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  • शिक्षण के सिद्धान्त एवं पद्धतियाँ 

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    Vidyasagar.Guru

    शिक्षण- एक संस्कार - प्रक्रिया 

    शिक्षण का तात्पर्य मनुष्य के ज्ञानात्मक, भावनात्मक एवं क्रियात्मक संस्कारों का समन्वय एवं विकास करना है तथा उसके व्यवहार में परिवर्तन अथवा परिमार्जन लाना है। ज्ञान से इच्छा का जागरण होता है और इच्छा मनुष्य को क्रियाशील बनाती है अर्थात् व्यवहार कराती है। व्यवहार में परिवर्तन लाने को ही सीखना या अधिगम कहते हैं। सीखना और सिखाना ही शिक्षण-संस्कार है। शिक्षण की प्रक्रिया में तीन कारक निहित रहते हैं : प्रथम - बालक, जो इस प्रक्रिया का आधारबिन्दु है; द्वितीय-विषय-वस्तु, जो उसे सीखनी है; और तृतीय - शिक्षक, जो सीखने में सहायता प्रदान करता है। बालक जन्म से अपरिपक्व होता है, अतः उसे पथ-प्रदर्शन की आवश्यकता है। पश्चिम के कुछ शिक्षाविदों ने बालक के शिक्षण में 'प्रयास और भूल' (Trial & error) के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है जो अव्यावहारिक एवं अपूर्ण सिद्धान्त है। वास्तव में शिक्षण वह संस्कार प्रक्रिया है जो अनुभवी व्यक्ति अर्थात् शिक्षक के मार्गदर्शन में विद्यार्थी द्वारा अभीष्ट ज्ञान एवं अनुभव अर्जित करने हेतु अभ्यास के रूप में सम्पन्न की जाती है। इसलिये शिक्षण को अभ्यास भी कहा जाता है और पाठ्यक्रम को अभ्यास-क्रम । 

     

     

     

    शिक्षण के सिद्धान्त 

    1. ज्ञान अर्जित किया जाता है, दिया नहीं जाता 

    श्री अरविन्द के अनुसार - " सच्चे शिक्षण का प्रथम सिद्धान्त है कि कुछ भी सिखाया नहीं जा सकता। " कोई प्रशिक्षक या काम लेने वाला नायक नहीं है। उसका काम सुझाव देना है, थोपना नहीं। वह सचमुच विद्यार्थी के मानस को प्रशिक्षित नहीं करता। वह उसे केवल यह बताता है कि अपने ज्ञान के उपकरणों को कैसे पूर्ण बनाया जाय और वह उसे इस कार्य में सहायता देता और प्रोत्साहित करता है । वह उसे ज्ञान नहीं देता । वह उसे यह बताता है कि अपने लिये ज्ञान कैसे प्राप्त किया जाये । वह अन्दर स्थित ज्ञान को प्रकट नहीं करता, वह केवल यह दिखलाता है कि वह कहाँ पड़ा है और उसे ऊपरी तल पर आने के लिये कैसे अभ्यस्त किया जा सकता है। जो प्रभेद इस सिद्धान्त को केवल वयस्क और किशोर मन की शिक्षा के लिये आरक्षित रखता है और बालक के लिये उसे लागू करने से इन्कार करता है, वह एक पुराणपंथी और नासमझ सिद्धान्त है | बालक हो या वयस्क, लड़का हो या लड़की, शिक्षा देने का सबके लिये एक ही सिद्धान्त है। अवस्था-भेद आवश्यक सहायता और पथ-प्रदर्शन की मात्रा को घटा-बढ़ा सकता है, इससे सिद्धान्त की प्रकृति नहीं बदलती। 

     

    स्वामी विवेकानन्द ने कहा है, "मनुष्य के अन्तर में समस्त ज्ञान अवस्थित है। आवश्यकता है उसे जाग्रत करने के लिये उपयुक्त वातावरण निर्मित करने की। उस वातावरण का निर्माण करना ही शिक्षण कार्य है। ' उपयुक्त वातावरण में ही ज्ञान का प्रकटन या विकसन होता है। यह विकसन शिक्षक नहीं कर सकता। जिस प्रकार एक पौधा स्वयं बढ़ता है, हम उसे बड़ा नहीं सकते; हम केवल उसे पानी या खाद दे सकते हैं; उसकी भूमि को गोड़ सकते हैं, जिससे उसकी जड़ों को सूर्य की किरणें और वायु प्राप्त हो सके; सुरक्षा के लिये उसके चारों ओर बाड़ लगा सकते हैं। बढ़ता तो पौधा स्वयं है। इसी प्रकार शिक्षक बालक को पढ़ा या सिखा नहीं सकता। पढ़ने या सीखने की प्रक्रिया तो बालक को स्वयं करनी होती है। शिक्षक उसकी सहायता करता है; उसके लिये उपयुक्त अवसर एवं वातावरण का निर्माण करता है। 

     

    शिक्षक ऐसा मार्गदर्शक, सहायक और उससे बढ़कर अनुभवी मित्र होता है जिसकी ओर विद्यार्थी मार्ग न खोज पाने पर या किसी संकेत की आवश्यकता होने पर प्रसन्नता और विश्वासपूर्वक देखते हैं। शिक्षक की भूमिका आज्ञा देने वाले की अपेक्षा सलाहकार और प्रस्तोता की होनी चाहिए। उसे बालक को यह बताना चाहिए कि वह विषय का मनन किस प्रकार करे और सीखने के लिये किस प्रकार निजी विधि का विकास करे तथा एकत्र किये या खोजे हुए ज्ञान को किस प्रकार समंजित करे। शिक्षक को यह स्मरण रखना चाहिए कि बालक काम करके और स्वयं खोज करके उत्तम ढंग से सीखता है, न कि तथ्यात्मक ज्ञान- प्रदर्शन को दब्बू बनकर सुनने से । केवल इसी खोज की ओर प्रवृत्त करने वाली क्रियात्मक और सर्जनात्मक प्रक्रिया से ही बच्चे में रुचि उत्पन्न होती है, उसे आनन्द मिलता है और उसका ध्यान तुरन्त आकर्षित होता है। 

     

    2. बालक की प्रकृति के अनुरूप स्वतन्त्रतापूर्वक विकास 

     

    शिक्षण का दूसरा सिद्धान्त यह है कि मन के विकास में स्वयं उसकी सलाह ली जाय। बच्चे को हथौड़ी मार-मारकर माता-पिता या अध्यापक के चाहे हुए रूप में गढ़ना एक अज्ञानपूर्ण और बर्बर अन्धविश्वास है। विद्यार्थी को यह प्रेरणा देनी चाहिए कि वह अपनी प्रकृति के अनुसार अपना विकास करे। माता-पिता के लिये इससे बड़ी भूल नहीं हो सकती कि वे पहले से निश्चित कर लें कि उनका बेटा अमुक गुण, अमुक क्षमताएँ विचार या विशेषताएँ विकसित करेगा या उसे पहले से ही निश्चित अमुक प्रकार की जीविका के लिये तैयार किया जाय । प्रकृति को इस बात के लिये बाध्य करना कि वह स्वधर्म छोड़ दे, उसे स्थायी क्षति पहुँचाना, उसके विकास को विकृत करना और उसकी पूर्णता को विरूप कर देना है। यह मानव आत्मा पर स्वार्थपूर्ण अत्याचार है, राष्ट्र पर एक आघात है, जिसके कारण वह मनुष्य के सर्वोत्तम कार्य के लाभ से वंचित हो जाता है और उसके बदले अपूर्ण, कृत्रिम, घटिया, औपचारिक और सामान्य वस्तु स्वीकार करने के लिये बाध्य होता है। 

     

    प्रत्येक बालक में कुछ दिव्य अंश होता है, ऐसा- जो उसका अपना होता है। भगवान् स्वीकार करने या त्याग देने के लिये एक क्षेत्र देते हैं जिसमें वह पूर्णता और शक्ति पा सकता है, वह चाहे कितना भी छोटा क्यों न हो। मुख्य काम है खोजना, विकसित करना और उसका उपयोग करना । शिक्षा का मुख्य उद्देश्य होना चाहिए अन्तरात्मा की इस बात में सहायता करना कि वह अपने अन्तर की अच्छी से अच्छी वस्तु को बाहर लाये और उसे किसी उदात्त उपयोग के लिये पूर्ण बनाये। 

     

    3. पूर्व - संस्कारों के आधार पर विकास का अगला चरण

     

    शिक्षण का तीसरा सिद्धान्त है निकट से दूर की ओर काम करते चलना, जो है उससे जो होगा उसकी ओर जाना । प्राय: ही मनुष्य के स्वभाव का आधार उसके आत्मा के अतीत के अतिरिक्त बहुत-सी बातों पर निर्भर होता है, जैसे- उसकी आनुवंशिकता, उसका पास-पड़ोस, उसकी राष्ट्रीयता, उसका देश, वह धरती जहाँ से वह आहार पाता है, वह वायु जिसमें वह साँस लेता है, वे दृश्य, वे आवाजें और वे आदतें जिनके लिये वह अभ्यस्त है। ये अनजाने में, अपने पूर्ण बल के साथ स्वभाव को ढालते हैं, और हमें वहीं से प्रारम्भ करना चाहिए। हमें स्वभाव को उस भूमि में से जड़ से नहीं उखाड़ देना चाहिए जहाँ उसे पनपना है। मन को ऐसे बिम्बों और जीवन के ऐसे विचारों से नहीं घेर देना चाहिए जो उस जीवन के विरोधी हों जिनमें उसे हिलना-डुलना है। यदि बाहर से कोई वस्तु लानी है तो वह मन पर बलपूर्वक आरोपित न की जाये, उसे भेंट की जा सकती है | सच्चे विकास के लिये एक आवश्यक शर्त है - स्वाभाविक और मुक्त बुद्धि । ऐसे व्यक्ति समाज में होते हैं जो अपने परिवेश के विरुद्ध विद्रोह करते हैं और ऐसा लगता है कि वे किसी और ही युग, किसी और ही देश के हैं। उन्हें अपनी रुचि का अनुसरण करने दो। परन्तु कृत्रिम रूपों में ढाले जाने पर अधिकतर लोग क्षीण, रिक्त और बनावटी बन जाते हैं। भगवान् की व्यवस्था है कि अमुक लोग किसी राष्ट्र विशेष, देश, युग, समाज के हों। वे अतीत के बालक वर्तमान के भोक्ता और भविष्य के निर्माता हों। अतीत हमारी नींव है, वर्तमान हमारा उपादान है, भविष्य हमारा लक्ष्य और शिखर है। राष्ट्रीय शिक्षा-पद्धति में हर एक को अपना उचित और स्वाभाविक स्थान मिलना चाहिए। 

     

    4. ज्ञानेन्द्रियों द्वारा शिक्षण 

     

    अनुभव ज्ञानार्जन की कुंजी है। वास्तविक स्थितियों में अनुभव भौतिक संसार की सीधी जानकारी कराता है। बालक ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा जो ज्ञान प्राप्त करता है वह उसका अनुभूत ज्ञान होता है। विषय-वस्तु जिस ज्ञानेन्द्रिय से सम्बन्धित हो, उसके द्वारा अनुभव किया गया ज्ञान ही उस वस्तु का वास्तविक ज्ञान है । पाँचों इन्द्रियाँ ज्ञान प्राप्ति के उपकरण हैं-चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, रस तथा स्पर्श । ये स्नायुओं द्वारा अपने भौतिक करणों आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा द्वारा क्रमशः रूप, शब्द, गन्ध, स्वाद तथा स्पर्श की अनुभूति आदि विचार - सामग्री इकट्ठा करती हैं। शुद्ध ज्ञान प्राप्त करने के लिये इन इन्द्रियों का पूर्णतः परिष्कृत एवं दोष रहित होना आवश्यक है। यदि किसी अवयव में दोष हो तो उसकी चिकित्सक के द्वारा चिकित्सा करानी चाहिए। यदि दोष स्नायु-तरंगों में हैं तो इसका उपचार बहुत सरल है । वह है प्राणायाम । यह पद्धति वाहिकाओं की सम्पूर्ण एवं बाधारहित गति को फिर से ले आती है। यदि ठीक प्रकार से अभ्यास किया जाय तो वह इन्द्रियों की गति को तेज कर सकता है। योग की परिभाषा में इसी को 'नाड़ीशुद्धि' कहते हैं। स्नायुमण्डल में किसी भावना के उथल-पुथल से भी इन्द्रियों द्वारा विपर्यय ज्ञान होता है, जैसे- संवेदन क्रिया पर भय का प्रभाव। इसके परिणामस्वरूप मनुष्य रज्जु को साँप या झूलते हुए परदे को भूत का आकार मान लेता है। इसका एकमात्र उपाय है स्नायुओं की अभ्यासगत स्थिरता। यह स्थिति नाड़ीशुद्धि से आती है । सारा स्नायुमण्डल संस्थान स्थिरता पाता है, आन्तरिक प्रक्रियाएँ शान्त, स्थिर हो जाती है। परिणामत: ज्ञान की प्रक्रिया ठीक प्रकार से सम्पन्न होती है। 

     

    अभ्यास से इन्द्रियों की क्षमताओं का विकास होता है। विद्यार्थियों को अपने चारों ओर के दृश्यों, शब्दों आदि को सरलता से पकड़ सकना, उनमें भेद करना, उनके गुणों, उनकी प्रकृति और उनके मूल को जानकर उन्हें चित्त में प्रतिष्ठित कर सकना चाहिए ताकि स्मृति जब भी बुलाये वे सदैव प्रत्युत्तर देने के लिये तैयार रह सकें। सर्वप्रथम हमें विद्यार्थियों की अवलोकन की क्षमता का विकास करना चाहिए। यदि अवलोकन की क्षमता का पूर्ण एकाग्रता के साथ उपयोग किया जाये तो हमें तीनों मुख्य इन्द्रियों द्वारा प्राप्त किया जा सकने वाला पूरा ज्ञान मिल सकता है। फूलों, पत्तों, पौधों, पेड़ों का अवलोकन और तुलना करने से मन के ऊपर नामों और शुष्क सूचनाओं के भार के बिना ही वनस्पति - शास्त्र के ज्ञान की आधारशिला रखी जा सकती है। इसी प्रकार तारों के अवलोकन से ज्योतिष, मिट्टी-पत्थर आदि से भूगर्भ, कीड़े-मकोड़ों और जन्तुओं के अवलोकन से कृमिशास्त्र और प्राणिशास्त्र की नींव रखी जा सकती है । ऐसा कोई वैज्ञानिक विषय नहीं है जिस पर पूर्ण और स्वाभाविक अधिकार पाने की तैयारी बचपन में इस तरह भिन्न-भिन्न प्रकार की वस्तुओं के और वर्गों के अवलोकन, तुलना, स्मरण एवं मूल्यांकन के द्वारा इन्द्रियों द्वारा शिक्षण से न की जा सके। शिक्षण की इस प्रक्रिया से विद्यार्थी के मन में रुचि और तल्लीनता उत्पन्न हो सकती है। एक बार रुचि पैदा हो जाये तो बालक अपने खाली समय में पूरे उत्साह के साथ उसे आगे बढ़ायेगा और प्रत्येक कार्य कक्षा में ही करने की आवश्यकता नहीं रहेगी। 

     

    5. सच्चे शिक्षण के लिये मन का प्रशिक्षण एवं चित्त-शुद्धि आवश्यक

     

    भारतीय मनोविज्ञान में मन को छठी इन्द्रिय माना गया है। मन का काम है वस्तुओं के बिम्ब को दृष्टि, श्रुति, घ्राण, स्वाद और स्पर्श के द्वारा प्राप्त करना और फिर उन्हें विचार - संवेदनों में अनूदित करना । मन विचार का सीधा संस्कार भी बाहर और भीतर से लेता है। सीधे विचार-संस्कार जो मन भीतर से लेता है वह मन की सूक्ष्म दृष्टि या अन्तर्दृष्टि की क्षमता कहलाती है। मन इन विचारसंस्कारों की सूचना बुद्धि को देता है। इन विचार - संस्कारों को बुद्धि तक शुद्ध रूप में पहुँचने में बाधाएँ आती हैं। पहली बाधा है स्नायविक भावुकता । यह प्राणायाम के अभ्यास से स्नायुमण्डल की शुद्धि द्वारा दूर की जा सकती है। दूसरी बाधा, स्वयं भाव ही आते हुए संस्कार को विकृत कर दे। प्रेम ऐसा कर सकता है, घृणा ऐसा कर सकती है, कोई भाव या कामना अपनी शक्ति और तीव्रता के अनुसार आते हुए संस्कार को विकृत कर सकती है। अगली बाधा है चित्त में बने हुए पहले के सम्बन्धों और साहचर्य से आने वाले हस्तक्षेप । वस्तुओं को देखने की हमारी एक अभ्यासगत विधि है। हम हर नयी अनुभूति को वैसा रूप और सादृश्य दे देते हैं, जिसके हम अभ्यस्त हैं। केवल अधिक विकसित मन ही नूतन अनुभूति को पूर्वाग्रह के बिना ग्रहण कर सकता है । चित्त-शुद्धि या मानसिक और नैतिक आदतों की शुद्धि के बिना इन बाधाओं से पिण्ड छुड़ाना असम्भव है। यह योग की प्रारम्भिक क्रिया है। यह स्पष्ट है कि जब तक हम अपनी प्राचीन भारतीय शिक्षण-पद्धति के कुछ सिद्धान्तों की ओर वापस नहीं जायेंगे, तब तक बाधाओं का यह मूल हमारे अन्दर ही रहेगा। एक सच्ची शिक्षण-पद्धति इस सिद्धान्त को अपना अंग बनाये बिना नहीं रह सकती। 

     

    योग की इस पद्धति में अभ्यास के द्वारा चित्त में अपने ही संवेगों द्वारा उठने वाले अनियन्त्रित विचार - संवेगों की लगातार बाढ़ में निष्क्रियता लानी होती है । यह बुद्धि को पुराने साहचर्य और झूठे संस्कारों की कारा से मुक्त करती है। इससे बुद्धि को वह शक्ति मिलती है जिससे वह चित्त के स्मृति - भण्डार से केवल वही वस्तु चुने जिसकी आवश्यकता है। इससे अपने-आप सम्यक् संस्कार ग्रहण करने की आदत बनती है और तब बुद्धि चित्त को आदेश दे सकती है कि कौन से संस्कार या साहचर्य बनाये अथवा निरस्त किये जायें। बुद्धि का वास्तविक कार्य है विवेक, चयन, व्यवस्थापन, किन्तु जब तक चित्त-शुद्धि न हो 

     

    तब तक अपना काम पूरा करने के स्थान पर चित्त स्वयं अधूरा और भ्रष्ट रहता है और मिथ्या निर्णय, मिथ्या कल्पना, मिथ्या स्मृति, मिथ्या तुलना और मिथ्या सादृश्य, मिथ्या निगमन, आगमन और निष्कर्ष के द्वारा मन की उलझनों को और भी बढ़ा देता है। बुद्धि की मुक्ति, शुद्धि और सम्यक् कार्य के लिये चित्त शुद्धि आवश्यक है। 

     

    6. लक्ष्य ज्ञानार्जन का मूल है 

     

    ज्ञानार्जन एवं विकास के लिये विद्यार्थी के सम्मुख लक्ष्य आवश्यक है। लक्ष्य से ज्ञान प्राप्त करने की एवं विकास करने की प्रेरणा मिलती है। जितना उदात्त और महान् लक्ष्य होगा, ज्ञान एवं विकास की सम्भावनाएँ उतनी ही अधिक होंगी। शिक्षण की सर्जनात्मक विधि बालक के लिये अधिक प्रेरक होती है, क्योंकि उसे अपनी कृति की पूर्णता में विशेष आनन्द की अनुभूति होती है। शिक्षक का यह प्राथमिक कार्य है कि वह शिक्षण के परिवेश का इस प्रकार निर्माण करे कि बालक सीखने के लिये प्रेरित हो । विद्यार्थी के लिये वह अवस्था अधिक प्रेरक होती है जब शिक्षा के लक्ष्यों का निर्धारण उसकी आवश्यकताओं के अनुरूप किया जाता है। प्रशंसा और मान्यता आदि से बालक अधिक सीखता है । विद्यार्थी के समक्ष ऐसी समस्याएँ और स्थितियाँ रखनी चाहिए कि वह उनमें अपने अर्जित ज्ञान का उपयोग कर सके, सफलता का सन्तोष प्राप्त कर सके और इस प्रकार ज्ञान एवं प्रवीणता प्राप्त करने की ओर प्रवृत्त हो सके। नवीन ज्ञान प्राप्त करने का रोमांच और उससे संतोष प्राप्त करना अपने-आपमें उच्च ज्ञान प्राप्त करने के लिये शक्तिशाली प्रेरक तत्त्व हैं। 

     

    7. जिज्ञासा ज्ञानार्जन का आधार है 

     

    जिज्ञासा अर्थात् ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा ज्ञानार्जन का आधार है। बिना इच्छा एवं जिज्ञासा के ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता। प्राचीन काल में भारत में गुरुकुल आश्रमों में प्रवेश प्रदान करने हेतु विद्यार्थी की ज्ञान-प्राप्ति की इच्छा की तीव्रता का परीक्षण होता था । यदि उसमें न्यूनता पायी जाती थी तो उसे प्रवेश हेतु समय देकर पुनः बुलाया जाता था। जिज्ञासु छात्र ही गुरु के पास ज्ञानार्जन के लिये जाते थे | ज्ञान-पिपासा ही शिक्षण का आधार था। 

     

    ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा बालक के विकास के स्तर पर निर्भर रहती है। बच्चे के शारीरिक, बौद्धिक और भावनात्मक विकास का स्तर ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करता है जो ज्ञान की सीमा भी बनता है और आधार भी । यदि बालक को उचित दिशा में अनुभव प्राप्त करने के लिये प्रेरित किया जाये तो वह बड़ों के अनुमान से कहीं अधिक ज्ञानार्जन की क्षमता रखता है। विद्यार्थी को उसके विकास के स्तर तथा रुचि के अनुरूप अनुभव प्राप्त कराने के लिये बुद्धिमत्तापूर्ण योजना - निर्माण तथा उसकी रुचियों और क्षमताओं को समझने के लिये विशिष्ट दृष्टि की आवश्यकता है । आजकल विद्यार्थियों की बढ़ती हुई संख्या के सन्दर्भ में ज्ञानार्जन की इच्छा का महत्त्व और भी अधिक हो जाता बहुत-से बच्चे ऐसे परिवारों से आते हैं जहाँ अभिभावक शिक्षित नहीं होते। उनके पास वह पृष्ठभूमि नहीं होती कि वे अध्ययन-अध्यापन की प्रक्रिया में इच्छा और प्रेरणा से उस स्तर पर भाग ले सकें जिस स्तर पर शिक्षित परिवारों के बच्चे ले सकते है। इन विद्यार्थियों के लिये विशेष कक्षाओं का प्रबन्ध अनिवार्य है जहाँ रुचिपूर्ण शिक्षण - विधि द्वारा उनमें ज्ञानार्जन की इच्छा जाग्रत की जा सके। 

     

    8. शिक्षण के सूत्र 

    ज्ञानार्जन - प्रक्रिया के कुछ मूलभूत सिद्धान्त हैं, जिन्हें उचित दृष्टिकोण और विधि अपनाने के लिये शिक्षक को ध्यान में रखना चाहिए। आधुनिक शिक्षाशास्त्रियों ने भी इन पर बल दिया है। ये सूत्र रूप में निम्नांकित है- 

    1. सरल से कठिन की ओर 

    2. ज्ञात से अज्ञात की ओर 

    3. स्थूल से सूक्ष्म की ओर 

    4. विशेष से सामान्य की ओर 

    5. पूर्ण से अंश की ओर 

    6. विश्लेषण से संश्लेषण की ओर 

    7. आगमन से निगमन की ओर 

    8. मनोवैज्ञानिक से तर्कपरक की ओर। 

     

    शिक्षण-पद्धति 

    शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये यह आवश्यक है कि व्यवस्थित शिक्षाक्रम तथा मनोवैज्ञानिक शिक्षण - सिद्धान्तों पर आधारित उपयुक्त शिक्षण-पद्धति अपनायी जाये। शिक्षण-पद्धति में अन्तर पाठ्यवस्तु की प्रकृति एवं विद्यार्थी के स्तर पर निर्भर है। शिक्षण-पद्धति शिक्षा दर्शन एवं सिद्धान्तों के क्रियान्वयन का चरण है। यदि पद्धति उपयुक्त नहीं है तो समस्त सिद्धान्त एवं आदर्श कोरे सिद्धान्त और आदर्श बने रह जाते हैं। अत: यह आवश्यक है कि हम भारतीय शिक्षा- सिद्धान्तों, आदर्शों एवं शैक्षिक उद्देश्यों को साकार रूप देने वाली शिक्षण-पद्धति को अपनायें। इसके लिये प्राचीन भारत की शिक्षण-पद्धति एवं आधुनिक पद्धतियों में समन्वय करना होगा। प्राचीन पद्धति को आज के नवीन परिवेश में उसी रूप में नहीं लाया जा सकता और न प्राचीन के नाम पर उसे त्यागकर नवीन को पूर्णतः अपनाया जा सकता है। इस सम्बन्ध में संस्कृत का निम्नलिखित सुभाषित प्रसिद्ध है- 

     

    पुराणमित्येव न साधु सर्वं, न चापि सर्वं नवमित्यवद्यम् । 

    सन्तः परीक्ष्यान्यतरद् भजन्ते, मूढ़ः परप्रत्ययनेयबुद्धिः ॥ 1 

     

    अर्थात् प्राचीन सब श्रेष्ठ नहीं होता और न नवीन पूर्णतः निर्दोष । बुद्धिमान लोग परीक्षण करने के पश्चात् स्वीकार करते हैं, परन्तु मूर्ख लोगों की बुद्धि पराश्रित होती है। 

     

    अत: शिक्षकों को इस दृष्टिकोण के साथ शिक्षण - कार्य करना चाहिए तथा जिस प्रणाली में जो अच्छा हो, उसे अवश्य ग्रहण करना चाहिए । इसी आशय से हम यहाँ प्राचीन भारतीय शिक्षण-पद्धति एवं कुछ आधुनिक पद्धतियों का विवेचन करेंगे। 

     

    प्राचीन भारत में प्रयुक्त कुछ आदर्श शिक्षण-पद्धतियाँ 

    भारतीय शिक्षा के इतिहास के अनुशीलन से हमें विभिन्न प्रकार की शिक्षण-पद्धतियों का परिचय मिलता है। औपनिषदिक शिक्षण-पद्धति का स्वरूप निम्नलिखित श्लोक में भली प्रकार प्रकट होता है- 

     

    श्रवणं तु गुरोः पूर्व मननं तदनन्तरम् । 

    निदिध्यासनमित्येतत्पूर्णबोधस्यकारणम्॥ 

     

    बृहदारण्यक उपनिषद् में ज्ञानार्जन की श्रवण, मनन तथा निदिध्यासन-इन तीन प्रक्रियाओं की व्याख्या मिलती है। श्रवण के द्वारा शिष्य गुरु के वचन ( शब्द - अर्थ ) को ध्यानपूर्वक सुनता था, मनन के द्वारा उनके वचन का बौद्धिक परिग्रहण करता था तथा निदिध्यासन के द्वारा उसकी साधनात्मक अनुभूति करता था । इस प्रकार ज्ञानार्जन की प्रक्रिया में शिक्षक की अपेक्षा शिष्य की चेष्टा ही प्रधान रहती थी। अपने स्वाध्याय द्वारा ही वह गुरु के उपदेशों को हृदयंगम करता था। गुरु केवल उसे मार्गदर्शन करते थे। उत्तर वैदिक साहित्य में इस प्रणाली के अनेक दृष्टान्त हैं। छान्दोग्य उपनिषद् में 'मन अन्नमय है, प्राण जलमय है तथा वाक् तेजोमयी है' इस तथ्य को समझाने के लिये श्वेतकेतु के पिता आरुणि उन्हें 15 दिन तक केवल जल पीकर रहने का निर्देश देते हैं ताकि इस अवधि में वे इस तथ्य का अनुभवात्मक ज्ञान प्राप्त करें। इसी प्रकार आत्मा तथा शरीर का सम्बन्ध बताने के लिये आरुणि श्वेतकेतु को वट वृक्ष का एक फल तोड़कर लाने को कहते हैं। श्वेतकेतु इस फल के बीजों का निरीक्षण करता है । पिता इसके द्वारा आत्मा अथवा सत्य की व्यापकता बताते हैं। 

     

    उपनिषद् साहित्य में शिक्षण की एक विशिष्ट शैली का परिचय भी हमें मिलता है। प्रश्नोत्तर (Catechetical) प्रणाली की उद्भावना सर्वप्रथम उपनिषद् साहित्य ने की। इस प्रणाली के द्वारा गूढ़ आध्यात्मिक तत्त्वों का स्पष्टीकरण बड़े ही रोचक ढंग से किया गया है। इस प्रणाली में मौखिक शिक्षा के सभी उपादेय उपादानों, जैसे- दृष्टान्त, कथा, कहानी, जीवनवृत्त आदि का प्रयोग होता था । यूनान के प्रसिद्ध विद्वान सुकरात की शिक्षण - शैली भी यही थी । श्रीमद्भगवद् गीता के चतुर्थ अध्याय के 34वें श्लोक में भी प्रश्न के द्वारा ज्ञान-प्राप्ति का वर्णन किया गया है- 

     

    तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया । 

    उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥ 

     

    भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है- " भली प्रकार दण्डवत् प्रणाम् तथा सेवा और निष्कपट भाव से किये हुए प्रश्न द्वारा उस ज्ञान को प्राप्त कर, वे मर्म को जानने वाले ज्ञानीजन तुझे उस ज्ञान का उपदेश करेंगे। " 

     

    स्मृति - चन्द्रिका में ज्ञानार्जन के निम्नांकित अंग वर्णित हैं। 

     

    1. शुश्रूषा 

    2. श्रवणम् 

    3. ग्रहणम् 

    4. धारणम् 

    5. ऊहापोह : 

    6. अर्थविज्ञानम् 

    7. तत्त्वज्ञानम् 

     

    श्रवण, ग्रहण तथा मनन के अतिरिक्त शंका-समाधान, तर्क-वितर्क, प्रयोग आदि भी ज्ञानार्जन के अंग माने गये हैं। साधना अथवा निदिध्यासन के द्वारा तत्त्वज्ञान की उपलब्धि का निर्देश भी है। वाचस्पति मिश्र के अनुसार तत्त्वज्ञान की उपलब्धि के पाँच चरण हैं 

     

    • अध्ययन-शब्द-श्रवण 
    • शब्द- श्रुत शब्द का अर्थग्रहण 
    • ऊह - तर्क तथा सामान्यीकरण 
    • सुहृत् प्राप्ति - मित्र अथवा शिक्षक का अनुमोदन 
    • दान-प्रयोग तथा व्यवहार 

     

    आधुनिक शिक्षाशास्त्री ड्यूई द्वारा प्रतिपादित ज्ञानार्जन के तीन अंग इन पाँच चरणों से बहुत समानता रखते हैं- 

    अध्ययन / शब्द A Problem and its location 

    ऊह:/ सुहृत-प्राप्ति Suggested solutions and the selection of a solution. 

    दान Action (Application). 

     

    ज्ञानार्जन की उपर्युक्त प्रक्रियाओं का निचोड़ मनु ने भी उपस्थित किया है - " ज्ञान की प्राप्ति चार रूपों में होती है। किसी तत्त्वज्ञान का पहला चतुर्थ भाग छात्र शिक्षक से ग्रहण करता है, दूसरा चतुर्थ भाग अपनी बुद्धि से प्राप्त करता है, तीसरा भाग अपने मित्र तथा सहपाठियों से और चौथा भाग अपने अनुभव से प्राप्त करता है । 

     

    उपनिषदों में प्रयुक्त कथा-कथन तथा प्रश्नोत्तर की रोचक शैलियों का व्यवहार बाद में भी शिक्षण-कार्य में होता रहा। पंचतंत्र तथा हितोपदेश इस शैली के प्रतीक हैं। वाद-विवाद तथा शास्त्रार्थ की प्राचीन पद्धति आज भी परिचर्चा पद्धति (सेमिनार्स) के रूप में प्रचलित है। प्राचीन भारत के विद्यालयों में उपगुरु (मौनीटोरियल) प्रणाली भी प्रचलित थी । अनुभवी तथा सुयोग्य छात्र शिक्षण-कार्य में शिक्षक की सहायता करते थे। तक्षशिला जैसे सुप्रसिद्ध शिक्षा-केन्द्र में भी यह प्रथा पूर्णत: प्रचलित थी । बौद्ध शिक्षा-केन्द्रों में भी यह प्रणाली व्यवहार में लायी जाती थी। ईसवी शती 7वीं में इत्सिंग ने वल्लभी में कई छात्रों को अपने से छोटे छात्रों को शिक्षा देते हुए देखा था। पुराने तथा अनुभवी छात्र शिक्षक के समान ही आदरणीय थे। उपगुरु प्रणाली की उपादेयता आधुनिक शिक्षाशास्त्रियों ने भी स्वीकार की है। भारत के उदाहरण पर पाश्चात्य देशों में भी इस प्रणाली को अपनाने की संस्तुति की गयी है। इस प्रथा द्वारा सुयोग्य छात्रों को आत्मविश्वास की बलवती प्रेरणा प्राप्त होती है, साथ ही शिक्षक को एक विश्वासपात्र सहायक बिना किसी व्यय के ही उपलब्ध हो जाता है। आधुनिक भारत में भी यह प्रथा आज भी अनुकरणीय है। 

     

    अन्त में एक बात उल्लेखनीय है कि प्राचीन भारतीय शिक्षण-प्रणाली में व्यक्तिगत शिक्षण प्रचलित था। शिक्षक छात्र के विकास की ओर व्यक्तिश: ध्यान देते थे। आजकल भी व्यक्तिगत शिक्षण की विशेषता की ओर लोगों का ध्यान जा रहा है और शिक्षाविद् छात्रों की ओर व्यक्तिगत ध्यान देने के लिये आग्रह करते हैं। 

     

    पश्चिमी देशों में प्रचलित प्रमुख शिक्षण-पद्धतियाँ 

    हरबर्टीय पंचपदी 

    प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री हरबर्ट के सिद्धान्तों के आधार पर उनके शिष्यों ने हरबर्टीय पंचपदी का विकास पाठ की योजना बनाने के लिये किया है। ये पाँच पद हैं- 

    1. प्रस्तावना, 2. विषयोपस्थापन, 3. तुलना, 4. सामान्यीकरण, 5. प्रयोग। 

     

    (1) प्रस्तावना : प्रस्तावना में छात्र के पूर्वार्जित ज्ञान के आधार पर उसे नये ज्ञान के तट तक पहुँचा दिया जाता है। प्रस्तावना पिछले पाठ की पुनरावृत्ति द्वारा भी हो सकती है। प्रसंग का वर्णन करके भी प्रस्तावना की जा सकती है। आजकल प्रश्नों के द्वारा प्रस्तावना अच्छी मानी जाती है। 

     

    (2) विषयोपस्थापन : इसका अर्थ है पाठ प्रस्तुत करना । भाषा या साहित्य के पाठ में तो शिक्षक और छात्रों द्वारा पाठ का वाचन ही विषयोपस्थापन है। विज्ञान, अर्थशास्त्र, गणित आदि विषयों में सिद्धान्त प्रतिपादन पाठ का उद्देश्य होता है। वहाँ पहले उदाहरण देकर सिद्धान्त निकलवाया जाता है या छात्र के अनुभव को उद्दीप्त करके उसके सहारे नया ज्ञान दिया जाता है। पूरे पाठ को छोटी-छोटी अन्वितियों में बाँट लिया जाता है। प्रत्येक अन्विति को प्रस्तावना के पश्चात् छात्रों के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। 

     

    ( 3 ) साहचर्य या तुलना : प्रस्तुत किये हुए ज्ञान की तुलना बालक के संचित ज्ञान से की जाती है तथा अन्य विषयों से उसका साहचर्य स्थापित करा दिया जाता है। 

     

    (4) सामान्यीकरण : तुलना और साहचर्य स्थापित हो चुकने के पश्चात् छात्र स्वयं कुछ सामान्य सिद्धान्तों का दर्शन करते हैं। यह सिद्धान्त, नियम या परिभाषा अत्यन्त संक्षिप्त और स्पष्ट होनी चाहिए तथा स्वयं छात्रों द्वारा ही प्रतिपादित होनी चाहिए। 

     

    (5) प्रयोग : सामान्य सिद्धान्त का निर्धारण कर लेने के पश्चात् यह आवश्यक हो जाता है कि छात्र नवार्जित ज्ञान का प्रयोग करें। प्रयोग के लिये कुछ अभ्यास कार्य कक्षा-कार्य एवं गृह कार्य के रूप में दिया जाता है। 

     

    हरबर्टीय पंचपदी यद्यपि मनोविज्ञान के सिद्धान्तों पर आधारित है, तो भी यह पद्धति सभी प्रकार के विषयों में प्रयुक्त नहीं हो सकती । विज्ञान - शिक्षण में यह असफल सिद्ध हुई है । भाषा - शिक्षण में भी सभी प्रकार के पाठों में इसका प्रयोग नहीं हो सकता। फिर भी यह पद्धति आवश्यक संशोधन करके उपयोग में लायी जा सकती है। 

     

    योजना प्रणाली 

    योजना या 'प्रोजेक्ट' प्रणाली का विकास विलियम किलपेट्रिक ने किया था। उस पर जॉन ड्यूई का विशेष प्रभाव था। उसके अनुसार 'प्रोजेक्ट' वह महत्त्वपूर्ण अभिप्राययुक्त क्रिया है जो पूर्ण संलग्नता के साथ सामाजिक वातावरण में की जाती है। इस प्रणाली के प्रयोग करने में आवश्यक चरणों का अनुसरण किया जा सकता है, जो इस प्रकार हैं- 

    1.परिस्थिति उत्पन्न करना 

     

    2. योजना का चयन 

    3. उद्देश्य - निरूपण 

    4. योजना का कार्यक्रम 

    5. योजना का क्रियान्वयन 

    6. कार्य का मूल्यांकन 

    7. कार्य का लेखा 

    कुछ 

     

    योजना का वर्गीकरण चार भागों में किया जाता है- 

    (1) अभ्यासात्मक : इसका ध्येय छात्रों में क्षमताओं एवं कुशलताओं का विकास करना है। इसमें मानचित्र बनाना, ग्राफ या रेखाचित्र आदि बनाने के कार्य करने होते हैं। 

    (2) रचनात्मक या उत्पादनात्मक : इसमें कार्य की रचना भौतिक रूप में की जाती है, जैसे- कुआँ खोदना, मॉडल आदि बनाना। 

    (3) अनुभवात्मक : इसका ध्येय अनुभूति की प्राप्ति होता है, जैसे - कविता, संगीत, कहानी आदि सुनना तथा सुनाना । 

    (4) समस्यात्मक : इसका उद्देश्य किसी बौद्धिक समस्या का समाधान करना होता है, जैसे- सूर्यग्रहण क्यों होता है? भारतीय किसान निर्धन क्यों है? आदि । 

    योजना - पद्धति अनेक दृष्टियों से अच्छी पद्धति है । इसके द्वारा विद्यालय के जीवन को जीवन की वास्तविक परिस्थितियों से सम्बन्धित किया जाता है। इसमें छात्र स्वक्रिया द्वारा ज्ञानार्जन करते हैं तथा श्रम के प्रति छात्रों में आदरभाव जाग्रत होता है। किन्तु यह पद्धति व्यय एवं समय साध्य है। इसमें द्वारा ज्ञान को खण्डों में विभाजित करके प्रदान किया जाता है तथा उसमें कोई तारतम्य नहीं होता । इन दोषों को दूर करके इस पद्धति का प्रयोग कुछ विषयों के शिक्षण में करना उपयोगी है। 

     

    इकाई पद्धति 

    इकाई पद्धति का प्रयोग अमेरिका में पर्याप्त किया जा रहा है। इसके प्रवर्तक श्री हेनरी सी० मौरीसन हैं। इस पद्धति का जन्म 'गेस्टाल्ट मनोविज्ञान' के परिणामस्वरूप हुआ है। हेनरी मौरीसन ने प्रत्येक इकाई के पाँच पद हरबर्ट के पाँच सोपानों की भाँति ही निश्चित किये हैं। परन्तु इसमें अन्तर इतना है कि हरबर्ट के सोपानों में शिक्षक प्रधान है और मौरीसन के पदों में बालक प्रधान है। ये पद हैं- 

    1. अनुसन्धान 

    2. प्रस्तुतिकरण 

    3. आत्मीकरण 

    4. लेखा 

    5. अभिव्यक्तिकरण 

     

    इकाई पद्धति इस मौलिक धारणा पर अवलम्बित है कि वास्तविक ज्ञान शिक्षार्थी की प्रवृत्ति के परिवर्तन के रूप में अर्थात् किसी योग्यता या कौशल के रूप में अभिव्यक्त होता है। इस प्रणाली का प्रयोग गणित, व्याकरण तथा विज्ञान की शिक्षा में किया जा सकता है किन्तु अनुभूति के पाठों में इसका प्रयोग नहीं किया जा सकता। 

     

    किंडरगार्टन पद्धति 

    किंडरगार्टन पद्धति के प्रवर्तक जर्मनी के प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री फ्रोबेल हैं। किंडरगार्टन प्रणाली में 'फ्रोबेल के उपहार' प्रसिद्ध हैं। इन उपहारों की संख्या 10 है जो गोलाकार, बेलनाकार और घन की आकृतियों में विभिन्न रंगों के होते हैं। बालक इन उपहारों की सहायता से खेल-खेल में रचनात्मक कार्यों की ओर प्रवृत्त होता है । उपहारों के साथ बालक को अभ्यास-कार्य के लिये बालू, मिट्टी, लकड़ी तथा अन्य सामग्री दी जाती है। इनसे बालक गोलियाँ, कागज की कटाई आदि हस्तकौशल के कार्य करता है। कार्य के साथ ही कहानियाँ, संगीत आदि में भी बालक लगे रहते हैं जिससे कार्य में रुचि उत्पन्न हो । फ्रोबेल के अनुसार बालक तीन मार्गों से अभिव्यक्ति करता है- (1) गाकर, (2) गति के द्वारा, ( 3 ) रचना के द्वारा। इसीलिये किंडरगार्टन पद्धति में गीत, गति और रचना को बहुत महत्त्व दिया गया है। 

     

    मॉण्टेसरी पद्धति 

    इटली की डा० मेरिया मॉण्टेसरी ने छोटे बालकों की शिक्षण-पद्धति मनोवैज्ञानिक आधार पर प्रचलित की, जो उन्हीं के नाम पर मॉण्टेसरी पद्धति के नाम से प्रसिद्ध हुई। किंडरगार्टन के मूल सिद्धान्तों में परिवर्तन करके मॉण्टेसरी पद्धति विकसित की गयी है। 

    यद्यपि मॉण्टेसरी पद्धति में बालकों के लिये कोई बँधा हुआ पाठ्यक्रम नहीं है, फिर भी शिक्षाक्रम को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-

    (1) कर्मेन्द्रियों की शिक्षा : इसके लिये मॉण्टेसरी विद्यालय में घर जैसा वातावरण बनाया जाता है। वहाँ कपड़े, बिस्तर, बर्तन, फर्नीचर, भोजन कक्ष आदि की व्यवस्था होती है और उनके माध्यम से दैनिक जीवन के कार्य उन्हें कुशलता से कराये जाते हैं। 

    (2) ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा : इसके लिये मॉण्टेसरी के अपने उपकरण निश्चित हैं। उनके माध्यम से ज्ञानेन्द्रियों का विकास किया जाता है। गट्टापेटी, रंगीन रुमाल, खुरदरे और चिकने कागज आदि सामग्री इसके लिये उपयोग में लायी जाती है। 

    (3) भाषा - शिक्षण : मॉण्टेसरी पद्धति में भाषा- शिक्षण लिखने से आरम्भ होता है। इससे बालक को गति का अवसर मिलता है। उनके सिद्धान्त के अनुसार पढ़ने का समन्वय मानसिक विकास से है, जबकि लिखने में केवल अनुकरण की आवश्यकता होती है। लेखनी पकड़ने का अभ्यास, अक्षरों का स्वरूप समझना और फिर ध्वनि का उच्चारण कराया जाता है। 

     

    डाल्टन-पद्धति 

    डाल्टन - पद्धति की रचना का श्रेय प्रसिद्ध अमेरिकी शिक्षाविद् कुमारी हेलन पार्खर्स्ट को दिया जाता है। इस पद्धति का आरम्भ अमरीका के डाल्टन नगर में हुआ, अत: इसका नाम डाल्टन-पद्धति पड़ा। यह डाल्टन योजना के नाम से अधिक प्रसिद्ध है। 

     

    डाल्टन -पद्धति की निम्नलिखित कार्य-प्रणाली है-

    (1) ठेका या काण्ट्रेक्ट इस पद्धति का मुख्य आधार एक निर्धारित कार्य (असाइनमेण्ट) होता है। पूरे वर्ष के कार्य को वार्षिक निर्दिष्ट कार्य कहते हैं। उसे दस भागों में बाँटते हैं, क्योंकि वर्ष में दस मास शिक्षण के होते हैं। विद्यार्थी अपने अध्ययन कार्य को निर्दिष्ट के रूप में ग्रहण करते हैं। प्रत्येक विद्यार्थी अपनी गति से कार्य करता है । उसको अगले मास का कार्य तब तक नहीं दिया जाता, जब तक कि वह मास के लिये निर्दिष्ट सभी विषयों के कार्य को पूरा नहीं कर लेता । 

     

    (2) वर्ग कक्षाओं के स्थान पर विषय प्रयोगशालाएँ : इस योजना के अनुसार कक्षाओं को समाप्त कर उनके स्थान पर भिन्न-भिन्न विषयों की प्रयोगशालाएँ होती हैं। इन प्रयोगशालाओं में अपने-अपने विषय के समस्त उपकरण - पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाएँ, चित्र, मानचित्र, रेखाचित्र तथा मूर्तियाँ इत्यादि रखे रहते हैं। विभिन्न कक्षाओं के बालक जिस विषय के कार्य को पूरा करना चाहते हैं, उस विषय की प्रयोगशाला में जाकर अध्ययन करते हैं। उन्हें पूरी स्वतन्त्रता होती है कि वे किसी भी प्रयोगशाला में जायें और जितना समय चाहें, वहाँ अध्ययन करें। वहाँ समय-विभाग-चक्र नाम की कोई वस्तु नहीं होती और न कालांश बदलने के लिये घण्टियाँ ही बजती हैं। 

     

    (3) वर्ग-सम्मेलन : विद्यार्थियों को केवल अपने प्रयास पर ही नहीं छोड़ दिया जाता। वे सप्ताह में दो-तीन बार विषय प्रयोगशालाओं में एकत्रित होते हैं और विषय - अध्यापक के निर्देशन में समस्या पर सामूहिक रूप से चर्चाएँ होती हैं। विद्यार्थी अपने अनुभव सुनाते हैं और आवश्यकता पड़ने पर अध्यापक व्याख्यान भी देते हैं। 

     

    (4) प्रगति का लेखा : 'ग्राफ पेपर' पर विद्यार्थियों की प्रगति का लेखा रखा जाता है। एक लेखा विद्यार्थी अपने पास रखता है जिससे उसे पता रहे कि वह कितना कार्य कर चुका है। दूसरा लेखा अध्यापक के पास प्रयोगशाला में रहता है। विद्यालय में विद्यार्थियों की उपस्थिति का लेखा भी रखा जाता है। 

     

    अर्वाचीन भारत में प्रयुक्त शिक्षण-पद्धतियाँ 

     

    बुनियादी शिक्षा-पद्धति 

    महात्मा गाँधी द्वारा प्रतिपादित वर्धा शिक्षा योजना 'बुनियादी शिक्षा' या 'बेसिक शिक्षा' के नाम से प्रसिद्ध है। इस शिक्षा-पद्धति की मुख्य विशेषता हस्तकौशल के माध्यम से शारीरिक, मानसिक, सामाजिक एवं आत्मिक अर्थात् बालक को सम्पूर्ण शिक्षा प्रदान करना है। 'बुनियादी शिक्षा में नीरस पुस्तकीय ज्ञान के स्थान पर मूल उद्योग के द्वारा उपयोगी और सरस शिक्षा दी जाती है। गाँधीजी के शब्दों में 'मुख्य विचार शरीर, मस्तिष्क और आत्मा की सम्पूर्ण शिक्षा हस्तकौशल के द्वारा देने का है जो कि बालक को सिखाया जाता है। आपको हस्तकौशल की समस्त प्रक्रिया सिखाते समय बालक में जो कुछ है, उस सबको अभिव्यक्त करना है और आपके इतिहास, भूगोल तथा गणित के सब पाठ हस्तकौशल से सम्बन्धित होंगे।" उदाहरण के लिये, तकली से कताई सीखने के समय कपास की किस्में, भारतीय प्रान्तों में उसके लिये उपयुक्त भूमि, इस उद्योग के ह्रास का इतिहास, उसके राजनीतिक कारण, कपास की नाप-तौल का लेखा-जोखा रखने से गणित, उसका विवरण लिखने और उस पर चर्चा करने से भाषा-शिक्षण, मिलकर कार्य करना, स्वच्छता, ग्राम की भलाई आदि की शिक्षा प्राप्त हो जायेगी । इस प्रकार तकली कातने के माध्यम से भूगोल, इतिहास, गणित, भाषा, नागरिकशास्त्र, नैतिक शिक्षा आदि सभी आवश्यक विषयों की शिक्षा बालक प्राप्त करेगा। 

     

    बुनियादी शिक्षा-पद्धति में भारत की 80 प्रतिशत खेतिहर और 10 प्रतिशत औद्योगिक श्रमिक जनसंख्या का विचार किया गया है। कृषि अथवा उद्योग के शिक्षण एवं श्रम पर आधारित शिक्षा ही भारतीय शिक्षा-पद्धति हो सकती है, इसी बात का गांधीजी ने विचार किया था। बाद में उस मूल भावना पर विचार नहीं किया गया और परिणामतः यह पद्धति असफल हुई।

     

    शान्तिनिकेतन शिक्षा-पद्धति 

    रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने शान्तिनिकेतन में शिष्यों और गुरुओं के परस्पर घनिष्ठ आध्यात्मिक सम्बन्ध, प्रकृति की गोद, स्वतन्त्रता का वातावरण एवं सांस्कृतिक परिवेश के माध्यम से नवीन शिक्षा-पद्धति का प्रयोग किया। रवीन्द्रनाथ ने 5-7 ग्रामीण विद्यार्थियों को लेकर 'शिक्षा-सत्र' नाम से भी एक प्रयोग प्रारम्भ किया। सभी विद्यार्थी एक ही गृह (मकान) में रहते थे। वे स्वयं ही अपना भोजन बनाते, बर्तन, कपड़े और गृह की स्वच्छता आदि कार्य करते थे। प्रातःकाल दरी आदि बुनने का तथा बागवानी का काम करते और सायंकाल सामूहिक बैठकर अध्यापक से महाभारत आदि की कहानियाँ सुनते और दिन-भर के कार्य-विवरण अपने हाथ से लिखते थे। सप्ताह में एक बार खेतों में, कारखानों में जाते और नयी-नयी वनस्पतियों, पशुओं और यन्त्रों से परिचय बढ़ाते थे। 

     

    स्वास्थ्य के विकास की दृष्टि से खाने-पीने, सोने-जागने और व्यायाम आदि की अच्छी आदतें सिखायी गयीं, जिससे ग्रामीण बालकों का स्वास्थ्य चमक उठा। बागवानी, दरी बुनना, रंगना, भवन-निर्माण, मिट्टी के बर्तन बनाना, चित्रकला, नाटक, संगीत, नृत्य आदि की व्यावहारिक शिक्षा द्वारा उनका मानसिक, सौन्दर्यात्मक एवं आत्मिक विकास होता था । शिक्षा सत्र में कोई निश्चित कक्षा, कमरे, समय-सारणी आदि नहीं थे। स्वतन्त्रता एवं प्रकृति के वातावरण में ही शिक्षण कार्य चलता था। 

     

    अनेक कारणों से और सरकारी आर्थिक सहायता लेने के पश्चात् तथा विशेष रूप से केन्द्रीय विश्वविद्यालय बनने के पश्चात् शान्तिनिकेतन का जो रूप बन गया, वह रवीन्द्रनाथ की कल्पना नहीं थी । 

     

    गुरुकुल एवं दयानन्द एंग्लो-वैदिक विद्यालय 

    स्वामी दयानन्द की प्रेरणा से विभिन्न स्थानों पर दयानन्द एंग्लो-वैदिक विद्यालयों की स्थापना हुई। प्रथम विद्यालय लाहौर में आरम्भ हुआ । हरिद्वार के निकट कांगड़ी एवं वृन्दावन में गुरुकुल आरम्भ हुए । कन्याओं के लिये पृथक् गुरुकुल देहरादून, वडोदरा तथा सासनी (हाथरस - उ०प्र०) में स्थापित हुए। इन गुरुकुलों एवं दयानन्द एंग्लो- वैदिक विद्यालयों की शिक्षा-प्रणाली से देश में एक नवीन चेतना का जागरण हुआ। 

     

    गुरुकुलों की शिक्षा-पद्धति प्राचीन गुरुकुल शिक्षा-पद्धति पर ही आधारित थी । ब्रह्मचर्य का पालन, नित्य कर्म का पालन, धर्म- शिक्षा, संस्कृत भाषा एवं साहित्य का अध्ययन आदि इसकी प्रमुख विशेषताएँ थीं। दयानन्द एंग्लो- वैदिक विद्यालयों की शिक्षा-पद्धति में प्राचीन भारतीय शिक्षा-पद्धति एवं नवीन अंग्रेजी शिक्षा का समन्वय किया गया था। इन विद्यालयों में भी धर्म - शिक्षा, दैनिक यज्ञ, संस्कृत-शिक्षण एवं शिक्षकों के प्रति आदरभाव आदि प्राचीन पद्धतियाँ मुख्य आधार थीं। दयानन्दजी ने स्त्री-शिक्षा पर पुरुषों की शिक्षा के समान ही बल दिया।- 

     

    श्रीअरविन्द आश्रम, पाण्डिचेरी की शिक्षा-पद्धति 

    श्री अरविन्द के शिक्षा दर्शन पर आधारित 'श्रीअरविन्द अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा-केन्द्र' नाम से संस्था श्रीमाँ ने स्थापित की। इस संस्था की शिक्षा-पद्धति 'प्रगतिशील शिक्षा' (प्रोग्रेसिव एज्यूकेशन) के नाम से जानी जाती है। इस पद्धति की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं- 

     

    (1) इस शिक्षा-पद्धति में परीक्षा और प्रमाणपत्र या 'डिग्री' देने की कोई व्यवस्था नहीं है। श्रीअरविन्द आश्रम की शिक्षा का उद्देश्य नौकरी या व्यवसाय के लिये ऐसे बालक तैयार करना नहीं है जो उसके लिये आवश्यक 'डिग्री' प्राप्त करने के लिये शिक्षा प्राप्त करते हैं। यहाँ ऐसे बालक ही शिक्षा प्राप्त करने आते हैं जिनके जीवन की प्रेरणा शारीरिक, प्राणिक, मानसिक, चैत्य एवं आध्यात्मिक विकास के द्वारा जीवन की पूर्णता प्राप्त करना है। 

     

    (2) यहाँ के छात्र चार-पाँच भाषाओं का व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। भाषा के शिक्षक कक्षा में और कक्षा के बाहर उसी भाषा में छात्रों से वार्ता करते हैं जिस भाषा के वे शिक्षक हैं। इस प्रकार विभिन्न भाषाओं का प्रयोग करने का सहज अवसर उन्हें प्राप्त होता है जो भाषा - शिक्षण की मूल पद्धति है। फ्रेंच, अंग्रेजी, हिन्दी, संस्कृत, तमिल-ये पाँच भाषाएँ यहाँ के प्रायः सभी बालक जानते 

     

    (3) शारीरिक विकास हेतु प्रतिदिन चार घण्टे छात्र खेल के मैदान में - दो घण्टे प्रातः और दो घण्टे सायंकाल-नित्य समय देते हैं। परिणामत: खेल और व्यायाम के दैनिक अभ्यास से इनका स्वास्थ्य सदैव चमकता रहता है। 

     

    (4) आध्यात्मिक शिक्षा, आध्यात्मिक अभीप्सा जाग्रत कर वह ध्यान योग के अभ्यास, संस्कारक्षम भावपूर्ण प्रार्थना सभा के दैनिक कार्यक्रम के माध्यम से प्रदान की जाती है। 

     

    (5) ललित कलाओं के माध्यम से प्राणिक विकास की व्यवस्था है। चित्रकला, मूर्तिकला, पेंटिंग, फोटोग्राफी, संगीत, नृत्य, नाट्यकला आदि विभिन्न कलाओं को छात्र अपनी रुचि के अनुसार सीखते हैं। 

     

    (6) श्रीअरविन्द आश्रम के विद्यालय में कक्षा की व्यवस्था नहीं है। वहाँ जिस विषय में जिस कक्षा के स्तर-योग्य छात्र होता है, उस विषय की उसी कक्षा में शिक्षण प्राप्त करता है। उदाहरणार्थ, एक ही छात्र गणित विषय में कक्षा 8 में पढ़ता है, अंग्रेजी में 9 में एवं हिन्दी विषय में कक्षा 7 में अध्ययन कर सकता है। इस प्रकार किसी एक विषय में पीछे रहने पर उसके अन्य विषयों के ज्ञानार्जन की प्रगति में बाधा नहीं पड़ती। 

     

    (7) श्रीअरविन्द आश्रम में आश्रमवासी ही शिक्षक होते हैं जो अवैतनिक कार्य करते हैं। शिक्षकों की संख्या भी पर्याप्त है। 600 छात्र एवं 200 अध्यापक हैं। व्यय साध्य होने से यह अनुपात अन्यत्र व्यावहारिक नहीं है। 

     

    (8) श्री अरविन्द आश्रम शिक्षा-केन्द्र में स्व-प्रेरणा से अध्ययन की प्रवृत्ति छात्रों में विकसित होती है। यदि एक वाक्य में इसकी विशेषता बतानी हो तो कहा जा सकता है कि अरविन्द आश्रम में बालक पढ़ते हैं, अन्य विद्यालयों में पढ़ाये जाते हैं। सम्पूर्ण शिक्षा - संस्थान के परिवेश में छात्रों की क्रियाशीलता स्पष्ट देखी जा सकती है। परिणामतः यहाँ के छात्र-छात्राओं का शैक्षिक स्तर एवं जीवन का विकास पर्याप्त ऊँचा होता है। 

     

    'सरस्वती शिशु मन्दिर' शिक्षण-पद्धति 

     

    सरस्वती शिशु मन्दिर का आरम्भ 1952 में उत्तरप्रदेश के गोरखपुर नगर में हुआ । सरस्वती शिशु मन्दिर की अभिनव शिक्षण-पद्धति ने अल्प अवधि में ही समाज में इतना आकर्षण एवं प्रभाव उत्पन्न कर दिया कि आज इस पद्धति पर चलने वाले हजारों शिशु मन्दिर सम्पूर्ण भारत में हैं तथा देश के प्रत्येक प्रदेश में, जम्मू-कश्मीर से लेकर केरल - तमिलनाडु तक एवं मणिपुर-असम से लेकर गुजरात-काठियावाड़ तक, सरस्वती शिशु मन्दिरों का जाल बिछ गया है। बालशिक्षा - जगत् में सरस्वती शिशु मन्दिर शिक्षण-पद्धति को प्रतिष्ठा प्राप्त है। इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं- 

     

    (1) भारतीय संस्कृति एवं जीवनादर्शों के अनुरूप संस्कार -पद्धति के माध्यम से शिशु का सर्वांगीण विकास करना शिशु मन्दिर की शिक्षा-पद्धति की प्रमुख विशेषता है। 

    (2) यहाँ के शिक्षक 'आचार्य' कहलाते हैं। बालक 'आचार्य जी' शब्द से ही अपने अध्यापकों को सम्बोधित करते हैं। आचार्य अर्थात् जो अपने आचरण से बालकों को शिक्षा प्रदान करे। आचार्य भारतीय वेश धारण करते हैं। बच्चों के प्रति प्रेम एवं आत्मीयतापूर्ण व्यवहार करते हैं। परिणामतः बच्चों में भी अपने आचार्यों के प्रति आदर एवं प्रेम की भावना होती है। गुरु-शिष्य की प्राचीन भारतीय परम्परा का आत्मीय रूप शिशु मन्दिरों में दिखायी पड़ता है।

    (3) भारतीय मनोविज्ञान के संस्कार - सिद्धान्त पर आधारित करके यहाँ के सम्पूर्ण शैक्षिक क्रियाकलापों की योजना की जाती है। शिशु मन्दिर का वातावरण पूर्ण संस्कारक्षम होता है। वातावरण स्वच्छता, व्यवस्थितता, पवित्रता एवं आत्मीयता से परिपूर्ण रहता है। इस वातावरण में बालक का मानसिक, सामाजिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास सहज संस्कारों के द्वारा होता है।

     

    (4) शिशु मन्दिर के आचार्यगण विद्यालय में तो संस्कारक्षम वातावरण निर्मित करने का प्रयास करते ही हैं, परन्तु साथ ही घरों और परिवारों में भी उसी प्रकार का संस्कारक्षम वातावरण बालकों को प्राप्त हो, इसके लिये प्रयास करते हैं। आचार्य घरों पर जाकर अभिभावकों से सम्पर्क स्थापित करते हैं। उनसे बालक के विकास की स्थिति के विषय में विचारों का आदान-प्रदान करते हैं तथा घरों पर उनके विकास के लिये संस्कारक्षम वातावरण निर्मित करने के सम्बन्ध में परामर्श देते हैं। शिशु मन्दिर में आचार्यों द्वारा अभिभावक - सम्पर्क बालक के विकास में अत्यधिक प्रभावी कारक बनता है। समय-समय पर मातृ सम्मेलन एवं अभिभावकों के सम्मेलन आयोजित किये जाते हैं। इन सम्मेलनों में भी उक्त विषयों पर परिचर्चाएँ की जाती हैं। 

     

    (5) बालक अपने घरों से दोपहर का भोजन या अल्पाहार साथ में लाते हैं और शिशु मन्दिर में दैनिक सामूहिक भोजन मन्त्रों सहित करते हैं। जाति की भावना नष्ट होकर परस्पर प्रेम और समानता एवं एकता की भावना का हृदय में गहरा संस्कार करने का यह भोजन कार्यक्रम सबल साधन सिद्ध होता है। 

     

    (6) शिविरों के आयोजन शिशु मन्दिर शिक्षण-पद्धति के अभिन्न अंग हैं। प्रतिवर्ष बच्चे दो-तीन दिन के लिये घर से बाहर शिविर जीवन व्यतीत करते हैं। इसके द्वारा उनके अन्दर क्रियाशीलता, स्वावलम्बन, सामूहिकता आदि जीवन के गुणों का विकास सहज रूप से होता है। 

     

    (7) छोटे-छोटे बच्चों में योगासन एवं ध्यान के अभ्यास से एकाग्रता के गुण का विकास किया जाता है। अग्निचक्र के भीतर से कूदना, रस्से पर सन्तुलन बनाकर चलना, बन्दूक से लक्ष्य वेध (निशाना लगाना) आदि विभिन्न कार्यक्रमों - के माध्यम से साहस, वीरता, निर्भयता आदि गुणों का विकास किया जाता है। 

     

    (8) शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् शिशु मन्दिर छोड़कर जाने बाले बालकों (8) से भी स्थायी सम्पर्क बनाये रखने की इन विद्यालयों में व्यवस्था है। पत्र - व्यवहार एवं पूर्व छात्र सम्मेलन आदि कार्यक्रमों के माध्यम से उनसे सम्पर्क बनाये रखकर उनके संस्कारों को सतत् जाग्रत रखने के लिये प्रयास चलता रहता है। शिशु मन्दिर से शिक्षित छात्रों के जीवन में भारतीय संस्कृति के प्रति श्रद्धा, देशभक्ति, प्रामाणिकता, शिष्टता, माता-पिता एवं बड़ों के प्रति आदर भाव आदि नैतिक गुण स्पष्ट अनुभव किये जाते हैं। 

     

    सरस्वती विद्या मन्दिरों की अभिनव पंचपदी शिक्षण-पद्धति 

     

    देश में विद्या भारती से सम्बन्धित अनेक विद्या मन्दिर चलते हैं। इन विद्या - मन्दिरों ने प्राचीन एवं अर्वाचीन शिक्षण-पद्धतियों के समन्वित आधार पर 'अभिनव पंचपदी शिक्षण-पद्धति' का विकास किया है। इन पद्धति के पाँच पद निम्नांकित हैं- 

    1. अधीति 

    2. बोध 

    3. अभ्यास 

    4. प्रयोग 

    5.प्रसार 

     

    1. अधीति 

    इस प्रथम पद में अध्यापक विषय-वस्तु को छात्रों के समक्ष नवीन विषय को छात्रों के पूर्व-ज्ञान से जोड़कर प्रस्तुत करते हैं। छात्र अपने अध्यापक के सहयोग से इस प्रस्तुत विषय-वस्तु की जानकारी प्राप्त करते एवं उसका अध्ययन करते हैं। विषय की प्रकृति के अनुरूप पद्धति अपनाकर अर्थात् अध्यापक के कथन को श्रवण कर, प्रश्नोत्तर, वाचन, प्रयोग आदि के माध्यम से छात्र विषय-वस्तु से सम्बन्धित तथ्यों एवं सिद्धान्तों की जानकारी प्राप्त करते हैं। 

    2. बोध 

    इस द्वितीय चरण में छात्र विषय-वस्तु के मूल सिद्धान्त या तत्त्व को समझने का प्रयास करते हैं। मनन, पुनरावृत्ति, प्रश्नोत्तर, कथा में स्वयं उसका पुनः अभ्यास अथवा प्रयोग करके बोध प्राप्त करते हैं। अध्यापक भी प्रश्न पूछकर अथवा निरीक्षण द्वारा यह जानने का प्रयास करते हैं कि छात्रों ने पाठ्यवस्तु के मूल तत्त्व को ग्रहण किया है अथवा नहीं, तथा आवश्यकता के अनुसार उनकी सहायता करते हैं। 

     

    3. अभ्यास 

    तृतीय चरण में छात्र अर्जित ज्ञान का अभ्यास करते हैं एवं उसमें परिपक्वता प्राप्त करते हैं। विभिन्न प्रकार से किये गये अभ्यास के द्वारा ही अर्जित ज्ञान चित्त में स्मृति - संस्कार के रूप में स्थायी बनता है । अध्यापक इसी दृष्टि से छात्रों को गृह-कार्य अथवा अभ्यास-कार्य देते हैं। छात्रों द्वारा किये हुए अभ्यास-कार्य का निरीक्षण अध्यापकों द्वारा किया जाना आवश्यक है जिससे छात्रों की त्रुटियों या भूलों भूलों में सुधार किया जा सके। अभ्यास- कार्य का रूप विविध, रुचिपूर्ण एवं पूर्व नियोजित होना चाहिए। छात्रों को जब एक साथ अनेक विषयों का अभ्यास कार्य करना होता है तो वह उनके लिये भार बन जाता है तथा वे उसे निर्धारित अवधि में पूर्ण भी नहीं कर पाते। गृहकार्य पाठ्य-वस्तु मूल तत्त्व का बार-बार तथा विभिन्न प्रकार से अभ्यास करने हेतु दिया जाता है। अतः इसमें विविधता आवश्यक है जिससे छात्रों में अभ्यास- कार्य के प्रति रुचि बनी रहे । अभ्यास- कार्य इस प्रकार का हो जिससे छात्रों में विभिन्न प्रकार की कुशलताओं का भी विकास हो सके। 

     

    4. प्रयोग 

    प्रत्येक ज्ञान जीवन-व्यवहार में लाने के उद्देश्य से ही अर्जित किया जाता है। अनुभवजन्य ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान होता है, अन्यथा वह केवल पुस्तकीय या शाब्दिक ज्ञान बनकर रह जाता है। इस सिद्धान्त के अनुसार ही इस चतुर्थ पद में प्रत्येक पाठ्य-वस्तु की ऐसी सहायक क्रिया छात्रों द्वारा की जाती है। जिसमें उसके द्वारा अर्जित ज्ञान का प्रयोग किया जा सके। यह सहपाठ्य क्रिया विषयों की प्रकृति के अनुरूप अपनायी जाती है। भाषा एवं साहित्य के पाठ्य विषयों में अभिनय, अन्त्याक्षरी एवं वाद-विवाद प्रतियोगिता, इतिहास में प्राचीन स्थलों का अवलोकन, सिक्कों का संग्रह, सर्वेक्षण, मानचित्र - रेखाचित्रों का अंकन, नागरिकशास्त्र में छात्र - संसद, छात्र - मन्त्रिमण्डल आदि का विद्यालय में संचालन करना, विज्ञान में मॉडल, चार्ट आदि का निर्माण करना, गणित में कक्ष, क्रीड़ास्थल आदि का क्षेत्रफल ज्ञात करना इत्यादि सहपाठ्य क्रियाएँ अर्जित ज्ञान को क्रियात्मक रूप देने हेतु अपनायी जाती हैं। अनुभव से ज्ञान प्राप्त करना या करके सीखना (Learning by doing) अर्थात् क्रिया-आधारित शिक्षण ही इस चतुर्थ पद में निहित सिद्धान्त है। 

     

    5. प्रसार 

    विषय के अध्ययन, बोध, अभ्यास एवं प्रयोग द्वारा प्राप्त ज्ञान को आत्मसात् कर उस ज्ञान का प्रसार अथवा विस्तार करना इस पद्धति का पंचम पद है। ज्ञान के प्रसार के लिए द्विविध प्रयास करना चाहिए - (क) स्वाध्याय, (ख) 

    प्रवचन | 

    क. स्वाध्याय : " स्वेन अधीयते इति स्वाध्यायम्" अर्थात् अपने द्वारा जो अध्ययन किया जाये, उसे ही स्वाध्याय कहते हैं। इस दृष्टि से इस पंचम पद में छात्रों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे नवीन अर्जित ज्ञान के विस्तार हेतु उससे सम्बन्धित पुस्तकों का अध्ययन करें। अध्यापकों से अपेक्षा है कि वे इस सम्बन्ध में छात्रों को सुझाव दें और उन्हें बतायें कि उनकी सम्बन्धित विषय - सामग्री किस पुस्तक या पत्र-पत्रिका में उपलब्ध हो सकेगी। विद्यालय के पुस्तकालय में इस प्रकार की पुस्तकों एवं पत्र-पत्रिकाओं की व्यवस्था वांछनीय है। स्वाध्याय से छात्रों के अर्जित ज्ञान का विस्तार होता है तथा तुलनात्मक अध्ययन से पाठ्यविषय के सभी पक्ष स्पष्ट होते हैं। इससे छात्रों में ज्ञानार्जन हेतु आवश्यक अनुसन्धान-वृत्ति का विकास भी होता है। 

    स्वाध्याय का अर्थ 'स्व' का अध्ययन भी है। इसका भावार्थ अर्जित ज्ञान का उपयोग 'स्व' अर्थात् आत्मा के विकास हेतु करना है । अध्यात्म की दृष्टि से तो वेदों अथवा धर्मशास्त्रों के अध्ययन एवं उसके अर्थचिन्तन को ही स्वाध्याय कहते हैं। परन्तु यहाँ स्वाध्याय द्वारा अर्जित ज्ञान का विस्तार, उस ज्ञान को अपने विकास के लिये लागू करना तथा उसका उपयोग अपने राष्ट्र एवं मानव-समाज की समस्याओं के समाधान और विकास में किस प्रकार किया जा सके, इसका अध्ययन एवं चिन्तन करना है। 

     

    ख. प्रवचन : उपार्जित ज्ञान को प्रवचन द्वारा दूसरों को वितरित करने से ज्ञान एवं विद्या में वृद्धि होती है। यह शास्त्रसम्मत एवं अनुभवजन्य सिद्धान्त है। साथ ही इससे स्वार्थपरता के स्थान पर परमार्थ के उदात्त भाव का भी विकास होता है जो कि शिक्षा या ज्ञानार्जन का मूल उद्देश्य है। 'जो ज्ञान मैंने प्राप्त किया है उसको मैं दूसरों को प्रदान कर उनको लाभान्वित करूँ', यह वृत्ति विद्यार्थियों में जाग्रत करने की आवश्यकता है। आजकल विद्यार्थियों में स्वार्थवृत्ति एवं प्रतिस्पर्धा की भावना व्याप्त है। ज्ञान में मुझसे कोई दूसरा आगे न निकल जाये, मैं ही परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करूँ, यह सामान्य वृत्ति पायी जाती है। इससे स्वार्थपरता, अहंकार एवं असामाजिकता विद्यार्थियों में पनपती है जो सहजीवन के विकास में बाधक है। 

    अतः विद्या - मन्दिरों में इस प्रकार की व्यवस्था करनी चाहिए जिससे विद्यार्थियों को अपने पिछड़े साथियों को पढ़ाने का अवसर मिले। इससे पढ़ाने वाले छात्र का ज्ञान परिपक्व होगा और पिछड़े छात्रों को उनके बराबर आने का अवसर मिलेगा। प्राचीन भारत में यह पद्धति प्रचलित थी। 

     

    इस प्रकार सरस्वती विद्या मन्दिरों में अधीति, बोध, अभ्यास, प्रयोग एवं प्रसार- इन पाँच पदों के माध्यम से छात्र सभी विषयों का ज्ञान प्राप्त करते हैं। पंचपदी शिक्षण-पद्धति से छात्रों द्वारा अर्जित ज्ञान अनुभवजन्य, सम्पूर्ण एवं स्थायी होता है। 

     

    पंचपदी शिक्षण-पद्धति के आधार 

    लक्ष्य-आधारित पाठ योजना 

     

    सफल शिक्षण के लिये यह आवश्यक है कि शिक्षक पाठ्य विषय को छात्रों के समक्ष प्रस्तुत करने से पूर्व उसकी तैयारी करें तथा उसकी पूर्ण योजना बनायें। जो शिक्षक बिना पूर्व - तैयारी के कक्षा में जाते हैं, वे छात्रों के प्रति न्याय नहीं करते और न अपने कर्तव्यों का पूर्ण पालन ही करते हैं। 

     

    पाठ-योजना में शिक्षक को स्पष्ट लक्ष्य निर्धारित करने चाहिए। सरस्वती विद्या मन्दिरों की अभिनव पंचपदी शिक्षण-पद्धति के परिप्रेक्ष्य में निम्नांकित बिन्दुओं में लक्ष्य निर्धारित करना उपयोगी होगा 

    1. ज्ञानात्मक विकास (Development of Knowledge) 

    2. बोधात्मक विकास (Development of Understanding ) 

    3. कुशलताओं का विकास (Development of Skills ) 

    4. ज्ञान का प्रयोग (Application of Knowledge) 

    5. अभिवृत्ति का विकास (Development of Attitudes ) 

     

    ज्ञानात्मक विकास 

    ज्ञानात्मक विकास के अन्तर्गत शिक्षक को पाठ योजना में यह स्पष्ट अंकित करना चाहिए कि प्रस्तुत विषय या पाठ के शिक्षण में कौन-कौन से तथ्यों, घटनाओं एवं सूचनाओं की जानकारी छात्रों को होनी चाहिए । उदाहरणार्थ- नागरिक शास्त्र में यदि 'लोकतांत्रिक सरकार का स्वरूप' विषय पढ़ाना है तो मतदाता, मतदान का अधिकार, राजनीतिक दल, प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष चुनाव, मूल अधिकार आदि विषयों की जानकारी छात्रों को देनी चाहिए। 

     

    2. बोधात्मक विकास

     छात्रों को पाठ्य विषय के कौन-से मूल तत्त्वों एवं सिद्धान्तों का बोध होना चाहिए, यह पाठ योजना में स्पष्ट करना चाहिए। लोकतांत्रिक सरकार के स्वरूप में छात्रों को यह बोध होना चाहिए कि लोकतांत्रिक सरकार में सर्वोच्च सत्ता जनता में निहित होती है तथा जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा सरकार चलायी जाती है और लोकतांत्रिक शासन-प्रणाली में बहुमत से सभी निर्णय लिये जाते हैं। 

     

    3. कुशलताओं का विकास 

    विद्यालय में गठित छात्र - संसद एवं छात्र- मंत्रिमण्डल के कार्यों को लोकतांत्रिक पद्धति से सम्पादित करने की कुशलताओं का विकास छात्रों में होना चाहिए । विद्यालय में छात्रों के हित में कार्य करने एवं जनमत को समझने की क्षमता का विकास भी आवश्यक है। इसी प्रकार अन्य पाठ्य विषयों में कौन-कौन-सी कुशलताओं का विकास छात्रों में करना है, इसका पूर्व - विचार शिक्षकों को करना अपेक्षित है। 

     

    4. ज्ञान का प्रयोग 

    विद्यालय में छात्र- संसद, छात्र - मंत्रिमण्डल, छात्र-परिषद् आदि लोकतांत्रिक संस्थाओं का गठन एवं उनकी नियमित गतिविधियाँ चलना आवश्यक है जिससे छात्र 'लोकतांत्रिक सरकार का स्वरूप' पाठ्य विषय से अर्जित ज्ञान का प्रयोग कर सकें। इसी प्रकार अन्य पाठ्य विषयों में ऐसी क्रियाओं को कराया जाना चाहिए जिससे छात्रों को अर्जित ज्ञान का प्रयोग करने का अवसर प्राप्त हो सके। 

     

    5. अभिवृत्तियों का विकास 

    छात्रों में लोकतांत्रिक पद्धति एवं लोकतांत्रिक संस्थाओं के प्रति आदर का भाव विकसित करना तथा नागरिकता के कर्तव्यों का पालन स्वेच्छा से करने की भावना का विकास करना चाहिए। अभिवृत्तियों का विकास प्रत्येक पाठ्य विषय में हो सके, इसका ध्यान शिक्षक को रखना चाहिए। 

     

    जिस प्रकार 'लोकतांत्रिक सरकार का स्वरूप' पाठ्य विषय का ज्ञानात्मक विकास, बोधात्मक विकास, कुशलताओं का विकास, ज्ञान का प्रयोग एवं अभिवृत्ति का विकास उदाहरणस्वरूप यहाँ प्रस्तुत किया गया है, इसी प्रकार पाठ-योजना बनाते समय शिक्षक को इन उद्देश्यों को स्पष्ट करके लिखना और शिक्षण उसके अनुरूप करना चाहिए। इस पद्धति से किया गया शिक्षण लक्ष्य-आधारित शिक्षण होता है। 

     

    उपर्युक्त पाँचों लक्ष्य पंचपदी शिक्षण-पद्धति के पाँचों पदों के पूरक एवं अनुरूप हैं। ज्ञानात्मक विकास में अधीति, बोधात्मक में बोध पद, कुशलताओं के विकास में अभ्यास पद एवं ज्ञान के प्रयोग में सहपाठ्य क्रिया तथा अभिवृत्ति के विकास का प्रसार पद पूरक है। 

     

    वर्ग-कक्ष के स्थान पर विषय-कक्ष 

    प्रायः विद्यालयों में वर्ग-कक्ष होते हैं, जैसे- कक्षा छ: का कक्ष या सात का कक्ष । किन्तु पंचपदी शिक्षण-पद्धति के सफल प्रयोग के लिये विषयानुसार कक्षों की व्यवस्था होनी चाहिए। यदि विद्या - मन्दिर प्रारम्भिक अवस्था में है और उसमें केवल तीन वर्ग ही हैं और विद्या मन्दिर भवन में भी तीन शिक्षण-कक्ष हैं तो भी सर्वप्रथम विज्ञान - कक्ष, पुस्तकालय एवं वाचनालय कक्ष और योग- कक्ष का रूप उन कक्षों को देना चाहिए। विज्ञान - कक्ष में फर्नीचर की व्यवस्था इस प्रकार की जाये जिससे छात्र प्रयोग एवं अध्ययन दोनों कार्य उसमें कर सकें। 

     

    पुस्तकालय एवं वाचनालय में भी एक कक्षा के सभी छात्रों के बैठने की व्यवस्था हो, जिससे उस कक्ष में अन्य विषयों का शिक्षण-कार्य भी हो सके। योग-कक्ष में दरी - फर्श बिछा हो और छात्रों के लिखने के लिये केवल चौकियाँ हों। आवश्यकतानुसार उन चौकियों को हटाया अथवा लगाया जा सकता है तथा इस योग - कक्ष में आसन, प्राणायाम, ध्यान आदि के अभ्यास के अतिरिक्त अन्य विषयों का शिक्षण भी हो सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि विषयानुसार कक्षों की व्यवस्था करने के लिये उतने ही कक्षों से कार्य चलाया जा सकता है। आवश्यकता है योजकता की एवं मूल शैक्षिक विषयों के चयन करने की । विषय - कक्ष में सम्बन्धित आचार्य बैठेंगे; उपकरण, शिक्षण- सहायक सामग्री, विषय-पुस्तकाय आदि सभी वहाँ उपलब्ध रहेंगे। छात्र वेला के अनुसार विषय - कक्षों में अध्ययन हेतु आवागमन करेंगे। विद्या मन्दिरों में यह व्यवस्था सफल सिद्ध हुई है। 

     

    शिक्षण प्रारम्भ करने से पूर्व ध्यान एवं ॐकार ध्वनि 

    सरस्वती विद्या - मन्दिरों में योग-आधारित शिक्षण की चर्चा होती है। इसके लिये यथासम्भव प्रयास भी चलता है तथा योगाधारित शिक्षण-पद्धति धीरे-धीरे विकसित हो रही है। इसके लिये सर्वप्रथम प्रत्येक विद्या - मन्दिर में एक योग-कक्ष की व्यवस्था होना आवश्यक है जिसमें छात्रों को नियमित आसन, प्राणायाम एवं ध्यान का अभ्यास कराया जा सके तथा उसमें सैद्धान्तिक पक्ष का अध्ययन भी हो । 

     

    साथ ही यह अभ्यास कराया जाये कि प्रत्येक वेला (पीरियड) में शिक्षणकार्य एक मिनट के ध्यान (मौन) एवं ॐकार की ध्वनि से प्रारम्भ किया जाये। यह वैज्ञानिक रूप से सिद्ध है कि एक वेला में अध्ययन किये गये विषय के पश्चात् द्वितीय विषय आरम्भ करने से पूर्व मस्तिष्क को अवकाश एवं शान्ति की आवश्यकता है, तभी छात्र द्वारा अर्जित ज्ञान उसकी स्मृति का अंग बन सकता है। ध्यान एवं ॐकार ध्वनि से मस्तिष्क शान्त एवं एकाग्र होता है एवं उसकी ग्रहण - शक्ति में वृद्धि होती है। अनेक विद्या मन्दिरों में यह पद्धति अपनायी जाती है और उसका परिणाम शिक्षण में एवं छात्रों की उपलब्धि पर अच्छा हुआ है। यह पद्धति हमारे शिक्षण कार्य का अंग बननी चाहिए। अनेक पाश्चात्य देशों में भी इसको अपनाया जाता है। 

     

    शिक्षण - प्रविधि (शिक्षण तकनीकी) 

     

    विज्ञान और प्रौद्योगिकी की प्रगति ने मानव जीवन के प्रत्येक पक्ष को प्रभावित किया है। शिक्षा के क्षेत्र में रेडियो, टेपरिकार्डर, वीडियो टेप, फिल्म, क्लोज सर्किट टेलीविजन, कम्प्यूटर, शिक्षण - यन्त्र आदि का प्रवेश भी वैज्ञानिक एंव प्रौद्योगिक आविष्कारों का स्वाभाविक परिणाम है। इन उपकरणों के उपयोग और शिक्षा एवं मनोविज्ञान के सम्मिलित प्रभाव से ही शैक्षिक प्रविधि या शैक्षिक तकनीक के नाम से नवीन शिक्षण विधि का जन्म हुआ है। इस नवीन शैक्षिक तकनीक का व्यवहार अमेरिका, इंग्लैण्ड, रूस आदि सम्पन्न देशों के विद्यालयों में सामान्य हो गया है। भारत के शिक्षाविद् इन देशों की शैक्षिक अध्ययन यात्राओं 

    से वापस आने पर अपने देश में भी उस तकनीक को अपनाने का सुझाव देते रहे हैं। राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद् में तो शैक्षिक तकनीकी के नाम से एक विभाग भी है तथा कम्प्यूटर एवं क्लोज सर्किट टेलीविजन आदि के माध्यम से कुछ विद्यालयों में शिक्षण कार्य भी चल पड़ा है। 

     

    जिस देश में सत्तर प्रतिशत जनसंख्या निरक्षर है तथा जहाँ लाखों विद्यालयों में छात्रों के बैठने के लिये न टाट-पट्टी है और न सिर पर छाया के लिये विद्यालय की छत है, दृश्य-श्रव्य सहायक सामग्री के नाम पर श्यामपट्ट और खड़िया भी जहाँ अधिकांश विद्यालयों में उपलब्ध नहीं है, ऐसे देश के विद्यालयों में शैक्षिक तकनीक के आधुनिक उपकरणों को अपनाने की बात हास्यास्पद प्रतीत होता है। दिल्ली-मुम्बई आदि महानगरों के उन विद्यालयों में, जहाँ सम्पन्न परिवारों के बालक शिक्षा प्राप्त करते हैं, यह योजना भले ही कार्यान्वित हो जाये, किन्तु भारत की 82 प्रतिशत ग्रामीण जनता को अभी इसके लिये पर्याप्त प्रतीक्षा करनी होगी। 

     

    शैक्षिक प्रविधि के आर्थिक पक्ष के अतिरिक्त दूसरा पक्ष भी विचारणीय है - मानवीय सम्बन्धों का। आधुनिक शैक्षिक तकनीक द्वारा शिक्षण का यन्त्रीकरण करने की प्रक्रिया पाश्चात्य देशों में प्रगति कर रही है। वहाँ शिक्षकों का स्थान दूरदर्शन, संगणक (कम्प्यूटर) आदि उपकरण ग्रहण कर रहे हैं। शिक्षक - छात्र सम्बन्धों की मानवीय अन्तःप्रक्रिया समाप्त हो रही है। इसी का परिणाम है कि उन देशों में आधुनिक शिक्षण तकनीक के माध्यम से ऐसे व्यक्तियों का निर्माण हो रहा है जो बुद्धि से प्रखर, परन्तु हृदय से शून्य होते हैं। 

     

    भारतीय सन्दर्भ में हमें इस बात की सावधानी रखनी होगी कि आधुनिक विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी (टेक्नॉलॉजी) को अपनाने के नाम पर हम पश्चिम का अन्धानुकरण न करें। इसमें आपत्ति नहीं कि ज्ञान के विकास के लिये हम विज्ञान और प्रौद्योगिकी की सहायता लें, किन्तु यदि विकास के नाम पर विज्ञान और तकनीक हमारे जीवन के आधार बन गये तो डा० राधाकृष्णन् के शब्दों में 'राक्षस - राज्य' की स्थिति उत्पन्न हो जायेगी। 

     

    शिक्षण-प्रक्रिया में शिक्षक का स्थान महत्त्वपूर्ण एवं सर्वोपरि है। शिक्षण-पद्धति, पाठ्यक्रम, भवन आदि शिक्षण - सामग्री की व्यवस्था कितनी भी उत्तम क्यों न हो, यदि चरित्रवान एवं योग्य व्यक्ति मार्गदर्शन के लिये शिक्षक के पद पर आसीन नहीं है तो सम्पूर्ण व्यवस्थाएँ निरर्थक हो जाती हैं। शिक्षक यदि योग्य रहा तो वह भौतिक साधनों के अभाव में भी विद्यार्थियों को उत्तम शिक्षा प्रदान कर सकता है। शिक्षक एक पाण्डित्यपूर्ण एवं भौतिक शरीरधारी मात्र व्यक्ति नहीं है, अपितु, वह एक आध्यात्मिक व्यक्तित्व है जो अपने आत्मा के प्रकाश से विद्यार्थी के अन्तःकरण को उसी प्रकार आलोकित करता है जैसे एक दीप से दूसरा दीप आलोकित होता है। भारतीय शैक्षिक चिन्तन में शिक्षक का पद महान एवं सर्वोपरि माना गया है। 

     

    आधुनिक 'शिक्षण तकनीक' शिक्षक के कार्य में सहायक बन सकती है और शिक्षण की प्रक्रिया को प्रभावी बना सकती है, किन्तु शिक्षक का स्थान नहीं ले सकती। अपने देश की विशाल जनसंख्या के लोक-शिक्षण के कार्य को अनौपचारिक रीति से शैक्षिक प्रविधि की सहायता से कम खर्चे में प्रभावी बनाया जा सकता है। आज हम आधुनिक 'शैक्षिक तकनीक' की उपेक्षा नहीं कर सकते, केवल आवश्यकता इस बात की है कि शैक्षिक तकनीक को इस प्रकार रूपान्तरित कर दें कि वह हमारी संस्कृति की पोषक एवं परिवेश के अनुकूल बनकर देश की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके । 

     


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