Jump to content
नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • विद्यालय सामाजिक चेतना के केन्द्र 

       (0 reviews)

    Vidyasagar.Guru

    सामाजिक चेतना का अर्थ 

    सामाजिक चेतना का अर्थ व्यक्ति में समाज के प्रति आत्मीयता एवं एकात्मता का भाव है । इस भाव के साथ ही समाज के हित का तथा समाज के प्रति ममत्व का विचार आता है और उसकी स्वाभाविक परिणति समाज की भलाई के रक्षण और बुराई के निवारण में होती है। समाज के साथ आत्मीयता और एकात्मता में जीवन की पूर्णता अनुभव करना सामाजिक चेतना का द्योतक है। इसी को श्रीअरविन्द ने 'राष्ट्र के प्रति पूर्ण समर्पण' और श्री गुरुजी गोलवलकर ने 'राष्ट्रपुरुष के प्रति श्रद्धा' कहा है। इस सामाजिक चेतना का जागरण शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है। 

     

     

    समाजीकरण प्रक्रिया का मूलाधार परिवार 

    मनुष्य का अहं का स्वार्थबोध प्रकृतिजन्य है। उसमें स्वयं की आवश्यकताओं, अपेक्षाओं और महत्त्वाकांक्षाओं का बोध मूलभूत है। किन्तु सामाजिक चेतना जन्मतः नहीं होती। सामाजिकता उसमें पर्यावरण से प्राप्त संस्कारों द्वारा विकसित होती है। सामाजिक चेतना सामाजिक प्रक्रिया से निर्माण होती है। इस समाजीकरण प्रक्रिया का मूलाधार परिवार है। परिवार में ही बालक के व्यक्तित्व की नींव रखी जाती है। बालक का "स्व" परिवार की परिधि तक विस्तृत होता है । वह परिवार में सदस्यों के साथ प्रेम, सहानुभूति, सहयोग आदि गुणों का विकास करता है। इस प्रकार उसके अहं बोध का विकास सामाजिक बोध में परिणित होने का प्रारम्भ परिवार में होता है। योग्य वातावरण के अभाव में अनेक बार यह सामाजिक चेतना परिवार की परिधि तक सीमित रह जाती है। विद्यालय में समाजीकरण की प्रक्रिया सोद्देश्य चलती है। विद्यालय में इस सीमित सामाजिक चेतना का विस्तार होता है। 

     

    विद्यालय समाज निर्माण के पवित्र स्थल 

    विद्यालय शिक्षा के केन्द्र होते हैं। शिक्षा के द्वारा व्यक्ति के जीवन का निर्माण होता है। शिक्षा ज्ञान का प्रकाश है। शिक्षा व्यक्ति की बुद्धि को प्रकाशित करती है । समाज व्यक्तियों से बनता है। अतः शिक्षा के द्वारा समाज का निर्माण होता है। शिक्षा के प्रकाश से ही समाज को जीवन मिलता है। इस प्रकार विद्यालय समाज निर्माण के पवित्र स्थल हैं। विद्यालय को सूर्य की उपमा दी जाती है। जिससे प्रकाशित होकर समाज को चेतना प्राप्त होती है। वास्तव में विद्यालय सामाजिक चेतना के केन्द्र हैं। 

     

    अन्तर्निहित शक्तियों का विकास समाज हित के लिये 

    शिक्षा के माध्यम से बालक की अन्तर्निहित शक्तियों का विकास होता है। ये विकसित शक्तियाँ अपने समाज के हित संरक्षण एवं बुराई के निवारण के उपयोग के लिये हैं। छात्रों में जीवन की यह दृष्टि प्रारम्भ से ही संस्कार रूप में विकसित करना शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है । इस संस्कार के अभाव में शिक्षा के द्वारा विकसित शारीरिक एवं मानसिक शक्तियाँ दुराचार एवं छल-कपट के रूप में समाज में स्वार्थ सिद्धि के उपयोग में लाई जाती हैं। आज अपने देश में डकैती, बलात्कार, ठगी एवं चोरी आदि की घटनाओं में प्रायः शिक्षित एवं सम्पन्न घरों के युवक ही संलग्न पाये जाते हैं। यह आज की कुशिक्षा का ही परिणाम है। स्वार्थ के विसर्जन में ही नैतिकता एवं सामाजिक हित की भावना के बीज अंकुरित होते हैं। यदि स्वार्थ के विसर्जन के संस्कार एवं सामाजिक चेतना का जागरण छात्रों में विद्यालय के संस्कारक्षम वातावरण में प्रारम्भ से ही हो तो उनकी वही शक्तियाँ समाज में भलाई के रक्षण एवं बुराई के निवारण में काम आ सकती हैं।

     

    विभिन्न विषयों का ज्ञान समाज की समस्याओं के समाधान हेतु 

    शिक्षा द्वारा छात्रों को विभिन्न विषयों का ज्ञान कराया जाता है। छात्र विद्यालय में इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, विज्ञान आदि विषयों का अध्ययन करते हैं। इन विभिन्न विषयों का केवल ज्ञान प्राप्त करना स्वयं में कोई उद्देश्य नहीं है। इन विषयों का ज्ञान देश की समस्याओं के समाधान के सन्दर्भ में होना चाहिये । छात्रों में यह चेतना जागृत करने की आवश्यकता है कि इतिहास, अर्थशास्त्र एवं विज्ञान आदि विषयों का ज्ञान प्राप्त करने का उद्देश्य समाज की समस्याओं का समाधान कर उसकी उन्नति करना है। विभिन्न विषयों की पाठ्य वस्तु एवं शिक्षण प्रणाली भी इस उद्देश्य की पूर्ति के अनुरूप होना आवश्यक है। 

     

    शिक्षा का सम्बन्ध जीवन से जोड़ना 

    प्रायः यह कहा जाता है कि शिक्षा का उद्देश्य राष्ट्र के भावी नागरिक निर्माण करना है और यह अपेक्षा की जाती है कि शिक्षा संस्थाओं से निकलकर समाज में छात्रों का जीवन एवं व्यवहार देश के आदर्श नागरिकों के अनुरूप होना चाहिये। किन्तु हमें शिक्षा के उद्देश्य की इस संकल्पना को बदलने की आवश्यकता है। वास्तव में विद्यालय में छात्र को भावी नागरिक के स्थान पर आज के नागरिक के रूप में उनके जीवन का निर्माण करना शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिये। इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर विद्यालय का परिवेश ऐसा बनाया जाये जिसमें विद्यार्थी आदर्श नागरिक के रूप में अपना वर्तमान जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा प्राप्त कर सके । विद्यालय समाज का लघु स्वरूप होता है। छात्रों को अलग-अलग या समूह में विद्यालय के कार्य के विभिन्न उत्तरदायित्व सौंपना चाहिये। सहपाठ्य क्रिया-कलापों द्वारा उनमें उत्तरदायित्व की भावना, कर्त्तव्यनिष्ठा, व्यवहार में दूसरों के हित का ध्यान रखने का स्वभाव, प्रेम, सहयोग, मिलकर कार्य करने की भावना आदि सामाजिक गुणों का विकास सोद्देश्य करना चाहिये । प्रत्येक छात्र को सद्व्यवहार करने की प्रेरणा एवं अवसर प्राप्त हो सके, इस प्रकार की व्यवस्था विद्यालय में अपेक्षित है। परिषद्, छात्र- बैंक, छात्र - न्यायालय, स्काउटिंग, बुक-बैंक आदि कार्यक्रम सामाजिक जीवन की गतिविधियाँ हैं जिनके माध्यम से छात्रों में वांछनीय सामाजिक भावना एवं कुशलताओं का विकास होता है। माध्यमिक शिक्षा आयोग के प्रतिवेदन में भी यह बात इस प्रकार कही गई है : "शिक्षा में सुधार का आरम्भ विद्यालय को जीवन से पुनः जोड़ने एवं उनमें घनिष्ठ सम्पर्क स्थापित करने से होगा जो कि आज की परम्परागत औपचारिक शिक्षा के कारण टूट चुका है। हमें विद्यालय को वास्तविक सामाजिक जीवन एवं सामाजिक गतिविधियों का केन्द्र बनाना है, जहां आदर्श मनुष्य समुदाय के समान सुन्दर और सहज जीवन की प्रेरणा और प्रणाली दिखाई दे । " l 

     

    छात्रों को सामाजिक समस्याओं की अनुभूति 

    सामान्यतः छात्रों को सामाजिक समस्याओं की जानकारी सम्बन्धित विषयों के अध्ययन से प्राप्त होती है। यह जानकारी उन्हें बौद्धिक स्तर पर ही रहती है। समस्याओं का ज्ञान इसे नहीं कहा जा सकता। जानकारी जब अनुभूति का विषय बनती है तब उसका रूपान्तर ज्ञान में होता है। यह अनुभूति व्यक्ति के आचरण में प्रकट होती है। इसीलिये अनेक मूल्यों को हम केवल बुद्धि के धरातल पर स्वीकार करते हैं परन्तु उनकी अनुभूति अन्तःकरण में न होने के कारण वे मूल्य व्यक्ति के जीवन में चरितार्थ होते दिखाई नहीं देते। इससे मौखिक सेवा (Lip service) की वृद्धि अधिक हुई है । अतः छात्रों के अन्त:करण में समाज की समस्याओं की अनुभूति होना आवश्यक है तभी छात्रों में वास्तविक सामाजिक चेतना का जागरण होगा। 

    समाज में आज अस्पृश्यता, जातिभेद, निरक्षरता, निर्धनता, दहेज आदि समस्यायें विकट रूप से व्याप्त हैं । ग्रामों एवं नगरों में पिछड़ी बस्तियों में तो ये समस्यायें भयंकर रूप में दिखाई देती हैं। छात्रों को इन समस्याओं का ज्ञान एवं प्रत्यक्ष अनुभूति हो, समाज के पिछड़े एवं निर्धन बन्धुओं के प्रति छात्रों में आत्मीयता एवं एकात्मता की भावना जाग्रत हो, तभी इन समस्याओं एवं बुराइयों के निवारण के लिये छात्रों में संकल्प शक्ति जाग्रत होकर वे जीवन में सक्रिय होंगे। इस दृष्टि से प्रत्येक विद्यालय को कोई एक पिछड़ा ग्राम अथवा पिछड़ी बस्ती दत्तक लेना चाहिये । इस दत्तक ली हुई बस्ती का छात्रों द्वारा सर्वेक्षण, वहां की समस्याओं का अध्ययन हो । वहां के निवासियों से सजीव सम्पर्क किया जाना चाहिये। एक नगर के विद्यालय से लेखक भलीभांति परिचित है। उस विद्यालय ने भी एक ग्राम दत्तक लिया हुआ था । उस विद्यालय के छात्र उस ग्राम में सम्पर्क के लिये जाते थे। दिन भर ग्राम में रहते थे। अपना भोजन साथ ले जाते और ग्राम के 

    समवयस्क बालकों को बुलाकर उनके साथ अपना भोजन करते । इस प्रकार उन निर्बल परिवारों के बालकों के साथ नगर के उस विद्यालय के छात्रों का, जो अधिकांश सम्पन्न परिवारों के थे, आत्मीयतापूर्ण सम्पर्क स्थापित हो गया। एक बार उन निर्धन ग्रामीणों ने उन छात्रों को अपने घरों पर भोजन हेतु आमन्त्रित किया। पहले तो छात्र उन निर्धन परिवारों में भोजन करने के लिए जाने में संकोच करने लगे किन्तु आचार्यजी के समझाने पर तैयार हो गये। दो-दो, तीन-तीन छात्रों की टोली उन परिवारों में भोजन करने गई । निर्धन ग्रामीणों के छप्पर के घर, मैले कपड़े, अल्यूमीनियम एवं मिट्टी के बर्तन एवं मिट्टी के चूल्हे पर धुएँ से भरा हुआ कच्चा रसोईघर, यह सब दृश्य देखकर छात्रों को आश्चर्य हुआ क्योंकि यह उनके जीवन का प्रथम अनुभव था। वे उनसे पूछने लगे कि “ आपके यहां गैस के चूल्हे पर भोजन क्यों नहीं बनाया जाता?" गरीब ग्रामीण बेचारे, इस प्रश्न का उन्हें क्या उत्तर देते? आज हमारे नगरों के सम्पन्न घरों के लोगों को भारत की उस 60 प्रतिशत गरीब जनता के जीवन का परिचय ही नहीं है जिसको दोनों समय पेट भर भोजन भी नहीं मिल पाता। उस विद्यालय के छात्रों को इस सम्पर्क कार्यक्रम के माध्यम से अपने समाज के निर्धन बन्धुओं के दुर्दशापूर्ण जीवन की अनुभूति हुई। कौन जानता है कि उनमें से कुछ छात्रों ने उनकी दशा सुधारने का अपने जीवन में संकल्प लिया हो! 

    "The starting point of Educational reform must be the relinking of the school to life and restoring of the intimate relationship between them which has been broken down with the development of formal tradition of Education. We would like the school to become a centre of actual social life and social activities where the same kind of motives and methods are employed as seperate in the life of any normal and decent human group. 

    -Report of the Secondary Ed. Commisssion on-page 214. 

     

    हमारे देश में पांच करोड़ जनसंख्या वनवासियों की है जो घोर जंगल में रहते हैं। उनके पास न पहनने को वस्त्र हैं और न दो समय पेट भरने के लिये भोजन । यद्यपि शासन की ओर से उन वनवासियों को जनजाति के नाम पर उनके जीवन का विकास करने हेतु पर्याप्त धन विभिन्न योजनाओं में व्यय किया जा रहा है किन्तु भ्रष्ट नौकरशाही उनके विकास के मार्ग में बाधक बन कर खड़ी हुई है । वनवासियों के बीच में अनेक विदेशी ईसाई मिशन सेवा कार्य में संलग्न हैं। यद्यपि वे मिशन उन भोले वनवासियों को सहायता एवं सेवा के नाम पर बड़ी संख्या में ईसाई बनाने का कार्य भी कर रहे हैं फिर भी उनकी सेवा भावना तो सराहनीय है। विद्यालयों के द्वारा इन वनवासी बन्धुओं के बीच में छात्रों को ले जाना चाहिये। उनके जीवन की समस्याओं की अनुभूति छात्रों को कराना चाहिये एवं उनके समाधान हेतु सेवा कार्यों का आयोजन विद्यालय की ओर से होना चाहिये। नगर के विद्यालय शैक्षिक योजनाओं के अन्तर्गत अपने छात्रों को मुम्बई, कोलकाता और दिल्ली का भ्रमण कराते हैं। वास्तव में भारत के जीवन का दर्शन तो ग्रामों और वनों में ही होता है जहां देश की 82 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है। विद्यालयों की शैक्षिक यात्रायें इन ग्रामीणों और वनवासियों के जीवन से छात्रों को परिचित कराने हेतु आयोजित की जानी चाहिये। इस प्रकार हम अपने छात्रों में सामाजिक चेतना का जागरण भलीभाँति कर सकेंगे।

     

    छात्रों को सामाजिक एकात्मता एवं सहजीवन की अनुभूति कराना 

    प्रत्येक विद्यालय में छात्रावास होना चाहिये जहां रहकर छात्र जाति, पन्थ, भाषा, निर्धन - धनवान आदि समस्त भेद-भावों से ऊपर उठकर सामाजिक एकात्मता एवं सहजीवन की अनुभूति कर सकें। प्राचीन भारत में राजपुत्र एवं निर्धनपुत्र सभी एक साथ गुरुकुल आश्रम में रहकर अध्ययन करते थे। कृष्ण और सुदामा के जीवन की कथायें भारतीय आदर्श के रूप में जन-जन में आज भी प्रचलित हैं। किन्तु वर्तमान समय में जन-शिक्षा का विस्तार होने के कारण प्रत्येक विद्यालय में छात्रावास का होना व्यावहारिक नहीं है। इसकी पूर्ति विद्यालयों द्वारा शिविरों के आयोजन के माध्यम से की जा सकती है जहाँ सभी छात्र दो-तीन दिन तक साथ रहकर सामाजिक एकता एवं सहजीवन की अनुभूति कर सकते हैं। इसी प्रकार विद्यालयों में छात्रों के सह-भोज आदि कार्यक्रम भी कभी-कभी आयोजित किये जाने चाहिये । विद्या भारती की संस्कार केन्द्र योजना का उद्देश्य भी छात्रों में सामाजिक समरसता एवं एकात्मता के भाव जागृत करना है। इसकी ओर हमें विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। 

     

    सामाजिक संवेदनशीलता एवं सेवा के भाव का जागरण 

    समाज के प्रति एकात्मता के भाव जागरण के साथ समाज के सुख-दुःख के साथ संदेवनशील होना सहज होता है। समाज के प्रति प्रेम एवं संवेदनशीलता ही सेवा का रूप ले लेता है। बिना प्रेम के सेवा कार्य ढोंग और प्रदर्शन मात्र बनकर रह जाता है। समाज को भारतीय संस्कृति में परमेश्वर का साक्षात् स्वरूप माना है। इसलिये हमारे यहाँ सेवा धर्म है, “नर सेवा नारायण सेवा" है। इसी कारण समाज की सेवा पूजा के भाव से की जाती है। दीन-दुखी, निर्धन, विपदाग्रस्त व्यक्ति मेरे आत्मीयजन हैं, इनका दुःख मेरा दुःख है, इसी भावना से प्रेरित होकर सेवा करना सही अर्थों में सेवा है। यही आध्यात्मिकता का व्यावहारिक स्वरूप है। 

     

    विद्यालय में सांस्कृतिक पर्वों के आयोजन 

    भारतीय संस्कृति का जीवन्त रूप पर्वों और उत्सवों के रूप में प्रचलित है। उन पर्वों के माध्यम से जीवन में उल्लास और आनन्द के साथ-साथ सामाजिक भावना भी समृद्ध होती है। दीपावली और होली आदि का सांस्कृतिक रूप आज विकृत अवस्था में समाज में मनाया जाता है । विद्यालयों में प्रमुख पर्वों के आयोजन अपने शुद्ध रूप में होने चाहिये। इससे छात्रों में तो सामाजिक भावना का विकास होगा ही, साथ में इन पर्वों की विकृतियां दूर होकर समाज में भी इनका ठीक ढंग में प्रचलन होगा। इन पर्वों पर विद्यालय में अभिभावकों एवं आस-पास के निवासियों को भी आमन्त्रित करना चाहिये । 

     

    छात्रों में स्वदेशी निष्ठा का जागरण करना 

    पराधीनता के काल में महात्मा गाँधी के स्वदेशी आन्दोलन के कारण स्वदेशी वस्तु, स्वदेशी भाषा, स्वदेशी-वेश के प्रयोग करने की समाज में एक लहर सी उत्पन्न हुई थी। बड़े-बड़े अंग्रेजी शिक्षित लोगों, वकीलों, प्राध्यापकों, छात्रों में खद्दर के वस्त्र, धोती-कुर्ता, गाँधी टोपी पहनने में होड़ सी दिखाई देती थी । विदेशी वस्तुओं के प्रयोग को अत्यन्त हेय दृष्टि से देखा जाता था। परन्तु देश स्वाधीन होने के पश्चात् विदेशी वस्तुओं, विदेशी वेशभूषा और अंग्रेजी भाषा का प्रयोग करने में लोग गौरव का अनुभव करने लगे हैं। किसी भी स्वतन्त्र देश के लिये यह अपमानजनक स्थिति है। अतः शिक्षा के माध्यम से हमें अपने विद्यालयों में स्वदेशी निष्ठा की भावना को पुनर्जीवित करने की तीव्र आवश्यकता है। हमारे शिक्षकों को इस कार्य में स्वयं पहल करनी होगी, तभी छात्रों में इसका प्रभाव होगा। 

    आज हमारे देश में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का प्रवेश दैनिक जीवन में उपयोग आने वाली सामान्य वस्तुओं के निर्माण में हो चुका है एवं भारतीय बाजार विदेशी वस्तुओं से पाट दिये गये हैं। देश तीव्रगति से आर्थिक दासता की ओर बढ़ रहा है। ऐसी विषम परिस्थिति में तो स्वदेशी निष्ठा के जागरण की आवश्यकता अत्यधिक बढ़ गई है। स्वदेशी कम्पनियों द्वारा निर्मित वस्तुओं का प्रयोग करना देश प्रेम का व्यावहारिक स्वरूप है। यह संस्कार हमें शिक्षा के माध्यम से छात्रों के अन्तःकरण में गहराई से अंकित करना होगा।

     

    विद्यालय सामाजिक गतिविधियों के केन्द्र 

    शिक्षा के माध्यम से समाज में चेतना जागृत हो, यह उसका प्रमुख उद्देश्य है। अतः हमारी शिक्षा संस्थाओं की गतिविधियां केवल अपने छात्रों तक सीमित न रहकर समाज के जीवन को प्रभावित करने वाली, उसे दिशा देने वाली होनी चाहिये। हमें विद्यालयों के विशाल भवनों का उपयोग सामाजिक क्रियाकलापों के लिये करना चाहिये। इन भवनों पर समाज का करोड़ों रुपया व्यय होता है किन्तु इनका उपयोग केवल छः घण्टे के लिये होता है और शेष समय में उनमें ताले पड़े रहते हैं। शिक्षा संस्थाओं में छुट्टियाँ भी अन्य संस्थाओं की तुलना में अधिक होती है । वर्ष भर में छ: महीने विद्यालय प्रायः बन्द ही रहते हैं। अतः यह विचार करने की आवश्यकता है कि इन विशाल भवनों का उपयोग समाज के कार्य के लिये किस प्रकार हो। हमें विद्यालय के भवन ही नहीं विद्यालय से सम्बद्ध विशाल जनशक्ति का उपयोग भी सामाजिक चेतना जागृत करने हेतु करना चाहिये। 

    छात्र, शिक्षक, प्रबन्ध समिति, हितैषी, अभिभावकगण इन सबकी विशाल जनशक्ति विद्यालय में उपलब्ध हैं। इस जनशक्ति का उपयोग योजनाबद्ध रीति से यदि किया जाए तो सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को हम शिक्षा के माध्यम से साकार कर सकते हैं। विद्यालय हेतु निम्नांकित गतिविधियाँ सुझाव के रूप में प्रस्तुत की जा रही हैं:- 

     

     

    1. समाज में अनेक निर्धन परिवारों के बालक ऐसे हैं जो विभिन्न कारणों से. शिक्षा से वंचित रह जाते हैं। ये बालक या तो अपने माता-पिता को उनके व्यवसाय में सहायता करते हैं अथवा स्वयं अल्प आयु में ही काम-धन्धों में लग जाते हैं। इस प्रकार के बालकों की शिक्षा की व्यवस्था हम अपने विद्यालयों में रात्रि में निःशुल्क पाठशाला के रूप में कर सकते हैं। योग्य शिक्षक की देख-रेख में बड़ी कक्षाओं के छात्र उनके शिक्षण का दायित्व भली भांति पूर्ण कर सकते हैं। कुछ जागरुक विद्यालयों में इस प्रकार की योजना चलायी भी जा रही है। 

     

    2. योग शिक्षा की चर्चा आज विश्वभर में हो रही है। अनेक देश के लोग इस भारतीय विद्या का अपने समाज के स्वास्थ्य के विकास के लिये यथाशक्ति उपयोग कर रहे हैं। किन्तु योग का अपने घर भारत में प्रचलन बहुत कम है। इसका बहुत बड़ा कारण योग शिक्षा केन्द्रों का अभाव है। इस क्षेत्र में विद्यालयों के द्वारा पर्याप्त कार्य किया जा सकता है । प्रातः कालीन योग शिक्षा केन्द्र प्रत्येक विद्यालय में चलाये जा सकते हैं। इस प्रकार हम अपने समाज में योग का प्रसार एवं प्रचार कर सकते हैं।

     

    3. प्रत्येक विद्यालय में पुस्तकालय एवं वाचनालय होता है। विद्यालय समय के अतिरिक्त समय में हम विद्यालय के वाचनालय का उपयोग समाज के लिये हो सके, इसके लिये समुचित व्यवस्था सरलता से कर सकते हैं। समाज भी पुस्तकालय एवं वाचनालय की समृद्धि में अपना योगदान सहर्ष करने को तैयार हो सकता है। वाचन की सुविधाओं के अभाव की पूर्ति भी इस प्रकार हो सकेगी। 

     

    4.अनेक निर्धन परिवारों के बालक विभिन्न विद्यालयों में अध्ययन करते हैं। विभिन्न कारणों से वे कुछ विषयों में कमजोर रह जाते हैं । अर्थाभाव के कारण वे (ट्यूशन) गृह - शिक्षण की व्यवस्था नहीं कर सकते। इस प्रकार के निर्धन परिवारों के छात्रों की सहायतार्थ विद्यालय में सायंकालीन विशेष शिक्षण कक्षायें आयोजित की जा सकती हैं जिनमें शिक्षक के रूप में विद्यालय के बड़ी कक्षाओं के होशियार छात्र भी कार्य कर सकते हैं। 

     

    5.आज समाज के अनेक सम्पन्न अथवा अंग्रेजी भक्त परिवार अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के कान्वेण्ट स्कूलों में पढ़ाते हैं । ये बालक अपने भारतीय धर्म, संस्कृति एवं परम्परा से बिल्कुल वंचित रह जाते हैं। इन बालकों के लिये हमें अपने विद्यालय में रविवारीय विद्यालय दो घन्टे के लिये चलाना चाहिये। इन रविवारीय विद्यालयों में कथा, गीत, सांस्कृतिक कार्यक्रमों आदि के माध्यम से भारतीय संस्कृति, इतिहास आदि का ज्ञान उन बच्चों को कराना चाहिये तथा उन्हें भारतीय संस्कार अनौपचारिक रुचिपूर्ण कार्यक्रमों के माध्यम से देने की व्यवस्था करना उपयोगी सिद्ध होगा अन्यथा इस प्रकार के अंग्रेजी सभ्यता में पढ़े हुये बालक आगे जाकर समाज के लिये हानिकारक सिद्ध होते हैं। मुम्बई के स्वामी चिन्मयानन्द मिशन के द्वारा इस प्रकार का प्रयोग सफलतापूर्वक चलता है। 

     

    6. विद्यालय में विभिन्न सांस्कृतिक पर्वों, उत्सवों एवं महापुरुषों की जयन्तियों के आयोजन सार्वजनिक रूप से अच्छे ढंग से किये जा सकते हैं। इनके माध्यम से समाज में पर्वों के शुद्ध रूप प्रचलित कर सकते हैं तथा इन आयोजनों से समाज में सांस्कृतिक चेतना का जागरण भी होगा । इसी प्रकार शासन के सूचना विभाग से अच्छी फिल्में लेकर सायंकाल के समय समाज के लिये निः शुल्क फिल्मों के प्रदर्शन का आयोजन भी समय-समय पर किया जा सकता है। धार्मिक सन्त महात्माओं एवं विद्वानों के प्रवचन भी समय-समय पर आयोजित करने चाहिये। 

     

    7.विद्यालय के आस-पास क्षेत्र में स्वच्छता एवं सौन्दर्यीकरण का अभियान भी छात्रों एवं क्षेत्रीय निवासियों के परस्पर सहयोग से लिया जा सकता है इससे विद्यालय के आसपास का वातावरण स्वास्थ्यप्रद 

    बनेगा एवं समाज को भी इस दृष्टि से लाभ मिलेगा। 

     

    8. अभिभावक अध्यापक सम्पर्क अभिभावक एवं अध्यापक सम्पर्क में पर्याप्त जागरुकता लाने की आवश्यकता है। अभिभावकों के सम्मेलन एवं सम्पर्क के माध्यम से भी समाज में पर्याप्त जागृति उत्पन्न की जा सकती है। विद्यालय में समय-समय पर अभिभावक एवं मातृ सम्मेलनों के आयोजन होने चाहिये। विद्यालय एवं परिवार में परस्पर सहयोग, बालकों के विकास हेतु समुचित वातावरण, अभिभावकों के दायित्व आदि विषयों पर इन सम्मेलनों में चर्चा हो सकती है। विद्यालय के विकास में अभिभावकों का सहयोग सम्पर्क के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। सम्पर्क से अभिभावकों में विद्यालय के प्रति अपनत्व की भावना जागृत होती है। विद्यालय को सामाजिक चेतना के केन्द्र का रूप प्रदान करने में अभिभावक अपना सक्रिय योगदान कर सकते हैं। 

    इस प्रकार अनेक प्रकार की गतिविधियों का केन्द्र विद्यालय को बनाया जा सकता है। इससे अपने विद्यालय के छात्रों के साथ-साथ समाज के जीवन में भी सामाजिक चेतना का संचार होगा, जो कि शिक्षा का प्रमुख लक्ष्य है। 

     

    शिक्षा सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया का सशक्त माध्यम 

    शिक्षा सामाजिक परिवर्तन का एक शक्तिशाली साधन है। समाज शास्त्रियों ने सामाजिक परिवर्तन के जो प्राकृतिक और सांस्कृतिक घटक बताये उन सबके विकास का भी मूल कारण शिक्षा ही होती है। मानव विकास के इतिहास पर दृष्टिपात करने पर भी इस सत्य का समर्थन होता हैं। रूस में सन् 1917 के बाद सामाजिक परिवर्तन लाने के लिये शिक्षा का सहारा लिया गया था और द्वितीय विश्व युद्ध के समय सब दृष्टि से अविकसित वह देश विश्व के शक्तिशाली राष्ट्रों की पंक्ति में खड़ा हो गया। इस प्रकार अनेक देशों के उदाहरण इतिहास में भरे पड़े हैं जिन्होंने अपने देश में सामाजिक चेतना के जागरण का एवं वांछित परिवर्तन का शिक्षा को मुख्य अभिकरण बनाया। कोठारी शिक्षा आयोग ने लिखा है कि “ शिक्षा ही एक मात्र साधन है जिसके माध्यम से बिना हिंसक क्रान्ति के समाज में परिवर्तन लाया जा सकता है। अन्य माध्यम भी परिवर्तन में सहायक हो सकते हैं । किन्तु राष्ट्रीय शिक्षा व्यवस्था ही केवल ऐसा साधन है जो समाज के सब लोगों तक पहुँच सकता है।"

     

    सारांश यह है कि हमारे शिक्षा संस्थानों को अपनी समस्त गतिविधियों एवं शिक्षा प्रक्रिया सामाजिक चेतना के केन्द्र के रूप में संचालित करने की आवश्यकता है। आज अपने देश में स्वार्थवाद एवं संकीर्णता प्रबल है। अतः शिक्षा के माध्यम से छात्रों में एवं समाज में सामाजिक एवं राष्ट्रीय भावना के जागरण की प्रथम आवश्यकता है। इसी में देश की सुरक्षा एवं उन्नति निहित है। 

     

    "If this change on a grand scale is to be achieved without violent revolution (and even for that it would be necessary) there is one instrument and one instrument only, that can be used; EDUCATION. Other agencies may help, and can indeed sometimes have a more apparent impact. But the national system of education is the only instrument that can reach all people. 

    - Report of the Education Commission-1964, page 8. 


    User Feedback

    Create an account or sign in to leave a review

    You need to be a member in order to leave a review

    Create an account

    Sign up for a new account in our community. It's easy!

    Register a new account

    Sign in

    Already have an account? Sign in here.

    Sign In Now

    There are no reviews to display.


×
×
  • Create New...