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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 1 अंग्रेज़ों से पूर्व भारत की आर्थिक स्थिति

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    Vidyasagar.Guru

    स्वतंत्रता से पहले के भारत पर लिखने वाले अनेक अंग्रेज लेखकों ने यह मत प्रचारित किया कि भारत सदैव केवल एक विशुद्ध कृषि-प्रधान देश ही रहा है। इससे बड़ा झूठ नहीं हो सकता। इसके पुष्कल प्रमाण हैं कि "अंग्रेजों से पूर्व भारत विश्व का केवल सर्वसम्पन्न कृषि प्रधान देश ही नहीं अपितु एक सर्वोत्तम औद्योगिक क्षेत्र एवं व्यापारिक केन्द्र भी था ।  भारत की उर्वरा भूमि एवं कारीगर "एशिया के अन्य भागों में अन्त और सभ्य संसार के हर भाग में कपड़ा, रेशम तथा विलास–वस्तुएं मुहैया करते थे और बदले में समस्त विश्व से सोने एवं चांदी की धारा भारत में प्रवाहित होती थी । 

     

    जिन विविध उद्योगों, धन्धों एवं व्यापारों के कारण भारत को समस्त विश्व की औद्योगिक कर्मशाला एवं व्यापारिक धुरी होने का सुयोग्य यश प्राप्त था, अंग्रेजों ने न केवल उन्हें नष्ट करके भारत को एक विशुद्ध कृषि प्रधान देश में बदल दिया, अपितु उन्होंने भारत की कृषि सम्बन्धी समृद्धि को भी तहस-नहस कर दिया, यहां तक कि जब उन्होंने भारत को छोड़ा, तब 'एशिया की 'अन्नपूर्णा मां १९ भारत स्वयं अपना पेट भरने में भी समर्थ नहीं रहा । 

     

    फ्रैसवां पिरार्ड नामक एक फ्रांसीसी सत्रहवीं शताब्दी के आरम्भ में भारत आया था। उसकी यात्राओं के वृत्त पहले-पहल सन् १६११ में फ्रेंच भाषा में प्रकाशित हुए थे । अनेकविध शिल्प-उद्योगों के वर्णन के बाद उसने लिखा, "संक्षेप में मैं इतना ही कहूंगा कि सोने-चांदी, लोहे—इस्पात, तांबे एवं अन्य धातुओं तथैव जवाहरात, बढ़िया लकड़ी तथा अन्य मूल्यवान एवं दुर्लभ पदार्थों की ऐसी विविधता थी कि वर्णन का कोई अंत नहीं हो सकता ।" उसका कहना है कि “उनके सभी शिल्पोद्योग - उत्पादन उत्कृष्ट कलापूर्ण एवं सस्ते भी हैं।"२ 

     

    'भारत के उद्योगों में सबसे महत्त्वपूर्ण था - वस्त्र - उद्योग, जो संसार भर में सबसे पहले भारत में ही प्रारंभ हुआ था। यह भारत के हर भाग में विद्यमान था । सिन्धु घाटी की सभ्यता (लगभग ३००० ई० पूर्व) के पुरातन काल से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक संसार भर में इसकी विशेष ख्याति थी, यद्यपि प्राचीन काल से ही भारत में ऐसी-ऐसी असीम सुन्दर व उपयोगी वस्तुओं का निर्माण होते रहा है, जिन्हें मनुष्य के मस्तिष्क और हाथ की अन्यतम उपलब्धि के रूप में सभ्य संसार में खरीदा व सराहा जाता रहा है।"२९ 

     

    ऐसे ही विचार म० मार्टिन ने भी व्यक्त किये हैं, "जब ब्रिटेन के वासी बर्बर जंगली चित्रित किये जाते थे, उस समय भी रोमन बादशाहों के दरबार की शोभा बढ़ाने के लिए ढाका की बारीक मलमल, सुन्दर कश्मीरी शाल, दिल्ली के जरीदार रेशम आदि दुर्लभ सौन्दर्यवर्धक 

    १२  वस्तुएं भारत से ही मंगाई जाती थीं। यहां की नक्काशी और कशीदाकारी की हुई धातु की वस्तुएं और आभूषण हाथीदांत की बड़ी-बड़ी मूर्तियां, आबनूस तथा चन्दन से बनी वस्तुएं, खूबसूरती से रंगे छींट, बहुमूल्य हीरे, व एकतार सजे नग; कढ़ाईदार मखमल और कालीन, मज़बूती से ढला इस्पात, बेहतरीन चीनी मिट्टी के बर्तन, और परिष्कृत नौ - वास्तुकला को समस्त सभ्य मानवजाति द्वारा युग-युग से प्रशंसा प्राप्त होती रही है । वास्तव में इतिहास के पृष्ठों में लन्दन का नाम ज्ञात होने से भी पहले भारत इस पृथ्वी पर सर्वाधिक सम्पन्न व्यापारिक केन्द्र था । २२ 

     

     

    सत्रहवीं शताब्दी के मध्य में भारत भ्रमण को आने वाला फ्रांसीसी व्यापारी टैवर्नीय सूती वस्त्रों का वर्णन करते हुए लिखता है : " वे इतने सुन्दर और हल्के होते हैं कि हाथ पर रक्खे हुए पता भी नहीं लगता, सूत की महीन कताई मुश्किल से नज़र आती है।" वह आगे कहता है, "कालीकट की ही भांति सिकन्ज ( मालवा प्रान्त) में भी इतना महीन 'कालीकट ' * बनता था कि पहनने वाले का शरीर ऐसा साफ़ दिखता था मानो वह नग्न ही हो । २३ 

     

    उन्नीसवीं शताब्दी में जब अंग्रेज़ी नीतियों के कारण भारतीय उद्योगों का तीव्रता से हास हो रहा था, तब बंगाल के एक मिशनरी श्रीयुत विलियम वार्ड का कहना था कि, "उत्पादन की इस दिशा (मलमल) में हिन्दुओं का कौशल निश्चित ही विलक्षण था। 

     

    ""जब इस मलमल को घास पर बिछाया जाता है और इसके ऊपर ओस गिरती है तब इसे पहचान भी नहीं जा सकता।"२४ 

     

    महीन वस्त्र के उत्पादन की उत्कृष्टता साबित करने को दो-एक उदाहरण पर्याप्त हैं। एक अमेरिकी लेखक के शब्दों में, “ मलमल में चार सौ से भी अधिक तार होते थे । फिर भी पूर्ण विकसित महिला के लिए पूरी साड़ी (लगभग छ: गज) एक अंगूठी के भीतर से निकाली जा सकती थी।’’२५ बताया जाता है कि जहांगीर के काल में पन्द्रह गज़ लम्बी, एक गज़ चौड़ी ढाका की मलमल का वज़न केवल १०० ग्रेन (एक ग्रेन डेढ रत्ती) होता था, २६ अंग्रेज व अन्य यूरोपीय लेखकों ने तो यहां की मलमल, सूती व रेशमी वस्त्रों को 'बुलबुल की आंख', 'मयूर ‘कंठ', 'चांद और सितारे', 'बफ्ते हवा' (पवन के तार), 'बहता पानी' और 'संध्या की ओस २७ जैसी अनेक काव्यमयी उपमाएं दीं, जबकि अंग्रेजों को यह भी पता नहीं था कि उन्हें बनाया कैसे जाता है। इंगलैंड ने सूती कपड़े तथा मलमल का उत्पादन करना क्रमशः १७७२ तथा १७८१ में आरम्भ किया । २८ 

     

    यूरोपियनों ने भारतीय मलमल तथा अन्य कपड़ों की नकल के कई असफल प्रयास किये। अपने जीवन की लंबी अवधि अंग्रेज़ी कम्पनी की सेवा में गुजारने वाले मद्रास के गर्वनर थामस मुनरो ने एक भारतीय साल को सात वर्ष तक ओढ़ा इतने अधिक प्रयोग के बाद भी शॉल में कोई विशेष अन्तर नहीं आया था। भारत की नकल पर बनी यूरोपीय शालों के बारे में 'कालीकट ' उस युग का एक महीन कपड़ा था, जिसका नामकरण सूती कपड़े विशेषत: मलमल के विश्वविख्यात व्यापारिक केन्द्र कालीकट के कारण हुआ था । पुर्तगाली और डच सबसे पहले यहीं पहुंचे थे । – सर ई० वेन्स ।  

    उसने सन् १८१३ में ब्रिटिश लोक-सभा की एक समिति के सामने कहा था, "मैंने कभी कोई ऐसी यूरोपीय शाल नहीं देखी, जिसका कि मैं प्रयोग कर सकूं, फिर चाहे वह मुझे उपहार रूप में ही क्यों न मिले। २९ कोई आश्चर्य नहीं कि सर ऐडवर्ड बेन्ज ने सन् १८३५ में भी यह लिखा कि “अपने वस्त्र उद्योग में भारतीयों ने प्रत्येक युग में अतुलित और अनुपमेय मानदंड बनाये रखा है। उनके कुछ मलमल के वस्त्र तो मानवों के नहीं बल्कि परियों और तितलियों द्वारा तैयार किये लगते हैं । " ३० 

     

    भारतीय कपड़ा उद्योग की विश्व भर में केवल ख्याति ही नहीं थी, अपितु उसके द्वारा करोड़ों लोगों को व्यवसाय भी मिला हुआ था, ईस्ट इंडिया कम्पनी के एक उच्च अधिकारी और्मी ने, जिसकी लिखी इतिहास की पुस्तक 'सबसे विश्वसनीय पुस्तकों में से एक है, ३१ अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लिखा : कारोमंडल के तट तथा बंगाल में कोई भी ऐसा गांव नहीं मिलेगा, जहां पर हर आदमी, स्त्री या बच्चा वस्त्र व्यवसाय में न लगा हो। यह एक ऐसा उद्योग है जिसमें सारे देशवासी रोज़गार पा रहे हैं ...  कपड़ा - उद्योग का वर्णन ही भारत की आधी जनसंख्या के जीवनचरित के वर्णन के समान है । ३२ 

     

    पटसन भारत का दूसरा घरेलू उद्योग था । बंगाल तक सीमित होने के बावजूद, हज़ारों लोग इस व्यवसाय में थे । सन् १८५५ तक भी फॉर्ब्स रॉयल का विचार था, "इस उद्योग में निचले बंगाल के पूर्वी भाग में बहुत से लोग इस शानदार घरेलू उद्योग में लोग हर वर्ग में, हर घर में पुरुष; स्त्री, बच्चे सभी को इस कार्य में धंधा मिलता है। हिन्दु हो या मुसलमान - नाविक, खेतिहर कृषक, पालकी - चालक, घरेलू नौकर, सभी अपने खाली समय का उपयोग सूत कातने या हाथ में तकुआ लिए बोरी के धागे बंटने में करते हैं । ३३ 

     

    जितना प्राचीन भारत का इतिहास है, उतना ही पुराना उसका जहाज़रानी उद्योग भी है। १८११ ई० तक भी एफ० बाल्टाजर सोल्विस नामक फांसीसी ने लिखा, “जलपोत – निर्माण कला में भारतीयों ने प्राचीन काल में ही दक्षता प्राप्त कर ली थी । और वास्तुकला के बारे में आज का हिन्दू, “समूचे यूरोप को काफी कुछ आदर्श नमूने दे सकता है। यही नहीं, नौ-शिल्प के क्षेत्र में सतत जागरूक इंगलैंड ने आज भी हिन्दुओं से बहुत कुछ सफलतापूर्वक सीखा है। भारतीय जहाजों में कला और उपयोगिता का अद्भुत योग मिलता है । शानदार कारीगरी के बेजोड़ उदाहरण हैं वे । ३४ 

     

    सन् १८११ ई० में ले० कर्नल ए० वाकर ने लिखा, “ हिसाब लगाने के बाद यह निष्कर्ष निकलता है कि ब्रिटेन की नौ सेना का हर जहाज़ बारह वर्ष बाद बदला जाता है। जबकि यह प्रसिद्ध है कि टीक की लकड़ी से बने जहाज़ पचास वर्ष से भी अधिक चलते हैं । बम्बई में बने जहाज़ों को चौदह-पन्द्रह वर्ष चलाने के बाद ब्रिटिश नौ सेना में लाया जाता रहा है परन्तु फिर भी वे मज़बूत समझे जाते रहे हैं। सर ऐडवर्ड ह्यूज़ ने नौ सेना में खरीदे जाने से पूर्व, भारतीय पोत के रूप में आठ बार जलयात्रा की । यूरोप में बना कोई भी ऐसा जलपोत न था जिसमें सुरक्षित ढंग से छ: बार से अधिक यात्रा की जा सकें । ३५ 

     

    बम्बई में बने जहाज़ केवल टिकाऊ ही नहीं, बल्कि संसार के सब देशों के जहाजों से  बढ़िया और सस्ते भी थे। वाकर के मत में "बम्बई में जलपोत इंगलैंड की बजाय एक-चौथाई लागत में बनते हैं । जितने रुपयों में बम्बई में जहाज खरीदा जा सकता हैं, उसके चार गुणे में तो इंगलैंड में मरम्मत ही होती है और वह भी हर बारह वर्ष बाद । बंगाल में तो इससे भी सस्ते मूल्य पर बढ़िया जहाज़ भारी संख्या में बनाए जा सकते हैं । ३६ अतः कोई आश्चर्य की बात नहीं कि "कान्सटैंटीनोपल के सुल्तान ने सस्ते होने के कारण अलैग्ज़ैन्ड्रिया की बजाय " यहीं जहाज़ बनवाए; (ब्रिटिश) ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भी बहुत सारे अपने जहाज़ बंगाल में बनवाए। ३७ 

     

    भारतीय लोहा तथा इस्पात उद्योग का भी गौरवपूर्ण उद्योगों में से एक था। सन् १८४२ में भारत के उद्योग धन्धे जब ब्रिटिश कूटनीति के कारण विनाश की ओर अग्रसर थे, तब मद्रास प्रतिष्ठान के सहायक महासर्वेक्षक कप्तान * जे० कैम्पबेल ने लिखा: “इंगलैंड का बढ़िया से बढ़िया लोहा भी भारत के घटिया से घटिया लोहे को मुकाबला नहीं कर सकता । ''३८ 

     

    मेजर जेम्स फ्रेंकलिन ने सागरमिन्ट के कप्तान प्रेसग्रेव का हवाला देते हुए कहा कि " भारतीय सरिया (लोहा) श्रेष्ठ स्तर का है, उस स्वीडन के लोहे को भी वह मात देता है, जिसका लोहा यूरोप में उस समय सर्वश्रेष्ठ माना जाता था । " फ्रेंकलिन का प्रश्न था कि, "क्या भारत की भट्ठी से कोई अन्य लौह-भट्ठी मुकाबला कर सकती है। ?” 

     

    १८२५ ई० में आकर इंगलैंड का एक उद्योगपति लोहे से इस्पात बनाने की कला का एकाधिकार प्राप्त कर पाया। इससे पूर्व इंगलैंड इस्पात के लिए आयात पर ही निर्भर रहता था । १७९४ में डॉ० स्कॉट ने लंदन रॉयल सोसाइटी के प्रधान को ढले हुए तैयार इस्पात का नमूना (कई और चीज़ों के साथ) भेजा, जो “अन्य सभी परिचित ढलाइयों से कठोर था ।" अनेक विशेषज्ञों ने इसका इंगलैंड में गहन परीक्षण किया । स्टोडार्ट नाम के प्रतिभावान विशेषज्ञ उनमें एक थे जिनके मतानुसरः “भारतीय तैयार इस्पात वास्तव में ब्रिटिश उद्योगियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण साबित होगा; तेज़ छुरी-कांटों के लिए तो यह बेहतर है ही, शल्य चिकित्सा से धारदार उपकरणों के लिए भी विशेष रूप से उपयुक्त सिद्ध होगा ।" १७९४ में इसका नमूना भेजने के बाद भारतीय इस्पात की मांग बहुत बढ़ गई और लगभग १८ वर्ष बाद भी स्टोडार्ट को लिखना पड़ा : "मुझे यदि भारतीय इस्पात से बेहतर इस्पात दिया जाये, तो मैं प्रसन्नतापूर्वक उसको ग्रहण करूंगा; परन्तु भारत का इस्पात निश्चय ही सर्वोत्तम है । ३९ 

     

    तैयार इस्पात के इलावा भारत की बनी हुई और बहुत सारी अन्य वस्तुएं भी कम्पनी के कर्मचारियों ने उपहारस्वरूप इंगलैंड भेजीं जैसे कि कॉट (Caute), (एक प्रकार का सिमेन्ट, जो जानवरों के अंगों को जोड़ने के काम आता था) स्याही, डामर, जूट आदि। ईस्ट इंडिया कम्पनी के एक कर्मचारी डॉ० हेलेनस स्कॉट ने लम्बे समय तक भारत में रहने के बाद १७९० में लिखा: “बहुत सारे वर्षों के प्रयत्नों से विकसित भारतीय कलाएं यूरोप के सर्वोत्तम विज्ञ दार्शनिक के लिए भी शिक्षा व मनोरंजन का साधन बन सकती हैं । 

     

    * भारत में अंग्रेजों की अधीनता १७५७ में प्रारम्भ हुई जिसको पूरा होने में ९० साल लगे । अंग्रेजों ने भारत पर १७५७ से लेकर १८५७ तक राज्य अपनी ईस्ट इण्डिया कम्पनी के माध्यम से किया।कम्पनी के प्रशासन में असैनिक पदाधिकारिबों की भी सैनिक पदवियां दी जाती थीं। * 

     

    ब्रिटिश-पूर्व भारत केवल औद्योगिक दृष्टि से ही पाश्चात्य देशों की अपेक्षा अधिक विकसित नहीं था, अपितु विज्ञान तथा तकनीक के क्षेत्र में भी वह काफी आगे था । ब्रिटिश तथा यूरोपीय लेखक भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि आज से अधिक से अधिक दो सौ वर्ष पूर्व तक का भारत भी अनेक क्षेत्रों में, जैसे कि खगोल विज्ञान, गणित शास्त्र, चिकित्सा विज्ञान, शल्य विज्ञान, धातु विज्ञान, बर्फ उत्पादन, सीमेंट - मसाले के निर्माण तथा कृषि के सुविकसित साधनों में दुनिया का अग्रणी था । कृषि क्षेत्र में पंक्ति में बोने के तरीकों का जो कि "एक बहुत कुशल और उपयोगी अनुसंधान माना जाता है? ऑस्ट्रिया में पहले-पहल प्रयोग सन् १६६२ में हुआ तथा इंगलैंड में १७३० में हुआ, हालांकि इसका व्यापक प्रसार वहां इसके भी करीब ५० वर्ष बाद ही हो पाया। परन्तु, जबकि मेजर जनरल अलैक्ज़ेंडर वाकर (लगभग १८२०) के अनुसार पंक्ति में बोने को प्रयोग भारत में अत्यन्त प्राचीन काल से ही होता आया है। थॉमस हैल्कॉट ने १७९७ में इंगलैंड के कृषि बोर्ड को लिखे एक पत्र में बताया कि, भारत में इसका प्रयोग प्राचीनकाल से होता रहा है ।" उसने बोर्ड को पंक्तियुक्त हलों के तीन सेट लन्दन में भेजे, ताकि इन हलों की नकल अंग्रेज़ कर सकें क्योंकि ये अंग्रेजी हलों की अपेक्षा अधिक उपयोगी और सस्ते थे। खैर हल तो यंत्र - प्रयोगों का मात्र एक उदाहरण है । सर अलेक्ज़ेंडर वाकर लिखते हैं, "भारतीयों के पास खेतीबाड़ी के लिए तरह-तरह के उपकरण हैं जिनमें से कुछ तो इंगलैंड में हाल ही में सुधार होने के कारण प्रयोग में लाये गए हैं।" वे आगे लिखते हैं,  " भारत में शायद विश्व के किसी भी देश से अधिक किस्मों के अनाज बोये जाते हैं और तरह-तरह की पौष्टिक जड़ों वाली फसलों का भी यहां प्रचलन है ।" वाकर की समझ में नहीं आया कि “हम भारत को क्या आवश्यक भेंट दे सकते हैं । जो खाद्यान्त हमारे यहां हैं, वे तो वहां हैं ही, और भी बहुत से अपने से विशेष प्रकार के वहां हैं । ४१ 

     

    विश्व के इतिहास में भारत के वाणिज्य - व्यापार का योगदान भी बहुत महत्वपूर्ण है। पश्चिमी देशों को भारत ने न केवल इत्र, जवाहरात, मसाले, रेशम और अन्य वस्त्रों जैसी विलास वस्तुएं निर्यात कीं, अपितु शक्कर (ग्रीक में इसे 'सुखरा ४२ कहा जाता है, जो संस्कृत 'शर्करा से गृहीन हैं ।) घी, दवाइयां, तेल और चावल जैसी दैनंदिन आवश्यकता की वस्तुओं का भी निर्माण किया ।'’४३ 

     

    भारतीय वस्तुएं इतनी परिष्कृत, सौन्दर्यपूर्ण और सस्ती थीं कि "दुनिया के कोने-कोने में इनकी मांग थी। इसका नतीजा यह था कि सारे संसार से सोना-चांदी भारत में आता था जिसके कारण हिन्दुस्तान इतिहास के लेखों में सदा ही सन देशों से धनी देश अंकित रहा।''४४ गिलबर्न के अनुसार केवल बंगाल प्रांत से ही सूती, रेशमी और मिलेजुले वस्त्रों की १५ प्रकार की किस्में संसार के भिन्न-भिन्न कोनों में भेजी जाती थीं । इनके अतिरिक्त और कई किस्म के कपड़े उन्नीसवीं शताब्दी में बंगाल के भीतर ही इस्तेमाल किए जाते थे । ४५ 

     

    भारत के बने कपड़े, नील (इन्डिगो शब्द की व्युत्पत्ति भारत से ही हुई है), मसाले, शोरा जैसी अनेक वस्तुओं की मांग यूरोप में इतनी बढ़ गई कि भारतीय आयात लगभग सारे यूरोपीय ताना-बाना' इंगलैंड और यूरोप के बहुत सारे देशों में 'प्लेग' की तरह फैला । सत्रहवीं शताब्दी के मध्य तक तो वहां के लोग, सेनापति हो या महरी, अपनी 'इंगलैंड की शान' जैसे नामी - गरामी कपड़ें को भी छोड़कर भारत के सस्ते, हल्के, चमकीले और शानदार वस्त्रों के प्रति आकर्षित हो गये । सन् १६९५ और १६९६ में अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कम्पनी ने ५०,००० से भी अधिक छींट की किस्मों के थान भारत से इंगलैंड भेजे । डच और फ्रांसीसी भी भारी मात्रा में ४६ १७०८ में डेनियल डिफ़ो ने शिकायत की कि " ईस्ट इंडिया भारत से कपड़ा भेजते थे। कम्पनी द्वारा भेजी गई चीज़ों का इस्तेमाल इतना बढ़ गया है कि इंगलैंड की रानी भी चीन के रेशमी तथा भारतीय सूती वस्त्र पहनना पसंद करती है। केवल इतना ही नहीं, अल्मारियों में यहां तक कि शयनागारों मे यह कपड़ा छा गया है। पायदान, कुर्सियां व बिस्तर तक भी हमारे घरों में, भारतीय सूती कपड़े व वस्तुओं से बनते हैं । चाहे नारी के परिधान की वस्तुएं हों या घर की शोभा से सम्बन्धित चीजें, सबका निर्यात भारत से हो रहा है । ४७ 

     

    डिफो की यह शिकायत सन् १७०८ की नहीं बल्कि उससे कुछ वर्ष पहले की थी । १७०० ई० में इंगलैंड के महाराजा विलियम तृतीय ने भारतीय वस्तुओं के आयात पर प्रतिबन्ध लगा दिया था और भारतीय रेशम या सूती वस्त्र के पहनने व बेचने वालों को डराने के लिए २०० पौंड का बहुत भारी जुर्माना घोषित किया । डिफो लिखता है : "इससे हमारे उत्पादक उजड़ते-उजड़ते बचे; एक बार फिर से उनकी समृद्धि वापस आई।" इस असह्य दण्डविधान के बावजूद भारतीय वस्तुओं का प्रयोग बन्द न हुआ, शायद यूरोप के किसी अन्य भाग से इसकी तस्करी होती थी। इसके बाद भी इसी उद्देश्य से अनेक अधिनियम बनाए गए । ४८ ए - पर्लेन – ऑफ़ -दी-इंगलिश - कॉमर्स' के लेखक के अनुसार ऐसा प्रतिबन्ध केवल इंगलैंड में ही नहीं लगाया गया।" "ये वस्त्र भारत से जल व थल मार्गों द्वारा मस्कोवी तथा टारटर्रा पहुंचाए जाते, फिर वहां से लम्बा समुद्री रास्ता तय कर यूरोप तथा अमेरिका के देशों में पहुंचते । यह देखकर यूरोपीय शासकों को बड़ी चिढ़ होती । डचों को छोड़कर बाकी सब यूरोपीय शासको ने इन पर कड़ा प्रतिबन्ध लगाया।’’४९ 

     

    इस लेखक के अनुसार इंगलैंड और यूरोप ने भारतीय वस्तुओं की खपत का कारण वहां की स्त्रियों का ‘फैशन से मोह' था। यह मोह इतना ज़ोरदार था कि कड़े वैधानिक प्रतिबन्ध के बावजूद भी भारतीय वस्तुओं का प्रयोग बिलकुल बन्द नहीं हो सका। यह इतिहास का केवल एक संयोग नहीं है कि यूरोपीय महिलाओं के विरुद्ध ऐसी ही शिकायत काफी समय पूर्व रोमन युग में भी की गई थी जिसके कारण वैधानिक प्रतिबन्ध लगाना पड़ा था। भारतीय मलमल को (रोमन इसे नुबुला कहते थे) सात तहों में सजाकर रोम महिलाएं जब सड़कों पर निकलती थीं तो नगर की नैतिकता ऐसे संकट में आ पड़ी कि रोमन सीनेट को ही हस्तक्षेप करके उस शानदार भारतीय वस्तु के प्रतिबन्ध लगाना पड़ा । ° पहली शताब्दी के आसपास भारत से ही केवल आयातित रेशमी वस्त्र रोम की सम्पन्न महिलाओं द्वारा बेहद पसंद किया जाता था और तीसरी शताब्दी के दूसरे आधे भाग तक भी (महाराज) ऑरेलिन के समय तक इसका भार सोने के भार के बदले तोला जाता रहा।" इस व्यापार के फलस्वरूप रोम का सोना व चांदी बहुत धनी मात्रा में देश से बाहर निकलने लगा जो "नीरो के राज्यकाल से आगे रोमन साम्राज्य के आर्थिक संकट का एक महत्त्वपूर्ण कारण था । " २ क्योंकि "पश्चिम के पास इन चीज़ों के बदले पूर्व को देने को सोने-चांदी के अतिरिक्त था भी कुछ नहीं । जिनका बहुत सारा भाग भारत को उसकी चीज़ों के बदले जाता रहा । "५३ दूसरी शताब्दी के आरम्भ में प्लीनी नामक एक रोम लेखक की शिकायत थी कि, "भारत को हर वर्ष ५५ करोड़ सेस्टरसीज़ (रोमी मुद्रा ) से भी अधिक हमारे साम्राज्य से जाते रहें हैं।" उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य के आसपास इसे 'करीब १४ लाख पौंड वार्षिक' आंका गया था ।"" बड़े खेद के साथ प्लीनी को कहना पड़ा था कि 'हमारे ऐश-आराम तथा महिलाएं हमें बेहद महंगी पड़ती हैं ।" यह कतई आश्चर्य की बात नहीं कि छठी शताब्दी में रोमी सम्राट जस्टीनियन द्वारा संकलित सार्वजनिक कानूनों के अनुसार “हमें पता लगता है कि अन्य भारतीय वस्तुओं के अलावा रेशमी और सूती कपड़ों पर भी सब प्रकार के कर लगाये जाते थे, जो वह भारत से हमारी तरह ही और शायद उन्हीं कारणों से मंगवाते थें, क्योंकि उनको हमारी तरह ही अपने देश में बनाने के बजाय भारत से ये वस्तुएं खरीदनी सस्ती पड़ती थीं । ५६ 

     

    आइये, फिर हम ब्रिटिश-पूर्व काल में लौटें। यूरोपवासियों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जो यूरोपीय कम्पनियां भारतीय सामान भेज रही थीं, वास्तव में भारी लाभ कमा रही थीं। उदाहरणार्थ ‘“ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी आरम्भ में अपनी पूंजी पर १००% लाभ कमाती थी और कुछेक बार तो यह प्रतिशत और भी बढ़ जाता था । ५७ इसीलिए, रूसी सम्राट पीटर दी ग्रेट (१६८२–१७२५) भारतीय व्यापार को “समूचे विश्व के व्यापार की संज्ञा देते हैं और कहते हैं कि जो भी कोई इस पर नियंत्रण कर सकेगा वह यूरोप का एकछत्र अधिनायक बन जायेगा । ५८  

     

    भारतीय वस्तुओं के बदले यूरोप के पास ऐसी कोई भी वस्तु नहीं थी जिसे वह भारत को बेच पाता, इसलिए रोमन काल की ही तरह अब भी उसे बदले में सोना-चांदी ही देना पड़ रहा था। उदाहरण के लिए, ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी जो १६०० ई० में भारत की बनी हुई वस्तुओं और कच्चे माल को यूरोप में ले जाकर बेचने के लिए बनी थी, प्रत्येक वर्ष भारतीय वस्तुएं खरीदने के लिए ४ लाख से ५ लाख पौंड तक १७५७ से पहले भारत भेजा करती थी । ५९ 

     

    सन् १६१६ से १६१९ तक भारत यात्रा पर आए ऐडवर्ड टैरी का मत है कि, "मैं यह नहीं जानता कि यूरोप का धन किन-किन मार्गों से भारत आता है; पर हां, इतना निश्चयपूर्वक कह सकता हूं कि जिस प्रकार सभी नदियां सागर की ओर बहती हैं उसी प्रकार यूरोप के चांदी के नाले भी भारत की ओर ही बह रहें हैं । ६० 

     

    संक्षेप में, सारे प्रमाण स्पष्ट रूप से यह साबित करते हैं कि अंग्रेजों के राज्य से पूर्व, एक प्रख्यात इतिहासकार के शब्दों में "भारत पूरे तीन हजार वर्ष तक व्यापार के क्षेत्र में विश्व का केन्द्र - बिन्दु रहा । " और "उसने व्यापारिक संतुलन को सदा ही अपने पक्ष में रक्खा, संतुलन को बनाये रखने के लिए यूरोप को अपना खजाना खाली करना पड़ा, व्यापार के क्षेत्र में वह भारत का ऋणी रहा। ६१ सर जॉर्ज बर्डवुड का भी यही निष्कर्ष था कि, “३००० वर्षों तक समूचा विश्व अपना सोना-चांदी भारत की ओर उसके उत्पादनों को ख़रीदने के लिए बहाता 

    रहा । ६२ 

     

    ब्रिटिश साम्राज्यवादी यह तर्क दे सकते हैं कि ब्रिटिश-पूर्व की भारतीय अर्थव्यवस्था जड़ थी, निश्चल थी, जो स्वयं को उससे आगे विकसित नहीं कर सकती थी। परन्तु वास्वविकता यह है कि "ब्रिटिश पूर्व की भारतीय अर्थव्यवस्था का विकास मध्यकालीन व्यवस्था से नवोदित औद्योगिक पूंजीवाद की ओर ही रहा था। ग्रामीण कारीगर ग्राम छोड़कर कारखानों में काम करने के लिए शहरों की ओर आने लगे थे, और उस नींव का निर्माण कर रहे थे जो औद्योगिक विकास तथा राष्ट्रीय आय को सतत ऊंचा उठाने में सक्षम हो। चिर–अतृप्त तथा लालची अंग्रेज व्यवसायियों के बीच में लपक पड़ने से विकासमान भारतीय व्यवस्था पर हिंसक प्रहार हुए, भारतीय आर्थिक क्रांति को बीच में रोक मध्यकाल की ओर मोड़ने का बलात् प्रयास किया गया। इस प्रकार भारतवर्ष को भुखमरी का स्थायी अड्डा बना देने का घिनौना षड्यन्त्र रचा गया।’’६३ 

     

    इस ‘उदीयमान औद्योगिक पूंजीवाद' के सन्दर्भ में कुछ उदाहरण दिए जा सकते हैं । एक फ्रांसीसी यात्री टैवरनियर ने गोलकुंडा के पास स्थित कोल्हर (दक्षिण भारत) हीरे की खान के बारे में कहा है कि " वहां लगभग ६०,००० लोग काम करते थें । " ६४ सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारत आये एक अन्य फ्रांसीसी यात्री बर्नियर ने भी मुगल राजधानी में चालू उन फैक्टरियों का वर्णन किया है जिनका प्रभाव देश भर में था । " अनेक स्थानों पर विशाल इमारतें दिखाई पड़ती थीं; जिन्हें 'कारखाने' या ' कारीगरों की कर्मशालाएं' कहा जाता था। एक कक्ष में कशीदाकार अपने उस्ताद की देखरेख में अपने काम में व्यस्त रहता, तो दूसरे में स्वर्णकार, तीसरे में रंगसाज, चौथे में वार्निश वाले, पांचवें में जोड़ने - मोड़ने वाले, दर्जी और मोची, छठे में सूती कपड़ा वाले, ज़री करने वाले; और सुन्दर मलमल बनाने वाले मिल जाते । सुनहले फूलों के साथ कमरबन्दें बनाई जातीं। स्त्रियों के लिए सुन्दर सलवारे बनाई जातीं । कढ़ाई का हर सामान तैयार होता । कारीगर हर सुबह अपने कारखानों को ठीक करते, दिन भर काम करके शाम को घर लौटते । १६५ 

     

    एक प्रख्यात भारतीय अर्थशास्त्री के विचारानुसार, "वे कारीगर जो या तो अपने लिए काम करते थे या बड़े या छोटे कारखानों में उस्ताद - कारीगरों या ठेकेदारों या साहूकारों के लिए काम करते थे; बहुत प्रकार की कलाओं और हस्त उद्योगों का उत्पादन करते थे जो वास्तव में आर्थिक और वित्तीय दृष्टिकोणों से तत्कालीन यूरोप से कहीं अधिक उन्नत थें । "६६ धनी साहूकारों के अतिरिक्त बड़े-बड़े धनी व्यवसायी, साहूकार, एजेंट, आढ़ती और छोटे-छोटे ठेकेदार तब भी मौजूद थे। मुगल बादशाह जहांगीर (१६०५ - २७ ) के बारे में पायरार्ड ने कहा है कि "उसके राज्य में काफी लोग अत्यन्त धनी और सुसंस्कृत थे ,६७।" "यूरोपवासी मांडेलस्लो  के अनुसार "दिल्ली में विदेशियों के लिए ८० सराये थीं, जिनमें बहुत शानदार आवासघर, गोदाम, तिजोरियां और घुड़सालें थीं । ६८ मानरीक़ (१६२९ - ४३) नामक एक अन्य यूरोपीयन का मत था कि, “पटना शहर में काफ़ी लोग (६००) दलाल और आढ़ती थे, जिनमें से बहुत सारे धनिक थे।”६९ आगरे के बारे में उसका कहना था कि, “व्यापारियों के घरों में सम्पदा इस कदर भरी पड़ी थी कि जैसे चने के ढेर लगे हों । ढाका में भी रुपयों के ऐसे ही ढेर लगे रहते थे । इसलिए गिनने के स्थान पर इन्हें तोलना ही अधिक सरल समझा जाता था । ७० 

     

    ये व्यापारी यूरोप सहित दूर-दूर के अनेक देशों के साथ व्यापार करते थे। उनकी हुडियां बिना किसी संकोच के लगभग सारे विश्वभर में स्वीकार की जाती थीं। ऐसे ही एक बैंकिग सूरत का हाउस–बंगाल के जगत-सेठ की तुलना बर्क ने 'बैंक आफ इंगलैंड' से की है।७१ एक बड़ा व्यापारी वीरजी वोहरा विश्व का सबसे बड़ा धनी माना जाता था। सूरत के सारे व्यापार पर, और मालाबार तक तटीय व्यापार के बड़े भाग पर उसका नियंत्रण था। साथ ही दूर-दूर के औद्योगिक केंन्द्रों, जैसे आगरा, बरहामपुर और गोलकुंडा में भी उसके अड्डे थे। फारस की खाड़ी के देशों, और पूर्वी द्वीपसमूहों के साथ उसका व्यापार चलता था। २ अब तक की चर्चा का संक्षेप निम्नलिखित उक्ति से हो जाता है : "भारत औद्योगिक उत्पादन और व्यापार के क्षेत्र में तत्कालीन यूरोप या एशिया के किसी भी राष्ट्र से कही अधिक आगे था । उसके कपड़ा - उद्योग से बने बढ़िया वस्त्रसूती, ऊनी, छालरी, रेशमी - सारे सभ्य विश्व में प्रसिद्ध थे। इसी तरह उसके उत्कृष्ट गहने और हर रूप में बने जवाहरातों की गढ़ाई का काम था । इसी प्रकार खाने-पीने के बर्तन, चीनी मिट्टी के बर्तन, और अनेक तरह की पत्थर - चूने की वस्तुएं, बढ़िया तो थीं ही, रंग और रूप में भी उत्कृष्ट थीं । यही बात धातु से बनी लोहा, इस्पात, चांदी व सोने की वस्तुओं के बारे में सत्य है । भारत में महान् अभियान्त्रिक प्रतिष्ठान थे । बड़े-बड़े साहूकार थे । न केवल भारत सबसे बड़ा पोतशिल्पी राष्ट्र था, उसके जल व स्थल मार्गों से दूर-दूर के सभ्य देशों से घने वाणिज्य व व्यापारिक सम्बन्ध भी थे। ऐसी थी भारत की लासानी तस्वीर, जब अंग्रेज ने भारत की धरती पर कदम रखा। ७३ 

     

    ऐसी स्थिति में जबकि भारत के पास आर्थिक उन्नति के लिए आवश्यक चारों ही तत्त्व - भूमि, श्रम, पूंजी व उद्यमी - प्रचुरता में उपलब्ध थे, भारत ही नहीं कोई भी देश अपने प्राकृतिक विकास-मार्ग पर चलकर सहज ही श्रेष्ठ आधुनिक औद्योगिक राष्ट्र बन सकता था । परन्तु ये थे वही अंग्रेज 'जिन्होंने भारत के इस स्वाभाविक औद्योगिक विकास को केवल रोका ही नहीं; बल्कि उसे पूर्ण रूपेण मध्यकालीन सामंतवाद के रक्तिम मुख में उल्टा धकेल दिया। 

     

    भारत के विशेष भागों का सर्वेक्षण 

     

    अंग्रेजों के साथ १७९९ में लड़ते हुए वीरगति प्राप्त करने वाला मैसूर का अन्तिम सुल्तान टीपू था। टीपू के प्रशासन के बारे में इतिहासविज्ञ भूर का यह कहना है: “यदि कोई व्यक्ति एक अनजाने देश में यात्रा करता हुआ उस देश को अच्छी प्रकार से संपन्न पाये, उद्यमियों से बसा पाये, नये-नये बने नगर पायें, विस्तृत व्यापार पायें, बढ़ते हुए कस्बे पाये, और सब कुछ फलाफूला पाये, जिससे समृद्धि प्रकट हो, वह व्यक्ति स्वभावतः निष्कर्ष निकालेगा कि वहां की सरकार लोकहितैषी है। ऐसी ही थी टीपू की सरकार। इस मान्यता के प्रमाण हैं कि टीपू की पूजा इतनी ही खुशहाल थी जितनी कि किसी राजा की हो सकती है।"७४ 

     

    ब्रिटिश गुप्त समिति के सामने मि० पीट्री ने १७८२ में दक्षिण भारत के एक राज्य तंजौर के बारे में यह गवाही दी । १७६९ में तंजौर राज्य को ब्रिटिश ने अपना मित्र माना, और १७७३ में उसे अंग्रेज़ों ने हड़प लिया। पीट्री कहता है, "इससे पहले कि मैं तंजौर राज्य की वर्तमान दशा का वर्णन करूं, मैं समिति को यह बताना आवश्यक समझता हूं कि कुछ ही वर्ष पूर्व यह राज्य हिन्दुस्तान में एक सर्वाधिक समृद्ध, सर्वोत्तम कृषि से युक्त, और सबसे सघन आबादी वाला प्रदेश माना जाता था। १७६८ में जब मैंने इसे पहले-पहल देखा, तब की स्थिति और आज की स्थिति में बहुत भारी अन्तर है । तंजौर स्वदेशी और विदेशी व्यापार का पहले बहुत बड़ा केन्द्र था। मलमल, छींट, रूमाल, धारीदार, सूती कपड़ा, कई प्रकार का लट्ठा और मोटा रंगीन कपड़ा तंजौर से निर्यात किया जाता था । डच और डेनिश लोग मोटे रंगीन कपड़े पर अच्छी लागत लगाते थे क्योंकि इस कपड़े की अफ्रीकी देशों, वेस्टइंडीज़, तथा दक्षिण अमेरिका में बेहद मांग थी। तंजौर से बढ़कर कुछ ही देशों को, प्राकृतिक वरदान प्राप्त है। तंजौर के पास बढ़िया व उपजाऊ भूमि है | कावेरी तथा कोलेरुन नदियों से घिरा होने के कारण जल की उपलब्धि अद्वितीय है। नदियों का पानी जलाशयों, नहरों और नालियों द्वारा राज्य भर के लगभग प्रत्येक खेत तक पहुंचाया जाता है, जो तंजौर की असाधारण पैदावार का एक बहुत बड़ा कारण है।... कुछ ही वर्ष पूर्व तक तंजौर ऐसा सम्पन्न था, परन्तु इसका पतन इतनी तीव्र गति से हुआ है कि आज अनेक ज़िलों में यदि इसकी पूर्व समृद्धि के अवशेष भी खोजे जाएं तो असफलता ही हाथ लगेगी । "७५ 

     

    दक्षिण तथा अन्य मराठा भू-भाग 

     

    सन् १७५८ में मराठा (या मरहटा जैसे कि कभी - कभी लिखा जाता है) प्रदेश का दौरा एक यूरोपीय ऐंकटिल डू० पैरों ने किया। वह लिखता है, 'हर्षोउल्लास व परिपूर्णता के वातावरण में अपने को पाकर लगता है कि मैं किसी स्वर्णिम युग में हूं। जहां अभी प्रकृति बदली नहीं है, लोग युद्ध और क्लेशों से मुक्त हैं; खुश मिजाज़, उत्साही तथा हृष्ट-पुष्ट हैं । असीम अतिथि- सत्कार उनका जन्मजात गुण है । मित्र हो, पड़ोसी हो या अनजान आदमी, सबके लिए उनके दरवाजे और सुख-साधन खुले रहते हैं । ७६ 

     

    सन् १८०३ ई० में सर जॉन मैलकम ने पेशवा द्वारा शासित मराठा- देश की यात्रा की, जिसकी अवस्था के बारे में वे लिखते हैं, "मराठों के दक्षिणी जिलों से बढ़कर हरा-भरा, भूमि की सब प्रकार की पैदावार से परिपूर्ण और व्यापार के कारण धनधान्य से सम्पन्न मैंने कभी भी कोई और देश अब तक नहीं देखा। पेशवाओं की राजधानी पूना बहुत सम्पन्न और फलती-फूलती व्यापारिक नगरी थी । एक पथरीली व अनुर्वर भूमि में जितनी अधिक से अधिक कृषि हो सकती है, उतनी इस भू-भाग में हो रही थी । ७७ 

     

    महाराष्ट्र का दूसरे बड़े भू-भाग मालवा के विषय में जो होल्कर के अधीन था। यही लेखक लिखता है—''मैंने मालवा को खंडहर जैसी स्थिति में देखा था, जिसका कारण तत्कालीन भारतीय छापामारों का कब्ज़ा था । ऐसे समय में भी मैं यह देखकर हैरान हो गया कि शहरों में धन का आदान-प्रदान, व्यापक मात्रा में लगातार चलता था । साहूकार बहुत संपन्न थे और राज्य से पर्याप्त मात्रा में माल का निर्यात होता था । बीमा कम्पनियों का व्यापार, जो देशभर में फैला था कभी भी बन्द नहीं हुआ। उनके शासन का ढंग उदार तो था ही, स्नेहपूर्ण भी था | मेरे विचार में उनकी इस समृद्धि का कारण है हिन्दुओं का कृषि सम्बन्धी ज्ञान और तत्परता, कस्बों और गांवों को समृद्धि की ओर ले जाने में उनका हमसे अधिक सूझ-बूझ भरा नित्य व्यवहार, धनी लोगों को प्रोत्साहन और पूंजी का कुशल उपयोग । परन्तु समृद्धि को प्रोत्साहन देने वाले कारणों में से सबसे बड़ा कारण है उनका ग्रामीण और अन्य स्थानीय संस्थानों का निरंतर पोषण और हर वर्ग के लोगों के लिए रोज़गार की व्यवस्था, जिसमें वे हमसे कहीं अधिक विकसित हैं । "७८ 

     

    ऐसी ही शानदार साक्षियां यूरोपीय यात्रियों ने अपनी आंखों से देखकर १७८९ में मराठा महासंघ के एक सदस्य बराड़ के अधिराज्य के बारे में लिखी । उनके कुछेक उद्धरण दिये जाते हैं । 'एक यूरोपीय पर्यटक का कहना था कि "यह प्रान्त पूर्णत: फल-फूल रहा था । इसकी नींव रखने वाले पुरातन राजाओं के प्रति हार्दिक बधाई अर्पित किये बिना मैं रह नहीं सकता । इस देश की उपजाऊ भूमि को ऐसा बनाने में असंख्य लोगों ने हल जोता होगा। आज भी ये लोग अपने घरों के सुन्दर रख-रखाव में कितने सावधान हैं। अपने अगणित मंदिरों की देखभाल तथा उनका संरक्षण तत्परता से करते हैं । तालाबों को साफ रखते हैं, और सार्वजनिक हित के कार्यों में सहयोग के साथ जुट कर परिश्रम करते हैं । निस्संदेह अपने शहरों के सुंदर रूप व हरियाली को बनाये रखने में इनका कोई मुकाबला नहीं कर सकता । " 

     

    बराड़ प्रान्त के बारे में ही एक अन्य यात्री कहता है: “फिर हमने एक ऐसे देश से होकर यात्रा की, जो वास्तव में बेहद सुन्दर था, पास की पर्वत - चोटियों से नदियां निकलती थीं, जिनके पानी से सिंचाई होती थी, यह जंगलों से एकदम मुक्त था, और बहुत सारे गांव बसे थे। वृक्षों की शोभायमान कतारों तथा पानी के सरोवरों की विविधता ने इसके सौंदर्य में चार चांद लगाए थे। मराठों का शासन इस क्षेत्र में पर्याप्त मजबूत था । रास्ते भर हमें अत्यन्त विनयी और सभ्य लोगों का आतिथ्य मिला, इस प्रान्त में प्रत्येक प्रकार का अन्न विपुल मात्रा में मिलता था । खाद्यान्नों की उत्पादन लागत भी बहुत सस्ती थी । ७९ 

     

    बंगाल 

    सन् १७५७ अंग्रेजों द्वारा बंगाल की जीत के पहले उसी साल में लॉर्ड मैकाले ने लिखा था, "मुगलिया राज्य के अधीन सभी प्रान्तों में से बंगाल सबसे धनी था । कृषि और वाणिज्य के लिए इतनी प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक संसाधन भारत के किसी भी प्रान्त के पास न थे । मुस्लिम तानाशाहों तथा मराठा छापामारों के बावजूद भी सारे पूर्व में बंगाल को 'नंदन वन' कहते थे। तीव्र गति से इसकी जनसंख्या बढ़ी, इसके अन्नागार से दूर-दूर के प्रान्तों का भी भरण-पोषण होता था । लन्दन और पेरिस की सम्भ्रान्त महिलाएं यहीं के हथकरघा उद्योगों से बने शानदार वस्त्रों को पहनती थीं ।"८० 

     

    असीम सम्पन्नता से परिपूर्ण बंगाल को विपन्न व दीन हीन बनाने के जिम्मेदार लोगों में से एक लॉर्ड क्लाइव था । १७५७ में ही क्लाइव ने मुर्शिदाबाद की यात्रा की। तभी प्लासी के युद्ध के बाद बंगाल में लूटमार और डकैती शुरू हुई। क्लाइव का अनुमान था कि बंगाल की यह पुरानी राजधानी जन-धन व क्षेत्रफल में उसके समय के लंदन के बराबर थी । इसके राजमहल यूरोप से कहीं भव्य थे, और लोगों की आर्थिक स्थिति भी लंदन की अपेक्षा अच्छी थी।' क्लाइव का कहना था कि, "भारत धन का अक्षम भण्डार है, जो यहां राज करेगा उसे यह देश दुनिया के सर्वश्रेष्ठ धनवानों की कोटि में लाकर रख देगा । ८२ आगे क्लाइव कहता है कि " बंगाल की समृद्ध धरा को 'भू-स्वर्ग' कहकर पुकारा जाता रहा है। अपनी जन-आवश्यकताओं की पूर्ति के अलावा यह प्रान्त देश के एक बहुत बड़े हिस्से की आवश्यकताओं की पूर्ति भी करता था। यहां के बने बहुमूल्य पदार्थों का प्रयोग केवल अपने लिए ही नहीं सारे विश्व के लिए पर्याप्त था । " ८३ 

     

    हालवेल लम्बे समय तक इस देश में रहा था । अपने विषय का वह पंडित था । बंगाल में देशी शासकों के राज्यकाल के बारे में वह कहता है, "इतने सुखी जन-जीवन का मर्दन करना भयंकर क्रूरता होगी। यहां के लोगों को न अपनी सम्पत्ति के छिन जाने का भय है और न ही उनकी मुक्तावस्था को कोई छीन सकता है। यहां डकैती का नाम तक नहीं सुना जाता । प्रशासन में बुद्धिमत्तापूर्ण, सर्वमान्य एवं माननीय नीतियां बरती जाती हैं, धनी प्रान्त ढाका का चप्पा-चप्पा उपजाऊ था। इस तरह बंगाल वासियों की ज़रूरतों, सुख-सुविधा की वस्तुओं, और शान-शौकत की सामग्री की पूर्ति होती थी । बिना किसी पक्षपात के सभी लोगों को समान न्याय दिया जाता था । "८४ 

     

    लार्ड क्लाइव की ही परिषद का एक सदस्य ल्यूक स्क्राफ्ट १७७० में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'रिफ्लैक्शन्स ऑफ दी गवर्नमेंट ऑफ हिन्दोस्तान' में लिखता है - " भारतवर्ष की न्याय-व्यवस्था इतनी विवेकपूर्ण थी कि दमन या शोषण के लिए कहीं से भी रास्ता नहीं बचता था। १७३९ में नादिरशाह के आक्रमण तक यह व्यवस्था चलती रही । तब तक विश्व भर में शायद ही कहीं ऐसी व्यवस्था रही हो। इसी की छत्रछाया में उद्योग, कृषि और व्यापार फले और फूले । दमन या उत्पीड़न से भयभीत सिर्फ वे थे जो अपने धन अथवा शक्ति के मद में जनता के लिए स्वयं खतरनाक थे। इन बहुत थोड़े वर्षों से पहले तक व्यापारी, कहीं भी इससे अधिक सुरक्षित नहीं थे और न ही इतने आराम से रहते थे, जितने कि इस शासन में । विश्व के किसी भी अन्य भाग में कला-कौशल और कृषि का इतना विकास नहीं हुआ, जिसका प्रमाण हैं अत्यधिक मात्रा में विविध प्रकार के उत्पादन और विशाल संख्या में धनी व्यापारी । १८५ 

     

    १७७२ में एक अन्य तत्कालीन लेखक विलियम बोलट्स लिखता है, "भारत के अनेक स्थानों पर व्यापार के लिए प्रकृति प्रदत्त संसाधन उपलब्ध हैं । परन्तु बंगाल प्रान्त में जो इस समय हमारे लेख का विषय है, इनकी सबसे अधिक प्रचुरता है। साम्राज्य का यह सूबा जिसे बादशाह औरंगज़ेब आग्रहपूर्वक 'राष्ट्रों का स्वर्ग' पुकारता था, सहज ही मानव जाति को न केवल स्थिरता अपितु उसके सुखमय जीवन के लिए लगभग प्रत्येक वस्तु विपुल मात्रा में उत्पन्न करता था ।”८६ तदुपरांत बोलट्स ने बंगाल की परवर्ती दयनीय दशा और गरीबी के कारणों का वर्णन किया है। 

     

    उत्तर - पश्चिमी प्रान्त (वर्तमान उत्तर प्रदेश) 

     

    १८०८ में, ब्रिटिश आयोगों द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट में उत्तर-पश्चिमी प्रान्तों के बारे में कहा गया है कि, "रामपुर क्षेत्र में गुज़रते हुए हम इसकी कृषि की उन्नत अवस्था का उल्लेख किए बिना नहीं रह सकते ।" यदि इस प्रदेश की हमारी सरकार तथा पूर्ववर्ती रुहेला सरकार की तुलना करें तो यह सोचते हुए कष्ट होता है कि रुहेलों का स्तर कहीं अधिक ऊंचा था।”८७ 

     

    अवध के नवाब की भूमि को हड़पने के उद्देश्य से भारत की ब्रिटिश सरकार ने उसके खिलाफ अनेक वर्षों तक सब प्रकार निराधार प्रचार किया था, जिसे अन्तत: १८५६ में अंग्रेज़ों ने हड़प कर ही छोड़ा। १८२३ - २४ में यात्रा पर आए बिशप हैबर ने यह विचार व्यक्त किए : " अवध के बारे में इतना कुछ सुनने के बाद "मुझे यह देखकर प्रसन्नता, और हैरानी भी हुई कि यहां पूरी पत्परता से खेतीबाड़ी की जाती थी । यदि इतने अत्याचार किए गए होते, जितने कि कहे जाते हैं तब मेरे विचार में इतनी जनसंख्या और इतनी विशाल संख्या में उद्योग धन्धे न होते, जितने हम यहां देखते हैं ।"८८ 

     

    ब्रिटिश सरकार द्वारा अवध को हड़प लेने के बाद इस 'सारे भारत में एक अत्यधिक उपजाऊ और एक अत्यधिक उन्नत प्रान्त' का क्या हुआ ? - इस विषय में ए० जे० विल्सन कहते हैं: “१८५७ की बगावत के कुछ ही समय पूर्व यह प्रांत हमारा हुआ। मात्र लगभग बीस वर्षों में हमने इसे एक गरीब व जर्जर प्रदेश में परिणत कर दिया । जनता सूदखोरों (हमारे ही पाले-पोसे पिशाचों) के पाश में जकड़ी गई, तालुकेदार शक्तिहीन हो गए, और भू-स्वामी तो बुरी तरह से उजड़ गए । "८९ 

     

    देशी राजाओं के अधीन भरतपुर के देशी राज्य की सम्पन्न स्थिति के बारे में विशप हैबर का कथन है: ‘‘‘“ हालांकि यहां की भूमि रेतीली है और केवल कुओं द्वारा ही सिंचाई होती है, फिर भी यह प्रदेश उन सबमें से एक सर्वोत्तम खेती और सिंचाई वाला है जो भारत मे मैंने देखे है । सम्पन्नता का इससे पक्का सबूत क्या हो सकता है । कि मैंने अनेक चीनी के कारखाने और बहुत बड़े-बड़े खेत देखे, जिनमें गन्ने थोड़े समय पूर्व ही काटे गए थे। जनसंख्या अधिक प्रतीत नहीं हुई, परन्तु फिर भी जो थोड़े बहुत गांव हमने देखे उनकी स्थिति अच्छी और सुधरी हुई थी। कुल मिलाकर उद्योग धन्धों की एक शानदार तस्वीर बनती थी और ये सब कुछ उससे कहीं बहुत श्रेष्ठ था, जो मुझे राजपूताना के बारे में बतलाया गया था या रुहेलखण्ड के दक्षिणी भागों छोड़ने के बाद जो मैंने कम्पनी के प्रदेश में देखा । ९० 

     

    एक अन्य राज्य सतारा के शासक के महान चरित्र और राज्य की धनाढ्यता का प्रमाण तो स्वयं ब्रिटिश सरकार द्वारा महाराजा को लिखे १८४३ के एक पत्र द्वारा ही मिलता है । इस राज्य को भी केवल पांच साल के बाद ही अंग्रेजों ने अवैधानिक रूप से छीन लिया था । अंग्रेजों ने लिखा : "ये नीतियां जो आप बुद्धिमत्तापूर्वक बराबर लागू करते आ रहे हैं, आपके महान पद की शोभा के अनुकूल हैं और आपके राज्य की खुशहाली को बढ़ाने में बहुत उचित हैं। ये आपके महान चरित्र की द्योतक हैं जिससे हमें बहुत संतोष और प्रसन्नता होती है । अपने खर्चे पर अनेक महत्वपूर्ण सार्वजनिक हित के कार्यों का लागू करने की आपकी क्षमता से भी आपका प्रताप भारतीय जनता और शासकों की नज़रों में बढ़ गया है जो आपके लिए हमारे अनुमोदन, सम्मान और प्रसन्नता का एक और कारण है।९१ 

     

    यह बताने की आवश्यकता नहीं कि ग़रीबी तथा अमीरी तुलनात्मक शब्द हैं। ब्रिटिश पूर्व का भारत विश्व के किसी भी तत्कालीन देश या यूरोप से कहीं अधिक धनी था । यह भी सत्य है कि भारत भी (सभी और अन्य देशों की तरह) सम्पत्तिगत विषमता काफी थी, यद्यपि शायद वह यूरोपीय देशों से कम थी । वास्तव में सम्पत्तिगत समता की धारणा तो बीसवीं सदी की उपज है। भारतवर्ष के प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहरलाल नेहरू का कथन बड़ा सटीक लगता है कि : " यूरोपीय जनता की सामान्य स्थिति एकदम पिछड़ी और दयनीय थी और तत्कालीन भारत की अवस्था की तुलना में बहुत गिरी हुई थी । ९२

     


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