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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 4 लूटमार का दूसरा दौर : १८१२–१९१४ (क्रमागत)

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    Vidyasagar.Guru

    रेलवे 

     

    भारत में रेलवे की शुरुआत इसलिए की गई कि अंग्रेज़ों के लिए भविष्य में और अधिक लूट तथा शोषण के रास्ते खुलने के लिए वह आवश्यक था। यदि ऐसी बात न होती तो न तो अंग्रेज़ों ने रेलवे की शुरुआत भारत में स्वयं की होती और न किसी को करने दी होती। रेलवे की शुरुआत को भी वे आसानी से रोक सकते थे जैसा कि १८६० तक उन्होंने अन्य मशीनों के विषय में किया। रेलवे और अन्य योजनाओं के लिए, जो अंग्रेज़ों के अपने हित में थीं, वे सदा धन जुटा लेते थे, परन्तु भारतीयों की प्रारम्भिक तथा मौलिक आवश्यकताओं तक को भी पूरा करने में धन की कमी का सदा बहाना लगाते थे । 

     

    दूसरे, अंग्रेज़ों ने भारतीयों को रेलवे या और किसी भी काम के लिए बदले में अनेकानेक कर लगाए बिना एक भी पैसा तक मुफ्त दान नहीं दिया। भारतीयों से रेलों के लिए इतनी धनराशि निचोड़ी गई, जितनी शायद ही संसार के किसी और देश से निचोड़ी गई हो । भारतीयों ने यह तर्क दिया कि रेलवे की बजाय उन्हें सिंचाई के साधन और अन्न उगाने के लिए साधनों की कहीं बहुत अधिक आवश्यकता है, क्योंकि एक तो वे सस्ते यातायात का साधन हो सकेंगे और दूसरे बार - बार पड़ रहे अकालों से बचाव भी कर सकेंगे। उन्होंने इस ओर भी इंगित किया कि रेलवे से प्रतिवर्ष भारी घाटा हो रहा है। इन तर्कों के बावजूद भी अंग्रेज़ों ने भारत में रेलों को प्रसार स्वयं ब्रिटेन और फ्रांस से भी अधिक तेज़ी से किया, क्योंकि ऐसा करना अंग्रेज़ों के अपने आर्थिक स्वार्थ में था । १५९ 

     

    जैसाकि पहले विवेचन हो चुका है, १९वीं शताब्दी के लगभग मध्य तक भारतीय उद्योग और उत्पादन प्राय: पूर्णत: नष्ट कर दिये गए थे । १८४७ में 'लन्दन टाइम्स' यह लिख सका कि "अब वे दिन बीत गए हैं। जब भारत को 'एल डोरेडो' समझा जाता था, परन्तु दक्षिण में कपास की उपज हीरों के एक जहाज के बराबर होती है । ६० १८४७ में 'लन्दन इकानॉमिस्ट' में एक लेख ने यह स्पष्ट कर दिया कि ऐसा कोई "उष्णकटिबन्धीय” कच्चा माल नहीं है " जिसकी उपज भारत में अन्य देशों के सामान अथवा उनसे बेहतर न की जा सकती हो; जबकि उसकी घनी और प्रख्यात जनसंख्या हमारी औद्योगिक वस्तुओं की असीमित मांग कर सकती है । "१६१ 

     

    यद्यपि भारत के पास कच्चा माल और भोज्य पदार्थ ब्रिटेन को भेजने और उनके औद्योगिक माल की खपत करने, की पर्याप्त क्षमता थी, फिर भी वास्तविकता यह थी कि प्रारम्भिक विक्टोरिया काल में भारत ने ब्रिटिश वस्तुओं का ब्राज़ील से जो ब्रिटेन का उपनिवेश था भी नहीं, केवल दसवां भाग प्रति व्यक्ति उपभाग किया। लंकाशायर ने भारत द्वारा कम कपास भेज सकने की शिकायत भी की ।१६२ 

     

    क्षमता और वास्तविकता के मध्य की खाई को भरने के लिए ब्रिटिश व्यापारियों ने अनेकों उत्तेजित आन्दोलन किये, जिनमें से एक यह भी था कि " औद्योगिक क्रान्ति की दो महान सफलताओं- भाप द्वारा चलित जहाजों और रेलों को भारत में आरम्भ किया जाए। १६३ 

     

    अत: १८४० में भाप से चलने वाली पहली जहाज़ कम्पनी 'पेनिंसुलर ऐंड ओरिएन्टल स्टीम नैविगेशन कम्पनी (P & O) की स्थापना की गई। फिर भी ब्रिटेन का भारत से आयात-निर्यात आशा से बहुत कम था । इस स्थिति पर ब्रिटिश व्यापारियों, पत्रकारों और सरकारी अधिकारियों ने पूर्णरूपेण विचार-विमर्श किया । "उनका मुख्य निष्कर्ष यह था कि ब्रिटेन की भारत से व्यापार में कमी का कारण अच्छे आन्तरिक यातायात का न होना है । ... तर्कसंगत पग भारत में रेलों का जाल बिछाया था । "१६४ 

     

    लक्ष्य स्पष्ट था। प्रवर्तकों ने अब भारत और ब्रिटेन की सरकारों को रेलवे के राजनीतिक और सैनिक लाभों के विषय में समझाना आरम्भ किया इन व्यापारियों ने बार-बार व्यापारिक, राजनीतिक और सैनिक लाभों पर जोर डाला, यह सारे लाभ ब्रिटेन के हित में थे । १८४५ में एक प्रबुद्ध रेलवे अर्थशास्त्री हाइड क्लार्क ने कहा कि रेलवे की स्थापना के पीछे कोई लोकोपकार की भावना न हो कर केवल राजनीतिक व्यवहार - चातुर्य की भावना काम कर रही है। 

     

    "अतः हम ब्रिटिश व्यापारियों की कम्पनी को अपनी कोटिशः प्रजा की नैतिक और सामाजिक प्रगति के कार्य में यह खर्चीली सहानुभूति की प्रेरणा नहीं दे रहे हैं, बल्कि उन्हें अपने शासन को इस क्षेत्र में सुदृढ़ करने के लिए सुयोजित रेल यातायात की व्यवस्था का आग्रह कर रहे हैं।

     

    कुछ ही समय बाद क्लार्क ने कहा, कि “विश्व में प्रत्येक कार्य के पीछे स्वार्थ होता है। संक्षेप में उसने स्पष्टतया कहा कि " वास्तविकता यह है कि हिन्दुओं से हम रेलवे बनवायेंगे जिससे हम पर्याप्त मात्रा में लाभ उठा सकें । "१६५ 

     

    १८४८ से १८५७ तक भारत के गवर्नर-जनरल लार्ड डलहौज़ी ने २० अप्रैल १८५३ को एक नोट लिखा, जो एक प्रकार से भारतीय रेलवे का आधारभूत प्रावधान है, "इंगलैंड भारतीय कपास के लिए ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहा है, जिसे भारत पहले से ही कुछ मात्रा में पैदा करता है और यदि यातायात के साधनों की समुचित व्यवस्था हो जाये तो निश्चय ही वह बढ़िया और अधिक मात्रा में कपास पैदा करने लगेगा ।" इसके अतिरिक्त इन तीन महाप्रान्तों - बम्बई, कलकत्ता व मद्रास को जोड़ने वाली रेलवे लाइनों से " अपार राजनीतिक लाभ" होंगे। इससे “सरकार देश में किसी भी स्थान पर अपनी शक्तिशाली सेना का अधिकांश अब जितने महीनों में पहुंचाती, उतने ही दिनों में पहुंचा सकेगी। १६६ 

     

    सन् १८४५ में भारत के गवर्नर-जनरल लार्ड हार्डिंग ने रिपोर्ट दी कि “हिन्दुस्तान की समतल भूमि रेलवे के निर्माण के लिए पर्याप्त सुविधाजनक है जिससे व्यापार, सरकार और देश के सैनिक नियंत्रण में अत्यधिक सहायता मिलेगी।९६७ और यह सब अंग्रेज़ों के हित में है ।भारत में "व्यापार, सरकार एवं सैनिक नियंत्रण" के लिए सन् १८५३ में ब्रिटिश प्राइवेट कम्पनियों ने रेलवे की शुरुआत की। इन कम्पनियों ने कम से कम ५% वार्षिक लाभ की गारंटी मांगी जबकि सरकार ने उन्हें ४% वार्षिक लाभ की गारंटी के अतिरिक्त बिना किसी किराये या कर के मुफ्त में भूमि देने का प्रस्ताव किया। कम्पनी के नेता सर जॉर्ज लार्पेट समेत सभी ने प्रस्ताव पर अत्यन्त संतुष्टि प्रकट की । लार्पेट ने यह स्वीकार किया कि "भूमि का प्रस्ताव और ४% की गारंटी बहुत बड़ा लाभ है। फिर भी ब्रिटिश व्यापारी इस 'बहुत बड़े लाभ' से भी संतुष्ट नहीं थे। वे और अधिक चाहते थे और भारत की अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें और अधिक देकर खुश किया। * क्योंकि जैसा कि लार्पेट ने कहा, "भारतीय बोर्ड, कम्पनी और सरकार भारत को लूटने के लिए मिले हुए हैं । "९६९

     

    खेद है कि भारतीय सरकार द्वारा रेलवे के विषय में, अथवा रेलवे कंपनियों के साथ संविदा - पत्र बनाने के सम्बन्ध में किसी भी भारतीय को कभी भी पूछा तक नहीं गया। दोनों ओर अंग्रेज़ ही इस काम में लगे थे, अंग्रेज़ जो अपने आपको धनी बनाने की दृष्टि से बहुत से ढंगों द्वारा जितना सम्भव हो सके भारत को लूटने की ताक लगाये रहते थे। रेलवे तो उनके लिए ऐसा करने का एक ढंग था । यदि कोई वस्तु डाकुओं की पहुंच से बाहर है, तो वे किसी भी तरह की सीढ़ी लाने का प्रयत्न करेंगे ताकि उनके हाथ घर में सब जगह पहुंच जायें । उसी प्रकार भारत में अंग्रेज़ भी रेलवे की स्थापना द्वारा ऐसी ही सीढ़ी लाये ताकि अब वे केवल बन्दरगाह के निकटवर्ती क्षेत्रों में ही नहीं बल्कि देश के भीतरी भागों से भी अपने फौलादी पंजे फैलाकर कच्चा माल सस्ती दरों पर खरीद सकें और अपना औद्योगिक माल बेच सकें। 

     

    निःशुल्क भूमि के अतिरिक्त भारत की सरकार (अर्थात भारत की जनता) के राजस्व से ब्रिटिश कम्पनियों को ५% की गारंटी देने का अर्थ था कि यदि कम्पनियों को पूंजी की लागत पर ५% वार्षिक वास्तविक लाभ रेलवे से न हुआ, तो भारतीय जनता शेष की कमी को पूरा करेगी। कम्पनियों पर इस बात की कोई भी रोक-टोक नहीं थी कि वे पैसे को अक्लमंदी और बचत के साथ खर्च करें और उन पर यात्रियों की सुविधाओं की कोई ज़िम्मेदारी थी । ऐसी स्थिति में सरकारी कर्मचारियों के मतों के उद्धृत करते हुए एक प्रख्यात भारतीय अर्थशास्त्री ने कहा है कि, "रेलवे लाइनों के निर्माण में की गई फिजूलखर्ची और यात्रियों की सुविधाओं की अवहेलना का ऐसा उदाहरण शायद ही विश्व के रेलवे उद्योग के इतिहास में कहीं और मिले। और ये तथ्य सरकार के बड़े-बड़े पदाधिकारियों की साक्षी द्वारा प्रमाणित किये गए थे । "९७६ 

     

    *ब्रिटिश साम्राज्यवादी मौरिस और तायाजिंकन १९६४ में अपनी सरकार के पक्ष में समझ में आने वाली परन्तु तर्कहीन दलीलें पेश करते हैं कि "आज भारतीय सरकार विश्व बैंको ६% ब्याज देती है, और उसको कोई खसोटने वाला नहीं कहतां" वे दुखी होते हैं कि "गैर-सरकारी रेलवे कम्पनियों को केवल ५% की ही गारंटी दी गई थी । ९७० ये लेखक चाहते हैं कि पाठक यह मान ले कि १०० वर्ष से ऊपर की अवधि में भी ब्याज की दर का मान बदला नहीं है । पाठकों की बुद्धि और ज्ञान का कैसा अपमान है ! प्रश्न यह है कि १८५० की स्थिति में जिस समय के ब्रिटिश अधिकारियों और व्यापारियों का, जिन्होंने रेलवे में पूंजी लगाई, क्या मत था ? क्या उन्होंने उसको संतोषजनक समझा या नहीं? कुछ मत नीचे दिये जा रहे हैं । १८७३ में समिति के समक्ष भारत के सर्वोच्च ब्रिटिश अधिकारी, लार्ड लारेन्स, ने कहा : "पांच प्रतिशत की गारंटी पर तो पूंजीपति कुछ भी करने को तैयार होंगे...५% तो इतनी अच्छी ब्याज की दर है कि उसको प्राप्तकर वे संतुष्ट होंगे। १७९ जब लारपेन्ट ने यह सुना कि भारत सरकार ५% की गारंटी और मुफ्त भूमि देने को मान गई है, तब उसने घोषणा की थी कि यह प्रस्ताव तो "ब्रिटेन अथवा यूरोप की किसी भी रेलवे कम्पनी के लाभों से श्रेष्ठ है। १७२ एक और रेलवे कम्पनी (जी० आई० पी०) के अध्यक्ष लार्ड ह्वार्नक्लिफ़ ने कहा कि "रेलवे कम्पनी ने जितना मांगा, उससे अधिक मिला। १७३ इस प्रश्न का कि क्या गारंटी देना वास्तव में आवश्यक था ? उत्तर डेनियल थॉर्नर ने स्ष्टत: 'ना' में दिया है क्योंकि सरकार चाहती तो स्वयं लन्दन से "बहुत कम दर पर” पैसा उधार ले सकती थी, कारण कि वहां पूंजी बेकार पड़ी थी, जिसकी पूंजीपति काम में लगाना चाहते थे ।१७३अ सर जॉन कैपहैम ने कहा कि " लन्दन में इतने समय तक पूंजी इतनी सस्ती कभी भी नहीं रहीं जितनी १८४८ के मध्य से १८५२ के अन्त तक थी । १७४ इस बीच ब्रिटेन " में पूंजी की व्यापक भरमार थी ।" ९७५ 

     

    इसके अतिरिक्त, यदि भारत की सरकार आज ६ प्रतिशत पर पैसा उधार लेती है, तो रेलवे की स्थापना के विपरीत उसके द्वारा चलाये गए नव-उद्योग का लाभ अंग्रेज़ों के लिए नहीं बल्कि भारतीयों के लिए भारत में रहता है, अंग्रेज़ों की बजाय भारतीयों को नौकरियां मिलती हैं; और उधार ली गई पूंजी भारतीय उद्योगों को, न कि ब्रिटिश उद्योगों को प्रोत्साहन देती है । भारत मे रेलवे की स्थापना भारतीय सम्पदा को ब्रिटेन में शोषित करने का एक और ढंग था । 

     

    पाठक भली भांति समझा सकते हैं कि ब्रिटिश साम्राज्यवादी, भारतीय स्वतन्त्रता के बाद भी, किसी तरह से निरर्थक और आधारहीन तर्कों से अपनी भारत की लाजवाब डकैती को उचित सिद्ध करने का प्रयन्त करते हैं। 

     

    संसदीय समिति के समक्ष १८७२ में भारत के वित्तमन्त्री विलियम एन० मैस्सी ने भारतीय रेलवे के निर्माण को ऐसा " अत्यधिक फिजूलखर्ची का काम बताया जो पहले कभी भी नहीं किया गया । १७७ भारत के वाइसराय एवं गवर्नर-जनरल * सर जॉन लारेन्स ने भी ** इस फिजूलखर्ची की तीव्र आलोचना, और यात्रियों के साथ किये जा रहे दुर्व्यवहार की बहुत बड़ी निन्दा की । "९७८ 

     

    ब्रिटिश कम्पनियों और भारतीय ब्रिटिश सरकार के मध्य हुई संविदाओं की शर्तों पर विचार करने के पश्चात् डेनियल थॉर्नर का निष्कर्ष है कि "जोखिम तो ईस्ट इण्डिया कम्पनी (अर्थात भारतीय जनता) को उठाना था; रेलवे के वर्तकों की हानि और अनिश्चितताएं सदैव ईस्ट इण्डिया कम्पनी पर मढ़ी जा सकती थीं; और लाभ कम्पनियों को होना था । १७९ दूसरे शब्दों में ब्रिटेन के लोगों को अपनी कम्पनियों के माध्यम से भारत की ब्रिटिश सरकार से मिलकर, पैसा बटोरना था, चाहे रेलवे को लाभ हो अथवा हानि, और भारतीयों को हानि और जोखिम उठाने थे। ऐसी संविदा "उसके लिए, जिसने यह तैयार किये घोर लज्जाजनक थे ९८० और इनकी किसी तरह से भी सफाई नहीं दी जा सकती सिवाय इसके कि अंग्रेज़ों का उद्देश्य भारत का शोषण और लूटमार करना था और रेलवे ऐसा करने का एक साधन था । ऐसी परिस्थितियों में भारतीय रेल का व्यवसाय १९वीं शताब्दी के अन्त तक क्षति के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता था, जबकि उस समय तक रेलवे पर कुल खर्चा २२ करोड़ ६० लाख पौंड हो चुका था, और भारतीयों द्वारा उठाया गया घाटा ४ करोड़ का था । १९४३-४४ तक (स्वतन्त्रता के केवल तीन वर्ष पहले तक भी) प्रत्येक वर्ष भारतीयों को केवल रेलवे पर ही लगभग एक करोड़ पौंड ऋण के रूप में ब्रिटिश जनता को देना पड़ता था । ८१ (शेष ऋणों के विषय में बाद में बताया जाएगा ।) 

     

    इतनी बड़ी धनराशि के खर्च करने बावजूद भी, इसका अर्थ यह नहीं था कि रेलवे ने भारत में उद्योगीकरण का युग आरम्भ किया हो, जैसा कि रेलवे ने अमेरिका, जर्मनी और जापान आदि संसार के अन्य देशों में किया । यह एक सामान्य शिकायत थी कि भारतीय उद्योगीकरण के लिए रेलवे प्रशासकों ने कोई ध्यान नहीं दिया १८२ भारत का उद्योगीकरण तो अंग्रेज़ों के लिए सांड़ को लाल कपड़ा दिखाने की भांति था । रेल की पटरियों के बनाने में और दरों के निर्धारण में ऐसी नीतियां अपनाई गई, जिससे विदेशी (मुख्यत: ब्रिटिश) उद्योगों को प्रोत्साहन मिले और भारतीय उद्योग हतोत्साह हों । 

     

    रेलों का भाड़ा बेहद अधिक था, अमेरिका से भी अधिक और यदाकदा तो दुगुने से भी अधिक और सेवाएं उसके मुकाबले में घटिया थीं । ९८३ न केवल भाड़े ही अधिक थे, बल्कि एक भारतीय अर्थशास्त्री के शब्दों में, उनको इस तरीके से नियोजित किया जाता था कि "यूरोप के व्यापारियों को सहायता मिले और भारतीय उद्योगों ओर उद्यमियों का विकास रुके, १८४ तथा “औद्योगिक वस्तुओं के आयात की, और कच्चे माल के निर्यात की प्रेरणा मिले। १८५ केवल इस शताब्दी के दूसरे दशक में आकर ही, राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय दबावों के कारण (जो बाद में बताये गए हैं) अन्धाधुन्ध भाड़े की इन त्रुटियों का महत्व नहीं रहा । 

     

    सार यह है कि जिन भारतीय रेलों की स्थापना के लिए भारतीयों को विपुल धनराशि खर्चनी और भूमि देनी पड़ी, उन्होंने ही भारत में आधुनिक उद्योगों को निरुत्साहित किया, और उसने परम्परागत उद्योग धन्धों को नष्ट कर दिया जो अभी तक देश के आन्तरिक भागों में स्वयं को घसीट रहे थे और जिससे अधिकाधिक लोग विवश होकर कृषि और बेराजगारी की ओर जाने लगे। भारतीय गलों में नवागन्तुकों के फन्दे को और दृढ़ कर दिया गया, कृषि का जबर्दस्ती व्यापारीकरण होने लगा, कच्चे माल व खाद पदार्थों का निर्यात तथा विदेश निर्मित वस्तुओं का आयात बढ़ने लगा और भारतीय राजस्व का इंगलैंड को निष्कासन बढ़ने लगा जिसके कारण कर अधिकाधिक मात्रा में लगे, निर्धनता बढ़ती गई, ओर बारम्बार दुर्भिक्षों के कारण जो ब्रिटिश पूंजी द्वारा भारत के रूपान्तर के दुःखदायी परिणाम थे,१८६ विशाल संख्या में लोग मरने लगे। 

    *ब्रिटेन द्वारा १८५८ में भारत के प्रत्यक्ष प्रशासन से पहले, भारत के उच्चतम ब्रिटिश पदाधिकारी की पदवी केवल 'गवर्नर-जनरल' होती थी और बाद में, 'वाइसराय एवं गवर्नर-जनरल' थी।

    ** जैसा कि पहले इंगित किया जा चुका है, यदि ब्रिटिश हितों की बात होती थी तो भारत के उच्चतम सरकारी पदाधिकारियों के चाहते हुए भी वे भारत के तानाशाह - ब्रिटेन के विदेशमन्त्री–के विरुद्ध कुछ नहीं कर सकते थे, यद्यपि उनका ऐसा चाहना एक बहुत विरल बात थी। (भारतीयों की तो बात ही क्या? वे तो भारत की सब सरकारों से अधिक तानाशाही अंग्रेज़ी सरकार की गिनती में कहीं नहीं आते थे ।) 

     

    भारतीय रेलों से जो भी यथार्थ अथवा काल्पनिक लाभ भारतीयों को हुए हों, जैसे कि बहुत थोड़े से लोगों को आने-जाने में सुविधा, जो "लगभग रीते डब्बों में बलि के जानवरों की भांति भर दिए जाते थे, १९८७ ये सब लाभ तनिक भी जानबूझ कर नहीं दिये गए बल्कि सांयोगिक थे। भारतीयों और कुछ समझदार एवं दूसरों का ध्यान रखने वाले भारत के अंग्रेज़ पदाधिकारियों के अतिरिक्त अकाल- आयोगों ने भी बार-बार यह मांग की कि रेलों के विस्तार को रोका जाये। फिर भी रेलों का विस्तार भारतीय आवश्यकताओं और साधनों से कहीं बढ़-चढ़ कर किया गया, इसका बिलकुल भी कतई ध्यान न करते हुए कि खर्चा क्या होगा और भारतीयों पर इनका क्या परिणाम होगा। १८८ उदाहरणार्थ, रेलों के लिए बड़े तटबंध बनाते समय देश के प्राकृतिक जल निकासों का कोई ध्यान नहीं रखा गया । परिणामस्वरूप बाढ़ें बारंबार और लगातार बढ़ती गई, भू-क्षरण बढ़ने लगे, मलेरिया उत्पन्न करने वाले दलदलों का प्रकोप फैला और करोड़ों लोग मौत के मुंह में गए, जिसकी अंग्रेज़ों ने कभी भी कोई परवाह नहीं की, यदि यह उनके हितों के विरुद्ध होता था । भारतीय रेलों ने, जिनका निर्माण केवल भारतीयों के खून-पसीने की कमाई से ही हुआ था, शासकों (अंग्रेज़ों) को अपनी तैयारशुदा वस्तुओं के लिए विस्तृत बाज़ार प्राप्त कराने के साथ-साथ रेलों को बनाने का सामान पहुंचाया जो सभी दूर इंगलैंड से लाया गया था, कच्चा माल और खाद्य पदार्थ का (इंगलैंड में) आयात सुगत बनाया; फालतू पूंजी के लाभकारी निवेश प्रदान किये, इंगलैंड के स्तरों के अनुसार बहुत ऊंचे वेतनों पर फोरमैन से ऊपर तक१८९ की सारी नौकरियों का हमारे छोकरों १९० के लिए "आजकल की फालतू चीज़ों को उपलब्ध कराने के महान अवसर प्राप्त कराये; और उन लोगों को, जिन्होंने गोरों को अपना 'बोझ' उतारने को कहने का 'अपराध' करने का साहस किया, मारने और कुचलने के लिए सेना को तत्काल भेजने का माध्यम प्रस्तुत किया। इस प्रकार जिस मंतव्य से भारत में रेलों का आरम्भ हुआ, उसकी पूर्ति प्रचुर मात्रा में हो गई । 

     

    बागबानी 

     

    भारत में कपड़ा - उद्योग के सहकार्य के रूप में रंगाई का व्यवसाय भी महत्त्वपूर्ण था । रंग के रूप में नील बहुत समय से पूर्व में ज्ञात था और अंग्रेज़ों के भारत में आगमन से बहुत पहले भारत इसको बनाता और निर्यात करता था । 'इण्डिगो' शब्द से ही यह निर्दिष्ट हो जाता है कि इसका उद्गम स्थान इण्डिया (भारत) ही है; और ऐसा प्रतीत होता है कि चौथी शताब्दी ई० पूर्व सिकन्दर महान की मुहिमों के द्वारा इसका आरम्भ यूरोप में हुआ। 

     

    इस शताब्दी के तीसरे दशक तक भी भारत के शहरों तक में भी चाय आम पेय नहीं थी । अत: यह लगभग सारी की सारी निर्यात की जाती थी । इस शताब्दी के चौथे दशक में भी भारत में कुल उत्पादित चाय का ७० - ७५% भाग निर्यात किया जाता था और शेष का उपभोग देश के भीतर होता था। कॉफी का भी अधिकांश निर्यात ही किया जाता था । 

     

    चाय, कॉफी तथा नील के उत्पादन के लिए यूरोपीयों (मुख्यत: ब्रिटिश) ने १९वीं शताब्दी के आरम्भ में बागबानी आरम्भ की। इन पर धन मुख्यतः यूरोपीयों ने ही लगाया, ब्रिटेन से पूंजी लाकर नहीं बल्कि कम्पनी के कर्मचारियों की बचत व लूट और उनके व उनके एशियाई व्यापार के मुनाफे तथा भारतीयों की बचत से, उसी प्रकार जिस तरह से कम्पनी की लड़ाइयों और यूरोपीय व्यावसायिक संस्थानों जैसे कि बैंक, बीमा, जहाज़रानी इत्यादि पर धन लगाया गया था केवल १९वीं शताब्दी के साठवें दशक में ही ब्रिटिश पूंजी प्रचुर मात्रा में आनी आरम्भ हुई, जो उस धन का एक बहुत छोटा सा अंश था जिसे अंग्रेज़ों ने भारतीयों से प्रत्यक्षतः या परोक्षत: अपने समस्त शासन काल में लूटा। 

     

    अंग्रेज़ों की भारत से कच्चा माल निर्यात करने की नीति के अनुसार सन् १८३३ में, यूरोपीयों को इस उद्देश्य के लिए काफ़ी भूमि बंगाल महाप्रांत में प्राप्त करने की अनुमति सरकार ने दे दी। सरकार ने बागबानी उद्योग को प्रत्येक संभव ढंग से प्रोत्साहन दिया, क्योंकि यह ब्रिटेन के हित की मांग थी । १८३३ में ही ब्रिटिश शासित देशों में दास-प्रथा समाप्त कर दी गई थी । परन्तु भारत में अंग्रेज़ो द्वारा तनु - आवृत दास प्रथा उसी वर्ष आरम्भ की गई क्योंकि एक प्रख्यात भारतीय इतिहासकार के शब्दों में ऐसा लगता है कि अंग्रेज़ों ने "अन्य देशों की क्षति - पूर्ति के लिए ऐसा किया, १९१ इसके बाद " इस क्षेत्र (बंगाल) में उजड्ड किस्म के बागबान लाए, जिनमें से कुछ अमरीका में दास - अधीक्षक रहे थे, जो अपने संग गन्दे विचार और आदतें लेकर आये।”१९१ 

     

    तरह-तरह की चालाकियों से इन उत्पादकों ने गरीब कृषकों को मूर्ख बनाया। उन्हें या तो उत्पादकों की सरकार द्वारा प्राप्त भूमि पर काम करना पड़ता था या अपने ही उत्कृष्ट खेतों में नील उगाना पड़ता था। दोनों ही तरह से श्रमिक अथवा कृषक और उनके परिवार व्यावहारिक दृष्टि से, सरकार की मौन सम्मति के साथ यूरोपीयों के गुलाम बन जाते थे । सरकारी 'नील आयोग' की रिपोर्ट में कहा गया कि, "यह महत्त्वहीन है कि कृषक अपना अग्रिम वेतन प्रसन्नता से अथवा अनिच्छा से लेते हैं परिणाम दोनों का एक ही होता है । वह उसके बाद कभी भी स्वतन्त्र पुरुष नहीं रहता । १९३ कारावास, निर्दय पिटाई (कभी कभी मरणान्तक भी), अपहरण, उनकी पत्नियों का अपमान, उनके घरों का विनाश, फसलों का विनाश आदि सभी सम्भव तरीकों से किसानों को, जहां वे किसी के पास अपने कष्टों के निवारण के लिए जा सकें, ऐसे शिक्षित समाज और नील उगाने अथवा चाय के बागों में कार्य करने को बाध्य किया जाता था । 

     

    नील 

     

    उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में हिंसक व्यवहार इतना आम हो गया था कि सरकार को विवश होकर १८१० में दण्डाधिकारियों के लिए आदेश निकालना पड़ा कि वे मजदूरों पर हो रहे अत्याचारों को समाप्त करने के लिए माल ज़ब्त करने के उपाय निकालें । १८१० में चार बागबानों के लाइसेंस रद्द कर दिये गए, "क्योंकि उनके विरुद्ध, देशियों से दुर्व्यवहार प्रमाणित हो चुके थे।" 

     

    परन्तु १८१० में प्रस्तावित उपचार बागबानों द्वारा ढाए गए जुर्मों के बिलकुल भी अनुरूप नहीं थे। यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि सरकार और उसके कर्मचारी देशियों के विरुद्ध अपने यूरोपीय बन्धु बागबानों के साथ मिले हुए थे, सिवाय उन गिने-चुने व्यक्तियों के जो अपना कर्त्तव्य निभाना चाहते थे, और जिनको इसी कारण एक भारतीय समाचार-पत्र 'हिन्दु पैट्रियॉट' के शब्दों मे, "बागबानों के अत्याचारों के विषय में ईमानदारी से जांच, अथवा उनकी दुष्कृतियों को रोकने के प्रयत्न करने के लिए अपमानित एवं मानमर्दित, तथा पदच्चुत तक भी कर दिया जाता है । ९९४ ये सब बातें अंग्रेज़ और अन्य गवाहों द्वारा और स्वयं आयोग द्वारा भी, १८६० में इन जुल्मों की जांच के लिए बिठाये गए 'नील आयोग' के सम्मुख स्पष्टत: कही गई। न केवल सरकारी कर्मचारी आमतोर पर बागबानियों का पक्ष लेते थे और उनकी हर प्रकार से सहायता करते थे, अपितु अनेक उत्पादकों को स्वयं अवैतनिक दंडाधिकारी भी बना दिया गया। मानो इतना ही पर्याप्त नहीं था, संविदाओं का उल्लंघन - ऐसी संविदा जो स्वैच्छिक नहीं थी, और जिन पर कृषकों से जबर्दस्ती कोरे कागज पर हस्ताक्षर कराये जाते थे - एक दंडनीय अपराध घोषित कर दिया गया, जिससे कृषकों के फौजदारी मुकदमे चलाकर दंडित किया जा सकता था। शायद ही ऐसा कानून संसार के किसी और देश में बनाया गया हो । यों तो यह १८३० का अत्याचारी कानून १८३५ में रद्द कर दिया गया, परन्तु व्यावहारिक रूप में यह प्रचलित ही रहा । ९९५ 

     

    अंततः, भारतीय कृषकों से जब यह अमानवीय दमन सहा न गया तब बे अर्द्धमृतकों की स्थिति में भी यूरोपीय उत्पादकों के विरुद्ध संगठित होकर खड़े हो गये । ग्रामवासियों ने अपनी जान देनी स्वीकार कर ली परन्तु नील की खेती करने से इनकार कर दिया। बीसवीं शताब्दी के महात्मा गांधी के असहयोग आन्दोलन के पूर्ववर्ती 'नील नहीं उगायेंगे' के १८५८ - ६० के आन्दोलन को बागवानों ने, सरकारी कर्मचारियों की सहायता से, प्रत्येक तरीके से दबाने का भरसक प्रयत्न किया। परन्तु, फिर भी इन वीर पुरुषों ने, यह जानते हुए भी कि उन्हें ब्रिटिश सरकार क्रूर शक्ति का मुकाबला करना पड़ेगा, झुकने से इनकार कर दिया । 

     

    इस आन्दोलन का एक अच्छा परिणाम यह निकला कि सरकार को १८६० में एक नील जांच आयोग बिठाना पड़ा। यदि सरकार ऐसा न करती, तो कृषक नील की खेती करना बन्द कर देते, जिस सम्भावना को सरकार सहन नहीं कर सकती थी । एक गवाह ने, जो कभी दण्डाधिकारी* रह चुका था; आयोग के सम्मुख अंग्रेज़ों की बर्बरताओं के बारे में थोड़ा-सा इस प्रकार बतलाया कि “मैं कहना चाहता हूं कि मिशनरियों पर यह कहने के लिए लांछन लगाया जाता है कि "नील की एक भी पेटी मानव रक्त का धब्बा लगे बिना इंगलैंड नहीं पहुंचती । " इसे किंवदन्ती कहा जाता है । परन्तु यह मेरा अपना कथन है। फरीदपुर जिले में दण्डाधिकारी होने के अनुभव के आधार पर मैं पूर्णरूपेण और विस्तृत रूप से इस कथन की सत्यता को समझता हूं। दण्डाधिकारी के तौर पर मेरे पास ऐसे बहुत से कृषक आये हैं जिनके अंग-अंग बरछों से छेदे गये थे। ऐसे भी कृषक मेरे सामने आए हैं जिन्हें पहले बछे से छेदा गया, और फिर जिनका अपहरण किया गया। ऐसे अमानवीय तरीकों से नील उत्पादन को मैं व्यापक हत्याकाण्ड मानता हूं ।' '१९६ 

     

    *अंग्रेजो के शासनकाल में भारत में जिला दण्डाधिकारी जिले का सबसे महत्वपूर्ण सरकारी पदाधिकारी होता था। वह राजस्व कलेक्टर, न्याय- अधिकारी, पुलिस कमिश्नर और कार्यकारी-अधिकारी सभी कुछ होता था । 

     

    १८६० की इस नील - आयोग की रिपोर्ट के कार्यवृत्त में तत्कालीन बंगाल के सर्वोच्च पदाधिकारी लेफ्टिनेंट गर्वनर ने कहा "नील से सम्बद्ध अपराधों ने किस निर्ममता से निरंतर देश की शान्ति भंग की है... यह रिपोर्ट के परिशिष्ट में देखा जा सकता है। इन अपराधों का एक मात्र कारण उत्पादकों द्वारा नील के पौधे उत्पादन की लागत तक दिए बिना कृषकों से प्राप्त करने की प्रथा है। नील आयोग द्वारा ली गई गवाही यह पूर्णरूप से सिद्ध करती है कि जिस 'प्रवृत्ति' की " २२ जुलाई, १८१० में भर्त्सना की गई थी, वही प्रवृत्ति' १८५९ में भी वर्तमान थी । "१९७ 

     

    इस जांच - आयोग के परिणामस्वरूप तथा लोगों के जर्बदस्ती नील न उगाने के दृढ़ निश्चय के कारण बंगाल में से बल प्रयोग को हटाना पड़ा। 

     

    तब बागबानी बहुत सीमा तक अपनी पूंजी बंगाल से हटाकर बिहार और वर्तमान उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में ले गये, जहां पर वह अपनी सरकार से मिलकर उसी प्रकार के अमानवीय अत्याचार ढा सकते थे। यूरोपीय बागवानो के कृषकों की स्थिति नरक जैसी कर दी थी। जब तक महात्मा गांधी ने १९१७ में इनकी मांगों का नेतृत्व नहीं किया। तब तक इनकी स्थिति में लगभग कोई भी सुधार नहीं किया गया। कुछ संघर्ष के बाद गांधी जी को एक जांच समिति नियुक्त करने में सफलता मिली। इस समिति ने कृषकों के पक्ष में निर्णय दिया और तब जाकर कहीं इन्हें बागबानों के शिकंजों से कुछ राहत मिली। खैर, उन्नीसवीं शताब्दी के अंत के आस-पास नील—उद्योग का विनाश हो गया, क्योंकि जर्मन वैज्ञानिकों ने कृत्रिम नील का आविष्कार कर लिया था । 

     

    चाय 

     

    बंगाल और आसाम के चाय बागानों में कार्यरत 'कुली' कहलाने वाले श्रमिकों की दशा भी वैसी ही थी और कुछ दृष्टियों से और भी बुरी थी । ऐसे कानूनों के अन्तर्गत, जिनको आम तौर से 'दास कानून' कहा जाता था, स्त्रियों और बच्चों समेत श्रमिकों, को, धोखा देकर अथवा जबर्दस्ती, अपहरण कर लिया जाता था ।

     

    अनेक श्रमिक तो आसाम जाते हुए या वहां पहुंचकर मौत के घाट उतर जाते क्योंकि उन्हें भयानक परिस्थितियों में बागबानों के गुप्त क्षेत्रों में काम करना पड़ता था । आसाम के सर्वोच्च स्वास्थ्य अधिकारी हने १८८४ में कुलियों के काम करने की परिस्थितियों के वर्णन के बाद कहा : " इसलिए इसमें कोई हैरानी की बात नहीं कि चाय के बागों के श्रमिकों में बीमारी और मृत्यु का अनुपात सदा ही बहुत अधिक रहा है, और बहुत सारे बागों में तो यह सभ्य देशों की 'महामारी' से भी भयंकर है ।" ९९८ 

     

    यदि कुलियों ने गुलामी और कड़ी मजदूरी के इस शिकंजे से मुक्त होने का प्रयास किया भी, तो सरकार ने बागबानियों को यह अधिकार दे रखा था कि वे कृषकों को गिरफ्तार कर दंडित कर सकते हैं। संसार भर में गोरों द्वारा अश्वेतों पर किये गए व्यवहार के समान ही भारतीयों पर किए गए इन नृशंस अत्याचारों की सूचना लगातार सरकार को दी जाती रही, और उच्चतम ब्रिटिश अधिकारी इस तथ्य को स्वीकारते भी रहे। फिर भी इस सम्बन्ध में कोई जांच तक नहीं करायी गई। ब्रिटिश न्यायाधीश, उच्च न्यायालयों के भी सामान्यतः, देशियों के विरुद्ध यूरोपीयों का ही पक्ष लेते थे, १९९ यद्यपि केवल देशियों के पारस्परिक मामलों में वे सामान्यतः निष्पक्ष होते थे । नील तथा अन्य पदार्थों की भांति इंगलैंड व अन्य देशों को निर्यात की जाने वाली चाय भी " खून के धब्बों" से भरी थी । बीसवीं शताब्दी में आकर राष्ट्रवादी आन्दोलन के दबाव के कारण चायबागानों की स्थिति कुछ सुधरी । 

     

    यह तनु-आवृत दास प्रथा केवल भारत में ही नहीं अपितु दूसरे देशों में भी चलाई गई, जहां यूरोपीयों को सस्ते श्रमिकों की आवश्यकता थी । भारतीय श्रमिकों को यूरोपीय उपनिवेशों में काम करने के लिए, भारतीय ब्रिटिश सरकार की देखरेख और नियन्त्रण में, बाहर ले जाया गया । इस प्रकार की श्रमिकों की भर्ती को प्रतिज्ञाबद्ध श्रमिक व्यवस्था कहा गया, जो सभ्यता के मूलरूप नियमों के विरुद्ध एक पाप था क्योंकि श्रमिकों को प्राणी न मानकर मुख्यत: औजार समझा जाता था । "२०० 

     


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