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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 3 लूटमार का दूसरा दौर : (१८१२ – १९१४ तक)

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    Vidyasagar.Guru

    सन् १८१२ के बाद भारत का आर्थिक शोषण एक नए दौर में प्रवेश करता है जो १९१४ तक निर्बाध गति से चलता रहा । यह दौर अपेक्षाकृत पहले से बहुत अधिक भयानक था, क्योंकि इस काल में पहले काल की लूटमार तो जारी रही ही, साथ ही एक महान् औद्योगिक एवं कृषि प्रधान देश को केवल एक ग़रीब कृषिजीवी देश के रूप में परिणत कर देने का कुचक्र भी चला। 

     

    इंगलैंड में १९ वीं शताब्दी में औद्योगिक क्रान्ति तीव्र गति से जोर पकड़ रहीं थी । इंगलैंड को अब ऐसे देशों की तलाश थी जहां वह अपनी औद्योगिक चीज़ों को बेच सकता और कच्चा माल खरीद सकता। भारत एक घातक निशाना बन गया किन्तु यह तभी सम्भव था जबकि भारत के उद्योगों को नष्ट कर देश को मात्र कृषिजीवी बना दिया जाता, ताकि भारत ऐसी वस्तुएं उपजाता जिनकी इंगलैंड की फैक्ट्रियों को आवश्यकता थी, जैसे कि कपास, पटसन, नील आदि । कम्पनी के अधिकार-पत्र के नवीकरण और उसके एकाधिकार को समाप्त करने से पहले उसी वर्ष १८१३ की संसदीय जांच की कार्यवाहियों से यह बहुत स्पष्ट है । 

     

    १८१३ की ब्रिटिश संसद में, वहां के उद्योगपतियों का प्रभुत्व था जो भारत को उत्पादित वस्तुओं और कच्चे माल की बहुत बड़ी मण्डी समझते थे । भारत के इस शोषण से पहले उनके लिए यह अनिवार्य था कि कम्पनी के एकाधिकार को समाप्त किया जाय। इसलिए उत्पादकों तथा अन्य विरोधियों ने मिलकर कम्पनी के विरुद्ध पर्याप्त प्रचार किया जिससे इसके द्वारा की जा रही भारत की लूट का पर्दाफाश करने वाला विशाल साहित्य निर्माण हुआ । परिणामत: १८१३ में कम्पनी के व्यापार का एकाधिकार समाप्त कर दिया गया, ताकि केवल एक ही नहीं, बल्कि सभी भारत का रक्त चूस सकें। 

     

    यह पहले बताया जा चुका है कि किस प्रकार इंगलैंड ने भारत से वस्तुओं के आयात का भारी कर लगाये, जो समय-समय पर बढ़ाए जाते रहे और जो अन्तत: 'बहुत भारी' कर दिये गए। उदाहरणार्थ, १८१३ में १०० पौंड मूल्य के सफेद सूती कपड़े पर ८५ पौंड, २ शिलिंग और एक पैंस और नानकीन तथा मलमल पर ४४ पौंड ६ शिलिंग ८ पैंस कर लगाया गया। रंगीन माल पर तो पूर्णत: प्रतिबन्ध लगा दिया गया १३५ इसके विपरीत १८९९ में १०० पौंड की भारतीय रुई पर केवल ६ शिलिंग (एक पौंड - २० शिलिंग) और ३ पैंस का आयात कर था। "१३६ 

     

    जो केवल मात्र राजस्व के लिए ही लगाया गया था। दूसरी ओर, ब्रिटिश उत्पादित वस्तुओं के भारत में निर्यात पर नाममात्र का उतना ही कर था जिससे कि वैदेशिक व्यापार विभाग का प्रशासन-व्यय लगभग चल सके। ब्रिटिश जहाज़रानी कानूनों के अन्तर्गत,भारतीय उत्पादकों को किसी और देश में भी निर्यात करने की अनुमति नहीं थी । इस संरक्षक तथा निषेधक करों, नियमों और राज्य की सहायता के बिना इंगलैंड का कपड़ा - उद्योग अपने प्रारम्भिक दिनों में कदापि विकसित न हो पाता, यद्यपि यह उद्योग भाप के इंजन से परिचालित था, और जबकि उसके मुकाबले में भारतीय उद्योग और कुटीर उद्योग था- जो उत्पादन का ढंग औद्योगिक क्रांति से पहले विश्वभर में प्रचलित था। एक प्रख्यात इतिहासकार एच० एन० विलसन ने लिखा : ‘“१८१३ में गवाही दी गई कि उस समय तक भारत का सूती और रेशमी कपड़ा बिट्रेन के बाजारो में इग्लैंड के बने कपडे से ५० से ६० प्रतिशत कम कीमत पर भी लाभ के साथ बेचा जा सकता था अत: इग्लैंड के कपड़ा उद्योग के संरक्षण के लिए भारतीय माल पर ७० और ८० प्रतिशत कर लगाना, या बिलकुल ही उन्हें आने से रोक देना, आवश्यक हो गया। यदि ऐसा न किया गया होता और ऐसे निषेधक कर तथा नियम न बनाये गए होते, तो पैसली और मानचैस्टर के कारखाने आरम्भ में ही बन्द कर दिये गए होते और फिर उनको भाप की शक्ति, बरतने के बावजूद भी, शायद ही कभी काम में लाया गया होता। ये उद्योग भारतीय उद्योगों की बलि चढ़ाकर ही खड़े किये गए । यदि भारत स्वतन्त्र होता, तो इसका बदला लेता और अपने उद्योगों को समाप्त होने से बचाने के लिए संरक्षण कर इत्यादि लगाता । परन्तु आत्मरक्षा का अधिकार भारत को प्राप्त नहीं था, वह तो विदेशियों के रहम पर था। भारत पर विदेशी माल बिना किसी कर के थोपा गया और विदेशी उद्योगपतियों ने अपने प्रतिद्धन्द्धी को, जिसकी बराबरी वे नहीं कर सकते थे, नीचा दिखाने और अन्ततः उसको समाप्त करने के लिए अन्यायपूर्ण राजनीतिक शक्ति का पूरा उपयोग किया । १३७ 

     

    उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक भी भारतीय वस्तुओं पर यह भेदभावपूर्ण और निषेधक कर व नियम लागू रहे यद्यपि ब्रिटेन में भारतीय कपड़े का आयात बहुत घट गया था और ब्रिटेन के कपड़े का भारत में निर्यात बहुत बढ़ गया था जैसा कि १८४० में इंगलैंड की लोकसभा की प्रवर समिति को पेश किये गए आंकड़ों से स्पष्ट है । 

     

    वर्ष  भारत से ब्रिटेन भेजे गए सूती कपड़े के थान  ब्रिटेन से भारत भेजा गया सूती कपड़ा 
    १८१४  १,२६६, ६०८ थान  ८१८, २०८ गज़ 
    १८२१  ५३४,४९५ थान  १९,१३८, ७२६ गज़ 
    १८३८  ४२२,५०४ थान  ४२,८२२,०७७ गज़ 
    १८३५  ३०६,०८६ थान  ५१,७७७,२७७ गज़ 

     

     

    इस स्थिति के बावजूद भी १८४० की प्रवर समिति में यह गवाही दी गई थी । भारतीय सूती, रेशमी और ऊनी कपडों का क्रमशः १०, २० तथा ३० प्रतिशत आयात कर लगाया जाता था, जबकि भारत भेजे जाने वाले अंग्रेज़ी सूती व रेशमी कपड़ों पर केवल ३ % और ऊनी कपड़ों पर २०% कर था जो स्पष्टतया केवल राजस्व के लिए लगाया गया था । इससे यह स्पष्ट होता है कि. १८४० में भी जबकि इंगलैंड में औद्योगिक क्रान्ति अपने पूर्ण यौवन में थी, तब भी ब्रिटिश सरकार को भारतीय वस्तुओं के मुकाबले का भय था । इतनी देर तक १८४० में भी यदि स्वतन्त्र प्रतियोगिता होने दी जाती, जबकि लाखों लोगों को अपने चिरकालीन व्यवसायों को छोड़ना पड़ा, तब भी भारतीय कपड़ा ब्रिटिश कपड़े से सम्भवत: मुकाबला कर सकता था। 

     

    हालांकि सबसे बड़ा उद्योग होने के नाते यहां केवल वस्त्र उद्योग का ही उल्लेख किया गया है। ब्रिटिश शासन का प्रभाव बाकी के सारे भारतीय उद्योगों पर भी ऐसा ही पड़ा। इस विवरण से निष्कर्ष निकलता है कि भारतीय कपड़ा और अन्य कुटीर उद्योग धन्धों को नष्ट करने वाले ब्रिटिश कल-कारखाने अथवा भाप के इंजिन पर आधारित उद्योग नहीं था, वरन् अंग्रेज़ों के घातक राजनीतिक षड्यन्त्र थे । प्रत्यक्ष है कि यदि भारत में विदेशियों का शासन न हुआ होता तो भारत के उद्योग और व्यापार कदापि समाप्त न हुए होते, न करोड़ों लोग बेरोज़गार हुए होते और न ही भारत को ये दुर्दिन देखने पड़ते। भारत के पास उत्पादन के सभी आवश्यक तत्व - भूमि, श्रम, पूंजी, तथा उद्यमी – मौजूद थे। अत: वह अपनी अर्थव्यवस्था के स्वाभाविक विकास में बड़ी आसानी से कुटीर उद्योगों के युग से मशीनी उद्योगों के युग में पदार्पण कर सकता था, जैसे कि विश्व को उन अनेक देशों ने किया जो साम्राज्यवाद के भारी बुलडोज़रों के नीचे नहीं पिसे। 

     

    १८४० की ब्रिटिश लोकसभा की प्रवर समिति के कुछ उदाहरणों का नीचे उल्लेख किया जाता है, जिसमें सारे गवाह अंग्रेज़ थे। एक गवाह मैलविल से पूछा गया, "क्या अंग्रेज़ों ने स्थानीय उद्योगपतियों का स्थान लिया?” तो उसने उत्तर दिया, हां! व्यापक मात्रा में । " 

     

    "कब से ?" 

     

    "मेरे ख्याल से मुख्यतः १८१४ से।” 

     

    मेलविल ने आगे बताया, "भारत के कच्चे माल का निर्यात तभी बढ़ा, जबकि उसको अपने उत्पादन का अधिकांशत: निर्यात बन्द करना पड़ा। 

     

    एक अन्य गवाह ऐंड्रयू सिम ने कहा, "अंग्रेज़ी वस्तुओं-कपड़े, औज़ार, शीशे और पीतल के बर्तन—ने भारतीयों के अपने व्यवसायों से वंचित कर दिया है और वे मुख्यत: खेती-बाड़ी करने लगे हैं । " 

     

    सर चार्ल्स ट्रीवीलयन ने बताया, "हमने उनके (भारतीयों के) उद्योगों को समाप्त कर दिया है। अब उनके पास निर्भर रहने के लिए भूमि के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है ।" "वह विशिष्ट रेशमी रुई जो बंगाल में पहले उगाई जाती थी जिससे ढाका की सुन्दर मलमल तैयार की जाती थी, अब कठिनता से कहीं दिखाई देती है।... भारत का मानचेस्टर कहलाने वाला ढाका शहर, जो पहले बहुत सम्पन्न नगर था, अब एक बहुत गरीब और छोटे नगर (१५०,००० से ३०,००० अथवा ४०,०००) में बदल गया है। वास्तव में वहां की स्थिति अत्यंत दारुण है।” मि० लार्पेट ने कहा, “हमने भारतीय उद्योग-धंधों को नष्ट कर दिया है।" निदेशकों के अधिकरण के आगे विलियम बैंटिक द्वारा ३० मई १८२९ के कार्यवृत्त में व्यक्त किए गए विचारों का हवाला देते हुए उसने कहा, "व्यापारिक बोर्ड की रिपोर्ट से अधिकरण को पूरी सहानुभूति है, जिसमें व्यापारिक क्रान्ति के कारण पैदा हुई भारत के बहुत से वर्गों की अत्यन्त दर्दनाक निराशाजनक स्थिति दिखाई गई है, जो वाणिज्य के इतिहास में शायद ही कहीं कभी हुई हो।" 

     

    ब्रिटिश रेशम उद्यामियों के प्रतिनिधि और समिति के एक सदस्य के विचार में, "बेहतर यही होगा कि भारत कच्चे माल का ही उत्पादन करे और हम उसको पक्के माल में बदलें ।" इस पर लार्पेट ने उत्तर दिया, "जिस प्रकार से प्रक्रिया आज भारत में चल रही है, यदि यही हाल रहा तो यह स्थिति निश्चय ही दूर नहीं ।" 

     

    ब्रिटिश उपनिवेशों का पांच बृहद् खण्डों में पहली बार इतिहास लिखने वाला मौंटगुमरी मार्टिन एक और गवाह था जिसने कहा : "मेरी यह दृढ़ धारणा है कि इंग्लैंड द्वारा अबाध व्यापार को, स्वयं तो अपनाने परन्तु भारत को न अपनाने देने से, भारत के व्यापार को, केवल इंग्लैंड के साथ बल्कि सब देशों के साथ अत्याधिक अनुचित रूप से क्षति पहुंची है। " और उसने आगे यह भी कहा : "उन चीज़ों को छोड़कर, जिनमें हमने भारतीय उद्योगपतियों को निकाल कर उनका स्थान ले लिया है और फलतः देश को निर्धन कर दिया है, बाकी सब चीज़ों का व्यापार भी कम हो गया है। एक चौथाई शताब्दी तक हमने भारतीयों को हमारी वस्तुएं खरीदने को मजबूर कर दिया। हमारे ऊनी वस्त्रों पर कोई कर नहीं था, सूती वस्त्रों पर केवल २1⁄2% था। इसी तरह से नाममात्र के कर बाकी अन्य वस्तुओं पर थे। दूसरी ओर भारतीय वस्तुओं के आयात पर हमने इस बीच में लगभग निषेधात्मक कर लगाये । १० प्रतिशत से २०, ३०, ५०, १००, १००० प्रतिशत तक कर लगाए । ढाका, सूरत, मुर्शिदाबाद, तथा अन्य स्थानों के, जहां भारतीय उद्योग स्थित थे, विनाश और पतन के बारे में वर्णन करना अत्यन्त दर्दनाक है। मैं यह नहीं समझता कि व्यापार का ऐसा ढंग न्यायोचित हुआ; बल्कि एक बलशाली ने अपनी शक्ति के बूते पर जो चाहा किया। १४० 

     

    मार्टिन के लिए तो 'तकनीकी दृष्टि से विकसित भारत के शहरों' का वर्णन करना भी 'अत्यन्त दर्दनाक' था। जिन लोगों ने अपने उद्योग धंधों का विनाश अपनी आंखों से देखा होगा, अपने महान शहरों तथा जीविका के साधनों को उजड़ते हुए देखा होगा, उनकी स्थिति कैसी दर्दनाक होगी इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। 

     

    सर हेनरी कॉटन, जो स्वयं ३५ वर्षों तक, भारतीय नागरिक सेवा (आई० सी० एस० ) का सदस्य था और जिसके पिता, दादा तथा पुत्र भी, सर्वाधिक उच्चतम वेतन प्राप्त सदस्य थे, १८९० में लिखता है : " भारतीय शहर (अंग्रेजों के आने से पहले) घनी जनसंख्या वाले और शानदार थे।... शहरी जीवन के साथ-साथ सभी प्रकार की कलाएं विकसित थी। परन्तु अब ३० करोड़ जनसंख्या में से केवल ७ प्रतिशत लोग नगरों में रहते हैं जिनकी संख्या १०,००० से अधिक है। ब्रिटिश प्रभुत्व के अधीन एक अन्य अभागे देश आयरलैंड में यह अनुपात २० है, जबकि स्काटलैंड में ५० और इंगलैंड व वेल्स मे ६७ प्रतिशत है। मैं उदाहरण के रूप में ढाका शहर के बारे में बताऊंगा ।... ब्रिटिश शासन के अधीन आने के समय इसकी जनसंख्या २ लाख अनुमानित की गई थी । १७८७ में इंग्लैंड को ढाका से ३,०००,००० पौंड की मलमल निर्यात की गई। परन्तु १८१७ तक यह निर्यात बिलकुल ही समाप्त हो गया । बुनाई और कताई की कलाएं, जो पीढ़ियों से अनेकों उद्यमियों की जीविका का साधन थीं, अब विलुप्त हो गई हैं। 

    पहले के समृद्ध परिवारों को अब दरिद्र बना दिया गया है। लोगों को बहुत बड़ी संख्या में नगरों को छोड़कर अपनी आजीविका के लिए गांवों में जाना पड़ गया ।... देश के हर भाग में इस प्रकार का ह्रास आया है और कोई भी ऐसा वर्ष नहीं बीतता जबकि स्थानीय अधिकारी सरकार को सूचित नहीं करते कि उद्यमी लोग दिन पर दिन दरिद्र होते जा रहे हैं। भारत के सर्वाधिक लाभदायक उद्योग-धन्धों को नष्ट कर दिया गया है । और महान् महत्त्वपूर्ण कलाओं का आत्यन्तिक ह्रास हो गया है। रंगाई, दरियां बनाने का काम, सुन्दर कढ़ाई, गहने बनाने, धातुशिल्प, हथियारों की मीनाकारी, नक्काशी, कागज़ बनाना; और यहां तक कि भवन निर्माण तथा मूर्तिकलाओं का भी ह्रास होता जा रहा है।... प्रखर और परिष्कृत पूर्वी कलाओं का रहस्य तक भी समाप्त हो चुका है।... जिस सृजनात्मक यांत्रिक प्रतिभा ने ऊपरी भारत का नहर - जाल, और आगरा का ताजमहल बनाया, वह प्रतिभा पतन के गर्त में गिर चुकी है । १४९ 

     

    यहां तक कि १८३४ में ब्रिटिश गवर्नर जनरल को भी स्वीकार करना पड़ा कि 'वाणिज्य के इतिहास में इस प्रकार की दुर्गति शायद ही कहीं और हुई ही । जुलाहों की हड्डियां भारत के मैदानों को विरंजित कर रही हैं । १४२ और उनका रक्त ब्रिटेन के मैदानों को समृद्ध कर रहा है। करोड़ों लोग बेरोज़गार हो गये और उनको मौत का मुंह देखना पड़ा।" 

     

    १८५० ई० तक भारत सारे विश्व को सूती कपड़ा, मलमल, रेशम, ऊनी और अन्य वस्त्रों के निर्यात के स्थान पर ब्रिटिश सूती वस्त्र उद्योग के कुल निर्यात का एक चौथाई आयात कर रहा था। भारतीय वस्त्रों ने मिश्र के परिरक्षित शवों को ढका, रोम की महिलाओं का सौंदर्य. बढ़ाया, यूरोप में आर्थिक व राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न की। यूरोपियों की जेबों में पर्याप्त धन डाला, अफ्रीकियों ने अपने भाइयों को गुलाम बनाकर गोरों के हाथ बेचने को प्रेरित किया, १९वीं शताब्दी के आरम्भ तक विश्व की कपड़े की काफी बड़ी मांग की पूर्ति की, और करोड़ों लोगों को जिसमें रोज़गार मिला हुआ था - ऐसे वस्त्र उद्योगों और लोगों को १८५० तक इन लाजवाब शोषकों ने 'जानबूझकर ' बर्बाद कर दिया ।१४२अ 

     

    देश के अन्य उद्योगों को भी ऐसी ही दर्दनाक स्थिति हुई । जहाजरानी उद्योग का ही उदाहरण लें। लगभग ५००० वर्ष पूर्व भारतीय इतिहास के उद्भव काल से ही अन्य भारतीय उद्योगों के अतिरिक्त जहाज़रानी उद्योग भी १९वीं शताब्दी के लगभग मध्य तक पर्याप्त विकसित रहा। 

     

    १८१४ में ब्रिटिश संसद ने एक ऐसा कानून बनाया, जिसके अनुसार कोई भी जहाज, चाहे वह इंग्लैंड का ही क्यों न हो, तब तक लन्दन में प्रवेश नहीं कर सकता था जब तक कि उसके कम-से-कम तीन-चौथाई चालक अंग्रेज़ न हों । १८११ - १८ के बीच ब्रिटिश सरकार ने कपड़ा व अन्य उद्योगों की ही तरह गैर-ब्रिटिश भारतीय जहाज़ों के विरुद्ध भी विभेदकारी आयातकर लगाये जो एक प्रख्यात भारतीय अर्थशात्री के अनुसार " भारतीय जलपोत व्यवसाय के लिए अत्यंत घातक थे । १४३ 

     

    इंगलैंड के सम्राट द्वारा “भारत की सत्ता संभालने के कुछ ही वर्ष बाद १८५८ से पहले कम्पनी का और उसके बाद इंग्लैंड का सीधा शासन भारत पर था। अप्रैल १८६३ में’१४४ प्राचीन काल से चला आ रहा भारतीय जहाजरानी उद्योग अन्ततः मिटा दिया गया। “मुझे 

    शायद ही किसी और बात ने इतने प्रखर रूप से मेरे मन पर आघात किया हो, " डिग्बी ने लिखा, "जितना वह तरीका जिस प्रकार से पश्चिमी संसार की समुद्र-स्वामिनी ने पूर्वी संसार की समुद्र स्वामिनी का गला घोंटा । १४४अ 

     

    ऐसी ही दुखद स्थिति लोहा ढलाई वालों, इस्पात निर्माताओं, कागज़ उत्पादकों, खांडसारी उत्पादकों, जूते बनाने वालों, धात्विक कर्म करने वालों, कुम्हारों की तथा और बहुत से उद्योगों की थी । अन्य उद्योगों को विस्तृत हवाला देने की आवश्यकता नहीं क्योंकि इस संक्षिप्त वर्णन से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि किस प्रकार अंग्रेज़ों ने जानबूझ कर भारतीयों का रक्त चूसा । 

     

    १९वीं शताब्दी के लगभग मध्य तक इंगलैंड में औद्योगिक क्रांति पूर्ण हो चुकी थी । व्यापक रूप में लोग गांवों को छोड़कर शहरों में आ बसे थे। खेतीबाड़ी से विस्थापित इन लोगों को उद्योग - कारखानों में काम दिया गया। देश ( इंगलैंड ) संसार की 'कर्मशाला' और विश्व में सबसे धनी बन गया था और सभ्यता की सीढ़ी के चरमोत्कर्ष पर पहुंच चुका था। दूसरी ओर, भारत में औद्योगिक विध्वंस लगभग पूरा हो चुका था । बहुत सारे लोग शहरों को छोड़कर ग्रामों में जा रहे थे, क्योंकि भूमि को अंग्रेज़ सम्भवतः देश से बाहर नहीं ले जा सकते थे । उद्योगों व व्यापार से विस्थापित, वे कृषि पर निर्भर रहने लगे। भारत देश दुनिया का सबसे गरीब राष्ट्र बन गया था और सभ्यता की सीढ़ी पर नीचे की ओर धकेल दिया गया था । 

     

    जब यह दुःखद स्थिति लोगों से सही न गई, तब उन्होंने १८५७ में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह को अंग्रेज़ों ने 'बगावत' की संज्ञा दी और भारतवासियों ने इसे 'भारतीय स्वाधीनता का संग्राम' की संज्ञा से विभूषित किया। इस महान् क्रांति का परिणाम यह हुआ कि ब्रिटिश सरकार ने १८५८ में, तब तक, कम्पनी द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से किए गए शोषण की बजाय, स्वयं प्रत्यक्ष रूप से भारत का शोषण अपने हाथों में ले लिया। परन्तु इसका अर्थ यह बिलकुल भी नहीं था कि भारतीयों के शोषण में किसी प्रकार का कोई अन्तर आया हो, बल्कि अब तो शोषण के ऊपर कानूनों का मुलम्मा चढ़ा दिया गया - ऐसे कानून जो विजेताओं ने पराजितों के लिए बनाये । डकैती करते हुए क्रूरता के साथ-साथ पाखण्ड से भी अब काम लिया जाने लगा । १४५ 

     

    सन् १८५८ में लोगों का शान्त करने के लिए रानी विक्टोरिया ने "भारत में शांतिपूर्ण उद्योगों को बढ़ावा देने की सच्ची इच्छा " की घोषणा की। जिसका अर्थ यह था कि ' भारतीयों द्वारा भारत में ब्रिटिश मशीनों के आयात पर पूर्णत: प्रतिबन्ध लगाने वाली नीति ब्रिटिश सरकार अब नहीं चला सकती थी । इसकी बजाय अब अंग्रेज़ों ने भारतीय आधुनिक उद्योग को हतोत्साहित करने के कई अप्रत्यक्ष तरीके अपनाये। उदाहरणार्थ, हम उदीयमान आधुनिक भारतीय वस्त्र उद्योग को ले सकते हैं। 

     

    सन् १८६० में भारत में कुछ भारतीय तथा कुछ ब्रिटिश उद्यमियों ने बुनाई व कताई के उद्योग आरम्भ किए। १८७२ बम्बई महाप्रान्त में केवल १८ और कलकत्ता में दो कारखाने थे। भारत सरकार द्वारा कपास की गड्डियों और धागों पर केवल ३1⁄2% और सूती कपड़े पर ५% आयातकर लगाया गया था। ये कर केवल राजस्व के लिए बजट में घाटे को पूरा करने के लिए लगाये गए थे। परन्तु इंगलैंड के उत्पादक इस थोड़े से कर को भी सहन न कर पाए। मानचेस्टर व्यापार संघ के अध्यक्ष ने भारत सरकार से अनुरोध किया कि वह पूर्णत: अबाध व्यापार को अपना कर 'सभ्यता, न्याय और ईसाईपन से तालमेल करें । ९४६ 

     

    ब्रिटिश कपड़ा उद्यमियों ने इन करों का विरोध इसलिए किया क्योंकि वे डरते थे कि भारत में कपड़े के कारखानों के बढ़ने से कहीं उनके भारी लाभों में कभी न आ जाए। अतः उन्होंने अपनी सरकार पर इन करों को समाप्त करने के लिए भारी दबाव डाला। भारत के दूरवर्ती तानाशाह-ब्रिटिश विदेश मंत्री - ने भी इन करों की समाप्ति की इच्छा भारत के वाइसराय लार्ड नार्थब्रुक पर प्रकट की । वाइसराय और उसकी परिषद ने १८७६ में इस प्रश्न पर बजट को संतुलित करने की दृष्टि से पुनर्विचार किया । अत: उन्होंने इस कर को हटाने से इनकार किया जो (उनके शब्दों में) “देसी उद्योगपतियों का संरक्षण करने का कार्य व्यावहारिक रूप में नहीं कर सकता था।" 

     

    तानाशाह अपने आदेशों की अवज्ञा तथा अपने देश के हितों की उपेक्षा सहन नहीं कर सका। फलतः, नार्थब्रुक को १८७६ में स्तीफा देना पड़ा और लार्ड लिटन को उसका उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया गया, जो विदेश मंत्री की आज्ञा का पालन करने को तैयार था । परन्तु उसे १८७७ के मद्रास के भयंकर अकाल से उत्पन्न भारी आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, अत: उसने विदेश मंत्री की सहमति से इन करों को हटाने का आदेश स्थगित रखा। 

     

    इस पर ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमन्स ने दुर्भिक्ष के उसी वर्ष (१८७७) में अपनी ही सरकार की विध्वंसकारी आर्थिक नीतियों के कारण पड़े भयंकर अकाल को बिलकुल भुलाकर, एक प्रस्ताव पास किया जिसमें उन्होंने मांग की कि भारत सरकार भारत में सूती कपड़े के आयात पर अभी लगाये गए करों को “बिना विलम्ब हटाए । परिणामत: अनुगामी वर्ष में भारत सरकार ने उस प्रकार के सारे माल के आयात पर से कर बिलकुल हटा दिया, जिसकी प्रतिस्पर्द्धा की आशंका भारत में उत्पादित माल द्वारा की गई थी । 

     

    परन्तु इससे भी ब्रिटिश वस्त्र - उद्यमियों को सन्तुष्टि न हुई और अपने देश की सरकार के माध्यम से उन्होंने भारतीय सरकार पर यह दबाव बराबर बनाये रखा कि सभी आयात कर पूर्णतः हटा दिए जायें । परिणामस्वरूप, १८७९ में लार्ड लिटन ने ३० तार से अधिक मोटे सभी प्रकार के सूती कपड़े पर जो भारतीय कारखानों में मुख्यत: बनते थे, सभी आयात कर पूर्णत: हटा दिए। यह कदम उस समय उठाया गया जबकि, (एक भारतीय अर्थशास्त्री के शब्दों में) "दक्षिण भारत के लोग १८७७ के मद्रास के अकाल से अभी तक उभर भी नहीं पाये थे, जब उत्तरी भारत १८७८ के दुर्भिक्ष से अभी त्रस्त ही था, और जब भूमिकर में बढ़ोतरी करने के लिए हाल ही में नये-नये उपकर लगाये गए थे, विशेष करो से एकत्रित अकाल बीमा राशि समाप्त हो चुकी थी, जब अनुमानित बजट में घाटा दिखाया गया था, और जबकि सीमा सुरक्षित करने के लिए और अफगानिस्तान पर संकट को दूर रखने के लिए विशाल धनराशि अभी व्यय होने वाली थी ९४८ 

     

    सन् १८८२ में भारतीय उद्योगों को एक और ममर्नतक चोट तब लगी, जब कि सिवाय नमक और शराब के, शेष सभी वस्तुओं पर से शेष सभी आयात करों को भी हटा दिया गया। 

     

    आयात करों की स्थिति १८९४ तक व्यवहारिक तौर पर ऐसी ही रही । वर्मा के सम्राज्यवादी युद्ध में, और उत्तर-पश्चिम की अन्य सैनिक तैयारियों में भारी व्यय के कारण १८९४ के बजट में भारत सरकार को २० लाख पौंड स्टलिंग से भी अधिक का घाटा उठाना पड़ा। समस्या यह थी कि किस प्रकार से धन की पूर्ति की जाये, और ठिंगने भारतीय कपड़ा उद्योग के मुकाबले में भीमकाय बिट्रिश कपड़ा उधोग को किस प्रकार संरक्षण प्रदान किया जाये। इसलिए १८९४ में एक युक्ति के अनुसार, जो युक्ति शायद ही किसी और देश ने तब तक अपनाई हो, ब्रिटेन से आयात किए जाने वाले सूती कपड़ों व धागे पर ५% आयात कर लगाया गया और उसी के बराबर का उतना ही उत्पादन कर भारतीय कारखानों पर भी लगाया गया। इस मात्रा को १८९६ में पुन: ब्रिटिश उद्योग के आदेश पर घटाकर ३1⁄2 कर दिया गया और धागे पर से कर बिलकुल ही हटा दिया गया। बराबर का उत्पादन कर सभी भारतीय सूती कपड़ों पर भी लगा दिया गया। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि अंततोगत्वा घाटा उठाना पड़ा उदीयमान भारतीय कपड़ा उद्योग को, और भारतीयों को, जिनको अब ब्रिटिश और भारतीय दोनों की वस्तुओं के लिए अधिक पैसे देने पड़ते थे। 

     

    सन् १९२५ तक यह ३1⁄2% उत्पादन - कर लगातार लगता रहा । १९२५ में कुछ व्यापारिक ह्रास के कारण, और कुछ राष्ट्रवादी दबाव के कारण, इसे स्थगित करना पड़ा, और १९२६ में अन्ततः हटा दिया गया। 

     

    न केवल भारतीयों ने, बल्कि वाइसराय की परिषद के कुछ सदस्यों ने और भारत सरकार के कुछ अधिकारियों ने, एवं ऐसे यूरोपीय भारत में रहने वाले गैर सरकारी लोगों ने भी, जिनका भारतीय कपड़ों के कारखानों में अपना निहित स्वार्थ था, इन करों का ज़ोरदार विरोध किया, परन्तु उसका कोई लाभ न हुआ। 

     

    उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम चतुर्थाश में डंडी (स्काटलैंड) के जूट उत्पादकों ने भारतीय जूट उद्योग के विरुद्ध पर्याप्त प्रचार किया। परन्तु, क्योंकि डंडी के जूट उत्पादक मानचैस्टर और लंकाशायर के उत्पादकों के समान शक्तिशाली नहीं थे, और क्योंकि (भारतीय) कपड़ा - उद्योग के विपरीत जिसके मालिक कुछ भारतीय और कुछ ब्रिटिश थे, भारतीय जूट उद्योग के स्वामी केवल ब्रिटिश ही थे, जूट — उद्योग पर कर नहीं लगाया गया । 

     

    ब्रिटिश समर्थक यह तर्क देते हैं कि क्योंकि 'ब्रिटेन स्वतंत्र व्यापार और (मुक्त आचार) का हिमायती था, इसलिए वह कपड़ा उद्योग को संरक्षण नहीं दे सकता था । परन्तु ब्रिटिश सरकार ने अंग्रेज़ों द्वारा नियंत्रित अपने हित के उद्योगों को, जैसे कि चाय, नील ओर रेलवे को संरक्षण भी दिया, भूमि भी दी, धन भी दिया, तथा और भी अन्य प्रोत्साहन दिये। बल्कि भारतीय रेलवे उद्योग तो इस मुक्त आचार के सिद्धान्त (Laisseg Faire) के उल्लंघन का एक ज्वलंत प्रमाण था । 

     

    ब्रिटेन के शास्त्रीय अर्थविद तक भी, जैसे कि मिल्, पिग्गू, मार्शल आदि, जो स्वतंत्र व्यापार और अहस्तक्षेप के पक्के समर्थक थे, नवोदित उद्योगों के लिए सरकारी संरक्षण के पक्ष में थे। उदाहरणार्थ, पिग्गू मानता है कि “विशेष रूप से कृषि प्रधान देशों में, जो उद्योगों को विकसित करना चाहते हैं, संरक्षण की उचित व्यवस्था की जानी आवश्यक है।९४९ 

     

    इसके अतिरिक्त, इंगलैंड सहित संसार का कोई भी देश आज तक विदेशी प्रतिस्पर्द्धा से सरकारी संरक्षण के बिना अपने उद्योगों को विकसित नहीं कर पाया है, जो संरक्षण या तो विदेशी माल के आयात पर पूर्ण प्रतिबंध अथवा भारी संरक्षी कराधान के रूप में होता है। भारतीय माल के विरुद्ध ब्रिटेन द्वारा अपनायी गई ऐसी नीतियों के बारे में हम पहले ही वर्णन कर चुके हैं। वस्तुत: इंगलैंड ने स्वतंत्र व्यापार की नीति तक अपनायी, जब वह विश्व का एक प्रमुख औद्योगिक देश बन चुका था। जब ब्रिटेन औद्योगिक देश बनने का संघर्ष कर रहा था, तब उसने संरक्षण की नीति अपनायी थी और जब वह पूर्णत: औद्योगिक राष्ट्र और संसार का प्रमुख औद्योगिक देश बन गया तब यह उसके निजी हित में था कि संरक्षण की नीति के बजाय स्वतन्त्र व्यापार का सिद्धान्त अपनाया जाए। परन्तु न योरुप ने, और न ही किसी अन्य स्वतन्त्र देश ने, ब्रिटेन की इस मुफ्त दी गई सलाह का अनुसरण किया। यदि भारत एक स्वतन्त्र राष्ट्र होता तो उसने भी वैसा ही किया होता। जैसे एशिया में जापान ने किया। 

     

    प्रथम विश्वयुद्ध पूर्व ब्रिटिश सरकार की स्पष्टतया यह नीति थी कि भारत को कच्चे माल का स्थायी उत्पादक और ब्रिटिश उत्पादित वस्तुओं की स्थायी मंडी के रूप में बनाये रखने के लिए परम्परागत भारतीय उद्योगों को नष्ट किया जाए और आधुनिक उद्योगों को हतोत्साहित किया जाए। इन आधुनिक उद्योगों में, रोज़गार के आंकड़े इस स्थिति को स्पष्ट करते हैं । सरकारी रिपोर्ट के अनुसार १९१४ में लगभग १५ करोड़ कामगार लोगों में से केवल ९५१,००० लोग ऐसे आधुनिक उद्योगों में काम करते थे, जो २० या उससे अधिक लोगों को रोज़गार देते थे, जो फैक्टरी अधिनियम के अंतर्गत आते थे । ५° इसके एक चौथाई भाग को तो सूती वस्त्र उद्योग के कारखानों में ही रोज़गार मिला हुआ था, जिसको १९०५ के स्वदेशी आंदोलन से पर्याप्त प्रोत्साहन मिला। यह आंदोलन १९०५ में भारतीय वस्तुओं विशेषकर कपड़े के प्रयोग को प्रोत्साहन देने और ब्रिटिश वस्तुओं के बहिष्कार के लिए चलाया गया था। यह स्वदेशी आंदोलन बीसवीं शताब्दी के राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन का एक महत्त्वपूर्ण अंग रहा। इसके अतिरिक्त दो बड़े और सुसंगठित उद्योग जूट और कोयला थे। ये तीनों ही उपभोक्ता उद्योग थे। औद्योगिक प्रगति के लिए आवश्यक आधारभूत उद्योगों में से केवल एक 'टाटा आयरन एण्ड स्टील फैक्टरी' थी। इसके बावजूद भी कि अंग्रेज़ों ने श्री टाटा के रास्ते में 'साम्राज्यवाद को ज्ञात सब प्रकार अनुरोध प्रयोग किए' फिर भी इस फैक्टरी ने १९९२ में उत्पादन आरम्भ कर दिया । १५१ 

     

    एक भारतीय द्वारा यह फैक्टरी इसलिए खुल पाई थी, कि इसे आरम्भ में मुख्यत: अमेरिकी विशेषज्ञ सहायता पर्याप्त मिल पाई थी। पहला विश्वयुद्ध इसके लिए सहायक सिद्ध हुआ, क्योंकि इस युद्ध के कारण इस्पात की बहुत बड़ी मांग उत्पन्न हुई और बाद में स्वाधीनता आंदोलन ने इसे नष्ट होने से बचाया। प्रथम विश्वयुद्ध की आवश्यकताओं के बावजूद भी, भारत ने टाटा को रेल के इंजन बनाने की आज्ञा नहीं दी, क्योंकि इससे ब्रिटिश इंजन उद्योग की उन्नति में रुकावट का ख़तरा पैदा हो सकता था । १५२ 

     

    आधुनिक उद्योग में केवल कुछ हज़ार लोग ही कार्यरत थे, परन्तु तथाकथित 'अत्यन्त परोपकारी' सरकार की व्यवस्थित और आयोजित नीतियों के कारण उससे कई गुणा हज़ारों लोग बेरोज़गार बनाये जा रहे थे । उदाहरणार्थ, १९११ की जनगणना की रिपोर्टों के अनुसार कपड़ा मज़दूरों की संख्या गत १० वर्षों में ६% घट गई जिसका कारण 'हाथ से रुई की कताई के कार्य की लगभग समाप्ति' बताया गया । १५३ इसी जनगणना के अनुसार खाल, चमड़ा तथा धातु व्यवसायों में भी श्रमिकों के रोज़गार में ६% कमी आई, हालांकि इसी बीच धातु के व्यापारियों की संख्या में छः गुणा वृद्धि हुई; जिसका कारण " मुख्यत: स्वदेशी पीतल और तांबे के बर्तनों के स्थान पर यूरोपीय एनैमल के बर्तनों और अल्यूमिनियम वस्तुओं का प्रयोग था । ९५४ 

     

    यही चित्र लोहे और इस्पात उद्योग का भी था । १९०७ के सरकारी 'इम्पीरियल गजेटियर ऑफ इंडिया' के अनुसार, "देशी लोहे की ढलाई का उद्योग आयात किए गए सस्ते लोहे और इस्पात द्वारा रेलवे की पहुंच के क्षेत्र में समाप्त कर दिया गया है परन्तु देश के अधिक भीतरी भागों में यह उद्योग अभी बचा हुआ है । "१५५ 

     

    १९२१ की वार्षिक सरकारी रिपोर्ट में भी धीमें स्वर में कहा गया है कि "युद्ध से कुछ समय पहले की प्रयोगात्मक फैक्टरियों तथा सरकारी आर्थिक सहायता प्राप्त भारतीय उद्योगों को प्रोत्साहन देने के थोड़े बहुत प्रयासों को भी व्हाइट हाल (ब्रिटिश संसद) द्वारा सफल रूप से निरुत्साहित किया गया।’१५६ 

     

    भारत के परोक्ष तानाशाह ब्रिटिश विदेशमंत्री जे० चैम्बरलेन ने १९१७ में कहा कि, "भारत शेष ब्रिटिश साम्राज्य के लिए लकड़ी काटने और पानी सींचने के काम से ही संतुष्ट नहीं रहेगा और न ही उसे रहना चाहिए । १५७ इससे वह अप्रत्यक्ष रूप में मानता है कि कम से कम १९१७ से पूर्व तो भारत ऐसा ही थां 

     

    मद्रास सरकार ने गलती से १९०६ में एक शोध कार्य 'उद्योग विभाग' की स्थापना की, जिसे ब्रिटिश सरकार को दबाना पड़ा ।१५८ भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद का इससे बढ़कर विश्वसनीय समाधि – लेख क्या होगा, जिसने नियोजित ढंग से मानव जाति के लगभग पांचवें भाग को मशीनों द्वारा उत्पादन के युग में उन यांत्रिक उद्योगों से सायास वंचित रखा जो किसी भी प्रकार से ब्रिटिश उद्योगों से प्रतिस्पर्द्धा कर सकते। 

     

    प्राचीन भारत के कृषि और उद्योग का पारस्परिक तालमेल में परिणत हो चुका था । परिणामत: समूचे ब्रिटिश शासन काल में कृषि पर निर्भर जनसंख्या लगातार कैंसर की तरह बढ़ती ही गई। भारत को केवल कच्चामाल और खाद्य सामग्री का उत्पादक आगे भी बनाये रखने, और अपनी उत्पादित वस्तुओं के लिए और भी स्थायी मंडी बनाये रखने के उद्देश्य से अंग्रेज अपनी ‘महान लूट' का अत्यन्त अल्पांश रेलवे और बागान (चाय, काफी और रबड़ के) उद्योगों में 'निवेश' (लागत) के रूप में अब भारत वापिस लाये और इस लूट को 'ब्रिटिश पूंजी' का नाम दिया गया। 

     


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