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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 5 लूटमार का तीसरा दौर : १९१४–१९४७

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    Vidyasagar.Guru

    प्रथम विश्वयुद्ध से ब्रिटिश भारतीय सरकार की आर्थिक नीतियों में एक परिवर्तन आया। यद्यपि यह परिवर्तन बीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में ही दिखाई देने लगा था । अंग्रेज़ों ने यह परिवर्तन किसी स्नेहवश नहीं किया; बल्कि राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों ने उन्हें ऐसा करने पर बाधित कर दिया। इस परिवर्तन के मुख्य कारण संक्षेप में निम्नलिखित थे । 

     

    १. महारानी विक्टोरिया की १९०१ में मृत्यु और ब्रिटेन की संसार में सर्वोच्चता की समाप्ति एक ही साथ हुई, जिसकी प्रक्रिया १९वीं शताब्दी के अन्तिम चतुर्थाश में शुरू हो गई थी। बाकी और देशों सहित जापान और अमेरिका ब्रिटिश – उद्योग और व्यापार के सबसे सशक्त प्रतिद्वन्दी थे। ये देश भी भारतीय बाज़ार में घुसना चाहते थे । राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से ब्रिटिश सरकार के लिए यह सम्भव नहीं था कि वह इन देशों की वस्तुओं को भारत में आने पर पूर्णतया रोक दें। 

     

    २. भारतीय जनता के राजनतिक संघर्ष २०वीं शताब्दी के आरम्भ में एक तीव्र मोड़ लिया। अपनी 'बांटो और शासन करों' की नीति के अनुसार जब सरकार ने १९०४ में बंगाल को विभाजित करने का प्रस्ताव रखा, तो भारतीय जनता ने इसका विरोध बड़े जोर-शोर से किया और 'सम्पूर्ण स्वाधीनता' की मांग की। आर्थिक क्षेत्र में इस आंदोलन ने स्वदेशी आंदोलन को जन्म दिया। देश भर में उद्योगों के बारे में उत्साह की एक लहर दौड़ पड़ी, जो प्रथम विश्वयुद्ध के बाद औद्योगिक, विशेषत: वस्त्र - उद्योग, की उन्नति के लिए जिम्मेवार थी। 

     

    ३. युद्ध के समय में जहाजरानी सुविधाओं में काफी कमी आने से, और जर्मन पनडुब्बियों से आक्रमणों के बढ़ते खतरे के कारण, अन्य देशों की तरह ही भारत का विदेश व्यापार भी अस्तव्यस्त हो गया था। भारत में आने वाले अंग्रेज़ों के विपुल माल की सप्लाई मुख्यतः काट दी गई थी । विस्तृत साम्राज्यवादी हितों की यह मांग थी कि भारत ब्रिटेन और उसके मित्र राष्ट्रों की युद्ध - सम्बन्धी आवश्यकताऐं पूरी करे। 

     

    ४. युद्ध के दौरान और उसके तत्काल बाद ब्रिटिश सरकार को भारतीय जनता के सहयोग और सक्रिय समर्थन की अत्यन्त आवश्यकता थी । इनकी आशा तब तक नहीं की जा सकती थी जब तक ब्रिटिश सरकार भारतीयों को कुछ राजनीतिक और आर्थिक सुविधाएं न दे देती । अंग्रेज़ों ने यह वचन दिया कि भविष्य में देश का सारे सम्भव तरीकों से उद्योगीकरण करेंगे। परन्तु अनेक अन्य आश्वासनों की भांति यह भी प्रायः पूरा नहीं किया गया। 

     

    ऐसी परिस्थितियों और युद्ध से उत्पन्न अनेक मांगों के वशीभूत होकर अपने शासन के १५० वर्षो बाद अंग्रेजों ने पहली बार अनमने भाव से इस देश का उद्योगीकरण करने की सोची। २६ नवम्बर १९१५ के अपने पत्र में वायसराय लार्ड हाडिंग ने ब्रिटिश विदेश मंत्री को लिखा, "यह स्पष्ट होता जा रहा है कि युद्ध के बाद भारत के औद्योगिक विकास के लिए हमें कोई सुनिश्चित नीति अपनानी होगी, वरना वह विदेशी माल के लिए क्षेपण भूमि बन जाएगा जो बाजारों के लिए आपस में बढ़-चढ़ कर प्रतियोगिता करने को तैयार होंगे । यह भी स्पष्ट होता जा रहा है कि बड़े राष्ट्रों का राजनीतिक भविष्य आर्थिक स्थिति पर निर्भर करेगा । इस प्रश्न के बारे में भारतीय जनता पूर्णत: एकमत है और इसे यों ही टाला नहीं जा सकता ।... युद्ध के बाद भारत को, जहां तक स्थितियां अनुमति दें, एक औद्योगिक देश बनाने के लिए अपनी सरकार से अधिकतम सहायता की मांग करने का अधिकार होगा । " २०१ 

     

    १९१८ में आरम्भ की गई चेम्सफोर्ड रिपोर्ट में कहा गया कि " न केवल भारतीयों की आशाओं को पूरा करने के लिए, बल्कि भारत की आर्थिक स्थिरता के लिए हर दृष्टि से औद्योगिक विकास की नीति अपनाना अत्यावश्यक है । "...आर्थिक और सैनिक दोनों दृष्टियों से साम्राज्य के हित में भी यही है कि भारतीय प्राकृतिक साधनों का अब और उत्तम प्रयोग किए जाए। हम इस बात का अनुमान भी नहीं लगा सकते कि औद्योगिक भारत साम्राज्य को कितनी शक्ति प्रदान करेगा ।” २०२ 

     

    अंग्रेज़ों को अपने १५० वर्षों के शासन के बाद ऐसा आभास क्यों हो गया? स्पष्टतया, युद्ध, जिसके कारण विदेशों से आने वाली वस्तुओं में कटौती, और पूर्व में ब्रिटिश सामरिक महत्व के कारणों से भारत को 'युद्ध का पूर्वी रंगमंच' बनाने के लिए भारत के उद्योगीकरण के विषय में सोचने की आवश्यकता पड़ी। मौंटेंगू चेम्सफोर्ड रिपोर्ट के अनुसार " अस्थायी रूप से समुद्री परिवहन के रोके जाने की सम्भावना के कारण युद्ध के पूर्वी रंगमंच में रक्षा हेतु अस्त्र-शस्त्रों का अड्डा बनाने के लिए, विवश होकर भारत पर हमें युद्ध सामग्री उत्पादन के रूप में निर्भर होना ही पड़ेगा। इन दिनों औद्योगिक दृष्टि से विकसित देशों की उत्पादित वस्तुएं युद्ध सामग्री की ही भांति मात्रा में तो नहीं परन्तु एक ही प्रकार की होती हैं । अतः भारतीय प्राकृतिक साधनों का विकास सैनिक दृष्टि से लगभग आवश्यक बन जाता है । "२०३ 

     

    इस परिवर्तन के अनुसार सरकार ने १९१६ में एक भारतीय औद्योगिक आयोग की स्थापना की। इस आयोग ने १९१८ में अपनी रिपोर्ट में एक सिफारिश यह भी की कि सरकार को देश में उद्योगों को प्रोत्साहन देना चाहिए । फिर भी यह एक इच्छा जनित धारणा ही बन कर रह गई, क्योंकि सरकार देश का उद्योगीकरण करने के लिए तैयार नहीं थी । परन्तु सरकार के कारण नहीं, अपितु युद्ध के कारण थोड़े से उद्योगीकरण के लिए स्वाभाविक संरक्षण तथा प्रोत्साहन मिला । 

     

    युद्ध के बाद मार्च १९२० तक आर्थिक तेजी का काल आया। इस अल्प काल में वर्तमान उद्योगों ने ‘आश्चर्यजनक लाभ कमाया तथा कुछ नये उद्योग आरम्भ हुए। अंग्रेज़ों द्वारा पूर्ण स्वामित्व वाली जूट मिलों ने १९१८ से १९२१ तक के केवल चार वर्षों में ही अपनी सारी पूंजी का सात गुना लाभ कमाया। भारतीय स्वामित्व वाले कपड़ा उद्योगों ने भी बड़ा लाभ कमाया । परन्तु, जिन श्रमिकों के कारण इतने अत्यधिक लाभ हुए थे, उन श्रमिकों को बड़ी कंजूसी के साथ वेतन दिया जाता रहा । १९२० के मध्य के पश्चात् भारतीय उद्योगों को विदेशी उद्योगों के साथ पूर्ण रूप से प्रतियोगिता करनी पड़ी । स्वाभाविकतया उन्होंने संरक्षण की मांग की। जिसके परिणामस्वरूप वित्तीय आयोग की १९२१ में नियुक्ति की गई, जिसने १९२२ में अपनी रिपोर्ट पेश की। आयोग के सरकारी बहुमत ने धीमे प्रकार की 'विभेदकारी संरक्षण' की नीति अपनाने की सिफारिश की जो एक भारतीय अर्थशास्त्री के शब्दों में "विदेशी हितों की संतुष्टि के लिए" २०४ की गई थी। ऐसे संरक्षण को देने के उद्देश्य से उद्योगों को चुनने के लिए भी उन्होंने तीन शर्ते निर्धारित कीं । ये शर्तें जो परस्पर-विरोधी थीं, विश्व के किसी भी स्वतन्त्र देश द्वारा कभी भी निर्धारित नहीं की गई और, भारत के एक अर्थशास्त्री के शब्दों में "औद्योगिक दृष्टि से विकसित देशों में भी इस प्रकार की शर्तों को पूरा नहीं किया जा सकता । २०५ आयोग के अल्पसंख्यक पांचों भारतीय सदस्यों ने 'पूर्ण-संरक्षण' की यह दलील देते हुए मांग की, कि बहुमत की मुख्य सिफारिशें 'शर्तों और प्रतिबन्धों से इस प्रकार से जकड़ी हैं' कि वे रिपोर्ट की उपयोगिता को क्षीण तो करती ही हैं । अपितु उद्योगीकरण के मार्ग में भी रुकावट डालती हैं। ब्रिटिश हितों को सदैव सुरक्षित रखने को उत्सुक रहने वाली सरकार ने सरकारी कर्मचारियों की सिफारिशों को मान लिया और भारतीय सदस्यों की रिपोर्ट को रद्द कर दिया । बहुमत सरकारी सदस्यों ने एक स्थायी सीमा शुल्क बोर्ड की स्थापना की भी सिफारिश की चूंकि यह ब्रिटिश-हित में नहीं था, इसलिए यह सिफारिश रद्द कर सरकार ने अस्थायी सीमा - शुल्क बोर्ड की नियुक्ति की जिसकी सिफारिशों को मानना या न मानना सरकार की इच्छा पर निर्भर था। इस संरक्षण नीति का सबसे बड़ा दोष सरकार का देश के उद्योगीकरण के प्रति एक विरोधात्मक रवैया था। यह विरोधात्मक रवैया संरक्षण की नीति को बेमन से लागू करने से ही केवल स्पष्ट नहीं था अपितु अंग्रेज़ों की भारतीय सरकार और अंग्रेज़ों की ब्रिटेन - सरकार के मध्य हुए व्यापारिक समझौते के अन्तर्गत साम्राज्यिक अधिमानता की सामान्य प्रणाली को भारत पर थोप कर औद्योगिक उन्नति को रोकने से भी स्पष्ट था । भारतीय जनता और विधान सभा के बड़े विरोध के बावजूद भी इस समझौते को शीघ्र ही पूर्ण कर दिया गया ।" इस समझौते से अंग्रेज़ों को भारतीय बाज़ार में असाम्राज्यिक देशों की और भारत दोनों की औद्योगिक वस्तुओं के मुकाबले में अपनी वस्तुएं बेचने में लाभ होता था । " २०६ 

     

    स्पष्टतया, साम्राज्यिक अधिमानता ने अनेक संघर्षरत भारतीय लघु-उद्योगों को भारी धक्का पहुंचाया। इसके इतिहास और शर्तों से पुनः यह स्पष्ट था कि अंग्रेज़ भारत को कच्चे माल का और केवल आकस्मिक रूप से ही औद्योगिक वस्तुओं के निर्यातक बनाये रखना चाहते थें यह सही कहा गया है कि "भारतीय सीमाकर के इतिहास में मैनचेस्टर के पूंजीपतियों का प्रभाव विशाल अक्षरों में अंकित है। " २०७ भारत को अंग्रेज़ के लिए 'लकड़ी काटने व पानी खींचने वाला' बनकर ही रहना था । 

     

    प्रथम विश्वयुद्ध दोरान और बाद में ब्रिटिश पूंजीपतियों ने भारत को विशाल लाभ कमाने के लिए अनुकूल देश पाया। इसके कई कारण थे। पहला, कि स्वयं युद्ध के द्वारा निर्मित स्थितियों के कारण मांग बन्द थी और आयात घट रहा था। दूसरा, अब तक ब्रिटिश औद्योगिक क्षमता एक ऐसे संतृप्त शिखर पर पहुंच चुकी थी जहां और अधिक पूंजी लगाने से विशाल लाभ नहीं हो सकते थे। तीसरा, भारत में श्रम इंगलैंड की अपेक्षा नितान्त सस्ता था | और चौथा, ब्रिटेन के विपरीत, भारत में पूंजीपतियों पर, भारतीय श्रमिकों के शोषण के लिए व्यावहारिक दृष्टि से कोई प्रतिबन्ध नहीं था । परिणामतः भारत में कुल ब्रिटिश विदेशी पूंजी की लागत १९९३ में लगभग १०% से एकदम बढ़कर १९३३ में लगभग २५% हो गई । २०८ १९३० में भारत में लगी सारी विदेशी पूंजी का संभवतया ९ / १० से भी अधिक भाग अंग्रेज़ों के हाथ में था । २०९ भारत को लूटने की यह तीसरी सरणी वित्तीय पूंजीवाद द्वारा थी । 

     

    भारत के उद्योगों का प्रभुत्व और स्वामित्व मुख्यतः ब्रिटिश पूंजी का ही था, यहां तक कि कपड़ा उद्योग का नियंत्रण भी, जिसमें भारतीय पूंजी बड़ी मात्रा में लगी थी, बहुत अंश तक 'प्रबन्ध - एजेन्सियों' की व्यवस्था द्वारा अंग्रेज़ों के हाथों में था । अपनी सरकार द्वारा संक्षित ब्रिटिश उद्योगपतियों ने श्रमिकों सहित भारतीय साधनों का अपने लाभ के लिए अधिकाधिक शोषण किया। इसके अतिरिक्त, अधिकांश ब्रिटिश कम्पनियों का पंजीकरण ब्रिटेन में हुआ था, जिसका अर्थ था कि उनके द्वारा कमाये गए विशाल लाभों पर लगाए गए कर भारत की बजाय ब्रिटेन के खजाने में जाते थे एवं इस प्रकार का भी कोई कानून नहीं था जो इन ब्रिटिश और अन्य विदेश पूंजीपतियों को, भारतीयों को प्रबन्धकीय या तकनीकी पदों पर नियुक्त करने को, बाध्य करता। वास्तव में प्रयत्न तो यह रहता था कि भारतीयों को ऐसे पद न दिये जाएं जिससे वे ब्रिटिश जानकारी से अथवा ब्रिटिश उद्यमियों से मुकाबला कर सकें । 

     

    इस प्रकार उद्योगीकरण की इस प्रक्रिया से भारत के हाथ यदि कुछ आया भी तो केवल इतना ही कि कुछ हज़ार श्रमिकों को, रोज़गार मिला, जिनमें बच्चे और महिलाएं भी थीं जिनकी 'भीमाकार लाभों' का अत्यन्त छोटा-सा अंश वेतन के रूप में मिलता था। मजदूर संघ बनाना तो लगभग एक अपराध माना जाता था । १९४७ तक ब्रिटिश शासन में "कठोर कानूनों व अधिनियमों के कारण मज़दूर संघों का काम चलाना कठिन था । यह एक प्रकट रहस्य था कि अपराध अनुसंधान विभाग (सी० आई० डी०) के माध्यम से गृह विभाग इन मज़दूर संघों की सब गतिविधियों को संदेह की नजर से देखता था । " २१० 

     

    १९४३ में हेनरी ब्रेल्सफोर्ड ने लिखा, "इस शोषण से इतना लाभ कमाया जाता है कि हमारा विश्वास भी हतप्रभ हो जाता है। कोयले की खानों में दैनिक मज़दूरी ८ पैन्स थी, जबकि वे (अपने हिस्सेदारों का) १६०% दे रहे थे । यह स्थिति केवल आर्थिक वृद्धि के वर्षों में ही नहीं थी, ऐसे ही खानों में से एक खान का १९०९ से १९२९ तक के सारे काल में औसत लाभांश ८०% से भी अधिक था । पटसन के ५१ कारखानों मे से ३२ ने १९१८ - २७ तक एक या अधिक वर्षों में १००% से भी अधिक लाभांश दिया; २९ ने २०% से कम कभी नहीं, और १० ने ४०% से कम कभी भी नहीं दिया । 

     

    "पर्याप्त मात्रा में एकत्रित अपने पास के आंकड़ों से मैं यह हिसाब लगाता हूं कि युद्ध के पश्चात् के प्रारम्भिक वर्षों में उन पटसन के मिलों ने स्कॉटलैंड में अपने लाभांशधारियों को लाभांश के रूप में यदि १०० पौंड दिये, तो भारतीय श्रमिकों को केवल १२ पौंड मज़दूरी दी गई। निस्संदेह, भारत ब्रिटिश ताज का सबसे अधिक चमकदार रत्न है। 

    "ये भीमाकार लाभ भी पूरी कहानी नहीं बतलाते । इन ब्रिटिश कम्पनियों में से बहुधा लन्दन में पंजीकृत हुई हैं, जिसका अर्थ यह है कि भारतीय श्रमिकों के शोषण से कमाये गए लाभ पर लगाया गया आयकर ब्रिटिश खजाने में जाता है, न कि भारतीय खजाने में - एक प्रकार का नज़राना जो सारे परतंत्र साम्राज्य को एशिया और अफ्रीका में भुगतना पड़ता है। पाठकों के लिए तो यह केवल आंकड़े ही हैं, परन्तु मेरे लिए तो ये उन महा गन्दे और जर्जर छप्परों में पटक दिये जाने वाले श्रमिकों के कठिनता से सांस लेने वाली अस्तित्व की यादें हैं । कोई भी सभ्य सरकार इन लाभों पर कुछ कर लगाकर इन श्रमिकों के जीवन स्तर को ऊपर उठाने का प्रयत्न करती । अंग्रेज़ पाठकों को तो स्मरण कराना उचित होगा - भारतीयों के सामने ऐसा कहना भी एक निष्ठुर मजाक ही है- कि सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था का एक छोटा अंकुर भी कहीं इस मुनाफाखोरों के स्वर्ग में विधमान नहीं है।"२११ 

     

    १९३९ में जॉन गुन्थर ने यह संदिग्ध सम्मान भारत को प्रदान किया कि, "यहां दुनिया में सबसे गंदी झोंपड़ियां हैं, मज़दूरों को सप्ताह में तीन अथवा चार रुपए (लगभग १ - २० डालर) मिलते हैं, वे अंधेरे छप्परों में रहते हैं, जहां न पानी की सुविधा है न सफाई की, बदबूदार पानी से भरपूर संकरी गलियों से होकर इनमें प्रवेश करना पड़ता है । ८x६ फुट के कमरों में भी नौ-दस लोगों को रहना पड़ता है। बीमारियां, गन्दगी तथा मानवता की पाशविक स्तर तक हो रही अवहेलना के बीच मानव जीवन नारकीय बदबू से भरे कूड़े की कोठरियों में पड़ा है। " २१२ 

     

    इतने बाद तक भी १९३१ में सरकारी हिटले रिपोर्ट ने मज़दूरों के बारे में लिखा कि 'पांच वर्ष तक के छोटे-छोटे बच्चे भी उनमें हैं। भोजन खाने का पर्याप्त समय तक नहीं मिलता और जो बिना साप्ताहिक अवकाश के १० से १२ घंटे प्रतिदिन केवल २ आने (दो पैंस) प्रतिदिन तक की मज़दूरी पर भी कड़ा काम करते हैं।" "छोटे-छोटे बच्चे जो कूड़ा-करकट और रोगाणु सने कपड़ों से ढके अपनी माताओं के साथ ऊन के ढेरो पर पड़े सोते हैं ।" कमिश्नर को इस बात के विश्वास का कारण था कि "छोटे बच्चों को निर्दयी प्रकार के शारीरिक दंड दिये जाते हैं और उनके विरुद्ध अन्य क्रूर अनुशासनिक कार्यवाहियां की जाती हैं ।" उनके मां-बापों को ये चुपचाप सहना पड़ता था क्योंकि वे मालिकों के ऋणी हाते थे ।२१३ 

     

    इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि "ज्यों ही बच्चे चलना सीखते हैं।” २१४ त्यों ही वे बागबानियों में काम करने लग जाते हैं । १९३७ में आर० रेनाल्ड्स के अनुसार इन बागबानियों द्वारा घोषित लाभांश " आधुनिक वर्षो में... २२५% तक था ।"२१५ 

     

    भारत सरकार को केवल साम्राज्यिक वरीयता से ही संतुष्टि नहीं हुई। उन्होंने भारतीय उद्योगों के विकास को रोकने के और अनेक तरीके ढूंढ़ निकाले। इनमें से एक तरीका बैंकिंग का था, जिनका स्वामित्व और नियंत्रण बहुधा अंग्रेज़ों के हाथ में था। बैंक ही वित्त जुटाते हैं, जिसके बिना आधुनिक उद्योगीकरण असम्भव है। एक अमेरिकी लेखक हमें इन बैंकों के भारतीय उद्योगों के प्रति अपनाये गए रवेये के बारे में बताता है, "...क्योंकि बड़े बैंकों में से अधिकांश या सरकारी नियंत्रण में हैं या वे ब्रिटिश और अन्य विदेशी बैंकों की शाखाएं हैं, इसलिए भारतीय उद्यमी उन औद्योगिक उद्यमों के लिए, जिनको अंग्रेज़ नहीं चाहते, वित्त जुटाना लगभग असंभव पाते हैं । २१६ 

     

    भारतीय उद्योगों का गला घोटने के अन्य तरीकों में से 'प्रबन्धक एजेंसियों' की व्यवस्था और ब्रिटिश हितों के पक्ष में मुद्रा तथा विनियम दरों का परिचालन आदि भी थे । आधुनिक उद्योगीकरण की दिशा में यदि कुछ किया भी तो वह उपभोक्ता उद्योगों के क्षेत्र में किया गया जिनका बहुधा स्वामित्व और अथवा नियंत्रण अंग्रेज़ों और अन्य यूरोपीयों के हाथों में था । आधारभूत भारी उद्योग, जो देश के और भविष्य में उद्योगीकरण के लिए आवश्यक होते हैं, द्वितीय महायुद्ध के आरम्भ तक बिलकुल ही नहीं थे, सिवाय टाटा आयरन एंड स्टील कम्पनी के, जो केवल राष्ट्रवादियों के दबाव के कारण ही बची रही। 

     

    भारत के इस आभासी औद्योगीकरण का अर्थ यह नहीं था कि उद्योगों पर निर्भर जनसंख्या बढ़ रहीं थी और कृषि से लोगों का मोह छूट रहा था, बल्कि स्थिति उल्टी ही थी । इसका कारण यह था कि बड़े पैमाने के उद्योग जिनमें अधिक पूंजी और कम श्रम की आवश्यकता होती है, लंगड़ाकर प्रगति कर रहे थे, जबकि हथकरघा उद्योगों को, जिसमें कम पूंजी और अधिक श्रम लगता है, और भी अधिक ह्रास होता जा रहा था । परिणामस्वरूप कृषि पर दबाव, जो उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में ही अपने चरम बिन्दु पर पहुंच गया था, बीसवी, शताब्दी में और भी बढ़ गया । द्वितीय महायुद्ध की पूर्व - संध्या में भी भारत की वास्तविक स्थिति कुल मिलाकर उद्योग - विहीनता की ही थी, यदि इसको इस मापदंड से तोलें कि कितने लोग अपनी आजीविका के लिए उद्योगों पर निर्भर थे । १९४२ में एक अमेरिकी लेखक ने लिखा, “१८९१ से १९९१ तक कृषि पर जनसंख्या की निर्भरता ६१% से बढ़कर १२% हो गई, क्योंकि अधिक से अधिक कामगारों, उद्यमियों बुनकरों, जुलाहों आदि को विवश होकर भूमि पर निर्भर होना पड़ा, जिसका अर्थ था कि प्रत्येक कृषक के पास भूमि निरन्तर कम ही कम होती चली गई।’२१७ 

     

    १९११ - ३१ के बीच, उदाहरणार्थ, हथकरघा उद्योगों सहित सभी प्रकार के उद्योगों में कार्यरत श्रमिकों की संख्या लगभग १ करोड़ ७० लाख से घटकर लगभग १ करोड़ ५० लाख रह गई जबकि काम करने योग्य लोगों की जनसंख्या १४ करोड़ ९० लाख से बढ़कर १५ करोड़ ४० लाख हो गई है।"२९८ 

     

    १९३९ में द्वितीय विश्वयुद्ध की घोषणा की गई, और प्रथम विश्वयुद्ध की ही भांति वायसराय ने, भारतीय लोगों या उनके नेताओं से पूछे बिना, भारत को इस यूरोपीय युद्ध में धकेल दिया। प्रथम विश्वयुद्ध में जो आर्थिक, सामरिक और राजनीतिक मजबूरियां अंग्रेज़ों की थीं, वे १९३९ में और भी बढ़ गई थीं, परन्तु फिर भी सरकार ने भविष्य को ध्यान में रखकर उद्योगीकरण के बारे में रुकावट डालने वाली नीति अपनाई । और, भारत के प्रथम प्रधान मंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू के शब्दों मे, “भारत में ऐसे किसी उद्योगों के विकास को अनुचित समझा जाता था जो युद्ध के बाद बिट्रिश उद्योगो से मुकाबला कर सके। यह कोई छिपी नीति नहीं थी, ब्रिटिश पत्रों ने इसे सार्वजनिक अभिव्यक्ति दी थी जिसका भारत में निरन्तर हवाला दिया जाता रहा और विरोध होता रहा ।"२१९ 

     

    द्वितीय विश्वयुद्ध के समय भी, अंग्रेजों की यही नीति थी कि भारत को केवल कच्चे माल का निर्यातक और ब्रिटिश उत्पादित वस्तुओं का खरीदार ही बने रहने दिया जाये - इस बात के बावजूद भी कि दिल्ली में हुए १९४० के पूर्वी देशों के सम्मेलन में आस्ट्रेलिया के साथ-साथ भारत को भी युद्ध के लिए आधार - भूमि के रूप में सबसे उत्कृष्ट समझा गया, और इस नीति के बावजूद भी कि एक अमरीकी तकनीकी मिशन ने, जिसके अध्यक्ष डॉ० ग्रेडी थे, भारत में कुछ नये उद्योगों की स्थापना की सिफारिश की थी, जिनके लिए भारत में सारे साधन उपलब्ध थे। ये दोनों रिपोर्ट भारत में कभी भी प्रकाशित नहीं की गई, क्योंकि सरकार के विचारानुसार जनता के (अर्थात अंग्रेज़ों के) हितों में नहीं थी ।"२२० 

     

    'ईस्टर्न इकॉनॉमिस्ट' ने ३१ अगस्त १९४५ को लिखा, "हम सब कुछ बना सकते हैं फिर भी कुछ नहीं बना रहे; किसी भी चीज़ के निर्यातक बन सकते हैं तथा संसार में किसी भी चीज़ की मरम्मत कर सकते हैं, परन्तु कोई भी चीज़ बना नहीं सकते। हमारे पास न कोई व्यवस्था है, और न ही कोई योजना । यदि है तो स्पष्ट सम्पूर्ण और एकमात्र योजना यही है कि युद्धोत्तर काल में देश के उद्योगीकरण को रोका जाये ।' २२१ 

     

    इस अवरोधक नीति के बावजूद भी, युद्ध ने उद्योगीकरण की भारी मांग उत्पन्न कर दी और विदेशों से आयात लगभग बन्द हो गया, जिससे अनेक उद्योगों का भिन्न-भिन्न मात्राओं मे लाभ पहुंचा । प्रचालित और संगठित उद्योगों ने अपनी क्षमता, उत्पादन और लाभों को बढ़ाया। प्रथम विश्वयुद्ध के विपरीत, जिसने मुख्यतः उपभोक्ता - उद्योगों को ही प्रोत्साहन दिया था, दूसरे विश्वयुद्ध ने कुछ सीमा तक 'मूल' उद्योगों के स्थापना में भी प्रोत्साहन दिया। 

     

    किन्तु दूसरे देशों, जैसे कि आस्ट्रेलिया और कनाडा, के विपरीत, सिवाय शास्त्रास्त्र और युद्ध से सम्बन्धित अन्य विशिष्ट उद्योगों के भारत को युद्ध से कोई भी लाभ नहीं हुआ। दूसरी ओर, युद्ध से पूर्व भारतीयों द्वारा नियोजित कुछ नये उद्योग शुरू नहीं किये जा सके, क्योंकि मशीनों तथा अन्य वस्तुओं का आयात नहीं हो सका । २२२ यही नहीं, युद्ध के दोरान और बाद में असाधारण महंगाई के कारण भारतीय जनता को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। 

     

    १९३९ में अग्रेज़ों के एक मौन समर्थक के अनुसार जो तथ्य १९४७ में ब्रिटिश शासन के अन्त तक भी वैसे ही सही रहे वे हैं : भारत के ३० करोड़ लोगों में से सूक्ष्मांश केवल २० लाख व्यक्ति ही, उद्योगों में काम करने वाले थे; इस्पात का उत्पादन १० लाख टन से भी और कम था; एक विराट जनसंख्या जिसका ८०% जीवन-यापन सर्वथा गतिहीन, अति संकुलित कृषि अर्थ-व्यवस्था पर निर्भर था। २२३ 

     

    १९वीं शताब्दी के मध्यकाल तक भी लगभग ५५% लोग ही कृषि पर निर्भर थे, २२४ जबकि 'भारत के उद्योग और व्यापार पूर्णरूपेण अथवा अर्धरूपेण ध्वस्त कर दिये जा चुके थे। इससे पूर्व, जब उद्योग और कृषि में पूर्ण पारस्परिक ताल-मेल था, तब अवश्य ही अवश्य ही कृषिकरण ( अधिकाधिक जनसंख्या के कृषि पर निर्भरता के अर्थ में) और प्रगतिशील अनौद्योगीकरण भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद की महत्वपूर्ण युगान्तकारी घटनाऐं थीं। ब्रिटिश राज्य के समाप्त होते-होते भारत की आयातित वस्तुओं में तैयार माल और जनता के लिए अन्न प्रमुख थे । भारी और आधारभूत उद्योग या तो पूर्णतया लुप्त थे अथवा उनका विकास बहुत ही अपर्याप्त था । 

     


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