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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 2 लूटमार का पहला दौर : (१७५७ से १८१२ तक)

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    Vidyasagar.Guru

    भारत की विजय से इंगलैंड में औद्योगिक क्रांति सम्भव हो सकी, क्योंकि उस विजय से इंगलैंड को आवश्यक पूंजी और विस्तृत बाज़ार प्राप्त हो गये । अन्यथा मुख्यत: 'कृषिजीवी' इंगलैंड न तो 'विश्व की कर्मशाला' ही बन पाता और न ही दुनिया का सबसे धनी और शक्तिशाली राष्ट्र । मात्र आविष्कारों या नई तकनीकों को अपना लेने से किसी देश की अर्थव्यवस्था बदल नहीं सकती क्योंकि “सिर्फ तकनीकें और आविष्कार तो बहुत महंगे पड़ते हैं। व्यक्ति कितना भी उद्यमशील क्यों न हो, इन्हें प्रयोग करने का साहस नहीं कर सकता, जब तक कि उसके हाथों में विशाल पूंजी और माल बेचने के लिए विस्तृत बाज़ार न हो । ९३ 

     

    यही कारण है कि सन् १७५७ से पहले के आविष्कार इंगलैंड के लिए कोई उपयोगी सिद्ध नहीं हुए जबकि उसके बाद विकसित नई तकनीकों ने इंगलैंड के आर्थिक जीवन को बहुत अधिक प्रभावित किया, क्योंकि भारत ने इंगलैंड को 'अपार पूंजी' और 'विस्तृत बाज़ार' दोनों ही प्रदान किये।" ९४ 

     

    सन् १७५७ में बंगाल में ब्रिटिश शक्ति की विजय और साम्राज्य की नींव पड़ने के बाद क्या हुआ? वह विजय, जो विश्वासघात, कपट, धोखाधड़ी और विशाल डाकेजनी के बल पर ही हुई, और जो विलयम ब्लैक द्वारा प्रयुक्त शब्दों का अंशत: प्रमाण है कि 'राज्य द्वारा अनुज्ञापत्र प्राप्त जुआरियों और रण्डियों ने मिलकर इस देश (इंगलैंड) का भविष्य बनाया । ,९५ " ब्रिटिश साम्राज्य के जन्म- काल के सन्दर्भ में दो इतिहासकारों के मत विचारणीय हैं- " स्पेन के कोरटेस और पिज़ारों के युग के (दक्षिणी अमरीका में ) उन्माद के बाद अंग्रेज़ों की स्वर्ण-लालसा का कोई मुकाबला नहीं। विशेषत: बंगाल को तो शान्ति तब तक प्राप्त नहीं हुई, जब तक कि सतत रक्तस्राव से वह बिलकुल सफेद नहीं पड़ गया । ९६ 

     

    होरेस वालपोल ने कहा, अत्याचार और क्रूर दमन के ऐसे दृश्यों को देखकर किसका हृदय नहीं थर्रा उठेगा ? हम स्वर्ण - लालसा में तो स्पेनियों और उसको प्राप्त करने की व्यवहार कुशलता में डचों के प्रतिरूप हैं । ९७ 

     

    लॉर्ड मैकाले के बारे में एक अमेरिकी लेखक ब्रुक्स ऐडम्स का कथन है कि ; "भारत के नग्न शोषण के संबंध में मैकाले से बढ़कर कोई भी विश्वस्त सूत्र नहीं हो सकता । ९८ प्लासी के युद्ध के बाद की स्थिति के बारे में वह लिखता है : 'धन की वर्षा कम्पनी और कम्पनी के नौकरों पर अब धुआंधार होने लगी । चांदी के सिक्कों के रूप में आठ लाख स्टलिंग मुर्शिदाबाद से फोर्ट विलियम (कलकत्ता) लाये गए। इस खजाने को लाने में ९०० से भी अधिक नावों का बेड़ा इस्तेमाल किया गया। जहां तक क्लाइव का प्रश्न था, उसके अधिग्रहण की कोई सीमा नहीं थी सिवाय उसके अपने संयम के । बंगाल का खजाना उसके सामने खुला पड़ा था । क्लाइव सोने व चांदी के ढेरों में घूमता था और उसके ताज पर हीरे और माणिक्य जड़े थे । अपने लिए कितना भी धन लेने को वह स्वतंत्र था, दो से तीन लाख पौंड उसने अपने लिए स्वीकार किये ।९९ 

     

    १७७२ ई० में ब्रिटिश संसद के आगे पेश की गई सूची के अनुसार, सन् १७५७ से १७६६ तक के दस वर्षों के भीतर भारत के निवासियों से 'उपहार' के रूप में अंग्रेज़ों ने ६,०००,००० * पौंड ऐंठे । क्लाइव तथा कम्पनी के अन्य नौकर 'बेईमानी, चोरी और लज्जाजनक १०० तरीकों से लूटा हुआ बेतहाशा धन बटोर कर इंगलैंड लौटे। इस लूटमार के बाद क्लाइव “इंगलैंड के चोटी के सेठों से प्रतिस्पर्धा करने लगा । प्रचुर मात्रा में नकद धन के अतिरिक्त, उसके पास भारत में एक जागीर थी, जिसका मूल्य २,००० पौंड वार्षिक आय के रूप उसने स्वयं आंका था । १०१ 

     

    बहुत सारे उदाहरणों में से कुछ उदाहरण नीचे दिये जा रहे हैं, जिनसे पता लगता है कि किस तरह से कम्पनी के कर्मचारियों ने अपनी निजी हैसियत में भी भारतीयों को लूटा -खसोटा । सिर्फ साढ़े तीन वर्ष तक कम्पनी की नौकरी करने के बाद, जब मैकॉले घर लौटा तो २५,००० पौंड साथ ले गया । " कम्पनी का एक और कर्मचारी बारबैल बेहद जुआरी था और एक ही बैठक में ४०,००० पौंड हार भी गया था फिर भी जब छः वर्ष बाद इंगलैंड लौटा तो ८०,००० पौंड लेकर लौटा । १०२ मद्रास के गवर्नर पिजौट ने १९ वर्ष में कर्नाटक के नवाब से १,२००,००० पौंड रिश्वत ली; और विंच जैसे संयमी ने भी २००,००० पौंड हथियाए।१०४ यहां तक कि यॉर्क के महाधर्माध्यक्ष (आर्चबिशप) तथा अन्य ईसाई पादरी भी इस लूट में किसी से पीछे नहीं थे । बनारस के रेज़ीडेंट अपने पुत्र को वार्षिक ३०,००० पौंड रिश्वत बनाने का अवसर देने के लिए यॉर्क का आर्चबिशप गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स का बड़ा कृतज्ञ था |१०४अ इन ईसाई - सेवियों का असली मन्तव्य उनमें से एक के कथन से मिलता है " भारत जाने वाले जहाजों पर पुरोहित ( चैपलेन) बनकर जाने का मैं अत्यधिक उत्सुक हूं। वेतन तो केवल ४० पौंड ही है, लेकिन अतिरिक्त लाभ बहुत हैं । अन्तिम पुरोहित ३००० पौंड लेकर घर लौटा था । १०५ अतः, कोई आश्चर्य नहीं कि " कम्पनी के निदेशक तथा उनके सगे सम्बन्धी, इंगलैंड के लॉर्ड, और यहां तक कि राजघराने के लोग भी चाहते थे कि अपने किसी नवयुवक मित्र या आश्रित को सिफारिश से कम्पनी की नौकरी दिलवाई जाये, जोकि उसको बहुत ही थोड़े समय में अत्यधिक धनी बना सकेगी। १०६ अंग्रेजों के लिए भारत में लगभग हर विजयी लड़ाई के बाद ऐसी ही लूटमार करना एक साधारण बात थी। इससे पाठक यह कल्पना कर सकते हैं कि केवल इस माध्यम से ही न जाने कितना नकद रुपया या उस जैसी बहुमूल्य संपत्ति भारत से इंगलैंड लूट कर ले गया । 

     

    "पाठक इस बात का सदा ध्यान रखें कि उस समय धन का मूल्य काफी अधिक होगा। निश्चित तीर से इसकी गणना नहीं की जा सकती, परन्तु एक अंग्रेज लेखक जॉन स्ट्राची के अनुसार, जिसने १७५० और १९५० के पौंड की क्रम-शक्ति की तुलना की है : "कम से कम ९० का गुणक उचित है।" वर्तमान समय में यह सौ गुने से भी अधिक है। इसका अर्थ है कि इस महान लूट का कुछ अनुमान लगाने के लिए तथा दूसरे और आंकड़ों को, कम से कम दस से गुणा करना चाहिए। अमरीकी पाठक इसको डालर और अंग्रेजी पौंड की विनिमय दर से और गुणा करें।" 

     

    अंग्रेज़ी शासन के कुछ ही वर्षों बाद, बंगाल की स्थिति के बारे में मैकॉले लिखता है कि, ‘“कुछ समय तक तो बंगाल से हर जहाज़ बुरा समाचार लेकर लौटता था । लूटमारी और बेहद आन्तरिक गड़बड़ी के बाद एक बार तो ऐसा लगने लगा कि शायद ही सरकार चल पाये।... अंग्रेज़ी कुशासन के कारण ऐसा लग रहा था कि समाज का मानो अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है । अंग्रेज़ों ने उस रोम के प्रशासक को भी अब मात कर दिया जो एक या दो वर्षों में प्रान्त का प्रान्त लूटकर कम्पेनिया के तट पर संगमरमर के महल और स्नान - कुंड बनवाता था, जो हीरों के प्यालों में शराब पीता था और चहचहाते पक्षियों का भक्षण करता था, ग्लैडियेटर पक्षी समूह और ज़िर्राफों का प्रदर्शन करता था । अंग्रेज़ों ने उस स्पेन के वाइसराय को भी मात कर दिया जो मैक्सिको और लीमा की आहों और कराहों को पीछे छोड़ वहां से लूटे हुए सोने से मढे रथों के जुलूस में और वहां लूटी गई चांदी के साज से सुसज्जित घोड़ों सहित मैड्रिड में धूमधाम के साथ प्रवेश करता था...कम्पनी के कर्मचारियों ने, कम्पनी के लिए नहीं, बल्कि अपने लिए लगभग सारे भीतरी व्यापार का एकाधिकार प्राप्त कर लिया। भारतवासियों को उन्होंने महंगी चीजें खरीदने और सस्ती चीजें बेचने पर मजबूर कर दिया । अदंड्य होकर, वे प्रतिष्ठित देसी राजस्व पदाधिकारियों तथा पुलिस आदि का भी अपमान करते थे। अंग्रेज़ों ने बहुत शीघ्र कलकत्ता में बहुत बड़े पैमाने पर विशाल धन एकत्र कर लिया और दूसरी ओर तीन करोड़ जनता को ग़रीबी की भट्ठी में धकेल दिया था ""अंग्रेज़ी सरकार जो महा अत्याचारी, जंगली तानाशाही से भी बढ़कर क्रूर दमनकारी थी, औद्योगिक सभ्यता की संपूर्ण पाशवी शक्ति पर खड़ी थी । १०७ 

     

    एक प्रसिद्ध अमेरिकी राष्ट्रपति के भाई ब्रुक्स ऐडम्स ने अपनी प्रख्यात पुस्तक 'लॉ ऑफ सिविलाइजेशन ऐंड डीके' में, जिसकी मान्यता 'अमेरिकी विचारों की स्थायी शास्त्रीय कृति ' और 'अमेरिका ही नहीं सम्पूर्ण पश्चिमी बौद्धिक इतिहास के दुर्लभ दस्तावेज' के रूप स्वीकृत है, कहा है : " करोड़ों लोगों की सदियों से संचित धन-सम्पत्ति को अंग्रेज़ बड़े कूटनीतिक ढंग से लूटकर लन्दन ले गये, जैसे कि यूनानी और पौनटस लोगों की सम्पत्ति को रोमन लोगों ने हड़पा था। कोई भी उस खजाने का मूल्य आंक नहीं सकता, परन्तु यह कई करोड़ पौंड से कम नहीं होगा, जोकि उस समय यूरोपीयों के सारे बहुमूल्य धातुओं के अनुपात में कही बहुत विशाल रहा होगा । १०९ 

     

    ऐडम्स यह भी बताता है कि किस प्रकार भारतीय पूंजी से ही इंगलैंड में औद्योगिक और कृषि क्रान्तियां सम्भव हुई । 

    "भारतीय खजाने के आगमन द्वारा इंगलैंड की कुल राष्ट्रीय धन पूंजी में अपरिमित वृद्धि के कारण न केवल उसकी शक्ति के भण्डार में ही वृद्धि हुई अपितु उसकी विकासशीलता और गति में भी अद्भुत तीव्रता आई । 

     

    "प्लासी युद्ध के तुरन्त बाद बंगाल का लूटा हुआ धन लन्दन पहुंचने लगा, जिसका प्रभाव तत्काल पड़ा, जैसा कि सब विद्वानों का मत है कि 'औद्योगिक क्रांति' की शुरुआत सन् १७६0 से हुई। प्लासी का युद्ध १७५७ में हुआ और इंगलैंड की अवस्था में जितनी शीघ्रता से परिवर्तन १७५७ के बाद आया उतना शायद पहले कभी भी नहीं आया था । उड़न-ढरकी (फ्लाईंग शटल ) १७६० में बनी और धातु को पिघलाने के लिए लकड़ी के स्थान पर कोयले का प्रयोग होने लगा । १७६४ में हरग्रीब्ज़ ने कताई मशीन का आविष्कार किया । १७७६ में क्रॉम्पटन ने तकली पर धागा चढ़ाने का उपाय निकाला । १७८५ में कार्टराइट ने शक्ति से चलने वाली खड्डी का निर्माण किया, और १७६८ में वॉट ने भाप के इंजन को परिपक्व किया, जो शक्ति को केन्द्रित करके प्रयोग करने वाला सबसे बड़ा आविष्कार था । यद्यपि इन मशीनों ने उस समय की बढ़ती हुई गतियों को अभिव्यक्ति दी, ये मशीनें उन गतियों का कारण नहीं थीं । अपने आप में आविष्कार निष्क्रिय होते हैं, अति महत्त्वपूर्ण आविष्कारों में से भी अधिकतर शताब्दियों तक निष्क्रिय पड़े रहे, क्योंकि उनको सक्रिय करने के लिए किसी बाहरी शक्ति की आवश्यकता थी। धन में ही ऐसी शक्ति हो सकती है, और धन भी जोड़ा हुआ नहीं, गतिशील धन । 

     

    " भारतीय खजाने के आगमन और उसके कारण साख के विस्तार से पूर्व, कोई भी बाहरी शक्ति अस्तित्व में नहीं थी । यदि जेम्स वाट ५० वर्ष हुआ होता तो उसका आविष्कार भी उसके साथ ही समाप्त हो गया होता। 

     

    'नयी शक्ति के प्राप्त होने से कृषि और उद्योग दोनों में ही नई स्फूर्ति आई। आर्थर यंग ने १७७० में लिखा कि इन दस वर्षों में ही इतने आविष्कार हुए और कृषि तथा उद्योग क्षेत्र में इतनी प्रगति हुई कि विगत १०० वर्षों में भी इतनी प्रगति नहीं हुई थी और ऐसा होने का जो कारण था वह स्पष्ट था। सन् १७६० के बाद एक संश्लिष्ट धन-शक्ति की प्रणाली का अचानक विकास हुआ, जो धात्विक खजाने के भण्डार पर आधारित थी । जो लोग ऋण ले सकते थे, उनके पास पशुओं की बढ़िया नस्लों का आयात करने, खेतीबाड़ी को सुधारने और सोहो की ही तरह की फैक्ट्रियों को स्थापित करने के लिए सब साधन थे ।... प्लासी के कारण आई सामाजिक क्रान्ति का अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में नई भूमि की ( इंगलैंड में) व्यापक जोत से बढ़कर कोई उदाहरण नहीं हो सकता । संसार के आरम्भ होने से अब तक शायद ही किसी को इतना लाभ हुआ होगा, जितना कि ब्रिटेन को भारत की लूट से क्योंकि लगभग ५० वर्षो तक विकास में ब्रिटेन का कोई प्रतिद्वन्दी नहीं था । ११० 

     

    केवल बंगाल ही नहीं, दक्षिणी भारत में मद्रास पर भी कम्पनी का शासन था, जहां अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में कम्पनी के नौकर बंगाल के मुकाबले में हर प्रकार से अधिक भ्रष्टाचारी और नीच थे । "लगभग पचास वर्षो तक कर्नाटक की सरकार इतनी बेईमान और भ्रष्टाचारी थी कि बंगाल का सबसे बुरा समय भी इससे अच्छा था । १९९ 

     

    अधिक विस्तार में जाने के स्थान पर इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि ऐसे गन्दे प्रशासन से मद्रास की अर्थव्यवस्था एकदम बुरी तरह से प्रभावित हुई। १९१२ ब्रिटिश संसद के सदस्य विलयम डिग्बी सी० आई० ई० ने १९०१ में अपने बृहद् ग्रन्थ में लिखा, "इंगलैंड की औद्योगिक प्रधानता का कारण बंगाल और कर्नाटक की बृहद सम्पदा थी ।... भारतीय सम्पदा का इंगलैंड द्वारा शोषण और ब्रिटेन के उद्योगों के तेजी से विकास में सम्बन्ध केवल संयोग नहीं था, बल्कि सुनियोजित योग था ।...इस प्रकार, इंगलैंड की असीमित सम्पन्नता का मूल कारण उसका भारत से सम्बन्ध ही था, और मुख्यतः इसी सम्बन्ध के कारण ही इंगलैंड अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से आज तक छिपे ढंग से अपनी सम्पन्नता को बनाये रख सका । ११३ 

     

    मुगलों ने अंग्रेजों को भारत से बिना कर के सामान लाने और ले जाने की खुली छुट्टी दे रखी थी, परन्तु आन्तरिक व्यापार में हस्तक्षेप का उन्हें तनिक भी अधिकार नहीं था । परन्तु बंगाल का स्वामी बनते ही, अपनी राजनीतिक शक्ति का लाभ उठाकर कम्पनी और उसके कर्मचारियों ने * स्थानीय बाज़ारों में भी बिना कर दिये भी व्यापार करना आरम्भ कर दिया जो देशी व्यापारियों को देना पड़ता था । अतः अब भारतीय बाज़ारों में अंग्रेज़ व्यापारी अपना सामान भारतीय व्यापारियों की अपेक्षा सस्ता बेचते थे । यह भारतीय व्यापारियों पर केवल एक हमला ही नहीं था, सरासर एक डकैती थी। यही नहीं उन्होंने देश की लगभग सभी वस्तुओं के उत्पादन पर एकाधिकार प्राप्त कर लिया, जिनमें तम्बाकू, कपड़ा, नमक, सुपारी जैसी आवश्यकता की चीजें भी शामिल थीं। इस एकाधिकार का परिणाम यह हुआ कि भारतीय उद्यमियों को अपनी उत्पादित वस्तुएं कम्पनी द्वारा निर्धारित कम से कम मूल्य पर बेचनी पड़ती थीं। दूसरी तरफ कम्पनी स्वयं अधिक से अधिक लाभ कमाने के उद्देश्य से अपनी वस्तुओं को महंगी से महंगी कीमत पर बेचती थी। ऐसा करते हुए तरह-तरह के हथकंड़े अपनाये जाते थे, जो केवल क्रूर ही नही थे अपितु जिनका प्रभाव भी भारतीयों पर बहुत बुरी तरह से पड़ा । अनेक व्यापारी 'बिल्कुल उजड़ गये'। आम आदमी को अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए पर्याप्त खर्चा करना पड़ता था। लाखों मनुष्य मर रहे थे, और कठपुतली नवाब की आय भी बहुत घट गई थी। १७७२ में समकालीन विलियम बोल्ट्स ने लिखा, "बंगाल में व्यापार की बिलकुल भी स्वतंत्रता नहीं है। भारतीय आन्तरिक व्यापार की प्रत्येक शाखा निरपवाद रूप से इस सबसे अधिक क्रूर और तबाह करने वाली प्रवृत्ति की शिकार हो चुकी है। समूची व्यापारिक व्यवस्था ही अपने अन्तिम दिन गिन रही है। समाज में न्याय नाम की कोई वस्तु बच नहीं पाई है, ऐसे चन्द अंग्रेज लोगों की कृपा पर जो जनता को खूब लूट रहे हैं, लाखों का जीवन निर्भर है। ऐसी तानाशाही के कारण, जिसे सैनिक हिंसा का समर्थन प्राप्त है, सारा बंगाल देश बिल्कुल उजड़ गया है । ऐसी स्थिति में जबकि देशी शिल्पियों का अकल्पनीय दमन हो रहा है, जनसंख्या घट रही है और उद्योग तथा सरकारी आयकर बरबाद हो गया है । ११४ 

     

    कम्पनी के निर्देशकों द्वार कम्पनी के कर्मचारियों को भेजे गए २४ दिसम्बर १७६५ एक पत्र में लिखा था, "तुम्हारी कार्यवाहियों के अध्ययन से हमें पता लगा है कि भारत के आन्तरिक व्यापार में हस्तक्षेप करने के लिए अत्यधिक क्रूरता व दमन के तरीके अपनाये गए हैं। नमक, सुपारी और तम्बाकू के व्यापार से सदा से अपना गुजारा चलाने वाला ग़रीब, यूरोपीयों के व्यापारिक तरीकों के कारण अपनी रोटी से भी वंचित हो चुका है । ११५ 

    * क्लाइव और कम्पनी के अन्य प्रमुख कर्मचारियों ने मिलकर, जिनमें एक ईसाई पुरोहित ( चैपलेन) भी शामिल था, अपना स्वयं एकाधिकार व्यापार पर जमा लिया जो, 'एकातिक साझेदारी' बहुत से घिनौने जुर्मों के लिए जिम्मेदार थी। 

     

    एक दूसरे पत्र में निर्देशकों ने "अपने नौकरों की बेईमानियों, लूटमारों तथा अपने सारे राज्य में सर्वव्यापक चरित्रहीनता " पर खेद प्रकट किया है और लिखा है कि "...हमारा विचार है कि आन्तरिक व्यापार में जो विशाल सम्पत्ति बनाई गई है वह ऐसे महा अत्याचारी और क्रूर तरीकों से प्राप्त की गई, जो किसी भी काल या देश में कभी भी नहीं देखे गये । ११६ 

     

    लॉर्ड मैकॉले ने लिखा, "बंगालियों व अंग्रेज़ों के बीच युद्ध भेड़ों व भेड़ियों या मनुष्यों और दैत्यों के बीच की लड़ाई के समान था ।... कम्पनी के नौकरों का यही काम था कि किसी न किसी तरीके से शीघ्रातिशीघ्र देशियों से लाख-दो लाख पौंड निचोड़े जाएं। ११७ 

     

    भारतवर्ष की घटनाओं पर बहुत वर्षो तक बर्फ का 'अध्ययनशील ध्यान' रहा ११८ उसने इन ‘भेड़ियों' या 'दैत्यों' की तुलना 'औरंगोटंग' या 'चीतों से की है । १७८३ में उसने कहा, "युग की धन - लोलुपता से सक्रिय और यौवन से उतावले हुए हमारे (अंग्रेज़ों के) नवयुवक बाढ़ बनकर भारत आये । शिकारी एवं लड़ाकू पक्षियों के नये-नये प्रहारों के अलावा निराशातीत देशियों के सामने उन्होंने किसी और सम्भावना को रहने ही नहीं दिया... यदि हम को भारत से आज निकाल दिया जाए, तो कोई भी ऐसी चीज़ हम वहां छोड़कर नहीं आयेंगे जो यह बतला सके कि हमारा शासन औरंगोटंगों या चीतों से कुछ बेहतर था । ११८अ 

     

    बंगाल के सारे आन्तरिक व्यापार पर एकाधिकार के बारे में विलियम बोल्ट्स लिखते हैं कि, “इसको लागू करने के लिए अपनाये गए कल्पनातीत दमन और कठोरता के कारण गरीब देशी उत्पादक और कामगार अंग्रेज़ों के वास्तव में एक प्रकार से गुलाम हो गये हैं । गरीब जुलाहों के दमन के अनेक असंख्य तरीके अपनाये जाते हैं जैसे जुर्माना, कैद, कोड़े, बंधुआ मजदूरी आदि हथकंडों से देश में जुलाहों की संख्या बहुत कम हो गई है। इन सबका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ । कि औद्योगिक उत्पादन कम, महंगा और घटिया होने लगा है और साथ ही सरकार की आय भी बहुत कम हो गई है । ११९ 

     

    बोल्ट्स का कथन है कि "देशियों को केवल कम्पनी के लिए ही काम करने को बाध्य करने हेतु अंग्रेज़ों ने 'समाज के अति पवित्र नियमों को तोड़कर 'महाघृणित तरीकों' को अपनाया। कारीगरों को रेशम बुनने को बाध्य करने के लिए एक अत्याचार था उनके अंगूठों को काट देना या अपहरण करना, कोड़े मारना इत्यादि । ९२० 

     

    इन 'राक्षसों' ने न केवल भारत के आन्तरिक व्यवसाय में हस्तक्षेप किया अपितु विदेशी सौदागरों को बंगाल में आने से रोक कर फलते-फूलते विदेशी व्यापार को भी समाप्तप्राय कर दिया। परिणामस्वरूप, यह " समूचा लाभदायक व्यवसाय अब और कहीं चला गया और शायद सदा के लिए यहां से समाप्त हो गया ।' १२१ 

     

    खेती-बाड़ी भी इनसे बची न रही । बोल्ट्स के शब्दोंकि में : “सान, जो प्राय: भूमिदार और उद्योगपति दोनों ही होते हैं, (कम्पनी के) गुमाश्तों द्वारा चीजों के लिए दण्डित तथा पीड़ित किए जाते हैं, जिनके कारण वे प्रायः अपनी भूमि को सुधारना तो दरकिनार कर तक भी नहीं दे सकते। कर न दे सकने के कारण दोबारा फिर उनको मालगुजारी के पदाधिकारी दंड देते हैं। परिणामत: इन 'पिशाचों' के दुष्कृत्यों से बाध्य होकर, कर देने के लिए बहुधा उन्हें अपने बच्चों को बेचना पड़ता है या देश छोड़कर भाग जाना पड़ता है । " १२२ 

     

    उच्च ब्रिटिश अधिकारियों की, जो स्वयं इन स्थितियों के लाने में जिम्मेदार थे, कुछ टिप्पणियां कम्पनी के निर्देशकों को लिखे पत्र में लॉर्ड क्लाइव ने बंगाल के बारे में लिखा, केवल इतना कहूंगा कि ऐसी अराजकता, अनिश्चितता, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार और शोषण का ऐसा वातावरण बंगाल के अनिश्चितता न कहीं सुना है और न ही कहीं देखा है; न ही इतनी शीघ्र और इतनी बड़ी मात्रा में अन्यायपूर्ण ढंग से किसी और देश की सम्पत्ति लूटी गई है। १२३ 

     

    २ अप्रैल १७८४ को लखनऊ से लिखे कौंसिल बोर्ड के नाम एक पत्र में तत्कालीन भारत के ब्रिटिश गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्ज ने लिखा, "बक्सर के सीमांत से लेकर बनारस तक असंतुष्ट और निराश निवासियों की फरियादों को ही सुनता - सुनता थक गया । " यह कहते मुझे खेद होता है कि बक्सर से लेकर दूसरे छोर तक प्रत्येक ग्राम में सर्वनाश के अतिरिक्त मैंने और कुछ भी नहीं देखा।" १२४ 

     

    यह बात स्मरणीय है कि बनारस की यह स्थिति वहां के शासक को अत्याचारी ढंग से गद्दी से वंचित करने के केवल तीन वर्ष बाद ही, वारेन हेस्टिंग्ज और उसके नीचे काम करने वाले अंग्रेज़ लोगों ने स्थापित कर दी थी । ब्रिटिश शासन के ३२ वर्ष बाद १७८९ में एक अन्य गवर्नर-जनरल लॉर्ड कार्नवालिस ने कहा, "मैं यह बात निश्चित रूप से कह सकता हूं कि हिन्दुस्तान में कम्पनी के कुल राज्यक्षेत्र का एक तिहाई भाग अब जंगल बन गया है, जहां केवल जंगली पशु ही रहते हैं । १२५ 

     

    ऐसी दुष्ट नीतियों को स्वाभाविक परिणाम १७७०-७१ का जबर्दस्त अकाल था " जिसने बंगाल को इतने भयानक रूप से तबाह कर दिया कि जिसकी मिसाल और कोई कहीं भी नहीं मिलती । १२६ फिर भी कम्पनी का कर, उसकी अपनी ही रिपोर्ट के संयत शब्दों में 'हिंसात्मक' तरीकों से सारे का सारा वसूल किया गया । 

     

    अंग्रेज़ी शासन से पहले, पूर्व को निर्यात करने के लिए यूरोप के पास सोने-चांदी के अतिरिक्त लगभग कुछ भी न था । जैसा कि डॉ० एल० सी० ए० नोल्ज का कहना है, "पूर्व के साथ व्यापार करने में यूरोप की सबसे बड़ी कठिनाई यही थी कि योरुप के पास कुछेक चीज़ों के अतिरिक्त जिनकी पूर्व में मांग थी, कुछ भी निर्यात करने योग्य वस्तुएं नहीं थी । वह चीजें थीं दरबार के लिए कुछ विलास वस्तुएं, सीसा, तांबा, पारा, मूंगा, टिन, सोना और हाथीदांत । इन चीज़ों के अतिरिक्त चांदी की खपत भारत में थी । इसलिए मुख्यत: चांदी इंगलैंड से बाहर भेजी जाती थी । ९२७ 

     

    परन्तु, ब्रिटिश राज्य की स्थापना के बाद यह न केवल समाप्त, बल्कि उलट दिया गया। अब अंग्रेज़ भारत की चीज़ें, अपने पैसे से नहीं बल्कि कर द्वारा एकत्रित भारतीय राजस्व में प्रमुख भाग से खरीदते थे और उनको काफी लाभ पर भारत और यूरोप सहित अन्य देशों में बेचते थे। कम्पनी द्वारा भारत में ऐसी खरीद को 'लागत' कहा गया। इस प्रकार की लागत के बारे में १७८३ में (ब्रिटिश) लोक सभा की प्रवर समिति ने कुछ प्रकाश डाला, "बंगाल के राजस्व का एक निश्चित भाग अनेक वर्षों से उन वस्तुओं की खरीद पर लगाया जाता हैं, जिन्हें इंगलैंड को निर्यात किया जाता है और इस प्रकार की खर्ची गई आय को 'लागत' कहा गया । प्राय: इस निवेश की विशालता से कम्पनी के प्रमुख नौकरों की योग्यता मापी जाती थी; ओर भारत की दरिद्रता के प्रमुख कारण को वहां की सम्पन्नता और खुशहाली का प्रायः नाप समझा जाता रहा है।...परन्तु वास्तव में यह, भारत के लाभ के लिए व्यापार नहीं बल्कि उसका इंगलैंड को खिराज़ है।” “यदि बंगाल और इंगलैंड के इस सम्बन्ध को (इसको व्यापार नहीं कहा जा सकता) सही रूप से नापा जाए तो इस लागत के घातक परिणाम सामने आ जाते हैं । उस देश के सारे निर्यात के बदले में किसी प्रकार की अदायगी या वस्तुएं वहां नहीं भेजी जातीं । १२८ 

     

    इस तथाकथित लागत को कुछ आंकड़ों की सहायता से और स्पष्ट किया जा सकता है। १७७३ में ब्रिटिश संसद के सामने पेश की गई कम्पनी की रिपोर्ट में कहा गया कि बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी प्राप्त करने के छः वर्षों के भीतर कुल आय १३,०६६,७६१ पौंड हुई, कुल खर्चा ९,०२७,६०९ पौंड हुआ और शेष राशि ४,०३७,९५२ पौंड बचा।" इस बची धनराशि से वस्तुएं खरीदकर इंगलैंड भेजी गई। यह धनराशि कम्पनी के नौकरों द्वारा गलत तरीकों से बनाई गई बहुत बड़ी धनराशि के अतिरिक्त थी । प्रायः सभी प्रकार की धनराशियां किसी न किसी रूप में इंगलैंड ही जा रही थीं, क्योंकि प्रायः सभी प्रकार की खरीद भी इंगलैंड से ही की जाती थी। दूसरे शब्दों में "बंगाल से इंगलैंड जाने वाली सम्पत्ति उपर्युक्त आंकड़ों से कहीं अधिक थी। विदेश जाने वाली सम्पत्ति का अनुमान राज्यपाल वियरलिस्ट के द्वारा संकलित सन् १७६६–६७ और ६८ के आयात-निर्यात के आंकड़ों से लगाया जा सकता हैं उसके अनुसार भारत से ६, ३११, २५०१३० पौंड का निर्यात और केवल ६, २४३,७५ का आयात किया गया, जिसका अर्थ था कि जितना निर्यात भारत से किया गया उसका केवल १/१० भाग ही उसे वापिस मिला (यह 'दानवी शोषण' प्रति वर्ष चलता रहा जैसे कि आगे बताया जायेगा । सामान्य व्यापार के आधार पर तो भारत को ब्रिटेन से सोना-चांदी आदि लेना चाहिए था, परन्तु यह अजीब विरोधाभास था कि आघात करने के स्थान पर भारत न केवल अनेक वस्तुए, अपितु सोना चांदी भी बहुत बड़ी मात्रा में निर्यात करता था । यह तब तक चलता रहा, जब तक कम्पनी अपनी आवश्यकतावश सोना-चांदी इंगलैंड से भारत भेजने लगी। सर जॉन शोर (बाद में लार्ड टेनमाउथ) द्वारा १७८७ में दिए गए बंगाल संबंधी बयान से सोने-चांदी के निर्यात के बारे में कुछ पता चलता है, " बंगाल से गत २५ वर्षों में सोना-चांदी काफी निर्यात हुआ, विशेष रूप से गत १० वर्षों में ... । व्यक्तिगत रूप से भी लोग सोना-चांदी यूरोप भेजते हैं । इस सभी सम्पत्ति की गिनती नहीं की जा सकती, परन्तु कम्पनी को दिवानी मिलने के बाद से यह अवश्य बहुत अधिक रही होगी ।३१ भारत की इस अपार हानि और अंग्रेज़ों द्वारा लूटी गई धन-सम्पत्ति के प्रसार के बारे में जिसके कारण इंगलैंड में औद्योगिक क्रांति हुई, उनका कथन है कि, “५००,०००,००० पौंड से लगभग १,०००,००० पौंड तक के अनुमान लगाए गए हैं। सम्भवत: प्लासी (१७५७) और वाटरलू (१८१५) के बीच तक भारत से इंगलैंड के बैंकों में उपर्युक्त राशि भेजी गई । ९३२ 

     

    जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है कि वाणिज्यवाद (अर्थशास्त्र का एक सिद्धांत) के प्रभाव के अन्तर्गत १७५७ से पहले कम्पनी द्वारा इंगलैंड से भारत को सोना-चांदी भेजना बहुत खलता था। किसी भी प्रकार कम्पनी इस सोने-चांदी के निर्यात को रोकना चाहती थी। साथ ही भारत से कपड़ा तथा अन्य वस्तुएं खरीदना भी चाहती थी ताकि यूरोप ले जाकर बेचे और खूब लाभ कमाए । अंग्रेज़ों के हाथ में सत्ता आ जाने पर बंदूकों के बल पर अंग्रेज़ों का मंतव्य हल हो गया जैसा कि प्रख्यात ब्रिटिश राजनेता ग्लैडस्टोन कहता है। "हमारा कानून और युक्ति केवल बल प्रयोग ही है जिससे हम युक्त हैं और जिसका हम प्रयोग करते हैं । १३३ 

     

    ब्रिटेन के लिए भारत की आर्थिक उपयोगिता सन् १८१२ ई० तक भारत से अधिकाधिक पूंजी को लूट कर अपने देश पहुंचाना ही था जैसा कि १८१२ की कम्पनी की अपनी ही रिपोर्ट में स्पष्ट किया गया है: "इस (ब्रिटेन) देश के लिए, अपने विशाल साम्राज्य की उपयोगिता इसी बात पर निर्भर है कि वह हमारे देश की सम्पत्ति और पूंजी के भण्डार में वार्षिक रूप से कितनी वृद्धि करता है, न कि इससे कि हमारे उद्योगपतियों को भारतीयों की खपत से कितना लाभ होता है । ९३४ 


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