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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 10 अंग्रेजी शासन के आर्थिक परिणाम

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    Vidyasagar.Guru

    भारत की बढ़ती निर्धनता 

     

    अंग्रेज़ों द्वारा लगभग २०० वर्षों से निरन्तर पालन की गई अनर्थकारी नीतियों का स्वाभाविक परिणाम लोगों की अत्यधिक निर्धनता था । ज्यों-ज्यों अंग्रेज़ी शासन प्रगति करता गया, यह निर्धनता और भी बढ़ती गई। भारत के विविध भागों में निर्धनता की गहनता और अंग्रेज़ी शासन की अवधि में एक निश्चित सम्बन्ध है; जितना लम्बा शासन, उतनी गहनतर ग़रीबी । 

     

    अंग्रेज़ी राज्य के १२५ वर्ष बाद, अपने १८८२ के बजट भाषण में भारत के वित्त मंत्री मेज़र (सर) ई० बेरिंग ने अंग्रेज़ी भारत के 'जन-समूह की अत्यधिक निर्धनता' के अपने दावे. के प्रमाण में न केवल 'यूरोप के पश्चिमी देशों' के साथ अपितु 'यूरोप के निर्धनतम देश' के साथ उसकी तुलना की। यह कहने के उपरान्त कि भारत की आय प्रति व्यक्ति २७ रुपए (उस समय दो पौंड के बराबर) से अधिक नहीं है, उसने कहा : " इंग्लैंड की प्रति व्यक्ति औसत आय ३३ पौंड है; फ्रांस की २३; यूरोप के निर्धनतम देश तुर्की की ४ पौंड है। '३९४अ यह भारत की प्रति व्यक्ति वार्षिक आय का अनुमान था; यद्यपि भारत के 'महान वयोवृद्ध' पुरुष सरकारी आंकड़ों के आधार पर इसको २० रुपए निश्चित किया जो "किसी भी व्यक्ति द्वारा अभी तक गलत या शोधनीय सिद्ध नहीं किया गया । ३९५ बेरिंग भी कहता था : " इस प्रकार की गणना के बिलकुल सही होने का दावा करने को मैं तैयार नहीं ।" इसमें कि प्रति व्यक्ति आय २७ रुपए थी अथवा २० रुपए, कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ता; क्योंकि २७ रुपए की आय भी 'जनसमूह की विश्व में अधिकतम निर्धनता' को दर्शाने के लिए पर्याप्त थी । इस आय में धनी, निर्धन सरकारी और गैर-सरकारी सब लोगों की आय शामिल थी। 

     

    एक उच्चतम अंग्रेज़ पदाधिकारी के अनुसार भारत की प्रति व्यक्ति आय का मध्यमान 'यूरोप के रोगी पुरुष' बेहतरीन शासित, निर्धनतम देश की आय की आधी से भी कम थी ऐसा भारत जिसको संसार में सर्वाधिक वेतन पाने वालों द्वारा शासित किया जाता था । अन्य सरकारी रिपोर्टों ने भी इसकी पुष्टि की। 

     

    ए० जे० विलसन ने १८८२ में 'फ्रेज़र्स' पत्रिका में लिखा : " भिन्न-भिन्न जिलों की स्थिति के विषय में (सरकारी रिपोर्टों में निर्धनता की गाथाए) हृदय - विदारक हैं। बहुतों में तो हमारे द्वारा कल्पनीय किसी भी दृष्टि से निर्धनता नहीं है, बल्कि जीवित मृत्यु है । ३९६ 

     

    एच० एम० हण्डमैन ने, १८८६ में लिखा कि "भारतीय निर्धन से निर्धन होते जा रहे हैं;   कर न केवल वास्तव में बल्कि अपेक्षाकृत बहुत भारी हैं; अन्न की कमी निर्धनता के क्षेत्र को बढ़ाती है और और अकाल अधिक और बारम्बार आते हैं; लगभग सारा व्यापार लोगों की गरीबी और कमरतोड़ करों का सूचक है; और एक सुसंगठित विदेशी शासन स्वयं में ही देश पर अत्यधिक भयानक परिशोषण है। ३९७ हिन्डमैन हमें अंग्रेजी साम्राज्यवाद के परिणाम के बारे में बतलाता है : "सत्य यह है कि सारा का सारा भारतीय समाज हमारे शासन में भयंकर रूप से निर्धन हो गया है और यह प्रक्रिया अब दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। " ३१९ 

     

    "हमारे देखते-देखते, भारत दुर्बल से दुर्बलतर होता जा रहा है। हमारे शासन विशाल जनसंख्या की प्राणशक्ति का धीरे-धीरे, परन्तु तेज़ गति के साथ ह्रास हो रहा है । ३९९ 

     

    १८८८ में भारत के वायसराय ने भारतीयों की आर्थिक स्थिति के बारे में एक गोपनीय जांच की। सरकार के विभिन्न जिला पदाधिकारियों ने रिपोर्ट भेजी। फिर भी ऐसी जांच के परिणामों को सार्वजनिक नहीं किया गया। ब्रिटिश संसद का सदस्य होने के कारण, विलियम डिग्बी इसके कुछ निष्कर्षो को देख सका। समस्त पदाधिकारी एक बात पर सहमत थे : देश का जनसमूह नितांत निर्धन था। विस्तार के लिए पाठक डिग्बी की प्रशंसनीय पुस्तक 'वैभवशाली ब्रिटिश भारत' को देख सकते हैं। डिग्बी ने लिखा: “भारत की आज (१९०१ ) की स्थिति उस अवस्था की अपेक्षा भयंकर रूप से बहुत ख़राब है, जो बंगाल की खाड़ी को उद्वेलित करती तथा हिन्दुस्तान के उत्तर-पूर्वी तट की ऊंची पहाड़ियों से टकराती १८०१ की पहली भोर के समय थी । " 

     

    "किसी भी ओर दृष्टि दौड़ाएं, जन-समूह की भौतिक समृद्धि के प्रश्न का उत्तर प्राचीन काल की अपेक्षा बहुत की प्रतिकूल होगा । अब समृद्धि नहीं है, परन्तु एक समय समृद्धि थी। उन सारी भौतिक विशेषताओं में जो किसी भी देश को समृद्धिशाली बनाती हैं, ९ जनवरी, १९०१ का भारत १ जनवरी १८०१ के भारत से इतने कोसों पीछे है, जिसकी गणना करना भी कम से कम मैं अनावश्यक समझता हूं । ४०० 

     

    स्वर्ग के लाडले आई० सी० एस० के एक सेवानिवृत्त सदस्य डब्ल्यू० एस० लिली ने १९०२ में करोड़ों किसानों के बारे में लिखा : "उनका अस्तित्व भूख के साथ एक सतत युद्ध है, जिसमें प्राय: उनकी हार होती है। उनके सामने मानुषिक जीवन, अपनी निर्धनता के निम्नस्तर तक भी जीने का प्रश्न नहीं है, परन्तु किसी भी प्रकार जीवित रहने का, और न मरने का प्रश्न है । ४०१ 

     

    उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम चतुर्थाश में सर चार्ल्स एलियट ने कहा : "मुझे ऐसा कहने में कोई संकोच नहीं है कि आधी खेतिहर जनसंख्या को सालोसाल कभी इतना भी पता नहीं लगता कि 'भरपेट भोजन' का अर्थ क्या है । ४०२ 

     

    एक और अन्य सेवानिवृत्त आई० सी० एल० पदाधिकारी ने १९०३ में लिखा : "भारतीय जनसंख्या का दो-तिहाई भाग, लगभग २० करोड़ लोग, सदा से भूखे कृषक और मजदूर हैं । ४०३ 

     

    जे० कीयर हार्डी ने १९०९ में 'असली चूहा - प्लेग' - भारतीय सरकार के बारे में लिखा कि सरकार “का लोगों के प्रति प्रत्येक व्यवहार निष्ठुर और कठोर है ... भारत के लोग तो केवल कोल्हू के पाटों के बीच दबे उन बीजों के समान हैं जिनको तेल निकालने के लिए 

    पीस दिया जाता है । ४०४ 

     

    "भारत में असली चूहा - प्लेग तो ग़रीबी है और सरकार वह पिस्सू है जो रोग को फैलाती है । ४०५ 

     

    जे० रैमज़े मैक्डानल्ड, जो १९२० के दशक में ब्रिटेन का प्रधानमंत्री था और १९०९ में जब उसने यह लिखा तब ब्रिटिश संसद का सदस्य था : "सर विलियम हंटर ने कहा कि चार करोड़ भारतीयों के जीवनपर्यन्त अपर्याप्त भोजन मिलता है; सर चार्ल्स एलियट के अनुमानानुसार आधी कृषि जनसंख्या को सालोसाल भरपेट भोजन नहीं मिलता। भारत में ३ करोड़ से ५ करोड़ परिवार ३1⁄2 पैन्स प्रतिदिन से कम आय पर रहते हैं ... भारत की निर्धनता कोई 'मत' नहीं है, यह एक 'तथ्य है । ४०६ 

     

    एक ब्रिटिश साम्राज्यवादी अर्थशास्त्री, वीरा ऐनसटी तक ने भी १९२९ में जो "सारे संसार में अपने लोगों की निर्धनता के लिए एक कहावत बन गया है" उस भारत के बारे में लिखा : 

    "भारत में एक मस्तमौला यात्री भी देश की महान् भौतिक क्षमता और उसके अधिकांश लोगों की अत्यल्प आर्थिक उपलब्धियों के बीच की खाई को देख कर चकित हुए बिना नहीं रह सकता।”४०७ 

     

    "जब अंग्रेज़ों के पूर्वज नितान्त असभ्य जीवन बिता रहे थे उस समय जो देश सर्वोत्तम मलमल और अन्य राजसी वस्त्र तथा वस्तुएं उत्पादित एवं निर्यात करता था, वह देश उन्हीं जंगली और गंवारों के वंशजों द्वारा प्रारम्भ की गई आर्थिक क्रांति में भाग लेने में असमर्थ हो गया है । '४०८ 

     

    स्पष्टतया, भारत का अंग्रेज़ी राज भारत की "उस अगाध निर्धनता का कारण था जो इतनी गहन थी कि जिसकी थाह लेने के लिए प्रयत्न करना व्यर्थ है । ४०९ एक प्रतिष्ठित अमरीकी इतिहासकार, विचारक और लेखक ने १९३० में लिखा : "मैं अंग्रेज़ों की प्रशंसा करते हुए भारत आया... मैं इस अनुभूति से भारत छोड़ रहा हूं कि इसकी भयंकर निर्धनता इसकी विदेश सरकार के विरुद्ध अखंड अभियोग है। अब तक इसको अंग्रेजों का राज्य बनाये रखने के लिए एक बहाना मात्र बनाया गया है, परन्तु यह इस बात का अति प्रबल प्रमाण है कि भारत पर अंग्रेज़ों का स्वामित्व एक महान् अनर्थ और अपराध है... अब तक चल रही वर्तमान लूट-खसोट मानवीय सहनशक्ति से परे है; यह वर्ष - प्रतिवर्ष इतिहास के एक महानतम और सज्जनतम मानव-समाज को नष्ट कर रही है।" 

     

    "भयंकर बात तो यह है कि यह निर्धनता आरंभ नहीं, अन्त है; यह कम होने के स्थान पर भीषणतर होती जा रही है । इंग्लैंड 'भारत के स्वराज के लिए तैयार' नहीं कर रहा है, वह तो खून चूसकर उसको मृत्यु के घाट उतार रहा है।९० 

     

    बेल्ज़फ़ोर्ड ने १९४३ में लिखा कि "हमारे शासन में इस प्रायद्वीप में मानवी जीवन का मूल्य कल्पना के निम्नतम स्तर तक पहुंच गया है।"

     

    जौन येल, जिसके पूर्वज के नाम पर अमेरिका में येल विश्वविद्यालय स्थापित हुआ, क्योंकि उसने भारत में बेईमानी से केवल २० वर्षों में बनाई अपनी विशाल सम्पत्ति में से (लेखक ने इसको १९६१ में ५० लाख डालर माना) एक वसीयत विश्वविद्यालय के नाम कर दी थी। वह भारत की निर्धनता का कारण बतलाता है : "यह प्रायः कहा जाता है कि यूरोपीय देश ‘पिछड़े लोगों की सामाजिक सेवा' के लिए पूर्व में गए और भारत की वर्तमान आर्थिक दुर्गति का कारण उसकी मज़हब में दृढ़ रुचि है। यूरोपीय पूर्व में इसलिए गए कि वहां पर बहुत विशाल सम्पत्ति थी और उसमें से कुछ को हथियाने के अच्छे अवसर थे। और, भारत की वर्तमान निर्धनता का मूल कारण यह है कि वे इसको हथियाने और उस लूट को अपने साथ काफ़ी मात्रा में विदेश लाने में बहुत अधिक सफल रहे । ९२ 

     

    अंग्रेज़ी राज के मानसिक परिणाम भी बड़े गहन अनर्थकारी हुए । भारतीय जन-समूह के चरित्र की विशेषताएं बन गई : सेना का डर, पुलिस का डर, प्रत्येक सरकारी नोकर का डर चाहे वह नौकरशाही में कितने ही छोटे स्तर पर हो, और प्रत्येक गोरे का डर। न कोई साहसी काम करने का उत्साह और न कोई अपने भाग्य को सुधारने की इच्छा बाकी रही। ये सब चिरकालिक और निर्धनता के स्वाभाविक परिणाम थे; ४९३ न कि हिन्दू दर्शन और धर्म के, जैसा कि भूख लगभग समस्त पश्चिमी लेखक चाहते हैं कि हम विश्वास कर लें। 

     

    उपसंहार 

    जब अंग्रेज़ी राज आरम्भ हुआ, तब भारत सबसे धनी देश था और समस्त संसार में अनन्त समय से वह ‘धनाढ्यता को उपमान' समझा जाता था, उसके उद्योगों द्वारा निर्मित विभिन्न प्रकार की वस्तुओं को संसार की चारों दिशाओं में भेजा जाता था, जिसके बदले में सारा संसार कम से कम तीन हज़ार वर्षों से निरन्तर अपना सोना-चांदी भारत में भेजता रहा था; और उसके हरे-भरे खेत और समृद्ध कृषि केवल उसके अपने बच्चों को ही नहीं, परन्तु समस्त एशिया को पुष्टिकर खाद्यान्न की आपूर्ति करती थी। जब अंग्रेज़ी राज समाप्त हुआ, तब भारत सारे संसार में अपनी जनता की निर्धनता के लिए एक कहावत बना हुआ था; लगभग सारी तैयार वस्तुएं भारत में विदेशों से आती थीं, जिसके बदले में भारत को अपना सोना-चांदी एवं अपने लहू और हड्डियों से सिंचित कच्चे माल को विदेश भेजना पड़ता था; एवं उसकी विस्तृत समतल भूमि अपने बच्चों तक का पेट नहीं पाल पाती थी। 

     

    अंग्रेज़ों के लिए, भारत "कुल हिसाब लगाकर साम्राज्य के समस्त अधीन क्षेत्रों में सर्वाधिक लाभदायक था । ४९४ और " धन कमाने के लिए एक उपयुक्त क्षेत्र - एक मानवी पशुपालन फार्म था । ४९५ भारतीयों के लिए, महात्मा गांधी के शब्दों में, अंग्रेज़ी शासन 'शैतानी शासन और एक अभिशाप था। भारत ने अंग्रेजी राज्य के विषय में अपना निर्णय दिया जब उसने यह घोषित किया कि इसने "न केवल भारतीयों की स्वतन्त्रता छीन ली है, बल्कि यह जनसमूह के परिशोषण पर आधारित है, और उसने भारत का आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक दृष्टियों से विनाश कर दिया है। आश्चर्य तो यह है कि साम्राज्यवादियों का वरिष्ठ, विन्सटन चर्चिल, भी भारत से सहमति प्रकट करता प्रतीत होता है जब उसने यह कहा कि "भारत में हमारा शासन गलत है और भारत के लिए, सदा गलत रहा है। १८ अंग्रेज़ों द्वारा भारत में लाए इन 'चौहरे विनाशों' में से केवल आर्थिक विनाश का ही विवेचन यहां किया गया है, जो सारा करीब-करीब विदेशियों की लेखनियों के माध्यम से है और जिसमें से अधिकांश स्वयं अंग्रेज़ हैं। 

     

    गरीबी केवल एक तीन अक्षरों वाला शब्द नहीं है; किन्तु यह तो एक ऐसा दानवी है जिसके पंजे इतने तीक्ष्ण हैं कि जो मानव के अस्तित्व तक को भी नष्ट कर देते हैं। इसको "विशालतम पाप एवं निकृष्टतम अपराध ४१९ और "मुंह बाये निष्ठुर नरक जो सभ्य समाज को लील लेता है, ४२० कहा गया है। इसलिए यह कदापि आश्चर्यजनक नहीं कि टामस पेन ने ब्रिटेन को " सारी पृथ्वी पर भगवान के प्रति सबसे भयंकर और कृतघ्न अपराधी " कहा है। जिसने "पूरे के पूरे देशों की अंतड़ियों को, उनका सब कुछ छीनने के लिए, चीर डाला है। "८२१ पेन ने यह उस समय लिखा जबकि भारत में अंग्रेज़ी राज ने अपने पंजे दिखाने अभी-अभी शुरू ही किये थे । यदि उसने अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद की पूरी शक्ति (जो बर्बर डकैती के लिए एक परिष्कृत पर्याय है ) देखी होती तो वह डॉक्टर रदरफोर्ड के साथ अवश्य सहमत होता जब उसने "अंग्रेज़ी राज को, जिस प्रकार से वह भारत में चलाया जाता है" विश्व भर में महानीच और सबसे अनाचारी राज्य - एक राष्ट्र के दूसरे राष्ट्र द्वारा परिशोषण पर आधारित ४२२ बताया। पेन, हौबिट के साथ भी सहमत होता, जब उसने सारे उपनिवेशों में गोरों की नीतियों को "सारे संसार में न कभी देखे, न कभी सुने गए ऐसे भीषणतम, व्यापक और अकल्पनीय अपराध” कहा । ४२३ 

     

    इन पन्नों में बताई गयी दर्दनाक गाथा "हमारी पश्चिमी सभ्यता की महिमाओं और विशेषताओं के एक धक्का " है । यह सम्पत्ति के लिए, 'निम्न जातियों' के अधिकारों अथवा भलाइयों का तनिक भी विचार न करते हुए, बेरहम लड़ाई की एक गाथा है । ४२४ इन पत्रों को पढ़ने के बाद, पाइक उस अंग्रेज़ से सहमत होंगे जिसने कहा कि " पूर्व में इंग्लैंड वह इंग्लैंड नहीं है जिसे हम जानते हैं । ४२५ कुख्यात साम्राज्यवादी, रड्यार्ड किपलिंग, की मां से भी पाठक सहमत होंगे जब उसने कहा कि "उनको इंग्लैंड का क्या ज्ञान है, जिन्हें केवल इंग्लैंड का ही ज्ञान है । ४२६ 

     

    किन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि भारत ने अंग्रेज़ों से या पश्चिमी सभ्यता से, अथवा उन्होंने भारत से, कुछ भी नहीं सीखा। यह स्वाभाविक है कि जब दो सभ्यताओं का परस्पर सम्बन्ध होता है तब वे सदैव एक-दूसरे से सीखते और प्रभावित होते हैं, चाहे वे एक दूसरे के शत्रु ही क्यों न हों । ४२७ परन्तु मुख्य बात तो यह है कि "उसका बहुत कुछ जो सकारात्मक था 

     


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