शिक्षण-प्रक्रिया में शिक्षक का महत्त्वपूर्ण स्थान
शिक्षण-प्रक्रिया में शिक्षक का स्थान महत्त्वपूर्ण एवं सर्वोपरि है। शिक्षण-पद्धति, पाठ्यक्रम, भवन आदि साधन-सामग्री की व्यवस्था कितनी भी उत्तम क्यों न हो, किन्तु यदि शिक्षक पद पर आसीन व्यक्ति चरित्रवान् एवं योग्य नहीं है तो उक्त सम्पूर्ण व्यवस्थाएँ निरर्थक हो जाती हैं। शिक्षक यदि योग्य रहा तो वह भौतिक साधनों के अभाव में भी विद्यार्थियों को उत्तम शिक्षा प्रदान कर सकता है । अंग्रेजों के शासनकाल में दूषित शिक्षा - प्रणाली के होते हुए भी जिस प्रकार के जाज्वल्यमान विद्यार्थियों का निर्माण सम्भव हुआ, वह आज स्वतन्त्र भारत में सर्व साधन सुलभ होते हुए भी नहीं हो पा रहा है। इसका मूल कारण शिक्षक ही हैं।
भारतीय जीवन - प्रणाली में तो शिक्षक या गुरु का स्थान परमेश्वर के समकक्ष माना गया है। अनेक विचारकों ने तो गुरु को परमेश्वर से भी बड़ा माना है, क्योंकि गुरु ही परमेश्वर की प्राप्ति का मार्ग बताता है। शिक्षक या गुरु एक पाण्डित्यपूर्ण एवं भौतिक शरीरधारी व्यक्ति नहीं है, अपितु वह एक आध्यात्मिक व्यक्तित्व है जो अपने आत्मा के प्रकाश से विद्यार्थी अर्थात् अपने शिष्य के अन्त:करण को उसी प्रकार आलोकित करता है जैसे एक दीप से दूसरा दीप आलोकित होता है। अतः भारतीय शैक्षिक चिन्तन में शिक्षक का पद महान श्रद्धास्पद एवं समाज में प्रतिष्ठा की दृष्टि से सर्वोपरि माना गया है।
भारतीय शिक्षा के इतिहास में शिक्षक के पद को गौरवान्वित करने वाले महान् तपस्वी ऋषियों की परम्परा रही है जिनके सम्मान में सम्राट् भी अपना सिंहासन छोड़कर खड़े हो जाते थे। वर्तमान काल में भी भारतीय संस्कृति एवं आदर्शों के अनुरूप शिक्षा के स्वरूप को यदि विकसित करना है तो शिक्षक के पद को हमें वही प्रतिष्ठा प्रदान करनी होगी, भले ही भावना की अभिव्यक्ति के रूप भिन्न हो। हमें यह दृष्टिकोण अपनाना होगा कि शिक्षक एक व्यक्ति नहीं, वरन् पद एवं संस्था है। शिक्षकों को भी अपना जीवन इस पद की गरिमा के अनुरूप ढालना होगा।
स्वयं के आचरण के द्वारा शिक्षा
शिक्षक का कार्य विषय - शिक्षण तक ही सीमित नहीं है, अपितु वह अपने आचरण द्वारा छात्रों में मानवता का निर्माण करता है। इसीलिये वह आचार्य कहलाता है । 'आचार्य' शब्द शिक्षक या अध्यापक से अधिक व्यापक है। छात्र को एक ऐसा आदर्श व्यक्ति चाहिए, जिसके प्रत्यक्ष आचरण के अनुरूप वह स्वयं को सहज भाव से ढाल सके। भारतीय परम्परा में ऐसे व्यक्ति के लिये ही 'आचार्य' शब्द का प्रयोग किया गया है। आचार्य के लिये उपदेश का विधान बाद में है, आचरण की संहिता पहले निर्धारित है। आचरण से ही वह आचार्य कहलाता है, उपदेश तो उसका परवर्ती एवं भौतिक अधिकार मात्र है। आचार्य स्वयं के श्रेष्ठ आचरण द्वारा विद्यार्थी के लिये आदर्श बनता है एवं उसके जीवन का निर्माण करता है। सरस्वती शिशु मन्दिरों एवं विद्यामन्दिरों में शिक्षक को 'आचार्य' शब्द से ही सम्बोधित किया जाता है, जो कि समीचीन है।
शिक्षा से तात्पर्य केवल पढ़ाई-लिखाई अथवा विभिन्न विषयों की जानकारी मात्र नहीं है। इसमें पढ़ाई की अपेक्षा चरित्र के विकास, व्यक्तित्व के गठन और जीवन के निर्माण का अधिक महत्त्व है। अतः इसके लिये विषय के शिक्षक नहीं, वरन् आचार्य की आवश्यकता है। आचार्य अपने अनुकरणीय एवं पवित्र आचरण के कारण विद्यार्थी के लिये आदर्श बनता है और विद्यार्थी के लिये भी ‘भृंग-कीट-न्याय से वैसा ही बनने की कामना करता है। यह कामना उसके चरित्र की शक्ति के कारण उसका अमोध उपदेश बनकर विद्यार्थी में संक्रमित होती है।
आचार्य विद्यार्थी का हितचिन्तक, पथप्रदर्शक एवं मित्र
आचार्य अपनी विद्या, कौशल, प्रेम एवं सहानुभूति द्वारा विद्यार्थी के जीवन का निर्माण करता है। वह बताता है कि किस मार्ग से चलकर जीवन का कल्याण एवं विकास हो सकता है तथा जीवन की कौन-सी दिशा हानिकारक है। उसकी शिक्षाएँ सच्चे मित्र के समान आपत्तियों से बचाती हैं और उसकी दी हुई विद्या विद्यार्थी के गाढ़े समय में काम आती है। यही कारण है कि आचार्य अपने विद्यार्थियों का शिक्षक ही नहीं, अपितु हितचिन्तक, पथप्रदर्शक एवं मित्र होता है। इन गुणों के कारण ही वह विद्यार्थियों का विश्वास एवं उनकी श्रद्धा अर्जित करता है। विद्यार्थी उससे अपनी भली-बुरी बात छिपाते नहीं हैं और उसकी सम्मति पर विश्वास करते हैं। इसी कारण आचार्य विद्यार्थियों के चरित्र - निर्माण के महत् कार्य को करने में सफलता प्राप्त करता है।
आचार्य - विद्यार्थी एक आध्यात्मिक सम्बन्ध
शिक्षा ज्ञान का उपार्जन है। आचार्य के सहयोग से ही विद्यार्थी ज्ञान के मार्ग में आगे बढ़ता है। आचार्य का सहयोग श्रद्धा और सेवा के द्वारा ही प्राप्त हो सकता है। श्रद्धा और सेवा का मूल स्रोत विनय है । अहंकारशून्यता की स्थिति में विद्यार्थी में विनयशीलता आती है। विनय पर आश्रित श्रद्धा का भाव आचार्य के ज्ञान कोष के द्वार खोलता है। विद्या आचार्य की ओर से विद्यार्थी के प्रति आत्मदान है। आचार्य अपने आत्मा के प्रकाश से विद्यार्थी के अन्त:करण को प्रकाशित करता है। आचार्य और विद्यार्थी के आध्यात्मिक सम्बन्धों की भूमि पर ही यह प्रक्रिया सम्पन्न होती है। विद्या का व्यवसाय नहीं हो सकता। इसीलिये कोई धनवान केवल धन के बल पर विद्यावान् नहीं बन सकता। दूसरी ओर ज्ञान को अपनी सम्पत्ति मानने वाले आचार्य में यदि अहंकार बढ़ता है तो वह ज्ञान के विकास और प्रदान- दोनों में बाधक बन जाता है। अतः विद्यार्थी के साथ-साथ आचार्य को भी अहंकारशून्य होना आवश्यक है। दोनों में अहंकार रहने पर द्वेष बढ़ता है। इससे बचने के लिये ही बृहदारण्यक उपनिषद् के शान्तिपाठ में " मा विद्विषावहै" की प्रार्थना की गयी है। अहंकार और द्वेष से रहित होने पर ही आचार्य और विद्यार्थी तेजस्वी बनते हैं। अतः ज्ञानार्जन एवं जीवन का सही विकास आचार्य और विद्यार्थी के आध्यात्मिक सम्बन्धों की भूमि पर ही सम्पन्न होता है।
आचार्य की विद्वता
आचार्य शब्द विद्वान् का बोधक भी है। अच्छे आचार्य को सभी विषयों का सामान्य ज्ञान होना चाहिए, किन्तु अपने विषय पर तो उसका पूर्ण अधिकार होना ही चाहिए। विद्यार्थी अपने आचार्य की बात को वेदवाक्य मानते हैं। ऐसी अवस्था में यदि छिछले ज्ञान वाला अध्यापक किसी भी अवस्था में विद्यार्थियों के मन में भ्रामक सिद्धान्त का बीज बो दे तो स्थायी रूप से वह भ्रामक विचार जड़ पकड़ लेता है जिसे दूर करने के लिये भारी परिश्रम और गहरे अभ्यास की आवश्यकता पड़ जाती है। छिछली विद्या-बुद्धि वाला आचार्य सदा विद्यार्थियों की अश्रद्धा का पात्र तथा उनके व्यंग्य-बाणों का लक्ष्य बना रहता है। प्रारम्भिक कक्षाओं में तो नहीं, परन्तु उच्च कक्षाओं में ऐसे अध्यापक की बड़ी दुर्गति होती है। अतः स्वाभिमानी एवं सफल आचार्य के लिये अपने विषय का पण्डित होना परमावश्यक है और यह तभी सम्भव है जब आचार्य अध्ययनशील हो, नवीनतम ज्ञान से परिचित हो और सदा तैयारी करके कक्षा में जाये।
शिक्षण- कला में निपुणता
आचार्य के अपने विषय का केवल विद्वान होने से ही कार्य पूर्ण नहीं होता, उसमें विषय को विद्यार्थियों को समझाने की कुशलता एवं निपुणता भी आवश्यक है। उसका विषय-प्रस्तुतीकरण का ढंग आकर्षक होना चाहिए जिससे पूरी कक्षा तत्काल एकाग्र और आकृष्ट होकर उसमें योग देने के लिये प्रस्तुत हो जाये। कक्षा में सजीवता लाने के लिये उसे अनेक प्रकार के वाच्य विधान, दृश्य विधान, कथा-कहानी तथा चुटकुले, चित्र आदि का पर्याप्त भण्डार अपने पास रखना चाहिए। छोटे, स्पष्ट, सुबोध, सुघटित, संगत और उपयुक्त प्रश्नों के माध्यम से विद्यार्थियों को नवीन ज्ञान प्राप्त कराने के लिये और उनकी अभिव्यंजना-शक्ति विकसित करने के लिये प्रयास करना चाहिए। छात्रों से शुद्ध, सार्थक, संगत, आवश्यक, प्रासंगिक और उचित उत्तर निकलवाकर अशुद्ध उत्तरों का परिष्कार करते चलना चाहिए। आचार्य को एक कुशल संगठक एवं संयोजक भी होना आवश्यक है, तभी वह विद्यालय में सहगामी क्रिया-कलापों के आयोजन सफलतापूर्वक कर सकता है और विद्यार्थियों में रुचि एवं उत्साह का संचार कर सकता है। बालक के विकास में इन सहपाठ्य क्रिया-कलापों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस प्रकार आचार्य को शिक्षण - कला में पूर्ण निपुण होना आवश्यक है, तभी वह अपने कर्तव्य का सही ढंग से पालन कर सकने में समर्थ होगा।
आचार्य का प्रभावशाली व्यक्तित्व
प्रभावशाली व्यक्तित्व के अन्तर्गत गुण, स्वभाव, अभ्यास, चरित्र, विद्या और बुद्धि के साथ-साथ वपुष्मत्ता भी अपेक्षित है। वपुष्मत्ता या शारीरिक वैभव ब्रह्मचर्य पालन एवं शारीरिक सौष्ठव के प्रति सचेत रहने से सम्भव होता है। संयम एवं तप से ही व्यक्तित्व प्रभावशाली एवं आकर्षक बनता है। आजकल की तरह रंग-बिरंगे आकर्षक परिधान धारण करने से आचार्य का व्यक्तित्व शोभायमान नहीं होता।
आचार्य को मानसिक शान्ति, आत्म-विश्वास, प्रसन्नता, हँसमुखता, निर्भयता और स्नेहयुक्त व्यवहार के साथ सदा सब परिस्थितियों में शान्तचित्त और धैर्यवान रहना चाहिए। ये गुण ही उसके व्यक्तित्व को समृद्ध बनाते हैं। उसे अपनी वेश-भूषा भी सरल, स्वच्छ, सुघड़ बनाये रखनी चाहिए, क्योंकि वेश-भूषा का भी छात्रों पर प्रभाव पड़ता है।
आचार्य राष्ट्र-निर्माता एवं समाज के पथ-प्रदर्शक
आचार्य पर नवीन पीढ़ी के जीवन के गठन का गुरुतर दायित्व है। उसकी प्रेरणा एवं मार्गदर्शन में विद्यार्थी ज्ञानार्जन करते हैं। अपने चरित्र का निर्माण करते हैं तथा देशभक्ति, समाज-प्रेम, एवं अपनी संस्कृति के संस्कारों के माध्यम से अनेक ऐसे सद्गुणों का विकास करते हैं जो राष्ट्र-जीवन के पोषक हैं। विद्यार्थी ही देश के भावी नागरिक एवं राष्ट्र रूपी नौका के कुशल नाविक बनते हैं। महान् आचार्यों की परम्परा ही श्रेष्ठ नागरिकों का निर्माण करती है। इस प्रकार आचार्य राष्ट्र-निर्माता होते हैं।
आचार्यों के सम्पर्क में विद्यार्थी वर्ग ही नहीं आता, अपितु अभिभावकों एवं समाज के सभी प्रमुख घटकों से उनका सम्पर्क आता है। आचार्य अपने आचार-विचार से समाज को उचित दिशा एवं प्रेरणा प्रदान करते हैं। समय-समय पर आवश्यकतानुसार अपने विचारों को लेखों एवं ग्रन्थों के माध्यम से प्रकट करके अथवा प्रवचन द्वारा समाज को सही मार्ग-दर्शन एवं नेतृत्व प्रदान करते हैं। भारतीय इतिहास में समाज को नेतृत्व करने की परम्परा सदैव आचार्यों की ही रही है । सभ्य एवं संस्कृत समाज सदैव उनसे यह अपेक्षा करता रहेगा। स्वार्थी राजनीतिज्ञों के नेतृत्व में समाज का जीवन सुखी एवं संस्कृत नहीं बन सकता।
वर्तमान में आचार्यों का सम्मान एवं आर्थिक स्तर
यह सत्य है कि शिक्षा का व्यवसाय नहीं हो सकता । जीविकोपार्जन के उद्देश्य से जो व्यक्ति शिक्षक बनते हैं उनका जीवन विद्यार्थियों के लिये प्रेरणादायक नहीं बन सकता। इसका अर्थ यह नहीं कि आचार्यों के वेतन की चिन्ता ही नहीं की जाये। समाज का दायित्व है कि वह शिक्षक के लिये इस प्रकार की व्यवस्था करे जिससे वह आर्थिक चिन्ता से मुक्त रहकर अपने परिवार के भरण-पोषण का कार्य सुचारु रूप से चला सके और निश्चिन्त होकर विद्यार्थियों के प्रति अपने दायित्व को पूर्ण कर सके । आचार्य समाज को जो देता है, उसको हम धन से नहीं माप सकते। आचार्य के ऋण से समाज कभी उऋण नहीं हो सकता। आचार्य को समाज सम्मान दे, प्रतिष्ठा दे, वही उससे उऋण होने का सही मार्ग है।
वर्तमान काल में अधिकतर व्यक्ति धनार्जन के उद्देश्य से शिक्षक के रूप में कार्यरत हैं। उनके मन में सदैव असन्तोष व्याप्त रहता है। अधिक-से-अधिक धनार्जन किस प्रकार किया जाये, इसी उधेड़-बुन में वे सदैव लगे रहते हैं। उनका जीवन भोग-प्रधान एवं अनेक प्रकार के दुर्गुणों एवं व्यसनों से युक्त रहता है। ऐसी मनःस्थिति वाले व्यक्ति शिक्षक पद को कलंकित करते हैं, शिक्षा क्षेत्र के लिये भारस्वरूप होते हैं, तथा विद्यार्थियों के जीवन के साथ खिलवाड़ करते हैं। हमें ऐसे व्यक्तियों से शिक्षा जगत् को मुक्त करने हेतु प्रयत्न करना चाहिए तथा ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि ऐसे अवांछनीय तत्त्व शिक्षा क्षेत्र में शिक्षक के रूप में प्रवेश न कर सकें।
शिक्षक सरस्वती का उपासक होता है। उसका जीवन सरल, संयमित एवं त्यागपूर्ण होता है। लक्ष्मी के उपासक व्यक्ति को शिक्षा क्षेत्र में प्रवेश नहीं करना चाहिए। वह धनार्जन हेतु व्यापारी बने, व्यवसाय करे, परन्तु उसे शिक्षक नहीं बनना चाहिए, इसी में देश एवं मानवता का कल्याण है।
आजकल अन्य श्रमिक संघों के समान शिक्षकों के भी संघ बन गये हैं जो वेतनादि की वृद्धि एवं अन्य सुविधाओं को प्राप्त करने हेतु आन्दोलन एवं हड़ताल आदि करते रहते हैं। शिक्षा क्षेत्र के लिये इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति नहीं हो सकती। शिक्षक या आचार्य यदि आन्दोलन और हड़ताल करेंगे तो विद्यार्थी वर्ग पर इसका कुप्रभाव अवश्य होगा । ऐसी स्थिति में विद्यार्थियों के जीवन से, और प्रकारान्तर में राष्ट्र के जीवन के साथ खिलवाड़ ही होता है। देश कुछ कार्यक्षेत्र इस प्रकार के हैं जिनका सीधा सम्बन्ध राष्ट्र के जीवन-मरण से जुड़ा हुआ है। सेना, पुलिस, न्याय, चिकित्सा एवं शिक्षा- ये ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें थोड़ी-सी भी अव्यवस्था राष्ट्र-जीवन के लिये घातक बन जाती है। इन क्षेत्रों में किसी भी मूल्य पर आन्दोलन एवं अनुशासनहीनता सहनीय नहीं होनी चाहिए।
समाज एवं शासन को इस प्रकार की व्यवस्था करनी चाहिए जिससे शिक्षकों को आन्दोलन करने का अवसर ही न आये। आज शासन की यह स्थिति हो गयी है कि बिना आन्दोलन के उसके कान पर जूँ ही नहीं रेंगती। परन्तु ऐसी स्थिति में शिक्षकों के हितों के लिये संघर्ष छात्रों के अभिभावकों एवं समाज के प्रबुद्ध वर्ग को करना चाहिए, शिक्षकों को आन्दोलन एवं हड़ताल करना किसी भी स्थिति में शोभा नहीं देता और न उसे उचित ही कहा जा सकता है। इस विषय पर शिक्षक एवं समाज को गम्भीरता से विचार करने की आवश्यकता है।
वास्तव में शिक्षक संघों का उद्देश्य शिक्षकों का शैक्षणिक विकास करना होना चाहिए। उसके लिये विचार गोष्ठियाँ, सम्मेलन आदि आयोजित करने चाहिए तथा शिक्षकों की कुशलता एवं उनके अद्यतन ज्ञान में वृद्धि करने के लिये आवश्यक प्रयास करने चाहिए। शिक्षकों की यह मौन साधना फलदायी हुए बिना नहीं रह सकती।
शिक्षा क्षेत्र की इस दुरावस्था के लिये वर्तमान शासन व्यवस्था भी कम दोषी नहीं है। आज राजनीतिक क्षेत्र में नेताओं की पूजा तथा शासन के क्षेत्र में अधिकारियों के दर्प ने सभी नागरिकों को अत्यन्त हीन बना दिया है। शासनाधिकारियों का प्रभुत्व सारे समाज पर छाया रहता है। शिक्षक के पास कोई सत्ता नहीं है, उसके पास कोई अधिकार नहीं है, अतः उसका कोई सम्मान नहीं है। शिक्षकों के सम्मान की बात प्रायः की जाती है। अध्यापकों को राष्ट्रीय पुरस्कार दिये जाते हैं, यद्यपि पुरस्कार - समारोह के चित्रों में कुर्सियों पर बैठे शासनाधिकारियों के पीछे अध्यापक खड़े किये जाते हैं। नेताओं और शासकों के दर्प ने शिक्षक को हीन बना दिया है।
पूँजीवादी व्यवसाय से बढ़ते हुए आर्थिक वैभव का आकर्षण आज के शिक्षक को सम्मोहित करता है । पाठ्य पुस्तकों, परीक्षा - कार्य, छात्रों के गृह - शिक्षण आदि के द्वारा वह आर्थिक वैभव का मार्ग खोजता है। विद्या से विमुख होकर वह अर्थ का आराधक बन गया है। राजनीति और शासन में व्याप्त विपर्यय से पराजित होकर ही सरस्वती का साधक लक्ष्मी का उपासक बन गया है।
देश में वर्तमान शासन - व्यवस्था एवं शासकों की मनोवृत्ति में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है। शिक्षा एवं शिक्षकों के सम्बन्ध में सही दृष्टिकोण अपना कर ही इस विडम्बना को रोका जा सकता है और शिक्षा को राष्ट्र की उन्नति का साधन बनाया जा सकता है। शिक्षकों को शासनाधिकारियों द्वारा व्यक्ति के रूप में नहीं, वरन् पद के रूप में सम्मान देना चाहिए। शासकीय समारोहों में अधिकारियों से ऊपर नहीं तो कम-से-कम उनके समकक्ष सम्मान का स्थान मिलना चाहिए। आवश्यक हो तो यह परिवर्तन विधान बनाकर करना चाहिए। इससे शिक्षक की समाज में भी प्रतिष्ठा बढ़ेगी। राजनेताओं और अधिकारियों से सम्मानित शिक्षकों की समर्पित साधना ही एक गौरवशाली राष्ट्र का निर्माण कर सकेगी।
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