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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 6 कृषि और कृषक

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    Vidyasagar.Guru

    विश्व के स्वतन्त्र देशों में, उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में कृषि पर जनसंख्या की निर्भरता घटती गई, जबकि उद्योगों और सेवा - क्षेत्रों में जन - निर्भरता बढ़ती गई, परन्तु भारत में ठीक इसके विपरीत हुआ । जैसा कि पहले कहा जा चुका है उद्योग और व्यापार, बैंकिंग तथा जहाजरानी, १९वीं शताब्दी के मध्य तक लगभग समाप्त कर दिये गए थे । कृषि ही एक ऐसा महत्वपूर्ण उद्योग बच गया था, जिसकी ओर जीवित रहने के लिए भारतीय लोगों को एकत्र होकर शरण लेनी पड़ी। कृषि और उद्योग का आपसी तालमेल पूर्णत: नष्ट कर दिया गया था, जबकि भारतीय कृषि और ब्रिटिश उद्योग के बीच तालमेल पक्की तरह से स्थापित कर दिया गया था। राष्ट्रीय आय के स्रोत, जिनका विस्तार करना सरकार का दायित्व होता है, संकुचित करके मुख्यत: कृषि तक ही सीमित कर कर दिए गए थे। 

     

    ब्रिटिश शासन की समाप्ति तक भी कृषीकरण और अनुद्योगीकरण का लगातार बढ़ते जाना एक तथ्य था । कृषि पर जनसंख्या की अतिसंकुलता तथा किसी और कारोबार का लगभग न होना जिसको अधिकांश जनसंख्या अपना सकती - यही भारतवर्ष की गरीबी का मूल कारण था । इस तथ्य को, इतना पहले जितना की १८८०, उस सरकारी अकाल- आयोग ने भी स्पष्टतया स्वीकार किया, जो १८७८ में ब्रिटिश शासन में बढ़ती हुई भारत में अकालों की समस्या पर विचार करने के लिए नियुक्त किया गया था: "भारतीय जनता की अधिकांश गरीबी और कमी के मौसम में उत्पन्न होने वाले खतरों की सम्भावना का मूल कारण दुर्भाग्य से यही है कि जनता के जीवन-यापन का लगभग एकमात्र व्यवसाय कृषि ही है । इस दुर्गति को दूर करने का कोई उपचार सफल नहीं होगा, यदि व्यवसायों की विविधता नहीं अपनायी जायेगी, जिससे कि कृषि पर से बढ़ती हुई आबादी की निर्भरता को घटाकर दूसरे उद्योगों तथा ऐसे ही अन्य रोज़गारों में जनता को काम मिल सकें । २२५ 

     

    यह उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं है कि अंग्रेज़ों ने व्यवसायों का वैविध्य विस्तार कर गरीबी के इस मूल कारण को मिटाने का किंचित भी प्रयास कभी नहीं किया । 

     

    जोतों का उप-विभाजन और विखण्डन 

    अंग्रेज़ों के पूर्वकाल में, भारत में ज़मीन का विनियम मूल्य कुछ भी नहीं था और श्रम महंगा था। ब्रिटिश शासन के दौरान गांवों और शहरों के करोड़ों लोगों को अपने उद्योगों तथा व्यवसायों से हाथ धोना पड़ा। अतः वे ज़मीन की तरफ दौड़े। फलस्वरूप ज़मीन महंगी हो गई और श्रम सस्ता एवं प्रति कृषक धरती के अनुभाग में भी कमी आई, और यह कृषक तथा ज़मीन का अनुपात सम्पूर्ण ब्रिटिश शासनकाल में घटता ही गया, क्योंकि लोगों की कृषि पर निर्भरता बढ़ती ही गई । १९१७ में बम्बई के कृषि - निर्देशक डॉ० मान ने कृषकों की जोतों के बारे में दक्षिण में पूना के निकटवर्ती एक गांव का विस्तृत सर्वेक्षण किया। इस रिपोर्ट का हवाला देते  हुए जिसके 'निष्कर्ष बहुधा भारत भर के लिए सत्य हैं', थामसन और गैरेट लिखते हैं: "यह स्पष्ट है कि पिछले साठ-सत्तर वर्षो में भूमि जोतों का स्वरूप बिलकुल बदल गया है। ब्रिटिश- पूर्व, और ब्रिटिश शासन के आरंभिक काल में प्राय: जोतों का आकार खाया बड़ा होता था, ९-१० एकड़ से बहुधा अधिक होता था, जबकि दो एकड़ से कम की जोत तो किसी के पास शायद ही हो । परंतु अब जोतों की संख्या दुगुनी से भी अधिक हो गई है और ८१% खेतों का आकार १० एकड़ से कम है, जबकि ६०% का ५ एकड़ से भी कम है। 

     

    १९१२ में, सर टी० डब्ल्यू ० होलडरनेस ने कुल जनसंख्या और जीत की धरती के माप के बाद अनुमान लगाया कि "कृषि पर पूर्णत: निर्भर लोगों के पास ज़मीन सवा एकड़ प्रति व्यक्ति से अधिक नहीं है।" वह आगे कहता है कि "भारत की ज़मीन न केवल अपनी अपार जनसंख्या का पेट ही भरती है... अपितु उसका बहुत बड़ा भाग विदेशों को निर्यातित फसल उगाने के लिये आरक्षित है... वास्तव में कृषि की उपज की बिक्री से ही मुख्यत: आयातों, सरकारी खजाने और भारत के अन्तर्राष्ट्रीय ऋणों का भुगतान किया जाता है। इस प्रकार विदेशी बाज़ारों की आवश्यकता की पूर्ति करने वाली ज़मीन को कुल भूमि में से घटाने पर, हमें पता लगेगा कि बची हुई भूमि प्रत्येक भारतीय के हिस्से में एक एकड़ के दो-तिहाई भाग से अधिक नहीं आती। अत: एक एकड़ के दो-तिहाई भाग भूमि से जो कुछ उपज सकता है उससे भारतीय जनता का पेट भरता है तथा कुछ सीमा तक शरीर भी ढकता है। कदाचित ही, विश्व का कोई ऐसा देश हो जहां भूमि पर इतना भार है । २२७ 

     

    विशाल जनसंख्या के इस प्रकार ज़मीन पर निर्भर होने से न केवल जोतों के आकार छोटे हो गये हैं, अपितु ज़मीन की कीमत और किराये भी भारी मात्रा में बढ़ गये। इसके परिणामस्वरूप छोटी जोतों का विखण्डन हुआ क्योंकि भूमि के अधिक उप-विभाजन में और उसके भारी किरायों और कीमतों में निश्चय ही एक परस्पर सम्बन्ध है। भूमि का यह विखण्डन इस बेतुकी स्थिती तक पहुंच गया कि ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है जहां पर एक एकड़ भूमि २० हिस्सों में बांटी गई। ऐसी स्थितियों में कृषि का मशीनीकरण तो क्या परम्परागत विधियों का पूर्णत: प्रयोग भी असम्भव हो गया। परिणामस्वरूप अन्न का उत्पादन बहुत घट गया। कम अन्न उत्पादन के और भी कारण थे, जैसे कि भूमि धारण एवं मालगुज़ारी दोनों की ऐसी व्यवस्था जो भारतीयों के शोषण के लिए और उनको अपने शिकंजों में जकड़े रखने के लिए अंग्रेज़ों ने आरम्भ की थी । 

     

    भूमि धारण एवं मालगुज़ारी की पद्धति 

    ब्रिटेन के विपरीत ब्रिटिश-पूर्व के भारत में ज़मीन पर सरकार का किसी भी दृष्टि से स्वामित्व नहीं होता था । सरकारों का आय का कुछ भाग लेने का ही केवल एक अधिकार था, जो वह सीधा या ज़मींदारों के माध्यम से इकट्ठा किया करती थी और जिससे ज़मींदार अपनी मेहनत के लिए निश्चित सैकड़ेवारी स्वयं रखकर शेष सरकार को दे दिया करते थे। यहां तक कि यदि राजा को निजी आवश्यकता पड़ती, तो उसे भी ज़मीन खरीदनी पड़ती थी। जब तक कि कृषक उपज का निश्चित परंपरागत अंश सरकार को देता रहता, जो साधारणतया जिन्स में ही, अथवा चाहे तो मुद्रा में देता रहता था, तब तक कृषक को अपनी भूमि पर विरासत का तथा हस्तान्तरण का अधिकार होता था । कोई भी शक्ति जमीदार की या राजा की, कृषक को खेत से वंचित नही कर सकती थी यह भी बिट्रेन के विपरीत था जहाँ कृषक केवल एक श्रमिक होता था । कभी-कभार जब कृषक अपना परंपरागत अंश देने में असमर्थ हो जाता और उसको ज़मीन छोड़ने का आदेश दिया जाता, तब भी उस भूमि का स्वामी ज़मींदार अथवा राजा नहीं बनता था, अपितु यह भूमि ग्रामीण प्रशासनिक समितियों अर्थात पंचायतों द्वारा बकाया अदा करने के पूरे अवसर तथा समय देने के बाद, किसी और कृषक को दे दी जाती थी । गृह-युद्धों के काल १७०७ में, औरंगज़ेब की मृत्यु के पश्चात की गड़बड़ में ज़मींदारों ने ज़मीन की उपज का भाग जिसे मालगुज़ारी कहते है बढ़ा दिया । परन्तु फिर भी उनका यह भाग वार्षिक उत्पादन पर निर्भर होता था, न कि भूमि धारण के आधार पर, उपज का ध्यान किये बिना, पूर्व - निश्चित होता, जैसा कि ब्रिटिश शासन में था । 

     

    यह बढ़ाई गई मालगुज़ारी भी, अंग्रेज़ों द्वारा लगाई मालगुज़ारी की अपेक्षा कहीं कम थी, अंग्रेज़ों द्वारा जीते गए प्रत्येक राज्य से जितनी मालगुज़ारी वसूल की जाती थी, वह पहले के मुकाबले में कहीं अधिक थी । बंगाल में अंग्रेज़ों ने अपनी सत्ता के आरम्भ होने के बाद कितनी मालगुज़ारी बढ़ा दी थी यह पहले बताया जा चुका है । १८१६ में अंग्रेज़ों ने दक्षिण जीता । १८१७ में इसकी मालगुज़ारी ८००,००० पौंड थी, जबकि १८१८ में बढ़ाकर, अंग्रेज़ों ने १,१५०,००० पौंड कर दी और कुछ ही वर्षों बाद १,५००,००० पौंड की । २२८ पंजाब में अंग्रेज़ों का आधिपत्य १८४९ में हुआ। १८४७-४८ में पंजाब की मालगुज़ारी ८२०,००० पौंड थी, अंग्रेज़ी सत्ता के केवल तीन ही वर्षों में इसको बढ़ाकर १,०६०,००० पौंड कर दिया गया । मूल्यों में आई गिरावट के कारण कृषक और भी दुखी हो गये, जिनको अब की तरह जिन्स में मालगुज़ारी देने के विपरीत, मालगुज़ारी धन में देनी पड़ रही थी । २२८अ जब कृषक जिन्स में मालगुज़ारी दे सकते थे, तब सरकार भी अच्छे और बुरे वर्षो में भूमि में फसल की उपज की अनुपात से साझीदार होती थी। 

     

    ब्रिटिश शासन के आरम्भ से १७९३ तक, सरकार एक से पांच वर्ष तक भूमि - व्यवस्था करती थी । यह मालगुज़ारी परम्परागत ज़मींदारों के माध्यम से (जो भूस्वामी नहीं, बल्कि केवल मालगुज़ारी संग्राहक ही होते थे) एकत्रित करने की बजाय देशीय एजेंटों या सरकारी निरीक्षकों के माध्यम से वसूली जाती, जिनकी उपाधि १७७० में बदलकर कलक्टर कर दी गई थी। इसके अलावा कर वसूली के तरीके अत्यन्त निष्ठुर और खूंखार थे। हम एक आयुक्त की रिपोर्ट को संदर्भ नीचे देते हैं जिसने अंग्रेज़ों के लिए अधिकतम मालगुज़ारी इकट्ठी करने में लगे एक कलक्टर की ‘भयावह और वहशी घोरता' की जांच की। इस आयुक्त के अनुसार किसानों के साथ किये जाने वाले "दुर्व्यवहार पर कभी भी विश्वास न हो सकता यदि कम्पनी के लेखों से इसकी तसदीक न हो गई होती।" 

     

    " किसानों के पशुओं और अन्न को एक तिहाई कीमत पर बेच दिया जाता था तथा उनकी झोपड़ियों को जलाकर राख कर दिया जाता था । इन भाग्यहीनों को सूदखोरों के कर्ज लेना पड़ता ताकि वे अपने तमस्सुक को निभा सके जो उनसे अनुचित और अवैध तरीको से लिखवाये गए थे, जबकि वे कारावास में थे। कलक्टर को संतुष्ट करने के लिए उनकों २० अथवा ४० या ५०% ब्याज पर नहीं, वरन ६००% ब्याज पर ऋण लेना पड़ता था। जो पैसा उधार नहीं ले सकते थे, उन्हें अत्यन्त निर्दयता से यातनाएं दी जाती थीं। उनकी उंगलियों को रस्सियों के साथ कड़ी मज़बूती से बांधकर तब तक कसा जाता था जब तक कि दोनों हाथों की चारों उंगलियां मांस का एक लोथड़ा न बन जातीं। उसके बाद उंगलियों में, लोहे और लकड़ी के फाड़े फंसाकर उनको अलग किया जाता था । अन्य लोगों को दो-दो जोड़ी में उनके पैरों को बांधकर लकड़ी की सलाख के सहारे उलटा लटका दिया जाता था । उसके पश्चात् उनके पैरों के तलुओं पर तब तक मारा जाता था जब तक कि उनकी पादांगुलियों के नख टूटकर गिर नहीं जाते । तत्पश्चात् उनके सिरों पर तब तक मारा जाता, जब तक कि उनके मुंह, नाक और कानों से खून बहने न लगता, उनके नंगे शरीरों पर बांस की छड़ियों, कंटीली झाड़ियों और किसी प्रकार के ज़हरीले सरकंडों, जो छूने से ही शरीर में जलन पैदा करते थे, से मारा जाता था। जिस राक्षस ने यह सब करने का आदेश दिया, उसने मन तथा शरीर दोनों को ही दुखी करने का यह उपाय निकाला था। वह नंगे पिता और पुत्र के हाथ और पैर एक दूसरे के साथ बहुधा बांध देता था। और उनको तब तक कोड़ों से मारता रहता था जब तक कि खाल मांस से अलग न हो जाती और उसको यह जानकर घृणित संतुष्टि होती थी कि प्रत्येक प्रहार से चोट लगेगी ही क्योंकि यदि एक प्रहार पुत्र पर न पड़ा तो उसको यह जानकर कि वह प्रहार उसके पिता पर पड़ा है, उसकी संवेदनशीलता को चोट पहुंचती थी। इसी प्रकार की यंत्रणा पिता को भी होती थी, जब उसको यह मालूम होता था कि प्रत्येक प्रहार जिससे वह बच गया है उसके पुत्र पर पड़ा है। 

     

    "स्त्रियों के साथ किए गए दुर्व्यवहार का वर्णन नहीं किया जा सकता । उनको अपने घरों के भीतरी स्थानों में से, जिनको देश के धर्मानुसार पुण्य स्थान समझा जाता था, घसीट कर खुले आम नंगा किया जाता था । कुंवारियों को न्यायालय में ले जाया जाता, जहां स्वभावतः वे संरक्षण की आशा करती थीं, परन्तु ऐसी आशा न्यायालयों से करना व्यर्थ था, क्योंकि वहां उन कोमल और भोलीभाली कुंवारियों से, न्यायाधीशों के सम्मुख और सब दर्शकों के सम्मुख दिन दहाड़ें बड़ी निर्दयता से बलात्कार किया जाता था । उनके और उनकी माताओं के साथ किये जाने वाले इस दुर्व्यवहार मे केवल इतना ही अन्तर था कि लड़कियों को दिन-दहाड़े और माताओं को अंधेरी काल कोठरियों में बन्द करके बेइज्ज़त किया जाता था । अन्य नारियों के स्तनाग्रों को फटे बांस के बीच में दबाकर बोच दिया जाता था।" 

     

    इस रिपोर्ट का उल्लेख करने के बाद होविट लिखते हैं, "इसके बाद क्या हुआ इसका वर्णन करना महाघृणित और लज्जाजनक है।... इस प्रकार के अमानवीय कृत्य अंग्रेज़ों के प्रतिनिधियों द्वारा अंग्रेज़ों के लिए मालगुज़ारी खसोटने के लिए किए जाते थे । परन्तु केवल यह अत्याचार ही गरीब जनता को सहने नहीं पड़ते थे, अपितु अंग्रेज़ी न्यायालय भी, जिन्हें कि गरीबों का संरक्षण करना चाहिए था, इनके साथ किए गए अत्याचारों और विनाश के एक और माध्यम बने । '२२९ 

     

    अंग्रेज़ों की इन अमानवीय नीतियों के कारण १७६९-७० में एक अकाल पड़ा जो " बंगाल में ब्रिटिश शासन के पदार्पण का एक भयावह कालचित्र था । " २२९अ 

     

    जिससे बंगाल की कुल ३ करोड़ जनसंख्या का सरकारी गिनती के अनुसार, एक तिहाई भाग मौत के घाट उतर गया, यद्यपि कुछेक अंग्रेज़ प्रयत्क्ष-दर्शियों के अनुसार कुछ जनसंख्या का आधा अर्थात १1⁄2 करोड़ लोगों की मौत हुई । २३० १७वीं और १८वीं शताब्दी में बंगाल को ऐसे विनाशकारी अकाल का सामना कभी नहीं करना पड़ा था। 

     

    कम्पनी के कर्मचारी अपने व्यक्तिगत लाभ कमाने के उद्देश्य से चावलों का निजी व्यापार करते थे । सारे चावलों को जो लोगों का प्रधान खाद्य था, वे बहुत सस्ते दामों पर खरीदते और अत्यन्त महंगे दामों पर बेचते, जिसके कारण ही वास्तव में दुर्भिक्ष पड़ा। वे और उनके प्रतिनिधि ‘“किसानों की अल्प उपज को मनमाने मूल्यों पर खरीदने, दूसरे प्रान्तों से चावल आयात करने वाली नावों के रोकने और खाली करने, तथा गरीब किसानों को अगली उपज के लिए आवश्यक बीज तक भी बेचने को मजबूर करने के आरोप के आज तक भी " उत्तरदायी हैं।२३१ 

     

    कम से कम एक करोड़ लोगों के जीवन पर खेलने वालों के विरुद्ध सरकार ने कभी कोई भी जांच नहीं की और न ही इतना अतिशय लाभ कमाने वालों को कोई दंड दिया। यद्यपि दुर्भिक्ष के कारण एक तिहाई भूमि बंजर पड़ी रही और एक से डेढ़ करोड़ लोग मर गए, ऐसी अवस्था में भी सरकार ने मालगुजारी घटाने की बजाय बढ़ाई ही । किस प्रकार मालगुज़ारी इकट्ठी की गई और किस प्रकार मृतकों के लिए जीवितों ने इसको अदा किया, इसका वर्णन तत्कालीन गवर्नर-जनरल वारेन होस्टिग्स ने कम्पनी के निदेशकों को लिखे अपने ३ नवम्बर १७७२ के एक पत्र में किया है जिसके कुछ उदाहरण नीचे दिए जाते हैं; "परन्तु इसका (अकाल १७७०–७१ का) सरकार की आय पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और न ही सरकार को कुछ महसूस हुआ, यदि महसूस हुआ भी तो केवल उन लोगों को जिनसे यह इकट्ठा किया गया। क्योंकि इसके बावजूद भी कि प्रांत के कम से कम एक तिहाई लोग मर गए और परिणामतः उपज में कमी आई, तब भी १७७१ में संगृहीत असली मालगुज़ारी १७६८ से भी अधिक हुई... यह अपेक्षा करना स्वाभाविक था कि इतनी भारी विपत्ति के कारण अन्य परिणामों के अतिरिक्त मालगुज़ारी में भी कमी आती । परन्तु ऐसा नहीं हुआ क्योंकि मालगुज़ारी को पूर्वस्तर पर कायम रखने के लिए हिंसात्मक तरीके अपनाये गए । यह निश्चित जानना आसान नहीं है कि कौन-कौन सी हिंसात्मक विधियां अपनायी गई... परन्तु फिर भी एक कर का हम वर्णन करेंगे,. ... इसे जज़िया कहा जाता है जो कर, उस किराये की कमी को पूरा करने के लिए, जो मृतक अथवा गांव से भागे पड़ोसियों को देना था, प्रत्येक घटिया से घटिया भूमि के निवासियों पर लगाया जाता है।... २३२ उस वर्ष में, जब कि " सारी जनसंख्या का ३५ प्रतिशत और किसान - जनसंख्या के ५० प्रतिशत मर गए", भूमि कर में कई छूट देना तो दरकिनार, आगामी वर्ष १७७०-७१ में १० प्रतिशत की और वृद्धि कर दी गई। २३३ 

     

    १७७०-७१ का दुर्भिक्ष ऐसे अकालों की लम्बी श्रृंखला में केवल एक पहला अकाल था, जो एक दूसरे के पश्चात् जल्दी-जल्दी पड़ते रहे, दूसरा दुर्भिक्ष १७८४ में, तीसरा १७८७ में और चौथा १७९० में पड़ा । अकालों का विवेचन हम बाद में करेंगे। 

     

    स्थायी भूमि - बन्दोबस्त 

    कृषक इन अत्याचारियों की लूटने वाली और असीम कर प्रवृत्तियों को बहुत देर तक सहन नहीं कर सके। परिणामतः अठारहवीं शताब्दी के सातवें और आठवें दशक में सरकार के 

     

    विरुद्ध यत्र-तत्र विद्रोह होने लगे । इस कारण अंग्रेज़ों को मालगुज़ारी बढ़ाने के अलावा अपने साम्राज्य की सुरक्षा और स्थिरता के लिए किसी आधार की आवश्यकता हुई। इस आधार को उन्होंने कुछ ऐसे लोगों की सहायता से प्राप्त कर लिया जो अंग्रेज़ों पर अपनी रोटी तक के लिए भी निर्भर थे अत: उनके वफादार थे। ये थे अंग्रेज़ी अफसरों के अधीन भारतीय सेना, पुलिस और नागरिक सेवा के सरकारी, साहूकार, ज़मीदार अथवा भूस्वामी, और देशी राजा । ये सब भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के आश्रय और आधार स्तम्भ थे जो अपने जीवन यापन और अस्तित्व के लिए अंग्रेज़ों के सामान्यतः पक्के वफ़ादार रहे । अंग्रेज़ भी इन सामन्तवादियों और प्रतिक्रियावादियों के अपने शासनपर्यन्त विश्वासपात्र रहे, क्योंकि इन्हीं के लिए पर भारत में उनका साम्राज्य टिका हुआ था । 

     

    १७९३ के स्थायी भूमि - बन्दोबस्त के अनुसार ज़मींदारों को भू-स्वामी बना दिया गया जो वे पहले कभी नहीं थे । इसके वास्तविक उद्देश्य के विषय में स्वयं गवर्नर-जनरल ने ८ नवम्बर १८२९ को अपने भाषण में बताया : “यदि व्यापक विद्रोह या क्रांति के विरुद्ध सुरक्षा की आवश्यकता है, तो मैं यह कहूंगा कि, यद्यपि स्थायी भूमि बन्दोबस्त में कई दोष हैं, फिर भी इसका कम से कम यह बहुत बड़ा लाभ हुआ है कि इसके कारण धनी भूस्वामियों का बड़ा समूह उत्पन्न हो गया है, जो अंग्रेज़ी राज्य को बनाये रखने के महाइच्छुक हैं और जिनका जनता पर पूरा नियंत्रण है ।"२३४ 

     

    ब्रिटिश-समर्थक यह तर्क देते है कि अंग्रेज़ों ने उस समय की भू-परम्परा को न जानते हुए इस प्रथा का आरम्भ किया। परन्तु यह तो केवल एक बहाना मात्र है। तथ्य तो यह है कि कॉर्नवालिस को स्वयं इस बात का पूर्ण ज्ञान था कि वह क्या कर रहा है । " २३५ किसान जो पहले भू–स्वामी थे, अब केवल पट्टेदार बनकर रह गये, जिन्हें जमींदार की इच्छा पर कभी भी हटाया जा सकता था । यदि वे सरकार को कर देने में असमर्थ रहते, तो इन ज़मीदारों को सर्वोच्च मालिक अर्थात् अंग्रेज़ों द्वारा हटाया जा सकता था । स्थायी भूमि बन्दोबस्त बंगाल, बिहार, उड़ीसा और बाद में मद्रास के कुछ भागों में लागू किया गया। सरकार का भाग उस कुल कर का ९० प्रतिशत स्थायी रूप से निश्चित कर दिया गया जो किसान बन्दोबस्त के समय देता था, और १०% भाग ज़मींदार को मिलता था। इस प्रकार बंगाल से ३० लाख पौंड सरकार का भाग निश्चित किया गया जो मालगुजारी में बहुत भारी वृद्धि थी। इसके बारे में कुछ भी नहीं कहा गया कि ज़मींदार खेती करने वालों से कितना किराया प्राप्त कर सकते हैं । ऐसा करके ज़मींदार को पट्टेदारों के विरुद्ध सरकार ने मानो 'कोरा चैक' दे दिया। इन आंकड़ों की तुलना स्वयं इंग्लैंड की स्थिति से की जा सकती है । १७९८ के पूर्व १०० वर्ष के बीच इंग्लैंड में किराये का ५ से २० प्रतिशत तक भूमिकर था । १७९८ में विलियम पिट ने इसे स्थायी किन्तु परिवर्तनीय बना दिया । 

     

    अनेक प्राचीन ज़मींदार, जो कृषकों और उनकी समस्याओं के विषय में अभी भी उदार थे, इतने भारी कर को एकत्रित नहीं कर सके । अतः उन्हें हटाकर नये ज़मींदारों की नियुक्ति की गई, जो बहुधा शहरी थे और जिन्हें कृषि का बिलकुल भी ज्ञान नहीं था और न ही उसमें कोई रुचि थी। उनकी रुचि तो केवल इतनी हीं थी कि किस प्रकार प्रत्येक सम्भव ढंग से अधिकाधिक कर एकत्रित किया जाए। यदि कोई भी पट्टेदार ज़मींदार की मांग को पूरा करने में असमर्थ होता था, तो उसे तुरन्त हटाकर ऐसे नये व्यक्ति को नियुक्त कर दिया जाता जो उसका स्थान लेने को तत्पर होता । हटाते गए पट्टेदार के पास और कोई भी जीवन यापन का साधन न रहता और न ही वह कहीं जा सकता था, तथा न ही अन्य कोई व्यवसाय उसे मिल सकता था, इसका परिणाम ऐसे पट्टेदारों का सर्वनाश था । केवल यही नहीं भू-कर की शिकमी देने की प्रथा में बढ़ोतरी होने के कारण ज़मींदार और पट्टेदार के बीच बहुत सारे बिचोले पैदा हो गए। प्रत्येक बिचौला अपने लाभांश को अपने ऊपर वाले बिचौले के लाभांश में जोड़ देता था । अन्ततः इन सब बिचौलों के लाभांश, और कर एवं किराये का बोझ पट्टेदार पर बहुत भरकम पड़ता था । ऐसी परिस्थिति में उसे पैदावार बढ़ाने अथवा भूमि में सुधार करने की कोई प्रेरणा नहीं करती थी क्योंकि उसे पता था कि उसका सर्वाधिक भाग तो जमींदार और सरकार को येन-केन-प्रकारेण चले ही जाना है। जमींदार को भी अपनी भूमि सुधारने की कोई प्रेरणा नहीं होती थी क्योंकि वह खेती-बाड़ी से अनभिज्ञ शहरी होता था। इसके अलावा उसको पता था कि अपने खेतों पर जाये बिना भी, उसको विलासितापूर्ण जीवन बिताने के लिए पर्याप्त धन मिलेगा ही क्योंकि किसान को तो अपने और अपने परिवार को मौत के मुंह से बचाने के लिए अपना खून-पसीना बहाना ही होगा। ज़मींदार को पूर्णतया मालूम था कि उसकी स्थिति ब्रिटिश सरकार के कानून, सेना व पुलिस द्वारा सुरक्षित है। ऐसी परिस्थितियों में कृषि का ह्रास होना निश्चित था । 

     

    बंगाल के उपराज्यपाल के अनुसार, "एक ओर सामन्तवाद और दूसरी और कृषि — दास-प्रथा बंगाल की भू-व्यवस्था के प्रमुख तत्व थे । २३५अ एक कृषि विशेषज्ञ कहते हैं- "युद्ध, दुर्भिक्ष और महामारी के बाद ग्रामीणों के लिए सबसे घातक स्थिति अनुपस्थित ज़मींदारी प्रथा है । २३६ अंग्रेज़ों ने इस प्रथा का पहले स्थायी बन्दोबस्ती क्षेत्रों में और अन्ततः सारे देश में उद्घाटन किया । " थ्री प्रज़िडेन्सीज़ ऑफ इंडिया' का लेखक स्थायी बन्दोबस्त के घातक परिणामों के बारे में हमें बतलाता है । " बंगाल की मालगुज़ारी को पक्का और लाभकारी बनाकर, लार्ड कार्नवालिस ने संसार में कहीं भी किये जाने वाले कुकृत्यों में से एक अधिकतम अनुपयुक्त कार्य किया और एक महानतम भूल की।... आदेश होने पर दो करोड़ छोटे भूस्वामियों को मानो अपने हाथ-पैर बांधकर अधिकारों से वंचित कर और दास बनाकर निष्ठुर लगान वसूलने वालों की दया पर छोड़ दिया। इस विशाल डकैती द्वारा किया गया अन्याय, यद्यपि बहुत बड़ा था, फिर भी जुल्मों का अन्त यही नहीं था । अनुपयुक्त कार्यों पर अनुपयुक्त कार्य किए गए; धोखे पर धोखा किया गया।...इस प्रख्यात बन्दोबस्त के बारे में लार्ड ब्रौम ने कहा है कि इसने हर बीस में से अट्ठारह शिलिंग किसान से निचोड़ लिये हैं । इस ज़मींदारी प्रथा से किसानों पर हो रहे जुल्म, कई प्रकार के बिचौलों का भू-कर की शिकमी देने से, और भी अधिक बढ़ गये हैं । ये बिचौले जिले के ज़मींदारों और किसानों के बीच आकर अपने लाभांश को ज़मींदारों के लाभांश से मिलाते हैं, और उनकी निर्धारित समय में किसानों से जितना भी हो सके लूटने के अतिरिक्त इस विषय में और कोई रुचि नहीं हैं। अभागे खेतीहरों का खून वे तब तक पीते हैं जब तक कि कई वर्षों की कड़ी मेहनत और जुल्मों से बेबस हुआ बेचारा किसान ज़मीन छोड़कर भाग नहीं जाता। यदि उसमें अभी इतनी हिम्मत बाकी नहीं है कि वह डाकू बन जाये तो बहुत सम्भवत: वह जंगल में भूख से मर जाता है (बंगाल के माल - गुज़ारी- बोर्ड के श्री एच० सी० क्रिश्चयन द्वारा इस विषय पर १८३० में संसदीय समिति के सम्मुख दी गई गवाही के आधार पर यह सत्यापति किया जा सकता है कि मैं यह सब कल्पना नहीं कर रहा ।) ... उपयुक्त विवरण के साथ प्रत्येक अवसर पर ग्रामीणों से आववाब अथवा उपहार खसोटने की अन्यायी प्रथा का वर्णन भी देना उचित होगा। हर तीज-त्योहार के अवसर पर ज़मींदार द्वारा ग्रामीणों को भेंट के बहाने लूटा जाता है।...केवल ज़मींदार ही ऐसा शोषक नहीं करते बल्कि नायब या लेखाकार, जो बही खाते में गलत लिखवाने में सहायता करते हैं, से लेकर आववाब के पायकों तक भी, ज़मींदारों के गुमाश्ते इस प्रकार से लूटते हैं ।... यद्यपि कहने में किसानों की यह भिखभंगी जाति, अंग्रेज़ों की स्वतन्त्र प्रजा है, परन्तु वास्तव में यह क्यूबा के दासों अथवा रूस के कृषि - दासों से भी कहीं बदतर और उपेक्षित हैं । २३७ 

     

    ब्रिटिश शासन के लगभग १०० वर्ष बाद डॉ० मार्शमैन ने १८५२ में बंगाल के कृषकों की स्थिति के बारे में लिखा : " आजतक इस तथ्य का प्रतिवाद किसी ने भी करने का प्रयत्न नहीं किया कि बंगाल के कृषकों की स्थिति लगभग इतनी फटेहाल और निकृष्ट है जितनी कि कोई सम्भवतया कल्पना भी नहीं कर सकता - अत्यन्त कष्टदायी छप्परों में, जहां कुत्तों के लिए भी मुश्किल से स्थान होगा, फटे-पुराने चिथड़ों में वे रहते हैं और बहुत सारे तो अपने एवं अपने परिवार के लिए एक समय का भोजन भी जुटा नहीं सकते । बंगाल की रैयत को जीवन की अतीव सामान्य सुविधाओं का भी कुछ नहीं पता। हम यह अतिशयोक्ति बिना कह रहे हैं कि यदि किसी को भी उन लोगों की असली स्थिति का, जो वार्षिक ३,०००,००० पौंड और ४,०००,००० पौंड के बीच उपज पैदा करते हैं, पूर्णरूपेण पता लग जाए तो उसके रोंगटे खड़े हो जाएंगे । " २३८ 

     

    जब स्थायी बन्दोबस्त लागू किया गया था तब इतनी अधिक कर की राशि बढ़ा दी गई थी जितनी किसी भी सरकार द्वारा उस समय सम्भव नहीं थी । परन्तु बन्दोबस्त के बाद घटित कई अप्रत्याशित कारणों से सरकार का निर्धारित स्थायी भाग ज़मींदार के भाग से कम हो गया । सरकार कृषकों पर की गई लूट-खसोट में स्वयं सीधा भागी नहीं हो सकती थी क्योंकि उन्होंने मालगुज़ारी न बढ़ाने का वचन दिया था यद्यपि सरकार ने कुछ हद तक दूसरे कर लगाकर, जिनको अब 'उपकर' कहा जाता था, मालगुज़ारी को बढ़ाया। इस प्रकार सरकार को धन में घाटा पड़ रहा था। इसलिए भविष्य में सभी बन्दोबस्त अस्थायी बनाये गए। 

     

    रैयतवाड़ी पद्धति 

    रैयत का अर्थ है 'किसान' और सरकार तथा कृषक के बीच सीधा बन्दोबस्त रैयत - वाड़ी प्रथा के नाम से कहा जाता है। यह प्रथा बम्बई, मद्रास (कुछ हिस्सों को छोड़कर) और पंजाब तथा कुछ अन्य भागों में, भारत के कुल इलाके के ५१% भाग पर प्रचलित थी। प्रारम्भ में यह बन्दोबस्त वार्षिक या ५ अथवा १० वर्ष के लिए होता था यद्यपि बाद में २० से ४० वर्ष तक होने लगा। कृषक को भूस्वामी तब तक निकाल नहीं सकता था, जब तक कि वह निर्धारित मालगुज़ारी देता रहता । परन्तु सरकार की मालगुज़ारी की मांग बहुत ही अधिक थी। इससे भी बुरी बात यह भी कि यह निश्चित न होकर बदलती रहती थी और ब्रिटिश पूर्व भारत के विपरीत स्थायी नहीं थी। जहां स्थायी बन्दोबस्त के क्षेत्रों में पहले ज़मींदार अत्यधिक कर लेकर अंग्रेज़ों को देते थे, वहां रैयतवाड़ी व्यवस्था में वह सीधा अंग्रेज़ों द्वारा ही लिया जाता था, स्थायी बन्दोबस्त क्षेत्रों में किसान से अधिकाधिक लूटने के लिए, ज़मींदार द्वारा खूंखार तरीके अपनाये जाते थे; किन्तु रैयतवाड़ी क्षेत्रों में सरकार के मालगुज़ारी अफसर स्वयं (बहुत थोड़े लोगों को छोड़कर) ऐसी ही विधियां अपनाते थे। परिणामत: भूमि का असली स्वामी किसान वास्तव में दास अथवा कृषिदास हो गया। एक प्रख्यात भारतीय अर्थशास्त्री का मत है कि; " कम्पनी का कृषकों के ऊपर इतना ही प्रभुत्व था जितना कि एक स्वामी का अपने दासों पर रहता है, और वह किसान से वह सब कुछ छीन सकती थी जो उन्हें जीवित रखने के लिए आवश्यक नहीं थां” एक निदेशक का कथन था कि, "मेरी विचार में इसको छिपाया या अस्वीकृत नहीं किया जा सकता कि इस (रैयतवाड़ी) प्रथा का उद्देश्य सरकार के लिए अधिक से अधिक प्राप्त करना है जितना कि भूमि उत्पन्न कर सकती है। २३९ केवल जनता ही नहीं कम्पनी के कुछ कर अधिकारियों ने भी यह महसूस किया कि कृषकों पर भू - कर अत्यन्त अधिक है जिसने उनको भिखमंगों की जाति बनाकर रख दिया है। कम्पनी से कर कम करने की निष्फल सिफारिश भी उन्होंने की, परन्तु अंग्रेज़ों ने जनता पर अपनी जकड़ को कभी भी ढीला न छोड़ा। 

     

    एक प्रतिष्ठित अंग्रेज़ विशप हैबर ने १८२४ - २६ में व्यापक रूप से भारत यात्रा की। मार्च १८२६ को अपने एक पत्र में उसने लिखा: “मेरे विचार में न देशीय और न ही यूरोपीय किसान, करों की वर्तमान दर के कारण फलफूल सकते हैं। भूमि की कुल उपज का आधा भाग सरकार द्वारा मांगा जाता है, और यह, स्थायी बन्दोबस्त के क्षेत्रों को छोड़कर, लगभग औसतन दर है, जो इतनी अधिक है कि जिसके कारण, भारतीयों की सामान्य किफायती प्रवृत्तियों और फसल के बहुत अकृत्रिम एवं सस्ते तरीकों के बावजूद भी, किसान के पास जीवन बसर करने के लिए भी पर्याप्त भोजन नहीं रहता। इससे भी अधिक यह सुधार जैसी किसी भी चीज़ के लिए जबरदस्त बाधा है। अनुकूल वर्षों में भी लोगों को यह (कर) अधम निर्धनता में रखता है, और जब तनिक भी फसल मारी जाती हैं, तो पुरुषों, स्त्रियों एवं बच्चों के झुण्ड के झुण्ड गलियों में मरने से और उनकी लाशें सड़कों पर बिखरने से बच नहीं सकतीं।... कम्पनी शासित क्षेत्रों में, देशीय राजाओं की प्रजा के मुकाबले में, किसानों की स्थिति कुल मिलाकर अधिक बुरी, दयनीय और निराशाजनक है।... वास्तविकता यह है कि कोई भी देशी राजा इतना कर नहीं मांगता जितना कि हम, और न ही हमारी तरह इतनी कड़ाई से वसूल करता है । मुझे बहुत ही थोड़े सरकारी लोग मिले जो गोपनीय तौर पर यह विश्वास नहीं करते कि लोगों पर कर बहुत अधिक लगाया गया है और देश धीरे-धीरे निर्धन होता जा रहा है। कलक्टर इस बात को सरकारी तौर से मानना पसन्द नहीं करते । " २४० 

     

    कम्पनी के एक अधिकारी ले० कर्नल ब्रिज्स ने प्राचीन एवं नवीन भारत के भूमि - करों का व्यापक अध्ययन किया । १८३० में उसने एक पुस्तक में लिखा: “उन सारे यूरोपीय यात्रियों ने, जो पिछली तीन शताब्दियों से पूर्व में घूमने के लिए आए, मुगल बादशाहों के अधीन प्रदेश की फलती-फूलती स्थिति के बारे में लिखा है, और वे भारत को यूरोप से धनधान्य में, जनसंख्या में एवं राष्ट्रीय समृद्धि में कहीं आगे पाकर चकित रह गये। परन्तु हमारी सरकार के अधीन जनता की देश की ऐसी कोई स्थिति नहीं है-ऐसा हम ही प्रतिदिन घोषित करते हैं, और अतः इसको सत्य ही मानना पड़ेगा।... मैं शुद्ध अन्तःकरण से विश्वास करता हूं कि कानून - चलने वाली कोई भी सरकार, हिन्दू हो अथवा मुसलमान, आम लोगों की खुशहाली की इतनी बिनाशक नहीं होगी जितनी कि हमारा शासन-प्रबन्ध ।... हालांकि हमने इस बात को सब जगह माना है कि करों का बोझ लोगों पर एक अत्यन्त बड़ा जुल्म है, फिर भी हमने कभी भी इस बोझ को हल्का नहीं किया... कठोरता से करों को इकट्ठा करके हमने अपनी मालगुज़ारी बढ़ा ली है और जनता की दशा केवल मजदूरों जैसी कर दी है। हमारे शासन का ऐसा घोषित नियम है और भूमि के सम्पूर्ण अधिशेष लाभ को लेने का यह अनिवार्य परिणाम है ।...ऐसा भू–कर जो अब भारत में प्रचलित है और जो भूमिधर के सम्पूर्ण किराये को हड़प कर लेता है, यूरोप अथवा एशिया में किसी भी सरकार द्वारा नहीं लगाया गया । " २४ 

     

    १८२५ की भू - कर निर्धारण कार्यवाहियों से सम्बन्धित बम्बई प्रशासन की १८९२-९३ की सरकारी रिपोर्ट के अनुसार, "दीन-दुखी किसानों से अत्याधिक धन लेने का सब प्रकार से - वैधानिक या अवैधानिक - भरसक प्रयत्न किया जाता था । यदि किसानों से मांगा गया धन वे नहीं दे पाते थे, ये नहीं देते थे, तो उन पर बहुत अत्याचार किए जाते थे और कुछ पर तो अर्वणनीय क्रूर और घृणित जुल्म ढाये जाते थे। बहुत सारे तो अपना घर छोड़कर पड़ोसी देशी राज्यों में भाग गए अत: भूमि के बड़े भाग पर खेती न हो सकी, और कुछ जिलों में तो खेती के क्षेत्र के केवल एक तिहाई पर ही खेती हो सकी । १२४२ 

     

    मद्रास सरकार की मालगुजारी बोर्ड की १८१८ की एक अन्य सरकारी रिपोर्ट हमें बताती है कि कितनी और कैसे मालगुजारी एकत्रित की जाती थी । केवल कुछ उदाहरण यहां दिए जाते हैं । " उस समय प्रथा यह थी कि इतना अधिक बन्दोबस्त किया जाय जितना कि इकट्ठा किया जाना सम्भव हो। यदि फसल अच्छी होती, तो भूयापन दरों की भीतरी मांग को इतना बढ़ा दिया जाता जितना कि किसान के साधन अनुमति देते । यदि फसल खराब होती, तब भी आखिरी दमड़ी तक किसानों से लगान वसूल किया जाता ।... किसान को उन सब खेतों पर खेती करनी पड़ती जो उसको मालगुज़ारी अफसर द्वारा बटाई पर दिए जाते। वह चाहे उनको जोतता या नहीं, उसको, जैसाकि श्री थैकरे ने ज़ोरदार रूप से कहा है, प्रत्येक खेत का कर देना पड़ता । बैलारी के कलक्टर श्री चैपलिन के शब्दों में "अपने अधिकार का प्रयोग करते हुए वर्तमान अधिनियमों के विरुद्ध किसान की परिस्थितियों के अनुपात में भूमि की मात्रा को जोतने के लिए किसान को बाध्य करने" का रैयतवाड़ी प्रथा के अन्तर्गत रिवाज था । वह व्याख्या करते हुए बताता है कि किसानों को 'जेल में डालकर और दण्ड देकर' बाध्य किया जाता था... और वह यह भी विशेष रूप से बताता है कि यदि इन अत्याचारों के कारण किसान अपनी जोत के खेत छोड़कर भाग जाता था, तो निश्चित प्रथा यह थी कि वह जहां भी जाता था उसका पीछा किया जाता था, उस पर इच्छानुसार कर लगाया जाता था और उन सब लाभों से वंचित कर दिया जाता था, जिनकी घर बदलने के कारण उसको आशा होती थी।... हम देखते हैं कि वे (विदेशी विजेताओं का छोटा-सा दल) किसान को हल जोतनी और बीज बोने के लिए बलपूर्वक बाध्य करते हैं, उस पर अधिक से अधिक कर लगाते हैं, यदि वह भाग जाए तो उसको वापिस घसीट कर लाते हैं, अपनी मांग को तब तक स्थगित कर देते हैं, जब तक कि उसकी फसल तैयार नहीं हो जाती और तब उससे सब कुछ छीन लेते जो कुछ भी छीना जा सकता, सिवाय उसके बैलों और बीज के जो शायद उसको वापिस इसलिए दिए जाते हैं ताकि वह, अपने लिए नहीं, बल्कि उनके लिए फिर से अपनी खेती करने की दुःखद गाथा को दोहरा सके । २४३ 

     

    इसी प्रकार के शब्दों में १८३८ में मद्रास के मालगुज़ारी सदर बोर्ड ने भारत सरकार को लिखा परन्तु उसका कोई लाभ नहीं हुआ । अत्याचार के 'लगभग सर्वव्यापक' हथकंडों द्वारा मालगुज़ारी को जितना अधिक रखा जा सकता था रखा गया। कम्पनी के शासनपत्र के नवीकरण के पहले १८५२ और १८५३ में हुई संसदीय जांच समितियों के सम्मुख ऐसी प्रथा की बुराइयों का पर्दाफाश मद्रास सरकार के अधिकारियों तक ने भी किया था । विवश होकर मद्रास सरकार को एक जांच आयोग नियुक्त करना पड़ा। जिसके सारे सदस्य अंग्रेज़ थे, जो रैयतवाड़ी प्रथा के समर्थक थे । अंग्रेज़ी शासन के लगभग १०० वर्ष बाद १८५५ में दी गई उनकी नियन्त्रित रिपोर्ट ने भी यह माना कि प्रान्त में मालगुज़ारी इकट्ठी करने के लिए अत्याचार किए जाते हैं; और आहत लोगों को कोई राहत नहीं मिलती। आयोग के अनुसार सरकारी अधिकारियों द्वारा अत्याचार की अत्यन्त सामान्य विधियाँ निम्नलिखित थीं । " धूप में रखना; भोजन या अन्य स्वाभाविक आवश्यकताओं को पूरा करने से रोकना; कैद करना; किसान के पशुओं को चरागाह में जाने न देना, चपरासी द्वारा उसको पिटवाना, किट्टी अनुनडाल का प्रयोग करना यानी झुकी हुई स्थिति में आदमी को बांध देना; परस्पर फंसी अंगुलियों को भींचना, चिहुंटना, तमाचे लगाना, मुक्कों या कोड़ों से मारना, कान मरोड़ना, घुटनों के पीछे रोड़े रखकर आदमी को बैठने के लिए कहना, ऊपर-नीचे भगान पीठ पर निम्न जाति के आदमी को बैठाना, दो न कर देने वालों के सिरों को भिड़ाना, या उनको पिछले बालों से बांध देना, काठ में पांव देना, बालों को गधे या भैंस की पूंछ से बांधना, हड्डियों या अन्य अपमानजनक अथवा घृणित चीज़ों काहार गले में डालना; और कभी-कभार तो और अधिक कड़ा दण्ड देना । " २४४ 

     

    इस आयोग को रिपोर्ट के बाद मद्रास सरकार ने १४ अग्रस्त १८५५ को एक आदेश जारी किया, जिसमें यह स्वीकार किया गया कि “कृषि की मौजूदा स्थिति यह है कि भूमि पर निश्चय ही प्रत्यक्ष और परोक्ष भारी भार पड़ा हुआ है, "परिणामत: पर्याप्त भूमि बंजर पड़ी है, और शांत व उद्यमी जनता को कठिनता से भोजन और रोजगार मिल पाता है ।" लगभग १०० वर्ष की अंग्रेज़ी लूटमार के बाद मद्रास सरकार ने 'मालगुजारी का सही तथा सुविचारित बन्दोबस्त' करने की सोची, जिससे भ्रष्टाचार रिश्वतखोरी आदि की 'बुराइयां समाप्त हो सकें' और खेती योग्य भूमि में बढ़ोतरी के कारण "आज से अधिक लगान जनता को कम असुविधा देकर इकट्ठा किया जा सके । २४५ 

     

    निदेशकों ने सुझाव दिया कि उत्तर भारत की ही भांति असली उत्पादन का २/३ भाग मालगुज़ारी के रूप में लिया जाए । १८६४ में (इंगलैंड के ) विदेशमंत्री ने दक्षिण में उत्तर भारत की तरह ही असली उत्पादन का आधा भाग (अर्थात् ५० प्र० श०) सरकार का अंश निश्चित कर दिया। 

     

    यह ५० प्र० श० का भाग केवल कागज़ों पर ही था । १८६१ से १८७५ तक मद्रास में हुए बन्दोबस्तों में ब्रिटिश सरकार ने प्रायः पूरा लाभ ही हड़प लिया । " १८६१ - ७५ तक के मालगुज़ारी और अन्य आंकड़ों का विवेचन करके एक भारतीय अर्थशास्त्री लिखते हैं कि "प्रान्त की कुल उपज और उसके मूल्य को दृष्टि में रखते हुए १८६० की अपेक्षा १८७५ में निस्संदेह लोगों पर भारी कर था । " २४६ परिणामत: १८७७ में मद्रास में भीषण अकाल पड़ा और ३० लाख लोग मृत्यु के शिकार हो गए। 

     

    १८७६ - ९८ के बीच सरकार की कुल मांग ७० प्र० श० से अधिक बढ़ी। जबकि खेती का क्षेत्र केवल १४ प्र० श० ही बढ़ा। स्पष्टतया अनेक कृषक इस अत्यन्त भारी लगान को नहीं दे पाये। परिणामत: उन्हें निकाल दिया गया और उनकी सम्पत्ति बेच दी गई। भारत के एक उच्च अंग्रेज अधिकारी को उद्धृत करने के बाद 'दी फेलियर ऑफ कर्जन' के लेखक का निष्कर्ष है कि, "केवल एक दशक से थोड़े अधिक समय (१८७९-८० से १८८९-९०) में ही समूची कृषक जनसंख्या के लगभग आठवें भाग की जमीन और घर सब बेच दिये गए। केवल उनके खेत ही नीलाम नहीं कर दिये गए, अपितु उनकी कुछ निजी वस्तुएं - हल, बैल, भोजन बनाने के बर्तन, बिस्तर इत्यादि सब कुछ, सिवाय उनके बहुत थोड़े से कपड़ों के साम्राज्यवादी कामों के लिए बेच दिए गए। यह चित्र अधूरा रहेगा जब तक कि यह ध्यान न रखा जाए कि इन ‘निवारण' के ग्यारह वर्षों के तुरन्त पहले १८७७-७८ में एक भीषण दुर्भिक्ष पड़ा था, जिसके कारण मद्रास के ३० लाख लोग भूख से मर गए थे।”२४७ 

     

    समय-समय पर भारत सरकार के कुछ अधिकारियों ने मालगुज़ारी को यथोचित रखने का सुझाव दिया, परन्तु उनके सुझाव तो नर - भक्षियों को यह कहने के समान थे कि वे मनुष्यों को न मारें और उनका खून न पियें। उदाहरणार्थ, १८८० - ८४ तक भारत के वायसराय लॉर्ड रिपन ने सुझाव दिया कि मालगुज़ारी को मूल्यवृद्धि के अनुसार ही बढ़ाया जाये । परन्तु इस मन्द सुझाव को भी विदेश मंत्री ने १८८५ में अस्वीकार कर दिया, यद्यपि इस सुझाव में यह नहीं कहा गया था कि प्रत्येक बन्दोबस्त के समय लगान न बढ़ाया जाए। 

     

    महालवाड़ी पद्धति 

    अतिशय कर की यह दारुण गाथा उत्तर भारत की भी है । अल्पकालिक मियादी बन्दोबस्त यहां भी किये गए, जिनके परिणाम बड़े ही घातक निकले। 

     

    १८२२ के नियमों के अनुसार उन्हें महालवाड़ी बन्दोबस्त (महाल का अर्थ जागीर है ) कहा गया। हर जागीर कर अदा करने के लिए संयुक्त रूप से ज़िम्मेदार थी । यदि ज़मींदार के अधीन जागीर होती तो सरकार जागीरों के कुल किरायों के ८३ प्र० श० करों से अधिक मांग करती थी। यदि जागीर पर कृषकों की सांझी पट्टेदारी होती, तो कर ९५ प्र० श० तक भी बढ़ा दिया जाता था। कलक्टरों को पर्याप्त अधिकार दिए गए। अपनी कठोरता के कारण यह प्रणाली अंतत ११ वर्ष बाद समाप्त कर दी गई और १८३३ में नया नियम बनाया गया। 

     

    १८३३ के नियमानुसार सरकारी मांग को घटाकर किराये का ६६ प्रतिशत कर दिया गया और बन्दोबस्त ३० वर्ष के लिए किया गया । अंग्रेज़ी शासन के पहले ३० वर्षों में किये गए अतिशय और अत्याचारी बन्दोबस्तों से यह निश्चित ही बेहतर था । परन्तु फिर भी सरकारी मांग कड़ी थी और किराया प्राय: अनुमान के आधार पर ही निर्धारित किया जाता थां 

     

    आधी शताब्दी की सतत गलतियों और अतिशय करों के बाद अन्तत : १८५५ में सरकारी मांग घटाकर असली उत्पादन की ५० प्र० श० कर दी गई, जो ब्रिटिश शासन के अन्त तक कायम रही । जैसा कि पहले कहा जा चुका है, ५० प्र० श० का यह नियम १८६४ में दक्षिण भारत में लागू किया गया। इस प्रकार स्थायी बन्दोबस्त वाले क्षेत्रों को छोड़कर सारे भारत में कागज़ों पर असली उत्पादन का ५० प्र० श० सरकार का कर निश्चित हुआ । 

     

    परन्तु व्यावहारिक तौर से इस ५० प्र० श० के नियम का, जो स्वयं में अनुचित है और जौ शायद किसी भी सभ्य सरकार द्वारा संसार में कहीं भी लागू नहीं किया गया, उल्लंघन किया गया। इस बात की पुष्टि भारत के लिए विदेश उपमन्त्री सर लुइस मोलेट द्वारा १८७५ में की गई । "... वास्तव में असली उत्पादन का ५० प्र० श० लेने की बात तो केवल कागज़ों मात्र मे ही है यह तो केवल एक कल्पना मात्र है जिसका प्रशासन के वास्तविक तत्थों से बहुत कम वास्ता है। वास्तविकता तो यह है कि कर, सारे के सारे किराये को और बहुत सारी स्थितियों में तो लाभ को भी, हड़प कर लेता है । २४८ 

     

    इसके अलावा, व्यक्तिगत तौर पर लोगों द्वारा किए गए सुधारों के लाभों को भी सरकार वास्तविकता में हड़प कर लेती थी; यद्यपि सरकार ने, पुन: कागज़ों पर ही, यह नियम बना रखा था कि सुधारों पर कोई कर नहीं लगेगा। 

     

    इसके अतिरिक्त, सरकार बन्दोबस्त के समय कृषकों की राय बिल्कुल भी नहीं लेती थी। इन बन्दोबस्तों को ऐसे गोपनीय रखा जाता था मानो ये किसी प्रकार के राज्य के रहस्य हों, कृषक किसी स्वतन्त्र सत्ताधारी को अपील नहीं कर सकते थे । कृषकों को सरकार की मांगें पूरी करनी पड़ती थीं, वरना उन्हें सपरिवार मौत के लिए तैयार रहना पड़ता था । मानो केवल इतना ही पर्याप्त नहीं था, भूमि पर अंग्रेज़ो ने और भी कई कर लगाए जिनको 'उपकर' कहा जाता था। यह उपकर स्थायी बन्दोबस्त के क्षेत्रों में भी लगाये गए, जो उन लिखित बचनों के विरुद्ध था और बाद में जो कानून में परिणत भी कर दिये गये, किसी भूमि पर कर 'सदा के लिए निश्चित कर दिए गए हैं, १८७५ तक पुलिस, पोस्ट आफिस, शिक्षा आदि सभी स्थानीय आवश्यकताओं का खर्चा मालगुज़ारी से ही निकाला जाता था। परन्तु इसके बाद इनकी पूर्ति के लिए भिन्न-भिन्न कर लगाये जाने लगे, जो सरकार की मांग के १० से १६ प्र० श० तक हो जाते थे। ब्रिटिश लेबर पार्टी की पूर्ववर्ती स्वतन्त्र लेबर पार्टी के नेता तथा ब्रिटिश संसद सदस्य जे० कियर हार्डी ने १९०७ में लिखा, “संभवत: फसल का ७५ प्र० श० से कम करों में नहीं जाता। बहुतों को तो यह अबोध्य लगेगा। इंग्लैंड में आय पर ५ प्र० श० कर लगाने से भारी और लगातार शिकायत होती रहती है। हालांकि यह ५ प्र० श० भूमि की कुल फ़सल पर नहीं बल्कि लाभ पर लगाया जाता है । तब फिर उस देश की क्या स्थिति होगी जिसमें लाभ पर ५ प्र० श० नहीं बल्कि फसल पर ७५ प्र० श० कर है ? ...इसी कारण से भारतीयों को स्थायी, निराशाजनक और दलित ग़रीबी में पिसना पड़ता है । " २४९ 

     

    इतनी अधिक मालगुज़ारी ही, जो प्रत्येक बन्दोबस्त के साथ बढ़ती रहे, किसी भी देश की कृषि और कृषकों का विनाश करने में पर्याप्त है। भूमि और मालगुज़ारी के प्रति अपनाये गये ढंगों पर टिप्पणी करते हुए सर हेनरी कॉटन ने १९०७ में लिखा, "मालगुज़ारी लगाने और इकट्ठा करने के हमारे कठोर व नये-नये ढंगों ने कृषकों को गरीबी और अधमता के निम्नतम स्तर तक पहुंचा दिया है। साथ ही हमारे बन्दोबस्त - न्यायालयों की कार्यप्रणाली के तरीके ने भी उनपर इतना भार लाद दिया है जितना कि उनपर कभी पहले नहीं था । अकाल पहले की अपेक्षा अब अधिक पड़ने लगे हैं और अधिक तीव्र हैं। यह भाग्य की विडम्बना है कि हमारा संविदा - संग्रह उन पीड़ितों की सहायता करने के तरीकों से भरा पड़ा है जिनको हमारी शासकीय पद्धति ने दरिद्र, अति पीड़ित बना दिया है।"२५० 

     

    दुर्भिक्ष के दिनों में भी सरकार ने मालगुज़ारी बढ़ाई। एक रिटायर हुए आई० सी० एस० अधिकारी तथा ब्रिटिश संसद सदस्य ने १९०८ में लिखा- " पन्द्रह वर्ष पूर्व पंजाब सरकार के वित्त आयुक्त श्री एस० एस० थौरबर्न ने घर-घर सर्वेक्षण करने के उपरान्त घोषणा की, कि बहुत सारे क्षेत्रों में किसानों की 'छुटकारे से पार बर्बादी हो चुकी है;' उसके अनुसार इसका प्रमुख कारण "मालगुज़ारी अदा करने के लिए महाजनों से ऋण लेना था", ... पंजाब में पिछले दस वर्षो में दो बार सामान्य अकाल पड़ चुके हैं और गत ५ वर्षों में पंजाब में प्लेग का प्रकोप रहा है।... गत वर्ष एक ही सप्ताह में ५२,००० लोग मर गए । केवल मुसलमानों के ही ५ लाख लोग मर गए हैं। ऐसी भयंकर दुर्घटनाओं के बावजूद भी मालगुज़ारी में छूट देना तो दरकिनार, उसको १८९१ से १९०६ तक के १५ वर्षों मे ३० प्र० श० बढ़ा दिया गया है। '२५१ 

     

    भारत के भिन्न-भिन्न भागों में मालगुज़ारी में वृद्धि की ऐसी ही गाथाएं लेखक ने बताई है। २५२ 

     

    १९०९ में ए० जे० विल्सन ने कहा, "अकेला हमारा मालगुज़ारी का बन्दोबस्त ही उन (भारतीयों) को दासता और दयनीय निर्भरता की स्थिति में ला सकता है और लाता है, भले ही हम चहें या न चाहें।" २५३  वायसराय परिषद के भूतपूर्व सदस्य सर विलियम हन्टर ने १८८३ में कहा, "सरकारी कर - निर्धारण के कारण कृषकों के पास अपने और अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए एक वर्ष तक का अन्न भी नहीं बचता । २५४ भारी करनिर्धारण के कारण "वह (भारतीय कृषक) मिट्टी में मिला दिया जाता है और उसका सब कुछ चूर-चूर कर दिया जाता है सिवाय उसकी हड्डियों के सार के । ” २५५ 

     

    बहुत ही चरम स्थिति में, मालगुज़ारी में किसी प्रकार का स्थगन या छूट (जो अत्यन्त कम थी) दी जाती थी। परन्तु यह तो अधिक से अधिक केवल एक लघुकरण था। यहां तक कि १९३० की मंदी के समय भी भारतीय किसानों को कोई राहत नहीं दी गई यद्यपि संसार के अन्य कृषकों के समान उन्हें भी बहुत कष्टों का सामना करना पड़ा था। १९२८-२९ से १९३३ -३४ तक फसलों के मूल्य में ५५ प्र० श० कमी आई, परन्तु कर, किराया आदि के रूप में किसानों द्वारा चुकाई जाने वाली मुद्रा की राशि में कोई परिवर्तन नहीं आया। .२५६  भारत का गरीब कृषक सरकार से नगण्य सहायता भी न ले सका । कोई आश्चर्य की बात नहीं कि इस दौरान में कृषकों के ऋण बहुत बढ़ गए। यह अनुमान लगाया जाता है कि १९३१ और १९३७ के बीच कृषि ऋण ६७५,०००,००० पौंड से बढ़कर १३५,०००,००० पौंड हो गया २५७ अर्थात १०० प्र० श० बढ़ गया । 

     


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