्यपि इस समय तक अंग्रेज़ी - भारत के पास देश या विश्व के एक कोने से दूसरे कोने तक शीघ्रता से खाद्यान्न लाने ले जाने के लिए रेल तथा भाप -चालित तीव्रगामी जलपोतों के पर्याप्त साधन उपलब्ध थे। 

     

    सन् १७६५ से १८५८ के ९३ वर्षों में, भारत को १२ अकालों एवं चार कड़े अभावों का सामना पड़ा। १८६० से १९०८ के ४८ वर्षों में भारतवर्ष में २० अकाल पड़े। समय को यदि और सिकोड़ें तो १८७६ से १९०० तक भारत में अठारह अकाल पड़े, जिनके कारण दो करोड़ साठ लाख लोग मर गए। सरकारी आंकड़ों के अनुसार १ जनवरी १८८९ से ३० सितम्बर १९०१ तक भूख या भूख से उत्पन्न बीमारियों के कारण हर दिन-रात के हर एक मिनट में दो ब्रिटिश भारतीय नागरिक मृत्यु को प्राप्त हुए। २९६ ये असली अकाल थे जिनमें करोड़ों लोग मृत्यु के घाट उतर गए। सन् १८८० के बाद भी भारत को घोर अभावों का सामना करना पड़ा, यद्यपि सरकार ने इस बात को स्वीकारा नहीं । 

     

    सन् १९०८ से १९४२ तक यद्यपि देश में कोई भयानक अकाल नहीं पड़ा, फिर भी सारे देश मे घोर अभावो की काली घटाये छायी रही, अतः अकाल अब भारत में एक अजनबी या विरले अतिथि को तरह नहीं रह गए थे, जैसे कि वे ब्रिटिश-पूर्व भारत में होते थे, बल्कि अंग्रेज़ी शासन में घर के एक नियमित सदस्य की तरह हो गए थे। 

     

    उन्नीसवीं शताब्दी के लगभग मध्य के बाद अकालों के स्वरूप में मूलभूत परिवर्तन आया । इससे पहले अकाल देश के किसी भाग में सूखा होने के कारण पड़ते थे। साथ ही उन दिनों शीघ्र यातायात के अभाव के कारण पर्याप्त खाद्यान्न वाले स्थान के कमी वाले स्थान पर शीघ्रता से अन्न नहीं पहुंचाया जा सकता था। दूसरे शब्दों में, मुख्यतया से फसलों से सम्बद्ध अकाल थे । परन्तु लगभग उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य के बाद क्योंकि भारत में रेलों और भाप चालित समुद्री जहाजों के कारण देश के किसी और भाग से अथवा विदेश से अन्न का आयात किया जा सकता था। अन्न खरीद तो सकते थे परन्तु निर्धनता के कारण ऐसा करने में असमर्थ थे कारण कि कीमतों के अनुपात में उनके वेतन नहीं बड़े थे और ऐसे बेरोज़गार लोग बहुत थे जिनके पास कोई आमदनी का साधन नहीं था। दूसरे शब्दों में मुख्य रूप से अकाल फसल-सम्बद्ध होने के स्थान पर अब आर्थिक सम्बन्धी बन गए थे । १९२० के दशक में ब्रिटिश प्रधान मन्त्री ओर ब्रिटिश लेवर पार्टी के नेता जे० रैमज़े मैक्डोनॉल्ड ने लिखा : "अकाल का विश्लेषण करते समय पहले यह जानना ज़रूरी है कि अकाल क्या है और कैसे पड़ता है। बुरे से बुरे दिनों में भी अकाल पीड़ित जिलों में अन्न की कमी नहीं रही, सिवाय १९०६-७ में दरभंगा जिले में, यहां बाढ़ के कारण अकाल की स्थिति आई थी ।...सन् १९०० में पड़े गुजरात के अकाल के बहुत बुरे दिनों में भी सरकारी आंकड़ों के अनुसार ज़िले के खाद्यान्न व्यापारियों के पास दो वर्ष तक को पर्याप्त खाद्यान्न भण्डार थें अतः अकाल का कारण खाद्यान्न की कमी नहीं, अकाल का कारण पूंजी का विनाश और परिणामस्वरूप श्रम की मांग की समाप्ति है। मूल्य वृद्धि के साथ वेतन की कमी और बेरोज़गारी मिल जाते हैं तो लोग खाद्यान्न की विपुलता के बीच भी भूखे मर जाते हैं।”२९७ 

     

    " जो अकाल भारत का विनाश कर रहे हैं," एक अन्य ब्रिटिश राजनीतिज्ञ एच० एम० हिन्डमन ने कहा, “मुख्यतया आर्थिक अकाल हैं। लोगों को भोजन इसलिए नहीं मिलता, क्योंकि खरीदने के लिए उनके पास पैसा नहीं होता। फिर भी हम कहते हैं कि इन लोगों पर और अधिक कर लगाने पर मजबूर होना पड़ता है। २९८ 

     

    जॉर्ज टामसन ने १८३९ में मानचेस्टर में छः व्याख्यान दिये। बाद में ये व्याख्यान 'ब्रिटिश भारत पर जॉर्ज टामसन के व्याख्यान' नामक पुस्तकाकार में प्रकाशित हुए। उसने लिखा, “११ - भारत की दशा ? लोगों की हालत देखिए जो दरिद्रता के लगभग निम्नतम स्तर तक पहुंचा दी गई है। सभी वर्गों को यथासंभव ग़रीब बना दिया गया है। राजे-महाराजे अपदस्थ कर दिये गए हैं; कुलीन व्यक्तियों को अप्रतिष्ठित कर दिया गया है। भूस्वामियों का विनाश कर दिया गया है, मध्यवर्गियों को समाप्त कर दिया गया है, कृषकों को बरबाद कर दिया गया है, महान नगर गांवों में बदल दिये गए हैं, और गांव खंडहरों में बदल गये हैं। हर दिशा में भिक्षावृत्ति, डाकुओं के दल और विद्रोह बढ़ रहे हैं। यह कोई अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन  नहीं है। यही स्थिति है भारत की, आज के भारत की। अनेक स्थानों पर सर्वोत्तम उपजाऊ जोतों को भी बेकार छोड़ दिया गया है और जंगली पशुओं के हवाले किया जा चुका है। उद्योगों के लिए प्रेरणा को नष्ट कर दिया गया है। भूमि भी मानो किसी अभिशाप से ग्रस्त है, देश के भिन्न-भिन्न भागों के निवासियों और अपनी जनता के लिए यथेष्ट खाद्यान्न उत्पन्न करना तो दूर रहा, यह अपनी गोद में पल रहे बच्चों की उदरपूर्ति करने में भी समर्थ नहीं है। यह भूमि करोड़ों लोगों का कब्रिस्तान बन गई है, जो रोटी-रोटी चिल्लाते हुए इसकी छाती पर गिरकर मर जाते हैं।" 

     

    इसके बाद टामसन सन् १८३८ के बीभत्स अकाल का वर्णन करता है। जो घटना 'असाधारण और अनपेक्षित' नहीं थी और जो अन्य कई अकालों के बाद घटी थी। यह अकाल जो ‘मृत्यु का उत्सव' था बंगाल प्रान्त में पड़ा जिसमें 'कुछ थोड़े से महीनों में ही' भूख से 'पांच लाख लोग' मृत्यु के कराल गाल में समा गए। इसके पूर्व घटित अन्य अकालों का वर्णन करते हुए वह लिखता है कि “हमारे शासन में वे (अकाल) आधी शताब्दी से भी अधिक है बारम्बार और व्यापक रूप में बढ़ते गये हैं।" ऐसा क्यों? इस प्रश्न का उत्तर स्वयं टामसन देता है : 

     

    "क्या आप जानना चाहोगे कि मानव जीवन का इतना व्यापक विनाश क्यों हुआ? इसका उत्तर में देता हूं, और ऐसा करते हुए में यह पूर्णरूपेण जानता हूं कि भारत सरकार पर देश में और विदेश में किस प्रकार का दोषारोपण कर रहा हूं और मैं इस पर डटे रहने के लिए तैयार हूं क्योंकि यथार्थरूपेण उनकी धरती छीन ली गई है, उन्हें अपने उद्योग धंधों के फलों से वंचित कर दिया गया है, सूखे की एक अवधि का भी सामना करने के लिए साधन जुटा रखने से रोक दिया गया है ओर इस प्रकार उन्हें मानो मृत्यु की ही सज़ा दे दी गई है जिसका अर्थ यह है कि यदि एक मोसम में भी धरती अच्छी फसल न दे तो लोगों की मृत्यु निश्चित है । हमारी सरकार (एक उच्च पदस्थ अधिकारी के शब्दों में) व्यावहारिक तौर से एक ऐसे बेहद लुटेरी और दमनकारी सरकार है जैसी कहीं भी किसी भी समय में हुई होगी। (ब्रिटिश) जनसदन की एक समिति ने भी घोषणा की थी कि भारत में हमारा मालगुज़ारी का ढंग नियमित रूप से लूट-खसोट का ओर अन्यायपूर्ण है, जो कृषकों के पास कुछ भी नहीं रहने देता सिवाय उसके जो वह छल-कपट से छिपाकर अपने पास रख लेते हैं। हमारी सरकार के विनाशकारी रवैये को स्पष्ट करने के लिए इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता कि अकाल लगभग आम हो गए हैं और यह कि लाखों की संख्या में लोग इसके शिकार हो रहे हैं तथा ये अकाल उन जिलों में पड़ रहे हैं जहां की भूमि संसार में सर्वाधिक उपजाऊ है और उस काल में जबकि पूर्ण आन्तरिक शांति है। भारत की व्यवस्था की इस दुर्दशा का महा कारण भूमिकर है।" 

     

    इसके बाद थॉमसन ने कमरतोड़ भूराजस्व (मालगुज़ारी) की वसूली में अपनाये जाने वाले बर्बरतापूर्ण तरीकों को वर्णन किया है २९१ जिनका जिक्र पहले किया जा चुका है। 

     

    महान् अंग्रेज़ महिला 'लेडी ऑफ दी लैम्प' - फ्लोरेंस नाइटिंगेल को उद्धृत करते हुए, एक प्रख्यात अमेरिकी अर्थशास्त्री कहता है, "भारत के प्रति अपनी संवेदना प्रकट करती हुई फ्लोरेंस नाइटिंगेल (१८७८ मे) लिखती है कि, "हम भारतीय जनता की तनिक भी परवाह नहीं करते, हमारे पूर्वी साम्राज्य के कृषक की स्थिति सिर्फ पूर्व में ही नहीं संभवत: समूचे विश्व 

     

    में, सर्वाधिक दुःखद है।” और वह वीभत्स अकालों का कारण करों को बतलाती है जो कृषकों से खेती करने के साधनों तक को भी छीन लेते हैं, और हमारे कानूनों की पोष्य पुत्री वह वस्तुत: दासता है, जिसके कारण विश्व के सर्वाधिक उपजाऊ देश के बहुत से स्थानों में पीस देने वाली, स्थायी अर्ध-भुखमरी की स्थिति पैदा हो गई है, यद्यपि वह अकाल कही जाने वाली स्थिति नहीं है । "३०० 

     

    खाद्यान्न की कीमतें न केवल उन क्षेत्रों में बढ़ीं जहां खाद्यान्नों की वास्तविक कमी थीं अपितु वहां भी जहां खाद्यान्नों का प्राचुर्य था । इसका कारण यह था कि पराधीन भारत को चाहे अकाल पड़े या न पड़े, मालगुज़ारी तथा अन्य करों को चुकाने के लिए विवश होकर खाद्यान्न का इंग्लैंड को निर्यात करना पड़ता था । भारतीय सरकार ने इतनी क्रूरता से इस नीति को अपनाया कि अपने ही बंगाल के उप-राज्यपाल, सर जार्ज कैम्बल, के प्रस्ताव को भी कि बंगाल से, जिसका एक भाग १८७३ में भयंकर अकालग्रस्त था, चावलों का निर्यात बंद कर दिया जाए, (ब्रिटिश) राज्य (विदेश) मंत्री की सलाह से रद्द कर दिया। इसके स्थान पर संकट का सामना करने के लिए सरकार ने वर्मा से चावल आयात करना उचित समझा। निर्यात समाप्त न करने की इस नीति पर टिप्पणी करते हुए सर जॉर्ज ने कहा, "इसमें मुझे कोई भी संदेह नहीं कि किसी भी गैर अंग्रेज़ी राज्य में ऐसा कर दिया गया होता।” ३०१ एक ओर निर्यात बरकरार रखने और दूसरी ओर उन्हीं वस्तुओं का आयात करने की इस बेतुकी नीति को अपनाकर 'लाखों रुपयों को बर्बाद' (सर जॉर्ज के शब्द ) क्यों किया गया? इसका कारण इंग्लैंड का निजी स्वार्थ था, जो चाहे कुछ भी हो सदैव सर्वोपरि था । यदि अंग्रेज़ों की जेबों में कुछ भी धनराशि आ सकने की संभावना होती थी, तो वे लाखों मनुष्यों व विशाल धनराशि का बलिदान करने में पलभर के लिए भी हिचकिचाते नहीं थे। आयात-निर्यात दोनों में अंग्रेज़ों और उनके एजेंटों को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से वाहन के भाड़ों, बीमा, दलाली आदि से लाभ होता था । यहीं नहीं, खाद्यान्न के निर्यात करने से अंग्रेज़ों को सस्ता अन्न भी मिलता था। परन्तु सवाल तो यह है कि यह ‘लाखों रुपये' किसने बलिदान किए? उत्तर स्पष्ट है : भारत की जनता ने । 

     

    भारतवर्ष में अंग्रेज़ी राज की पूर्णता व पराकाष्ठा बंगाल में १९४२-४३ में पड़े भयंकर अकाल में पहुंची। इस ‘मानव निर्मित' अकाल में १५ लाख (सरकारी अनुमान) से लेखकर ३४ लाख (कलकत्ता विश्वविद्यालय के अनुमान) तक लोग मर गये । अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद के लिए लाखों की संख्या में जनता ने अपना बलिदान दिया, जिसका मुख्य कारण सर्वाधिक वेतन प्राप्त सरकारी अधिकारियों की प्रशासनिक अकुशलता और कुछ हद तक अवहेलना थी । सरकारी अकाल जांच आयोग ने उसी को दोषी बतलाया जो उसके उपयुक्त था : " परन्तु, सभी परिस्थितियों के अवलोकन के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे बिना नहीं रह सकते कि बंगाल की सरकार उचित समय पर सुस्पष्ट, दृढ़ और सुविचारित कदम उठाकर अकाल की दुर्घटना को रोक सकती थी एवं भारत सरकार भी घटना के समय से पर्याप्त पूर्व खाद्यान्न के सुयोजित आवागमन की आवश्यकता को समझने में असफल रही। " 

     

    " प्रान्त के निम्न आर्थिक स्तर, उद्योगों की अनुपस्थिति में भूमि पर बढ़ रहे भार, जनसंख्या का एक बहुत बड़ा भाग कठिनता से जीवन - निर्वाह करता हुआ, और किसी प्रकार के तीव्र आर्थिक कष्ट को सहन करने में असमर्थ था - बहुत बुरी स्वास्थ्य स्थिति एवं पौष्टिक आहार का निम्नस्तर, और फिर स्वास्थ्य या आर्थिक दृष्टियों से किसी भी प्रकार की 'सुरक्षा व्यवस्था का अभाव’–इन सबका भी उल्लेख आयोग ने किया । ३०२ 

     

    अंग्रेज़ों के भारत छोड़ने से केवल दो वर्ष पहले आयोग ने जिस विनाशक आर्थिक स्थिति का उल्लेख किया था, वे सब सुयोग्य पर्यवेक्षकों को सदा से ज्ञात थे। समय-समय पर नियुक्त किये गए सरकारी अकाल आयोगों तक ने भी इन्हीं समस्याओं का उल्लेख किया था। उदाहरणार्थ, उत्तर भारत में आए १८६० के भीषण अकाल के बाद सरकार ने इसके कारणों की छानबीन के लिए कर्नल बेअर्ड स्मिथ को नियुक्त किया। उसने स्पष्ट लिखा है कि "देश में खाद्यान्न को कमी के कारण अकाल नहीं आया, बल्कि भूखे मरते लोगों द्वारा खाद्यान्न प्राप्त कर सकने की आर्धिक असमर्थता के कारण आया। उसने यह भी बताया की लोगों की जीवन शक्ति इस बात पर बहुत निर्भर है कि वे किस प्रकार की भू-व्यवस्था के अन्तर्गत रहते हैं। उसने इस बात पर बल दिया कि सिंचाई कार्यों, सड़कों एवं संचार सुविधाओं का विकास और समापन किया जाए । ३०३ 

     

    सन् १८८० में पूर्वोक्त दुर्भिक्ष आयोग ने सरकार को बताया कि अकाल का मुख्य कारण यह था कि केवल कृषि के अतिरिक्त लगभग और कोई भी उद्योग नहीं रहा, जिस पर जनता निर्भर रह सके। 

     

    अंग्रेज़ न तो क्रूर मालगुज़ारी व अन्य करों में कुछ छूट देना चाहते थे, न ही ज़मीदारों व महाजनों को हटाना चाहते थे, न उद्योगों व सिंचाई को प्रोत्साहन देने को तत्पर थे एवं न ही जनता की कर - राशि के अधिकांश भाग को इंग्लैंड भेजना बंद करने के लिए तैयार थे। आर्थिक स्थिति को सुधारने और अकालों को समाप्त करने के लिए ऐसे बुनियादी परिवर्तन करने की बजाय भारत सरकार ने प्रायः स्वनिर्मित अकाल से पीड़ित लागों के कष्टों को दूर करने के लिए अकाल- सहायता कोष की स्थापना की। 

     

    अनिच्छापूर्वक कार्यान्वित दुर्भिक्ष - सहायता के खर्चे को पूरा करने के लिए सरकार ने पहले से ही दारिद्य एवं कर - भार से दबी जनता पर और अधिक कर लगाये । परन्तु, ऐसा करते समय अपने स्वार्थे की पूर्ति के लिए निर्मित लोगों जैसे कि ज़मींदारों, महाजनों, बागान–स्वामियों को तनिक भी स्पर्श नहीं किया, न ही अपने अन्धाधुन्ध फिजूल खर्ची को कम किया एवं न ही सर्वाधिक वेतन प्राप्त सरकारी नौकरों के वेतनों में कोई कटौती की। अंग्रेज़ सरकार शाइलॉक की तरह थी, जो अपने मोटे-मोटे वेतनों और शोषण के लाभों का न केवल सारे का सारा पौंड लेती थी, बल्कि जनता के रक्त की एक-एक बूंद तक चूसती थी, जिस (जनता) की खर्च करने में कतई कोई आवाज़, बीसवीं शताब्दी के बहुत थोड़े वर्षों को छोड़कर, कभी नहीं थी। तथाकथित दुर्भिक्ष सहायता कोष का परिणाम यह हुआ कि इसके नाम पर ग़रीबी ही नही दुर्भिक्ष के नीचे भी दबी उस शेष जनता पर और अधिकाधिक कर लगाया गया, लोग अगली बार में फिर एक अकाल के शिकार बनने वाले थे। 

     

    जो 

    सन् १९०८ में एक अमेरिकी अर्थशास्त्री ने लिखा, "सरकार ने दुर्भिक्षों के प्रभाव को कम करने के लिए जो पग उठाए हैं, उन्हीं पगों ने कर और बढ़ाकर अकालों के वास्तविक कारण को और भी तीव्र और विस्तृत कर दिया है। यद्यपि हाल ही में दक्षिण भारत में पड़े अकाल के कारण अनुमानत: साठ लाख लोग सीधे भूख से मर गये थे और शेष की बची विशाल जनता वास्तव में अधनंगी हो गई थी, तब भी करों में कोई कमी नहीं की गई और नमक कर, जो इन बहुधा गरीब लोगों के लिए पहले से ही निषेधात्मक था, चालीस प्रतिशत बढ़ा दिया गया जिस तरह से १७७० ई० में बंगाल में पड़े भीषण दुर्भिक्ष के बाद जीवितों पर कर बढ़ा कर और उनको सख्ती से एकत्रित करके राजस्व में वृद्धि की गई थी । ३०४ 

     

    कहने को तो दुर्भिक्ष सहायता कोष अकालों के कष्टों को दूर करने के लिए बनाया गया था, परन्तु लिटन (भारत के वायसराय) की सरकार, उदाहरणार्थ, इस 'अकाल – कोष' को अफ़गान युद्ध के लिए प्रयोग करने में नहीं हिचकिचाई, जो युद्ध केवल ब्रिटेन के साम्राज्यवादी हितों के लिए लड़ा गया था, जबकि १८७७-७८ में केवल उत्तर - पश्चिमी प्रान्त में ही १३ लाख लोग दुर्भिक्ष से मर रहे थे। लिटन के शासनकाल में (अप्रैल १८७६ से मई १८८० तक) दुर्भिक्ष से मरने वालों की कुल संख्या, उत्तर-पश्चिमी प्रान्त के १३ लाख मृतकों के अतिरिक्त, सरकारी तौर पर ५० से ६० लाख के बीच अनुमान की गई थी । ३०५ 

     

    ब्रिटिश- समर्थक उनके शासनकाल के दौरान बार-बार पड़ते अकालों के दो कारण बतलाते हैं। पहला यह कि अकाल अंग्रेजों द्वारा भारत में लायी गई 'सर्वव्यापक शांति' की दुःखद अनिवार्यता थे, और दूसरा यह कि भारतीय बहुत बच्चे पैदा करते हैं, जिसके कारण अकाल पड़े। 

     

    अंग्रेज़ों की शान्ति, कानून और व्यवस्था 

    ब्रिटिश साम्राज्यवादी भारत में अपनी शान्ति, कानून और व्यवस्था की ऐसी दुहाई देते हैं जैसे कि मानो उनसे पहले भारत हिंसक और लड़ाकू लोगों को देश था, जिनको शांति और व्यवस्था का अर्थ भी मालूम नहीं थी। इस बात में कोई संदेह नहीं कि अन्तिम प्रमुख मुगल सम्राट औरंगजेब की १७०७ में मृत्यु के बाद देश के कुछ भागों में अस्तव्यस्तता और अराजकता का वातावरण था, जिसमें स्वयं अंग्रेज़ों का महत्त्वपूर्ण हाथ था। परन्तु इसका अर्थ यह तो नहीं कि किसी लम्बे समय तक भारत में कानून-हीनता रही। इंग्लैंड सहित संसार के अन्य भाग भी कानून-हीनता और गृहयुद्धों से उन्मुक्त नहीं थे । एक प्रख्यात भारतीय इतिहासकार के अनुसार, औरंगजेब के पतन से लेकर अंग्रेज़ी शासन की स्थापना (१७०७–५७) का यह संक्रमण काल - " किसी भी प्रकार से सामान्य नहीं माना जा सकता और सारे भारतीय इतिहास से ज्ञात होता है कि कैसे प्राय: एक साम्राज्य के पतन के बाद अस्तव्यस्तता एवं अराजकता की स्थितियां सदा ही, आगामी स्थिर और कार्यकुशल सरकार की स्थापना की केवलमात्र पूर्वसूचना देती रहीं । ३०६ 

     

    जैसा कि हम पहले इंगित कर चुके हैं कि १७५७ में भारत में अपना साम्राज्य स्थापन करने के बाद अंग्रेज़ों ने इस देश को लगभग ३० वर्षों के लिए नितांत कानूनहीनता और अराजकता के गर्त में धकेल दिया । केवल १९वीं शताब्दी में ही अंग्रेज़ों ने कम से कम १११ बार सैनिक युद्ध - अभियान और सैनिक मुहिम किये। ३०७ जहां तक जान-माल की सुरक्षा एवं कानून 

    के सिद्धांतों पर आधारित कुशल प्रशासन - व्यवस्था का सम्बन्ध है, एक प्रख्यात भारतीय इतिहासकार का दृढ़ मत है कि "ये भारत में अंग्रेज़ी राज की पहली शताब्दी के अन्त तक (अर्थात कुल अंग्रेज़ी शासनकाल के आधे से अधिक - ५३ साल) स्थापित नहीं हुए थे, या कम से कम अधिकांश रूप से अनुपस्थित थे । ३०८ 

     

    मूल बात यह है कि अंग्रेज़ों ने जो तथाकथित शांति स्थापित की, वह अपने निजी स्वार्थो के लिए की। शोषणात्मक नीतियों को बनाये रखने के लिए शांति का होना पूर्वाकांक्षित था । घर में घुसने वाले डाकुओं की तुलना से इस बात को समझाया जा सकता है। भीतर घुस जाने के बाद भी यदि घर के लोग उनसे लड़ते रहें तो वे अपने कार्य में सम्भवतः सफल नहीं हो सकते। डाकुओं को यह देखना होगा कि घर वालों को शान्त रखा जाये, और उनको स्वयं के द्वारा (डाकुओं द्वारा) स्थापित 'कानून और व्यवस्था' में आवश्यक रूप से रखा जाये। ऐसा करने के लिए वे या तो घर वालों को मार देंगे या मुंह बन्द कर हाथ-पैर दृढ़ता से बांध देंगे । और यदि वह अंग्रेज़ों की भांति चतुर और धूर्त हुए तो घर के भीतर ही कुछ इस तरह की स्थितियां उत्पन्न कर देंगे जिससे घर के लोग आपस में ही लड़ना शुरू कर दें | इस प्रकार जब घर वाले शान्त कर दिए गये हों या आपस में लड़ रहे हों, तब डाकू अपना काम 'शान्ति से' कर सकते हैं । डाकू इस बात की भी निगरानी रखेंगे कि उनकी गतिविधियों में रोड़ा अटकाने या उनके लूट के माल में हिस्सा लेने वाला कोई दूसरा आदमी भीतर न घुसने पाए। ऐसा करने के लिए वे अपने कुछ साथी–डाकुओं को नज़र रखने के लिए और यदि कोई भीतर घुसने की कोशिश करे तो उसे गोली मारने को तैयार रहने के लिए दरवाज़े पर खड़ा कर देंगे । कोई भी समझदार आदमी डाकुओं द्वारा कायम इस 'शान्ति, कानून और व्यवस्था' की सराहना नहीं करेगा। भारतवर्ष में अंग्रेज़ों की गतिविधियां भी दूसरों के घर में घुसने वाले डाकुओं के ही समान थीं। अपने शासन के पहले १०० वर्षों में अंग्रेज़ लोगों के हाथ-पैर बांधकर उनकों लूटने के अलावा, उनका बध करने, उनको अपंग करने एवं उनका अपहरण करने के ज़रिए से तथाकथित 'कानून एवं व्यवस्था' तथा 'शान्ति' स्थापित करने में व्यस्त रहे । जिसकी पराकाष्ठा सन् १८५७ के विद्रोह के रूप में हुई जिसमें अंग्रेज़ों ने "वास्तव में विशालतम पैमाने पर क्रूरतम अत्याचार किये ३०९ और जिसमें उन्होंने निरपराध बच्चों और स्त्रियों सहित कम से कम एक लाख भारतीयों की जानें लीं,३१० और जब इतने लोगों को मारने के बाद 'शान्ति' की स्थापना हुई, तब उन्होंने अपनी करतूतें काफी बढ़ा दीं, यद्यपि मारधाड़ बिलकुल बन्द नहीं हुई । परिणामस्वरूप करोड़ों लोगों को मरघट की शान्ति देखनी पड़ी और जो बच गये उनके हाथों-पैरों में बेड़ियां पड़ गई। अंग्रेज़ों ने सब कारनामे अपने अनेकों कारिन्दों के अतिरिक्त सेना एवं पुलिस की सहायता से किये । चाहे युद्ध हो या शान्ति, सेना पर व्यय ( पुलिस को छोड़कर) कुल बजट के २५ प्रतिशत से कम कभी नहीं रहा; प्राय: इससे कहीं और अधिक होता था । यह सेना दरवाज़े पर पहरा देने वाले डाकुओं की तरह थी जो यह देखती थी कि घर की 'शान्ति' कोई और भंग न करे और यदि पुलिस अपर्याप्त सिद्ध हो, तो भारतीयों को भी चुप किये रखे। 

     

    'शान्ति', 'कानून और व्यवस्था' तभी वांछनीय हैं यदि कानून अच्छे हों, और यदि वे बहुमुखी राष्ट्रीय प्रगति के मार्ग-द्रष्टा होते हैं । परन्तु यदि वे उन्नति को रोकें, तब ऐसे 'शांति' व 'कानून और व्यवस्था' अवांछनीय हैं और उनको समाप्त करना ही उचित है। 'शान्ति और कानून' सभ्यता के लिए चाहे कितने भी आवश्यक हों, परन्तु उनमें वास्तविक सभ्यता निहित 

    नहीं है। ये सभ्यता के लिए खतरनाक भी बन सकते हैं, यदि ये राष्ट्र को धराशायी और नीना रखने में सहायक हों। ३११ ऐसा एक प्रख्यात डच इतिहासकार जेन हुईजिंगा ने कहा है, "व्यवस्था शासन के अस्तित्व का ओचित्य - प्रतिपादन करती है, उसके उद्देश्य या विशिष्टना को नहीं । ३१२ 

     

    यह जे० एस० मिल ने कहा । 'किसी भी कीमत पर शान्ति' सम्भवतः मानवीयता का मार्ग कभी नहीं रहा है, अपितु अधिकतम प्रचलित घोषणाएं तो 'न्यायोचित शांति' या 'सम्मान सहित शांति' की ही अतीत और वर्तमान में सुनाई देती है, यहाँ तक की शांति को भी पोप पॉल छठे ने इस प्रकार परिभाषित किया है। "न्याय या सम्मान के बिना शान्ति, या दुष्टता के आगे झुकने से स्थापित हो गई शान्ति, भय की प्रतीक है। न्यायपूर्ण शान्ति को ही (पोप) जॉन तेईसवें ने अपने सार्वभौम आदेश-पत्र 'पार्सेम इन टेरिस' में परिभाषित किया है कि यही ईसा की शान्ति है । ३१३ 

     

    संयुक्त राज्य अमेरिका के विदेश सचिव विलयम जेनिंग्स ब्रायन १९१५ में अंग्रेजों द्वारा भारत में स्थापित 'शान्ति' और 'व्यवस्था' का वर्णन इस प्रकार किया : "बात यह है कि इंग्लैंड ने भारत को इंग्लैंड के लाभ के लिए प्राप्त किया, न कि भारत के; और उसने भारत को कब्जे में अपने लाभ के लिए जकड़ा हुआ है, न कि भारत के लाभ के लिए। वह (इंग्लैंड) हर विषय पर हकूमत करता है और ठीक उसी तरह से निर्णय देता है जैसे कि कोई न्यायाधीश देगा यदि वह अपने स्वयं के ही मुकदमे का निर्णय करे ।" "ब्रिटेन ने अनेकों पूर्ववर्तियों की तरह, यह प्रदर्शित कर दिया है कि मनुष्य अपनी गैर-जिम्मेदार सत्ता को विवेक तथा न्यायपूर्ण ढंग से असहाय जनता पर स्थापित करने में असमर्थ है। उसने भारत के हित में यदि कुछ काम किया भी है तो बदले में उसने बहुत कीमत ऐंठी है, जहां वह (इंग्लैंड) जीवितों के बीच शान्ति स्थापित करने की शेखी मारता है, उसने करोड़ों को मरघट की शान्ति प्रदान की है। जहां परस्पर वह युद्धरत दलों के बीच व्यवस्था स्थापित करने की बात कहता रहता है, उसने देश को विधिवत लूटमार से दरिद्र बनाकर रख दिया है। यद्यपि लूटमार एक कड़ा शब्द है, परन्तु और कोई अन्य शब्द वर्तमान अंग्रेज़ी अत्याचारों का ठीक रूप से वर्णन नहीं कर सकता । ३१४ अंग्रेजी तानाशाही के अन्तर्गत, भारत के महान् वयोवृद्ध पुरुष ने १८९७ में घोषित किया था, "देश में शान्ति और कोई हिंसा नहीं है, परन्तु उसकी धन सम्पत्ति अदृष्ट रूप से शान्ति तथा बड़ी सफाई के साथ निचोड़ ली जाती है । भारतीय लोग शान्ति से भूखे रहते हैं और शान्ति, कानून और व्यवस्था सहित मर जाते हैं । ३१५ 

     

    सत्य और ईमानदारी के प्रचारक भारत के महात्मा गांधी को भी घोषित करना पड़ा था कि " अंग्रेजी राज ने भारत में जिस प्रकार की शांति की स्थापना की है, वह युद्ध से भी बुरी है । ३१६ 

     

    भारतवर्ष में की गई अपनी तबाही को शान्ति का नाम देने वाले इतिहास में अंग्रेज़ पहले नहीं थे। रोमनों के बारे मे, कार्थेज़ को बिलकुल नष्ट कर देने के बाद यह ठीक ही कहा जाता है कि "उन्होंने तबाही को 'शांति' कहा। इधर-उधर पूरब और पश्चिम- उस (रोम) ने मरुस्थल बनाकर रख दिया और उसको शांति का नाम दिया।” ३१७ इसी प्रकार "हमने भी जिन्होंने भारत को ग़रीबी और पतन तक धकेल दिया है, अपने द्वारा मचाई हुई तबाही को शान्ति का नाम देकर सम्मानित करना सीख लिया है। ३१८ 

     

    यह 'मरघट की शान्ति' भी भारत में अंग्रेज़ी राज के अन्तिम दिनों में, १९४६-४७ में बिलकुल ही नष्ट हो गई थी, जो काल पूर्णतया अराजकता, अस्तव्यस्तता और खून-खराबे का था । अर्थात् दूसरे शब्दों में, भारतवर्ष में अंग्रेजी शासन का प्रारम्भ और अंत कानून-हीनता और 'बरबादी की शान्ति' जिसका उन्हें बहुत गर्व था, उसकी समाप्ति के साथ हुआ । 

     

    जनाधिक्य 

    भारत की बढ़ती गरीबी के लिए अंग्रेज़ों ने संसार के सामने भारत की ' प्रचुर जनसंख्या' को दोषी ठहराया। इस बहाने से उन्होंने अपने परजीवी ब्रिटेन के भरण-पोषण करने और उसे धनी बनाने के लिए संसार के विशाल जनसमुदाय पर किए गए सहस्रों जुर्मों से पूर्णत: मुक्ति पाली - ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार परजीवी इटली का भरण-पोषण करने के लिए प्राचीन काल में रामे ने किया था। २१९ जनाधिक्य का यह तर्क गाड़ी के पीछे घोड़ा बांधने के समान है। स्वतंत्रता के बाद सन् १९५७ में एक अमेरिकी अर्थशास्त्री ने कहा, "भारत की ग़रीबी का कारण न तो सघनता है और न ही बढ़ती जनसंख्या । बल्कि, गरीबी स्वयं वह कारण है जिससे भारत अपनी विशाल व निरंतर बढ़ती जनसंख्या का पालन करने में इतनी कठिनाई अनुभव करता है । ३२० 

     

    भारतीय इतिहास में जनसंख्या वृद्धि की दृष्टि से १९२१ के वर्ष को 'महाविभाजक' कहा जाता है।३२१ १९२१ तक जनसंख्या वृद्धि की दर धीमी ही नहीं बल्कि पर्याप्त अनियमित भी रही। सन् १८७१ से लेकर १९२१ तक, जबकि पहली जनगणना उपलब्ध हुई, भारत की (पाकिस्तान और बंगला देश सहित) जनसंख्या १८.३ प्रतिशत बढ़ी । " ३२२ इसी अवधि में, यूरोप की जनसंख्या ४७ प्रतिशत बढ़ी। भारत में जनसंख्या की इस ' धीमी गति' का मुख्य कारण, बार-बार आने वाले अकालों और नाना बीमारियों तथा भयंकर महामारियों के कारण बढ़ती मृत्युदर थी । 

     

    सन् १९२१ से परिवहन एवं संचार की दिशा में आई कुछ प्रगति सिंचाई में हुई कुछ बढ़ोतरी, और सार्वजनिक स्वास्थ्य व सफ़ाई की स्थिति में हुए कुछ सुधारों के कारण चारों और छाये अकालों से (बंगाल में १९४२-४३ के सिवाय) कुछ राहत मिली । १९२१ से ५१ तक मृत्युदर अभी भी काफी अधिक थी, परन्तु १९२१ के पूर्व की जैसी असामान्य स्थिति नहीं थी । मलेरिया एवं हैजा देश में हुआ तो सही परन्तु उनसे मरने वालो की संख्या अब १९२१ से पूर्व की तरह असामान्य नही थी परिणामस्वरूप १९२१ से १९५१ तक भारत की जनसंख्या में ४४ प्रतिशत वृद्धि हुई, जबकि इसी अवधि में विश्व की वृद्धि ३३ प्रतिशत थी; उत्तरी अमेरिका की ४५ प्रतिशत और यूरोपीय देशों की (एशियाई रूस को मिलाकर) वृद्धि २० प्रतिशत हुई । ३२३ परन्तु, भारतवर्ष की ग़रीबी १९२१ से नहीं आरम्भ हुई। यह होती है स्वधीनता के पश्चात् १९५९ से, जिस वर्ष को " जनसंख्या वृद्धि की दृष्टि से १९२१ से भी अधिक तीव्र विभाजक ''३२४ माना जाता है। मृत्युदर में तीव्र कमी २९.४ से १८.०० प्रति सहस्र ) आने के कारण जनसंख्या में असाधारण दर से बढ़ोतरी हुई जिसने पहले सारे रिकार्ड तोड़ दिए। 

     

    किंग्ज़ले डेविस के अनुसार, सन् १८७१ से १९४९ तक भारत में जनसंख्या वृद्धि की औसत दर लगभग ०.६० प्रतिशत प्रतिवर्ष थी जो १८५० से १९४० तक समूचे विश्व की अनुमानित दर ०.६९ प्रतिशत से कम थी और जो यूरोप, उत्तरी अमेरिका तथा अन्य अनेक देशों से भी कम थी। सन् १८७१ से १९४९ तक भारत की कुल जनसंख्या में ५२ प्रतिशत वृद्धि हुई । ब्रिटिश द्वीप समूह में यह वृद्धि (इस काल में हुए भरकम उत्प्रवास को भी यदि न गिना जाए) ५७ प्रतिशत हुई, जापान में लगभग १२० प्रतिशत, और संयुक्त राज्य अमेरिका में २३० प्रतिशत वृद्धि हुई । ३२५ सन् १६०० से १९४० तक यूरोप की जनसंख्या में कुल वृद्धि भारत की अपेक्षा लगभग दुगुनी थी । " ३२६ 

     

    जनसंख्या की सघनता की दृष्टि से अंग्रेजी शासन में भारत की प्रति वर्गमील सघनता में वृद्धि संसार के अनेक देशों से कम थी, उदाहरणार्थ, सन् १८७१ से १९२१ तक भारत में प्रति वर्गमील जनसंख्या की वृद्धि ५.७ प्रतिशत थी जबकि इंग्लैंड और वेल्स में यह वृद्धि ६६.८ हुई । ३२७ आज भी भारत में जनसघनता इंग्लैंड, जापान, बेल्जियम, और इटली से कम है। जनसघनता की दृष्टि से भारत की गिनती मध्यम जनसघनता वाले देशों के साथ की जाती है । "३२८ 

     

    प्रश्न यह है कि यूरोप, उत्तरी अमेरिका और जापान भारत की अपेक्षा काफ़ी ऊंचे जीवन स्तर पर अपनी भारत से अधिक बढ़ती हुई जनसंख्या का कैसे निर्वाह कर सके ? कारण यह था कि इन स्वतंत्र देशों की जनसंख्या में वृद्धि और आर्थिक विकास में वृद्धि एक-दूसरे को बढ़ावा देते हुए, साथ- साथ होती रहीं, जबकि ब्रिटिश शासन के दौरान भारत का आर्थिक ह्रास होता रहा । 

     

    एक अमेरिकी लेखक ने सन् १९४२ में लिखा, "भारतीय निर्धनता का कारण जनसंख्या - वृद्धि नहीं है बल्कि यह वास्तविकता कि भारत के आर्थिक विकास में बलात् अवरोध का एक उदाहरण है । पाश्चात्य देशों में उद्योगों के विकास से जनसंख्या में तीव्र वृद्धि को प्रोत्साहन और उसके निर्वाह का साधन मिला। भारत में औद्योगिक विकास कृत्रिम तौर पर रोक दिया गया, और लोगो को बढ़ती मात्रा मे कृषि उत्पादन के पुराने तरीको पर निर्भर रहने पर विवश होना पड़ा, जो (कृषि) भू-स्वामित्व और करों के बोझ से और भी जर्जर होने के कारण, उस पर की गई मांगों को पूरा करने में अधिकाधिक असमर्थ होती गई है। ३२९ 

     

    आर्थिक विकास के अवरोध की ऐसी अवस्था में ब्रिटिश साम्राज्यवादियों और उनके पिछलग्गुओं द्वारा दिया गया यह तर्क कि जनाधिक्य आर्थिक विकास में बाधा है, केवल एक निरा सफेद झूठ है । 

     

    भारत के आर्थिक विकास के लिए अंग्रेज़ी योजनाओं को कार्यरूप न देने के पीछे यदि भारत का जनाधिक्य कारण था तब लोगों की भलाई की इच्छुक किसी अन्य सरकार की भांति अंग्रेज़ सरकार ने क्यों नहीं ऐसे पग उठाए जेसे कि जन्म दर घटाने के लिए जन्म निरोधक चिकित्सालय इत्यादि; जिस प्रकार स्वतंत्र भारत की सरकार अब कर रही है? सरकार से जनसंख्या विस्तार पर नियंत्रण के लिए की गई प्रार्थना के बावजूद भी अंग्रेज़ों ने कुछ नहीं किया क्योंकि इसमें अंग्रेज़ों की कोई स्वार्थ सिद्धि नहीं होती थी । उदाहरणार्थ, सन् १९३८ में एक लेखक ने लिखा कि मद्रास की विधान परिषद ने "सरकार से जन्म-निरोधक चिकित्सालय स्थापित करने की असफल प्रार्थना की। इस तरह से चिकित्सालय भारतीय राज्य मैसूर में सन् १९३० में स्थापित किये जा चुके थे । ३३० 

     

    क्या भारतीय किसान अन्य देशों के किसानों से अधिक रूढ़िवादी थे ? 

    भारतीयों (विशेषकर भारतीय किसानों) के विरुद्ध एक और दोषारोपण किया गया कि वे बहुत रूढ़िवादी थे और परिवर्तनशील नहीं थे । एक अमेरिकी लेखक के शब्दों में "यूरोपीयों, विशेषकर अमरीकियों, की यह सामान्य धारणा है कि सारे एशियाई लोग उनसे अधिक रूढ़िवादी और कम परिवर्तनशील हैं। "३३१ अंग्रेजों ने हमें बतलाया कि उनके 'अनवरत ' प्रयत्नों के बावजूद भी इसी रूढ़िवादी व 'पिछड़े हुए दृष्टिकोण के कारण भारत की आर्थिक प्रगति नहीं हो रही । वही लेखक कहता है, "हालांकि स्थितियां इतनी भिन्न हैं कि किसी निष्कर्ष पर पहुंचना असंभव है, फिर भी यह संभवत: असत्य है । ३३२ ईस्ट इंडिया कम्पनी के एक विशिष्ट कर्मचारी मेजर जनरल सर ऐलैग्जेण्डर वॉकर ने सन् १८२० में भारतीय कृषि के संबंध में, जो उस समय तक फलती-फूलती दशा में थी, एक लेख लिखा । भारतीय कृषकों के बारे में उसने लिखा : 

     

    "साधारणतः भारतीय कृषक अपनी आवश्यकताओं से भली भांति परिचित होता है, और सामान्य: वह बुद्धिमान और विचारशील है। हर कहीं उसके वर्ग का यही चरित्र है । उसके काम करने के अपने ही मनपसंद तरीके हैं, क्योंकि वे सरल और लाभदायक हैं । परन्तु यदि उसे साधन और जानकारियां प्राप्त हों, तो वह उन्हें अपना लेगा बशर्ते कि वे उसके लाभ के लिए हों । ... यदि उसको यह स्पष्ट हो जाए कि परिवर्तन से उसका कष्ट हलका हो जाएगा और फसल भी बेहतर होगी, तब वह उन्हें अपनायेगा । वे सदैव यूरोप के उन बीजों और जड़ों को प्राप्त करने के लिए आतुर रहे हैं, जो उनकी जलवायु के अनुकूल हैं, और उनकी खेती में नियमित रूप से काम आने वाले अनेकों बीजों को उन्होंने अपनाया भी है।’३३३ 

     

    सन् १९२१ से १९२७ तक बम्बई में कृषि निदेशक, भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर बहुत-सी पुस्तकों के लेखक और भारत के एक सुविज्ञाता अंग्रेज़ अधिकारी डा० हैरल्ड मान ने भारतीय किसानों के विषय में लिखा, "भारत के अनेक भागों में भारतीय कृषकों के साथ लम्बे अनुभव के बाद मेरा यह विचार है कि ग्रामीण वर्गों को स्वभावतः रूढ़िवादी समझना ठीक नहीं है। और संभवत: के वास्तव में पाश्चात्य देशों के किसानों के एक विशाल वर्ग की अपेक्षा परिवर्तन के विरोधी बहुत कम हैं । ३३४ 

     

    अर्थव्यवस्था की अवनति और स्थिरता का कारण भारतीय कृषकों की कूपमंडूकता नहीं, अपितु मुख्यतः “खेतीहरों के विशाल वर्ग के पास निरंतर पूंजी की अत्यन्त घोर कमी थी।''३३५ इसका कारण था काश्तकारी और भू-राजस्व की अंग्रेज़ों की नीतियां, जिनको लागू करने के पीछे अंग्रेज़ों के दो प्रमुख उद्देश्य थे : (i) अपने पिट्ठू तैयार करना ताकि भारत वर्ष में अंग्रेज़ी राज को सुस्थिर किया जा सके; और (ii) भूमि से अधिक से अधिक मालगुज़ारी इकट्ठा करना। ३३६


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