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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 7 कृषि और कृषक (क्रमश:)

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    Vidyasagar.Guru

    महाजन 

    सरकार द्वारा या सरकार के प्रिय बालक ज़मींदार द्वारा भूमि पर मुद्रा के रूप में लगाये गए सदा बढ़ते हुए कुटिल और दुखदायी करों ने अनेक विकट समस्याएं खड़ी कर दीं । सरकार आग्रह करती थी कि उसको नियमित मुद्रा के रूप में कर राशि मिलती रहे जो उपज का या उसके मूल्यों का ध्यान किए बिना अग्रिम ही निश्चित कर दी जाती थी, अन्यथा किसान की सम्पत्ति, भूमि, घरेलू वस्तुएं आदि नीलाम कर दी जाती थीं । फसल खराब होने, सूखा पड़ने या उपज के भाव गिरने की स्थिति में गरीब किसानों के लिए कर चुकाने के लिए एकमात्र रास्ता, महाजन से पैसे उधार लेना ही रह जाता था क्योंकि लगभग और कोई साधन पैसा उधार लेने का किसानों के पास नहीं था। देर-सबेर अधिकांश किसानों को महाजन के पास जाने के लिए सरकार ने विवश कर दिया। भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए महाजन एक और अभिशाप बन गया और भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के लिए वह एक और आधारस्तम्भ बन गया। 

     

    ब्रिटिश साम्राज्यवादी तर्क देते हैं कि निर्धन कृषक इसलिए कर्ज़ लेते थे क्योंकि वे अपने बच्चों के विवाहों पर फिजूलखर्ची करते थे जैसे कि मानो कृषकों के विवाह प्रतिदिन होते हों और उनको जीवन पर्यन्त किसी भी प्रकार के मनोरंजन या सुख का कोई भी अधिकार नहीं । दक्षिण के ग़रीब कृषकों ने जब महाजनों और अन्य अत्याचारियों के विरुद्ध बेहद बेबसी से विद्रोह किया तब सरकार ने 'दक्षिणी दंगा आयोग' नियुक्त किया, जिसने अपनी रिपोर्ट में कहा : " आयोग की जांच से यह स्पष्ट है कि इस बात को अनुचित प्रधानता दी गई है कि विवाह और अन्य उत्सवों पर कृषकों के साधनों के मुकाबले में निस्संदेह अधिक हैं; परन्तु ऐसे खर्चे कभी-कभार ही आते हैं और शायद इस प्रकार से किसी भी कृषक द्वारा खर्च की गई सारी राशि कुछ वर्षों को मिलाकर औसतन अधिक नहीं है जबकि सामाजिक और घरेलू सुखों पर उसी के स्तर के किसी और व्यक्ति द्वारा इतनी राशि खर्च करना न्यायसंगत समझा जायेगा । " और वह राशि कितनी है जो ग़रीब किसान अपने लड़के के विवाह पर खर्च करता है? आयुक्तों के अनुसार यह ५० से ७५ रुपए तक है । २५८ 

     

    पंजाब प्रान्त के कर आयुक्त एस० एस० थॉरबर्न ने १८९१ में, ५३५ गांवों और तीन लाख कृषिनिर्भर जनसंख्या वाले चार इलाकों या मण्डलों में घर-घर जाकर सर्वेक्षण के उपरान्त कृषकों द्वारा महाजनों से – जिनको “हमारी व्यवस्था गांवों का स्वामी बना रही है " - ऋण लेने का मुख्य कारण 'मालगुज़ारी अदा करना' ठहराया। थॉरबर्न के अनुसार ऋण लेने का दूसरा मुख्य कारण बीज़ खरीदने के लिए धन की आवश्यकता थी । यह सब मालगुजारी का परिणाम था जिसके कारण किसान के पास अगली फसल बोने लिए बीज भी नहीं बच पाते थे और न ही किसी प्रकार की पूंजी शेष बच पाती थी । थॉरबर्न ने यह भी स्थापित किया कि "१२६ गांवों में आधे से अधिक पुराने कृषकों की छुटकारे से पार बरबादी अभी तक हो चुकी है और उनके खेत महाजनों की सम्पत्ति बन चुके हैं । २५९ 

     

    १९०१ में भारतीय अकाल आयोग ने भी इस मत की पुष्टि की कि अंग्रेज़ी मालगुज़ारी प्रथा भारतीय कृषकों को ऋण लेने के लिए मुख्यतः विवश करती है। आयोग ने लिखा कि "किसान ऋण के गढ़ में धंस गए हैं, उनकी सम्पत्ति उनके हाथों से छीन ली गई है। यह अवश्य मानना पड़ेगा कि मालगुज़ारी प्रथा ऐसी स्थिति को लाने में सहायक हुई है जिसकी कठोरता ने कृषकों को ऋण लेने पर मजबूर कर दिया है, और उनके पास मूल्यवान वस्तु (भूमि) ने उनको ऋण लेना आसान कर दिया है। २६० 

     

    सर हेनरी कॉटन २६१ तथा दक्षिण कृषक सहायता अधिनियम २६२ की रिपोर्ट ने भी यह पुष्टि की है कि मालगुज़ारी की कठोर मांगें निर्धन कृषक को महाजन के चंगुल में फंसाने के लिए पूर्णत: उत्तरदायी थीं । ब्रिटिश शासन से पहले भी भारतीय कृषक महाजनों से ऋण लेते थे । परन्तु तब कृषक अपनी ज़मानत पर ही उधार ले सकते थे, भूमि की ज़मानत पर नहीं । अतः ऋण देना एक बहुत जोखिम था, इसीलिए अंग्रेज़ों के काल की अपेक्षा ऋण की मात्रा भी तब बहुत कम थी । अंग्रेजों से पहले महाजन किसानों का केवल एक दीन-हीन सेवक था और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में उसका स्थान बहुत नीचा था, परन्तु ब्रिटिश काल में वह किसान का स्वामी बन गया तथा जमींदार के साथ-साथ वह भी परम उच्च पद पर आसीन हो गया। ज़मींदार और महाजन दोनों ही परजीवी - सबसे बड़े परजीवी अंग्रेज़ों द्वारा बनाये, पाले-पोसे एवं पनपाए गए। 

     

    गांव में महाजन एक छोटा-सा व्यापारी भी होता था । महाजन को ऋण और ब्याज चुकाने, ज़मींदार को किराया देने और सरकार को कर देने के लिए किसान को अपने श्रम से उपजाई फसल काटने के समय अथवा कभी-कभार तो पकने से पूर्व ही खेत में खड़ी की खड़ी महाजन के हाथों बेच देना पड़ती थी । कटाई के समय फसल बेचने का अर्थ था उपज को बहुत सस्ता बेचना, और कुछ ही मास बाद उसी महाजन से बहुधा किसान को बीज बोने तक के लिए भी महंगे दामों पर अन्न ख़रीदना पड़ता था । ऐसा करने के लिए उसको महाजन से उधार लेना पड़ता था। चूंकि ऋण का लगभग एकमात्र स्रोत वही था इसलिए स्वाभाविकतया वह ऋण बेहद ब्याज पर देता था जो किसान के लिए " आर्थिक मृत्युदंड के समान था । २६३ इस प्रकार से कृषक ऋण और अदायगी के चक्रव्यूह में ही घूमता रहता था । इस सब गिद्धों और पिशाचों को देने के लिए उसे अपनी उपज बेचनी पड़ती थी और महाजन से उधार भी लेना पड़ता था ताकि वह अपने अस्तित्व को बनाये रखने भर के लिए जीवित रह सकने और इन गिद्धों और पिशाचों को दे सकने के लिए उपज पैदा कर सकें । अन्तत: यह चक्कर तभी टूटता था जब विवश होकर किसान अपनी भूमि बेच देता या कर्ज़ न चुका पाने के दोष में महाजन उसकी ज़मीन को हड़प लेता था। इस प्रकार इस कठोर अतिशय मालगुज़ारी के कारण अन्ततः भूमि किसानों के हाथ से छिन जाती थी और भूमि का स्वामी कृषक केवल मज़दूर बनकर रह जाता था। 

     

    एक और प्रकार से भी कृषकों का शोषण होता था। जब कभी भी कोई सरकारी कर्मचारी गांव में जाता, तब ग्रामीणों को उसके स्वागत-सत्कार के लिए दावत देनी पड़ती थी। सरकार के किसी भी कर्मचारी को, विशेषतया पुलिस को, न केवल मुफ़्त भोजन खिलाया जाता था बल्कि वे किसान की अनाज, दूध जैसी उत्पादित चीज़ों को भी मुफ़्त में उड़ा ले जाते थे । यह बर्बरतापूर्ण लूट भारत में अंग्रेज़ी शासन का एक नियमित अंग था। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि पुलिस को गांवों की "सबसे बुरी बला और जंगली पशुओं से भी घटिया २६४ कहा गया है। 'लीव्ज फ्राम दी जंगल' के लेखक मिस्टर एल्विन ने ग्रामीणों को फलों के वृक्ष लगाने के लिए प्रोत्साहित करने का प्रयत्न किया । परन्तु ग्रामीणों ने कहा, "इसका क्या लाभ? जब फल पकेंगे तो पुलिस हमसे छीनकर ले जायेगी।” एल्विन वर्णन करता है कि, किस प्रकार बैगाओं के एक सम्पूर्ण कुल को अपना टोकरी बनाने को धन्धा ही छोड़ना पड़ा, क्योंकि बिक्री के लिए बाज़ार ले जाते समय उनकी टोकरियों में से काफी सारी टोकरियां सरकारी कर्मचारियों द्वारा छीन ली जाती थीं जिससे यह सहायक धन्धा लाभप्रद नहीं रहा। आर० रेनॉल्ड लिखते हैं: "भाग्यवादी निराश का इससे बढ़ कर कोई और उदाहरण नहीं दिया जा सकता जिसने अब प्राचीन ग्राम्य समाज की स्वतंत्र मनोवृत्ति का स्थान ले लिया है। २६५ 

     

    अनिवार्य व्यापारीकरण और भूमिहीन किसान 

    किसी भी देशके लिए कृषि का व्यापारीकरण वांछनीय है, और अंग्रेज़ों के पूर्व भारत में यह प्रक्रिया आरम्भ हो गई थी । फिर भी अंग्रेज़ों के अन्तर्गत इसे एक नया आवेग मिला, परन्तु यह आवेग अस्वाभाविक और जबरन था। भारतीयों के लिए यह घातक सिद्ध हुआ । कृषि के इस अनिवार्य व्यापारीकरण को, जिसमें कृषक को अपनी वस्तुएं किसी व्यापारी या महाजन को (अधिकांशत: एक ही व्यक्ति एक साथ व्यापारी और महाजन दोनों होता था) बेचनी पड़ती थी । सरकार ने भी प्रोत्साहन दिया क्योंकि ऐसा करना अंग्रेज़ों के हित में था। इस अनिवार्य व्यापारीकरण के विषय में एक अमेरिकी लेखक का मत है : "सरकार और ज़मींदारों द्वारा की गई बृहद् मांग को पूरा करने के लिए कृषकों की लगातार धन की आवश्यकता के कारण व्यापारिक कृषि का अंशत: विकास हुआ। दूसरा कारण यह था कि इस प्रकार के विकास का ब्रिटिश प्रशासन ने स्वागत किया... ब्रिटिश उद्यमी कच्चे माल के लिए शोर मचा रहे थे और अपनी तैयारशुदा वस्तुओं के लिए अच्छे बाज़ारों की तलाश में थे । २६६ 

     

    सरकार की 'बृहद्' मांग को पूरा करने के लिए और कृषि उत्पादनों - अन्न और कच्चे माल-की अंग्रेज़ों की अतर्पणीय प्यास को शान्त करने के लिए भारत को अपनी सम्पदा अंग्रेज़ सरकार के बच्चों - महाजन और रेलवे - के माध्यम से इंगलैंड भेजनी पड़ी; भरकम निष्कासन (जिसका वर्णन बाद में करेंगे) को पूरा करने के लिए भारत को मजबूरन इंग्लैंड को निर्यात करना पड़ता था; उस समय भी जबकि दुर्भिक्ष के कारण भारतीय लाखों की संख्या में मर रहे थे । 

     

    ए० जे० विलसन यह कहने के बाद कि भारतीय जनता सूदखोरों के शिकंजे में बुरी तरह से पिस रही है, क्योंकि हमारी 'मालगुज़ारी व्यवस्था उसे ऐसा करने को बाध्य करती है', इन अनिवार्य निर्यातों के बारे में लिखता है, “सच्चाई यह है कि भारत में सर्वोच्च सरकार द्वारा निर्धारित भूमि व्यवस्था सारी जनसंख्या को विनाश की ओर ले जा रही है, और हमारे ये विस्तृत औरा महंगे सार्वजनिक कार्य इस विनाश की आग को और भी भड़का रहे हैं। सरकार अथवा सूदखोरों की मांगों को पूरा करने के लिए अनेक कठिनाइयों के उपरान्त उगाई गई फसल को, पकते ही तुरन्त बाज़ार में ले जाना पड़ता है जहां अधिकतर महाजन ही स्वेच्छित मूल्य देकर फसल खरीदता है और उसे यूरोपीय व्यापारीं अथवा उसके प्रतिनिधी को सस्ते दामों में बेच देता है। जब ऐसा नही होता तब अंग्रेज पूंजीपति स्वयं कृषकों, फसलों और प्रत्येक वस्तु को नियन्त्रित करता है; वास्तव में वह स्वयं ही सूदखोर बन जाता है । इस प्रकार बेची गई फसल रेल द्वारा शीघ्रता से विदेश भेज दी जाती है, और जब अन्न की कमी आती है, तब लोगों के पास न एकत्रित किया गया अन्न होता है और न ही खरीदने के लिए पैसा |... बदलती हुई राशि का धन के रूप में कड़ा लगान और जिसकी, बंगाल को छोड़कर सारे भारत में प्रत्येक तीस साल या उससे पहले बढ़ने की सम्भावना है, साम्राज्य के विदेशी व्यापार के लिए तो सम्भवतया एक शानदार प्रोत्साहन है परन्तु देशी लोगों के लिए तो मौत है । " २६७ 

     

    ये अनिवार्य निर्यात तब भी होते रहे जब लाखों लोग अन्नाभाव में मर रहे थे। 

     

    "यह भारत में एक सामान्य बात है कि अन्न का निर्यात तब भी होता रहता है जबकि बहुत सारे लोग भूख से मर रहे होते हैं। रिचर्ड टैम्पल हमें बताता है कि १८७७ के अकाल के सारे समय में भी, जिसमें ४० लाख लोग भूख से मर गए, कलकत्ता बन्दरगाह से अन्न का निर्यात एक क्षण तक के लिए भी नहीं रुका, २६८ 

     

    अन्न के निर्यात की इस सारी प्रक्रिया में, और सरकार तथा ज़मींदार को लगान तथा किराया देने के लिए किसान की फसल को धन में परिवर्तित करने में महाजन सरकार का अमूल्य सहायक होता था । महाजन का व्यापार बिना किसी जोखिम के पर्याप्त लाभकारी था । भुगतान न करने की स्थिति में महाजन किसान की भूमि व सम्पत्ति को हड़पने के लिए ब्रिटिश कानूनों का, न्यायालयों को, और पुलिस का प्रयोग कर सकता था । परिणामतः भूस्वामी कृषक अपनी भूमि महाजनों को खो रहे थे, और महाजन उसी ज़मीन को पट्टेदार को किराए पर दे देते थे; अत: महाजन ही भूस्वामी भी बन रहे थे । इस प्रकार रैयतवाड़ी क्षेत्रों में भी ज़मींदार बनाये जा रहे थे। अन्य क्षेत्रों में तो ब्रिटिश कानून द्वारा जमींदारापन पहले से ही स्थापित कर दिया गया था। फलस्वरूप समूचे देश में भूमिहीन किसानों के परिश्रम पर फलने-फूलने वाली परजीवी श्रेणी अस्तित्व में आ गई। सरकारी जनगणना के अनुसार भी भूमिहीन कृषकों की संख्या अति तीव्र गति से बढ़ी। जीने योग्य मज़दूरी भी इन श्रमिकों को कठिनता से दी जाती थी । १८४२ के जनगणना आयुक्त सर थामस मुनरो ने कहा था, भारत में कोई भूमिहीन किसान नहीं है । १८५२ में जार्ज कैम्बल ने कहा था, भारत में आम तौर पर "कृषि किराये के मज़दूरों द्वारा नहीं कराई जाती। २६९ १८७१ की पहली भारतीय जनगणना में कुल कृषक जनसंख्या का १८ प्रतिशत भाग कृषिजीवी श्रमिकों को था। यह आंकड़े बढ़ते ही गए और ब्रिटिश शासन के १७४ वर्ष बाद, १९३१ की जनगणना के समय (१९४१ की अन्तिम ब्रिटिश जनगणना में व्यावसायिक वर्गीकरण की सारणी तैयार नहीं की गई ) भूमिहीन श्रमिकों की संख्या, जिनको भूमि में किसी प्रकार का कोई अधिकार नहीं था, लगभग ७ करोड़ ९० लाख या कुल कृषक जनसंख्या का ७० प्रतिशत हो गई । २७० इनमें से एक 'बहुत बड़ा' वर्ग अधिक से अधिक 'अर्द्धमुक्त' कहा जायेगा । १९३१ की जनगणना के बाद मंदी आई, और भारत भी इस तीव्र बवंडर की लपेट में आने से नहीं बचा। फलस्वरूप कृषि उत्पादों की कीमतों में ५५ प्रतिशत गिरावट आई और कुछ ही वर्षो में कृषि ऋण में १००% की वृद्धि हो गई परन्तु सरकार का लगान वैसा ही रहा । ऐसी परिस्थितियों में किसान की ज़मीन का महाजन व भूस्वामी या व्यापारी के पास खिसक जाना बहुत स्वाभाविक था, जिससे भूमिहीन किसानों की संख्या में वृद्धि हुई । १९३९ में दूसरा विश्वयुद्ध हुआ, जिससे मूल्य बहुत बढ़ गए तथा पुनः भूमिहीन किसानों की संख्या में बढ़ोतरी हुई। दूसरे शब्दों में अंग्रेज़ों के १९४७ में भारत छोड़ने तक भूमिहीन किसानों की संख्या निश्चित ही कुल कृषक जनसंख्या के ७० प्रतिशत से कहीं अधिक हो गई होगी। 

     

    १८४२ में और उससे पहले भूमिहीन कृषक नही थे जिसका अर्थ था कि सभी किसान भूस्वामी होने के नाते गौरव और सम्मान के साथ रह सकते थे ओर उन्हें अपनी निजि सम्पदा बढाने का प्रोत्साहन रहता था। ब्रिटिश शासन के लगभग २०० वर्ष बाद कम से कम ७ करोड़ ९० लाख लोग कृषक भूमिहीन हो चुके थे। लगभग २०० वर्षों में यह एक घृणित परिवर्तन था जबकि भारत की अधिकांश जनसंख्या कृषिजीवी बन चुकी थी, वे भूमि के मालिक नहीं रहे अतः अर्धदासों की तरह काम करते थे। इसी कालखंड में संसार के प्रत्येक स्वतंत्र देश के ठीक इसके विपरीत हुआ, जबकि कृषि के अतिरिक्त अन्य व्यवसायों में अधिक से अधिक लोगों को कारोबार मिल रहा था; और जो कृषि - क्षेत्र में बचे उनके जोत- क्षेत्र और उत्पादन दोनों ही बढ़े। "हमे देशीय शासकों से ऐसा भूमिधर - वर्ग मिला, जो उन खेतों के स्वामी होते थे जिन पर वह खेती करते थे, और अब हम संसार के सर्वाधिक जड़ और अकाल से पीड़ित देश पर शासन करते हैं ।"२७२ 

     

    अनुपस्थित महाजनों और ज़मींदारों के पास भूमि को खिसकने से रोकने के लिए और अपनी मांग को कम किए बिना, विशाल ऋणों को कम करने के लिए, सरकार ने अधमने भाव से कुछ मामूली-से कानून बहुधा किसानों के विद्रोह करने के बाद ही बनाये। परन्तु इन कानूनों में अनेक बचाव के रास्ते होने के कारण महाजन इनका उल्लंघन बड़ी सरलता से कर सकता था। महाजन अच्छे-अच्छे वकीलों को पैसे दे सकते थे, और दूसरी ओर पट्टेदार मुकदमेबाज़ी के भारी खर्चों को नहीं सह सकते थे। सबसे अधिक महत्वपूर्ण प्रश्न तो मांग और पूर्ति का था। किसानों को जीने और सरकार को कर देने के लिए खेती करनी पड़ती थी जिसके लिए उसे ऋण लेना ही पड़ता था । ऐसा करने के लिए उसे महाजन के पास ही जाना पड़ता था क्योंकि वस्तुत: वही एकमात्र उसकी मांग को पूरा करने का स्रोत था। ऐसी परिस्थितियों में कड़े से कड़ा कानून भी बढ़ती हुई ऋणग्रस्तता, भूमि का महाजन को हस्तांतरण और भूमिहीन किसानों को अनोखी बढ़ोतरी को नहीं रोक सकता था । 

     

    केवल बीसवीं शताब्दी में ही सरकार ने सहकारी ऋण समितियों और सहकारी बैंकों की स्थापना के प्रयास किए। परन्तु वही लोग जिन्हें ऋण की सर्वाधिक आवश्यकता थी, इन समितियों के सदस्य नहीं बन सकते थे; क्योंकि उनके पास सदस्यता की आवश्यकताएं पूरी करने के लिए पर्याप्त साधन नहीं थे। इसके अलावा ये समितियां और बैंक समुद्र में एक बूंद के समान थे । अतः कृषक को साहूकारों पर ही ऋण के लिए निर्भर रहना पड़ता था । 

     

    इन सभी कृषि समस्याओं के मूल कारण थे भारी मालगुज़ारी एवं भू-बन्दोबस्त । कराधान के मानवीय सिद्धांतों के अनुसार लगान लगाने को भारत की ब्रिटिश सरकार तैयार नहीं थी क्योंकि उसे विश्वभर में सबसे महंगी नागरिक एवं सैन्य सेवाओं पर खर्च करना होता था और ऐसा करने के लिए लगान ही लगभग एकमात्र साधन था । न ही सरकार भू-बन्दोबस्त बदलने के लिए तैयार थी, क्योंकि ज़मींदार और महाजन भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के आधारस्तम्भ थे। यहां तक कि उनकी विशाल आमदनियों पर भी कर नहीं लगाया जाता था। २७३ 

     

    १७० वर्ष के शोषण के बाद अंग्रेज़ों के भारत छोड़ने से केवल २० वर्ष पूर्व १९२७ में सरकार ने "ब्रिटिश भारत की कृषि और ग्राम अर्थव्यवस्था" की समस्याओं को जांचने के लिए ‘रॉयल कृषि आयोग' नियुक्त करने का निश्चय लिया। परन्तु कृषि की मूलभूत समस्या भू-बन्दोबस्त की जांच नहीं की गई। सरकार के ऐसा कदम उठाने के मूल कारण विश्वयुद्ध, विद्रोह और जनता के शांतिपूर्ण आंदोलन थे । 

     

    यद्यपि जनसंख्या का एक बहुत बड़ा भाग कृषि पर निर्भर था और सरकार की आय मुख्यतः इस पर आधारित थी, फिर भी २०वीं शताब्दी से पूर्व न कोई कृषि विभाग था और न ही व्यापार या उद्योग विभाग, जो यह स्पष्टतया प्रकट करता है कि भारत में ब्रिटिश सरकार पुलिस और तानाशाही के अतिरिक्त कुछ भी नहीं थी । इम्पीरियल कृषि अनुसंधान संस्थान १९०३ में, अंग्रेज़ों की कृपा से नहीं, बल्कि एक अमेरिकी के दान से स्थापित हुआ जिसने यह धन भारतीय कृषि के विकास के लिए दिया | २७४ ब्रिटिश शासन की समाप्ति तक इन संस्थानों या विभागों का महत्व बिलकुल क्षुद्र और हीन था । यह बात आश्चर्यजनक तो नहीं पर दुखदायी अवश्य है कि १९३५ - ३६ (शांतिकाल ) के प्रान्तीय तथा केन्द्रीय बजटों में कृषि के विकास के लिए कुल खर्चे का केवल डेढ़ प्रतिशत भाग रखा गया, २७५ जिस पर ८० प्रतिशत जनसंख्या प्रत्यक्ष निर्भर थी । एक अमेरिकी लेखक १९३८ में लिखता है, कि आई० सी० एस० के लोगों (कुल ११०७) पर कुल बजट का लगभग १.२५ प्रतिशत भाग प्रतिवर्ष व्यय किया जाता था।२७६ जिसमें 'विश्व के सबसे शक्तिशाली पुरुष २७७ – भारत के वायसराय, ब्रिटेन के राज्यमंत्री, (विदेश मंत्री) और सेना अधिकारियों के लाजवाब वेतन शामिल नहीं थे । 

     

    १९३१ में भारत आये एक अमेरिकी लेखक व विचारक ने इन ८० प्रतिशत लोगों की जीवन स्थितियों पर प्रकाश डाला है । " किसान की कमाई का लगभग आधा भाग तो उसके विदेशी स्वामियों को, क्रूरतापूर्ण भारी करों के रूप में चले जाते हैं । यदि यह समय पर न दिये जायें, या धन में न दिये जाएं, तो उसकी लघु सम्पत्ति सरकार द्वारा ज़ब्त कर ली जाती है ।... एक अंग्रेज़ हमें बताता है कि ये १० करोड़ किसान प्रतिदिन दो सैंट पर गुजारा करते हैं। उनकी टांगों को देखकर हमें यह विश्वास हो जाता है। इनमें से कोई भी ऐसा पुरुष नहीं जो कम वजन का न हो। पोषण की कमी के कारण उनमें से आधे स्पष्टतया दुर्बल दिखते हैं, उनके टखनों से घुटनों तक काली टांगों पर हाथ फेरने से यह पता लग जाता है। सभी व्यक्ति, यहां तक कि उनके अपने देशवासी भी, उनका शोषण करते हैं। अंग्रेज उन पर इतना कर लगाते हैं जितना कि वह लगा सकते हैं, सैनिक और असैनिक के लिए (जिनमें सारे प्रलाभी पर अंग्रेज़ों के हाथ में हैं) लाजवाब सुविधाएं जुटाते हैं, और अपने वेतनों का अधिकांश भाग इंग्लैंड में खर्च करते हैं ।  हिन्दू महाजन उनका खून चूसते हैं, क्योंकि जब कर देने का समय आता है तब किसान के पास नगदी होनी चाहिए और ऋणदाता का जोखिम काफी है । २७८ 

     

    सिंचाई 

    ब्रिटिश-काल से पूर्व सभी सरकारों ने इस तथ्य को पूर्ण मान्यता दी थी कि 'भारत में सिंचाई ही सब कुछ है' और उन्होंने कुओं, नहरों, तालाबों, झीलों, बांधों द्वारा सिचाई का महत्वपूर्ण कार्य सारे भारत में बहुत पुरातन काल से लेकर अंग्रेज़ी शासन तक किया। 

     

    अंग्रेज़ों ने जब शासन संभाला तब सिंचाई की लगभग पूरी तरह उपेक्षा कर दी गई। नहरें, तालाब और सिचाई के अन्य साधन अप्रयोग और देखरेख के अभाव से उजड़ने लगे । ब्रिटिश शासन के ८० वर्ष बाद १८३८ में जी० थॉमसन ने लिखा, “हिन्दू या मुसलिम शासनों बनी सड़कें, तालाब और नहरें, जो राष्ट्र व जनता के कल्याण के लिए बनी थीं, आज जीर्णशीर्ण हो खंडहर बन गई हैं और अब सिचाई साधनों के अभाव के कारण अकाल पड़ रहे हैं।”२७९ 

     

    १९०२ में डब्ल्यू० एस० लिली ने लिखा : " वास्तव में यह कहा गया है और इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि उन्होंने भारतीय (ब्रिटिश - काल से पूर्व के शासकों) ने जल संचयन के लिए जो कार्य किए वे उनसे “विशालता में श्रेष्ठ हैं जो प्रथावश संसार के आश्चर्य माने जाते हैं;”...लेकिन आज यह एक स्पष्ट तथ्य है कि सिंचाई के बहुत से पुराने साधनों को नष्ट होने दिया गया है।"२८० 

     

    कम्पनी के एक विशिष्ट पदाधिकारी और अंग्रेज़ी शासन के दौरान भारत में सिंचाई–कार्य के आरम्भकर्ता सर ऑर्थर कॉटन की लगातार मांग के बावजूद भी कि रेलों की बजाय सिंचाई - व्यवस्था सरकार के लिए अत्यधिक लाभदायक रहेगी, देश में अन्न उत्पादन के लिए अत्यधिक हितकारी रहेगी, और बार-बार अकालों से बचने के लिए अधिक आवश्यक रहेगी, रेलों को अधिमान्यता दी गई क्योंकि रेलें अंग्रेज़ों की पूंजी की लागत के लिए, उनके लिए अन्न व कच्चा माल जुटाने के लिए और उनके उद्योगों द्वारा तैयारशुदा वस्तुओं के लिए मंडियों के बढ़ाने के लिए अत्यधिक लाभकारी थी । उसकी १८५४ में की गई टिप्पणियां लगभग १०० वर्ष के अंग्रेज़ी शासन की सिंचाई नीति को स्पष्ट करती हैं- 

     

    " सारे भारत में सार्वजनिक कार्यों की लगभग अवहेलना की गई है।... 

    आदर्श वाक्य अब तक यह रहा है : 'न कुछ करों, न कुछ करवाओ', किसी को कुछ न करने दो चाहे किसी भी तरह की हानि हो, जनता इसी से मर जाये, चाहे जल या सड़कों की कमी के कारण राजस्व में लाखों की कमी हो जाये परन्तु करना कुछ भी नहीं । '२८१ 

     

    १८५७ की महान् क्रांति के बाद १८५८ में ब्रिटिश सरकार ने (ब्रिटिश) लोकसदन में ईस्ट इंडिया कम्पनी के सत्ता को समाप्त करने के लिए एक विधेयक रखा। उस समय मानचेस्टर की कपड़ा मिलों२८२ के लिए भारत में अधिक कपास उगाने के इच्छुक एक प्रसिद्ध अंग्रेज़ राजनेता  जॉनब्राइट ने (जो लोक सदन में मानचेस्टर चुनाव - क्षेत्र का प्रतिनिधि था) लोकसदन में २४ जून १८५८ को एक भाषण दिया जो १०० वर्ष के ब्रिटिश शासन के परिणामों का काफी कुछ सार व्यक्त करता है - "उन महाप्रान्तों में, जो सर्वाधिक समय तक ब्रिटिश शासन के अधीन रहे हैं, भारत की जनसंख्या के एक बहुत बड़े भाग, किसानों की स्थिति अत्यन्त दीन, अत्यन्त विषादपूर्ण और अत्यन्त यातनापूर्ण है ।... संसार के किसी भी देश की अपेक्षा भारत के कर 

    अधिक दुःसह और दमनात्मक हैं। सरकार द्वारा उद्योगों इतनी उपेक्षा की गई है कि शायद ही सभ्य और ईसाई कही जाने वाली सरकार द्वारा शासित संसार के किसी अन्य देश में की गई हो। मैं भारत के प्रतिष्ठित व्यक्तियों के विवरणपत्रों और स्मरणपत्रों, जैसे कि उदाहरणार्थ बंगाल के राज्यपाल श्री हॉलिडे के हवालों से यह सिद्ध कर सकता हूं कि बंगाल प्रान्त के पुलिस प्रशासन के अधीन जैसी स्थिति है ऐसी सभ्य कहे जाने वाले किसी भी देश की न है और न कभी हुई है। न्यायालयों की स्थिति भी इसी प्रकार की है ।... यदि मैं भारतीयों की ओर से बोलूं, तो मैं सार्वजनिक कार्यों के बारे में यह कहूंगा कि इंग्लैंड के किसी एक जिले में सारे भारत से अधिक यात्रा योग्य सड़के हैं; और मैं यह भी कहना चाहूंगा कि अकेले एक मानचेस्टर नगर ने केवल जल पर अधिक खर्च किया है बनिस्बत की ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने १८३४ से १८४८ तक के चौदह वर्षों में सब प्रकार के सार्वजनिक कार्यों पर अपने इतने बड़े नियन्त्रित देश में किया है। मैं कहूंगा कि भारत सरकार का असली काम तो विजय और विलयन का रहा है जिसके कारण ही इस सदन को भारत के विषय पर ध्यान देने को विवश होना पड़ा है। मुझे डर है कि यदि यह महाविपत्ति न घटती तो सदन भी ऐसा नहीं करता । २८३ 

     

    इस महान व्याख्यान के २० वर्ष बाद (१८७८) में जब मद्रास और अन्य स्थानों पर भारत को भीषण अकाल का सामना करना पड़ा, तब इसी महान व्यक्ति ने पुन: इसी महान लोक सदन में इसी महत्त्वपूर्ण विषय ( सिंचाई) पर भाषण करते हुए, भारत में ब्रिटिश सरकार की उसी महान अवहेलना और ग़लती की ओर इंगित किया । २८४ 

     

    यदि कोई काम अंग्रेज़ों के हित में नहीं होता था तो सरकार पहले तो वह काम करती ही नहीं थी और यदि करती तो कछुए की गति से करती; और यदि उनके हित में होता था तो वह एक क्रूर चीते की तरह छलांग लगाती थी । भारत में मार्च १९०२ तक सिचांई कार्य में कुछ खर्चा मुश्किल से २ करोड़ ४० लाख पौंड हुआ होगा, जबकि रेलों पर २२ करोड ९० लाख पौंड 

    हुआ । २८५ इसी प्रकार की भारी उपेक्षा तब भी चलती रही जबकि १९वीं शताब्दी की अन्तिम चौथाई में भारत में बहुत से महाभीषण अकाल पड़े और जबकि समय-समय पर नियुक्त किये गए सरकारी अकाल- आयोग सिफारिश करते रहे कि अकालों से बचने के साधनों में सिंचाई को प्रथम स्थान दिया जाए । यद्यपि रेलों से हर वर्ष भारी घाटे पर घाटा होता था और सिंचाई हमेशा लाभकारी धन्धों में से एक था, फिर भी रेलों को बड़ी आश्चर्यजनक गति से आगे धकेला गया और सिंचाई की घातक उपेक्षा की गई। कारण केवल यही था कि रेलें ब्रिटिश हितों की पूर्ति कर रही थीं, जबकि सिंचाई से ऐसा नहीं हो रहा था । 

     

    सिंचाई की यह घातक उपेक्षा केवल १९वीं शताब्दी में ही नहीं, बल्कि बहुत थोड़ी-सी कम मात्रा में २०वीं शताब्दी में भी होती रही। 'बाइसलेस मिलियन्स' के लेखक ने बंगाल के विषय में १९३१ में (अंग्रेजों के भारत छोड़ने के केवल १६ वर्ष पहले) एक तत्कालीन प्रख्यात इंजीनियर को उद्धृत किया है। " प्रख्यात जलीय इंजीनियर सर विलियम विलकॉक्स ने, जिनका नाम मिस्र और मेसोपोटामिया में लगाए गए सिंचाई उद्यमों से जुड़ा है, बंगाल की स्थितियों का हाल ही में सर्वेक्षण किया है। उसने खोज की है कि डेल्टा क्षेत्र की अनेक छोटी-छोटी नदियां जो अपनी दिशाओं को लगातार बदलती रहती है, पहले नहरे थीं, और जी अंग्रेज़ों के राज्य में अपने जलमार्ग से बाहर इधर-उधर जाने दी गई। पहले वे नहरें गंगा के बाढ़ के पानी को बांटती थीं और क्षेत्र का यथोचित जल निकास करती थीं, जो निस्संदेह बंगाल की उस सम्पन्नता का कारण थीं जिसने अठारहवीं शताब्दी के आरम्भकाल में यूरोप के लोभी व्यापारियों को वहां आकर्षित किया।... न केवल इतना कि पुरानी नहरों का उपयोग और विकास नहीं किया गया, उन क्षेत्रों में रेलवे के बांध भी बनवा दिए गए, जिससे ये नहरें पूर्णतया नष्ट हो गई। कुछ क्षेत्र तो, जिनको चिकनी उपजाऊ मिट्टी वाले गंगा के पानी से वंचित कर दिया गया था, धीरे-धीरे बंजर और अनुपजाऊ बन गए। अन्य क्षेत्र जिनका जलनिष्कासन ठीक नहीं किया गया, जल-आरोहण उन्नत स्थिति में है जो अवश्य भारी मलेरिया का कारण है। गंगा के निम्नजल - मार्ग को ठीक से संयोजित करने का कोई भी प्रयन्त नहीं किया गया जिससे विशाल भू-क्षरण को रोका जा सके जो प्रत्येक वर्ष गांवों, बागों और हरे-भरे खेतों को नष्ट करता है। सर विलियम विलकॉक्स ने बड़े कड़े शब्दों में वर्तमान प्रशासकों और कर्मचारियों की आलोचना की हैं, जिन्होंने इसके बावजूद भी कि वे हर प्रकार की विशिष्ट तकनीकि सहायता हर समय ले सकते हैं, इस अनर्थकारी स्थिति को, जो प्रत्येक दशक में बद से बदतर होती जा रही है, सुधारने का अब तक एक भी पग नहीं उठाया है।"२८६ 

     

    बीसवीं शताब्दी में ब्रिटिश साम्राज्य के आर्थिक व राजनीतिक स्वार्थी की पूर्ति के लिए कुछ नहरों का, विशेषतया पंजाब में निर्माण किया गया । १९३८ में आर० रेनॉल्ड्स बताते हैं, "यह सही है कि आधुनिक वर्षो में कपास उगाने को प्रोत्साहन देने की आवश्यकता के कारण और सिंचाई पर लागत लाभकारी होने की सम्भावना के कारण देश के कई भागों में नहरों का निर्माण कर दिया गया है; यद्यपि बंगाल को अतिरिक्त पूंजी लगाने के योग्य अब तक नहीं समझा गया है। यह भी अनुभूति कर ली गई है कि नहरों के पानी का नियन्त्रण विद्रोही किसान को धमकाने का एक शक्तिशाली राजनीतिक हथियार है । परन्तु इन सबकी अनुभूति होने से पहले कुछ भी नहीं किया गया। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अपने आदि - काल में न तो स्वयं नहरों की मरम्मत कराई और न ही किसी को करने दी।... अन्ततः जब सिंचाई कार्य का उत्तरदायित्व गम्भीरता से लिया गया, तब लगान इतना बढ़ा दिया गया कि देश के अधिकांश भागों में कृषकों को सिंचाई सुविधाओं से कोई लाभ नहीं हुआ। मुनाफे को तो सरकार, बैंकों, अंग्रेज़ ठेकेदारों और उनके कर्मचारियों २८७ ने आपस में विभाजित कर लिया, जो लगभग सारे ही अंग्रेज़ थे । 

     

    कुछ आंकड़े सिद्ध कर देंगे कि कृत्रिम सिंचाई पर, जोकि भारतीय कृषि और भारतीयों के लिए प्राण-शक्ति है, कितना थोड़ा काम किया गया। ब्रिटिश शासन के लगभग १५० वर्षों के बाद ५ वर्षो (१८९६-१९०० में ) औसत सिंचाई क्षेत्र कुल कृषि - क्षेत्र का १७ प्रतिशत था। इस १७ प्रतिशत में से भी सरकार द्वारा केवल ९ प्रतिशत क्षेत्र की सिंचाई की गई थी । लगभग १९० वर्ष के ब्रिटिश शासन के उपरान्त ५ वर्षो (१९४१ - ४५) में औसत सिंचाई क्षेत्र कुल कृषि योग्य क्षेत्र का लगभग २२ प्रतिशत था, इसमें से केवल १५ प्रतिशत सरकार द्वारा किया गया था२८८ अतः भारतवर्ष की जलवायु के अनुरूप सरकार ने अपने एक सर्वाधिक आवश्यक दायित्व की घातक उपेक्षा की। और यदि कहीं कुछ थोड़ा बहुत कार्य किया भी गया तो वह मुख्यतः नकदी फसल के लिए किया गया जैसे कि पटसन, कपास, जो ब्रिटिश उद्योगों के लिए चाहिए थी।८९ अथवा किसानों के जीवन के मूलाधार पानी को बस में करके उनको स्वतन्त्रता आन्दोलन से दूर रखने के लिए किया गया । 

     

    व्यापारिक और खाद्य फसलों में प्रतिस्पर्धा 

    ब्रिटिश शासन के दौरान एक और अन्य गम्भीर कृषि समस्या - व्यापारिक और खाद्य फसलों में प्रतिस्पर्धा का उदय हुआ । यह स्वाभाविक था कि अंग्रेज़ों को अपने बढ़ते उद्योगों के लिए कच्चे माल, जैसे कि कपास, पटसन, चाय, नील, गन्ना, मूंगफली के उत्पादन में रुचि हो । निदेशकों ने बहुत पहले १७८८ के आसपास ही भारत सरकार को लिखा था कि कपास की खेती को प्रोत्साहन दिया जाए । १८४८ में (ब्रिटिश) लोक सदन के कपास समिति नियुक्त की जिसका मूल उद्देश्य भारत में कपास की खेती को प्रोत्साहन देना था। 

     

    अंग्रेज़ों की स्वादपूर्ति के लिए ब्रिटिश सरकार चीन के अतिरिक्त चाय का एक और स्रोत चाहती थी, उस स्थिति में जब चीन अपनी स्वतन्त्रता प्रकट करे और इंगलैंड को चाय निर्यात न करे यद्यपि ऐसा कभी नहीं हुआ । ब्रिटिशों की हितपूर्ति का सदैव ध्यान रखने वाली भारत सरकार ने १८३५ में प्रयोगात्मक बागान लगवाये और मुख्यतः यूरोपियों द्वारा अधिकृत बागान (चाय, नील व कॉफी) कम्पनियों को, जो लगभग निर्यात ही करती थीं प्रत्येक प्रकार की सहायता दी जैसे कि आर्थिक सहायता, संरक्षा मुफ्त भूमि इत्यादि । सिवाय थोड़ा बहुत प्रथम विश्वयुद्ध के समय, इस प्रकार की सहायता भारतीय स्वामित्व के उद्योगों के बिल्कुल भी नहीं दी गई।२९° इन अतिविशाल लाभ कमाने वाली बागान कम्पनियों को आयकर तक से भी छूट दी गई थी और उनको इन बागान के अभागे श्रमिकों के भाग्य पर लगभग पूरा नियन्त्रण दे दिया गया था। 

     

    इन कानूनों के अन्तर्गत, वैधानिक रूप से स्वतन्त्र परन्तु अन्यथा दास किसानों को अन्न की बजाय नील और पोस्त उगाने पर मजबूर किया जाता था, उस समय भी जबकि लाखों लोग अकाल से मर रहे होते थे । १८६६ में बंगाल व उड़ीसा में एक अकाल पड़ा। एक ब्रिटिश अधिकारी ने जिसने इस अकाल की जांच की, स्वीकार किया कि खाद्यान्नों की कमी का एक मुख्य कारण नील की खेती को बढ़ाते जाना था, जो हर वर्ष अधिकाधिक भू-भाग को लीलता जा रहा है, जिस पर अन्यथा अन्न उगाया जा सकता था । २९९ 

     

    परिणाम स्वाभाविकतया यह हुआ कि आधी शताब्दी में (१८९५-९६ से १९४५ - ४६ तक) व्यापारिक फसलों के उत्पादन में बेतहाशा वृद्धि (८५ प्रतिशत) हुई, जबकि इसी काल में खाद्यान्नों के उत्पादन में ७ प्रतिशत की कमी आयी, यद्यपि, इस ५० वर्ष के काल में प्रतिव्यक्ति कुल फसल उत्पादन में २० प्रतिशत और खाद्यान्न उत्पादन में ३२ प्रतिशत की कमी आई। २९२ कोई भी नाममात्र की सरकार देश में खाद्यान की कमी में सुधार के लिए प्रयास करती। सरकारी रिपोर्ट और सरकारी आंकड़े बार-बार सरकार को यह बता रहे थे कि भारतीय कृषि व्यवस्था में कोई महान दोष है । 

     

    देश की खाद्य स्थिति में किसी प्रकार सुधार लाने की बजाय, भारतीयों को विवश किया गया कि वे अपने स्वामियों को जबरदस्ती दिये जाने वाले बढ़ते हुए ख़िराज या गृह-शुल्क की पूर्ति के लिए खाद्यान्नों तथा कच्चे माल का निर्यात करें। सामान्य समय में जबकि बहुधा लोग आधे भूखे रहते थे, और यहां तक कि अकाल के समय में भी जबकि लाखों लोग मर रहे होते थे, भारत को खाद्य - सामग्री निर्यात करनी पड़ती थी जो उसे स्वयं चाहिए थी । अकालों में लगातार वृद्धि के बावजूद १९वीं शताब्दी के मध्य के बाद खाद्यानों के निर्यात में बहुत अधिक उल्लेखनीय वृद्धि हुई १८४६ में जितने खाद्यान्न का निर्यात किया जाता था, १९१४ में इसका २२ गुना से भी अधिक का निर्यात् किया गया - जिस खाद्यान्न की भूखों मर रहे भारत को आवश्यकता थी, उसे ब्रिटेन उड़ाकर ले जाता था । 

     

    १९२१ तक भारत खाद्यान्न का निर्यातक था, परन्तु उसके बाद भारत को अपना पेट भरने के लिए आयातक बनना पड़ा, इस बात के बावजूद भी कि उसकी लगभग ८० प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर निर्भर थी । द्वितीय विश्वयुद्ध के आरम्भ तक ये आयात लगातार बढ़ते ही गए। युद्ध के दौरान आयात बंद कर दिये गए और ब्रिटिश युद्ध की बढ़ती हुई मांगों की पूर्ति के लिए भारत को खाद्यान्नों का निर्यात करना पड़ा। इसके ही कारण १९४२-४३ में बंगाल में अकाल पड़ा, जो पुन: यह साबित करता है कि गोरों का मानव-प्राणरक्षा से कोई सरोकार नहीं, यदि वह किसी भी प्रकार से उनके भौतिक हितों के विरुद्ध हो । 

     

    युद्ध के बाद भारत ने फिर से खाद्यान्न का आयात शुरू किया। जिस समय अंग्रेज़ों ने भारत छोड़ा तब तक भारत खाद्यान का आयात कर रहा था, जबकि अंग्रेज़ों के भारत - आगमन तक भारत ‘एशिया की कृषीय माता' (अन्नपूर्णा) कहा जाता था । 

     

    ऐसी परिस्थितियों में जहां अंग्रेज़ों ने सामन्तशाही की रक्तिम व्यवस्था का निर्माण कर दिया; जहां कृषकों की आय का बहुत बड़ा भाग या तो लुटेरी सरकार की कमरतोड़, भारी और अनिश्चित मांगों को, या अंग्रेज़ों द्वारा निर्मित जमींदारों ओर साहूकारों की मांगों को पूरा करने के लिए खर्च किया जाता था जहां आय के स्रोत घटाकर केवल कृषि तक ही सीमित कर दिये गये थे, और जहां आमदनी का एक बड़ा भाग विदेशों को भेज दिया जाता था, जो किसी भी आकार या प्रकार से भारत में पुन: नहीं लौटता था, ऐसी स्थिति में किंचित भी आश्चर्य की बात नहीं कि भारत में १९० वर्षों के ब्रिटिश शासन के दौरान अकालों के कारण उससे बहुत अधिक लोगों को मृत्यु हुई, जितनी कि शायद संसार के किसी और भाग में इतनी अवधि में हुई हो । 

     


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