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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • शिक्षा में स्वायत्तता 

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    Vidyasagar.Guru

    प्राचीन भारत में शिक्षा-व्यवस्था 

    भारतीय शिक्षा के इतिहास से हमें ज्ञात ज्ञान होता है कि अति प्राचीन काल से ही शिक्षा की व्यवस्था का दायित्व एवं उस पर नियन्त्रण आचार्यों एवं विद्वानों का रहा है। गुरुकुल आश्रमों एवं विश्वविद्यालयों को राज्य की ओर से आर्थिक अनुदान प्राप्त होता था । प्रायः राज्य की ओर से शिक्षा-संस्थाओं के लिये गाँव लगा दिये जाते थे अर्थात् उन गांवों में संकलित राजस्व का उपयोग गुरुकुल के संचालन के निमित्त होता था। इतना सब करने के पश्चात् भी राजा का संस्था की व्यवस्था एवं कार्य संचालन से कोई सम्बन्ध नहीं था। राजकुमारों को भी छात्र के रूप में अन्य छात्रों के समान ही रहना होता था। उनके लिये कोई विशेष व्यवस्था नहीं होती थी। उन शिक्षा संस्थाओं में विचार-विमर्श करने एवं अन्तिम निर्णय देने के लिये 'परिषद्' नामक संस्था बहुत प्राचीन काल से ही प्रचलित थी। सामान्यतः परिषद् का गठन 10 सदस्यों के द्वारा होता था । गौतम धर्मसूत्र के अनुसार इन दस सदस्यों का संयोजन इस प्रकार था :- 

     

    चार वेदों के पूर्ण ज्ञाता 4 सदस्य 

    धर्मशास्त्रों के पण्डित  : 3 सदस्य 

    ब्रह्मचारी (छात्र),

     गृहस्थ तथा वानप्रस्थ, तीनों   के एक-एक प्रतिनिधि 3

    कुल 10 सदस्य 

     

    इस प्रकार परिषद् के सदस्यों में वेद तथा धर्मसूत्रों के विद्वानों के अतिरिक्त छात्र, गृहस्थ तथा वानप्रस्थ के प्रतिनिधि भी सम्मिलित रहते थे। 

     

    परिषद् जैसी उच्च संस्था में छात्रों का प्रतिनिधित्व शिक्षा के इतिहास में एक विशिष्ट महत्त्व रखता है। लगभग 2500 वर्ष पूर्व भारत में छात्र- समाज को वह सामाजिक सम्मान प्राप्त था, जो कि आज के तथाकथित प्रजातन्त्रात्मक युग में भी अभी तक उसे अप्राप्य है।' 

     

    वर्तमान शिक्षा की स्थिति 

    वर्तमान भारत में विश्वविद्यालय स्वायत्तशासी कहे जाते हैं। किन्तु इनकी स्वायत्तता नाम मात्र की है। विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति राज्यपाल होते हैं जो सरकार के अभिन्न अंग और राजनीतिक व्यक्ति ही होते हैं। अनेक विधान बनाकर सरकारों ने विश्वविद्यालयों के अनेक अधिकार स्वयं ले रखे हैं। 'इण्टर यूनीवर्सिटी बोर्ड' ने मैसूर में आयोजित अपने इकतालीसवें वार्षिक सम्मेलन में विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता को प्रभावित करने वाले राज्य सरकारों द्वारा बनाये गये विधानों के सम्बन्ध में चिन्ता व्यक्त करते हुए प्रस्ताव भी पारित किया है । 2 कोठारी शिक्षा आयोग ने भी विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता के महत्त्व का आग्रहपूर्वक प्रतिपादन किया है। प्रायः सभी शिक्षाशास्त्रियों एवं शिक्षा आयोगों ने विश्वविद्यालयों को चार क्षेत्रों में पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करने पर बल दिया है: (1) शिक्षकों का चयन एवं नियुक्तियाँ, (2) पाठ्यक्रम एवं विषयवस्तु निर्धारण, (3) शिक्षण-पद्धति एवं अनुसंधान के क्षेत्रों का चयन तथा (4) विद्यार्थियों का चयन । 

     

    इसके विपरीत, राज्य सरकारों ने विश्वविद्यालयों के अनेक कार्यों को अपने हाथ में ले लिया है। मध्यप्रदेश, आन्ध्र एवं बिहार राज्य की सरकारों ने विश्वविद्यालयों के शिक्षकों की नियुक्तियों का अधिकार लोकसेवा आयोग को सौंप दिया है। छात्रों की चयन प्रक्रिया में भी सरकारें विभिन्न प्रकार के आरक्षणों के प्रतिशत दिन-प्रतिदिन बढ़ाकर विश्वविद्यालयों के कार्य में हस्तक्षेप करती रहती हैं। कुलपतियों की नियुक्ति के अधिकार प्रायः सभी राज्य सरकारों ने एवं केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के केन्द्रीय सरकार ने ग्रहण कर लिये हैं। इस प्रकार भारत में विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता नाममात्र की रह गयी है। इसके परिणामस्वरूप अधिकांश विश्वविद्यालय राजनीति के अखाड़े बन गये हैं तथा उनमें शैक्षिक वातावरण प्रायः समाप्त हो गया है। 

     

    "The representation of the student community on such an authoritative body shows a degree of recognition of special interests and stakes which is not allowed even in modern educational organisations professing advanced democratic ideals." 

    -R.K. Mookerji: 'Ancient Indian Education', p. 220. 2. "The Inter-University Board notes with grave concern and anxiety some of the recent amendments to University Acts in different States and the consequent deprivation of the academic freedom and responsibility of the Universities." 

     

    प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा पर तो सरकारों का लगभग पूर्ण नियन्त्रण है। शिक्षकों की नियुक्तियाँ, पाठ्यक्रम निर्धारण, पाठ्य-पुस्तकों का प्रकाशन, परीक्षाओं का संचालन आदि कार्य सरकार के द्वारा अथवा उसके अधीनस्थ 'शिक्षा बोर्डों' के माध्यम से सम्पन्न होते हैं। सरकारी शिक्षा-व्यवस्था तन्त्र का विशाल भौतिक ढाँचा खड़ा हुआ है, किन्तु उसमें आत्मा लुप्त है। शिक्षक, आचार्य, प्राचार्य - सभी सरकार की दासता से ग्रसित हैं। शिक्षा-संस्थाओं के पवित्र स्थल राजनीतिक नेताओं की पूजा के स्थल बने हुए हैं। राष्ट्र-निर्माता कहे जाने वाले शिक्षक सरकारी कार्यालयों के द्वारों पर ठोकरें खाते फिरते हैं। कार्यालयों के इन्द्र- भवनों से शिक्षकों को उनके अधिकार 'भेंट' चढ़ाने के पश्चात भिक्षा के रूप में मिलते हैं। इस सरकारी तन्त्र में शिक्षक का सम्मान और विद्या का मूल्य खो गया है। अनुभव यह बता रहा है कि जैसे-जैसे शिक्षा पर सरकार का नियन्त्रण बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे शिक्षा समाप्त होती जाती है। प्राथमिक शालाओं और माध्यमिक विद्यालयों में शिक्षा नाम की वस्तु दिखाई नहीं देती । शिक्षा आन्तरिक प्रेरणा और स्वतन्त्रता के वातावरण में पल्लवित और पुष्पित होती है, बाहरी दबाव और परतन्त्रता में नहीं । 

     

    सरकारी नियन्त्रण से मुक्त शिक्षा-व्यवस्था हो 

    भारत में लोकतान्त्रिक दलीय शासन व्यवस्था है। यह उपयुक्त भी है। इस पद्धति में विभिन्न विचारधाराओं के राजनीतिक दल चुनाव में जीतने पर शासन सँभालते हैं। उस स्थिति में शासन से नियन्त्रित शिक्षा की नीति राजनीतिक दलों की विचारधारा के अनुसार निर्धारित होती है। प्रति पाँच वर्ष पश्चात् दलीय सरकारें बदलती रहती हैं और शिक्षा की नीति में भी परिवर्तन होता रहता है। परिणामत: राष्ट्रीय शिक्षा की नीति एवं व्यवस्था की जड़ें जम नहीं पातीं। यही नहीं, एक दल की सरकार होने पर भी शिक्षा मन्त्री बदलते रहते हैं और शिक्षानीति भी उस मन्त्री के साथ बदलती रहती है। भारत में शिक्षा के साथ यह खिलवाड़ स्वतन्त्रता - प्राप्ति से निरन्तर हो रहा है। इसका परिणाम हमारे सामने है। आज शिक्षा-जगत् में राजनीतिक क्षेत्र के समान ही अस्थिरता एवं अराजकता व्याप्त है। 

     

    यह राष्ट्रीय अनिवार्यता है कि शिक्षा को सरकारी नियन्त्रण से पूर्णत: मुक्त रखा जाय। भारत में शिक्षा सरकार की दासी के रूप में रहकर कभी राष्ट्रीय उन्नति का साधन नहीं बन सकती। 

     

    न्यायपालिका के समान शिक्षा की स्वतन्त्र व्यवस्था हो 

    यह आवश्यक है कि देश में शिक्षा की भी न्यायपालिका के समान स्वतन्त्र व्यवस्था हो। इसके लिये देश के संविधान में परिवर्तन अपेक्षित है। जिस प्रकार न्यायपालिका की सम्पूर्ण व्यवस्था का आर्थिक भार सरकार वहन करती है, उसी प्रकार शिक्षा-व्यवस्था का आर्थिक दायित्व सरकार को सँभालना होगा। परन्तु उसे शिक्षा क्षेत्र में हस्तक्षेप करने का उसी प्रकार अधिकार नहीं हो, जिस प्रकार न्यायपालिका में सरकार को हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है। इस व्यवस्था से ही भारत की शिक्षा वर्तमान संकट से मुक्त हो सकती है।

     

    आचार्यों एवं शिक्षाविदों के द्वारा नियमन 

    यह सत्य है कि कोई भी व्यवस्था नियमन के बिना नहीं चल सकती। शिक्षा-व्यवस्था के लिये भी नियमन आवश्यक है । किन्तु शिक्षा क्षेत्र का नियमन आचार्यों एवं शिक्षाविदों के द्वारा हो। इसके लिये राष्ट्रीय स्तर से लेकर राज्य स्तर और जनपद स्तर तक प्राचीन भारत के समान परिषदें गठित की जायें, जिनके सदस्य आचार्य एवं विद्वान् रखे जायें। समाज के प्रबुद्ध वर्ग एवं वरिष्ठ छात्रों का प्रतिनिधित्व भी उसमें हो। विश्वविद्यालयों एवं विभिन्न विद्यापीठों की व्यवस्था के लिये उनकी स्वतन्त्र परिषदें हों। 

     

    शिक्षा-संस्थाओं की प्रबन्ध समितियों में शैक्षिक क्षेत्र के व्यक्तियों का बहुमत हो 

     

    वर्तमान में शिक्षा - संस्थाओं की प्रबन्ध समितियों में अधिकांश ऐसे सदस्य होते हैं जिनको शिक्षा की पद्धतियों एवं सूक्ष्म तत्त्वों का साधारण ज्ञान भी नहीं होता । प्रबन्ध-समितियों में प्रायः वे व्यक्ति सदस्य होते हैं जो शिक्षा-संस्थाओं को दान देते हैं। दान के बदले में ये व्यक्ति प्रबन्ध समिति के अध्यक्ष अथवा प्रबन्धक बनकर शिक्षा - संस्थाओं पर शासन करते हैं तथा शिक्षकों एवं आचार्यों को निर्देश देते हैं। अनेक स्थानों पर राजनीतिक व्यक्ति प्रबन्ध-समितियों पर अधिकार जमा लेते हैं और उनके कारण शिक्षा-संस्थाएँ राजनीति के अड्डे बन जाती हैं। अतः इस प्रकार के नियम बनने चाहिए जिससे प्रबन्ध-समितियों में आचार्यों एवं विद्वानों का बहुमत हो 

     

    प्रबन्ध-समितियों के सदस्यों को यह अनुभूति होना भी आवश्यक है कि उनका कार्य शिक्षा की व्यवस्था में योगदान करना है जिससे आचार्य अपना शिक्षण का कार्य भली प्रकार कर सकें। प्रबन्धक या प्रबन्ध समिति के सदस्य आचार्यों के अधिकारी नहीं हैं, वरन् उनके सहयोगी हैं। प्रायः यह देखने को मिलता है कि सामान्य पढ़े-लिखे व्यक्ति धन के बल पर प्रबन्धक बन जाते हैं और वे प्रधानाचार्य या आचार्य को अपना अधीनस्थ कर्मचारी समझकर उनके साथ व्यवहार करते हैं। यह स्थिति शिक्षा के लिये पोषक नहीं है। राष्ट्रपति न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं, सरकारी कोष से न्यायाधीशों को वेतन मिलता है, किन्तु न्यायाधीश राष्ट्रपति के अधीनस्थ नहीं होते । न्यायालय में राष्ट्रपति को भी यदि उपस्थित होना होता है तो उनके साथ भी अन्य नागरिकों के समान ही व्यवहार किया जाता है। प्रबन्धकों का आचार्यों एवं प्रधानाचार्यों के साथ इसी प्रकार का सम्बन्ध अपेक्षित है। शिक्षा संस्था में प्रधानाचार्यों एवं आचार्य का स्थान सर्वोपरि है। आचार्यों की इस गरिमा की सुरक्षा शिक्षा एवं विद्यार्थियों के हित में आवश्यक है। 

     

    उपसंहार 

    हमारी शिक्षा-व्यवस्था में अनेक विडम्बनाएँ पल रही हैं। राष्ट्र और शिक्षा के सम्बन्ध में सही दृष्टिकोण अपनाकर ही इन विडम्बनाओं से मुक्ति मिल सकती है और शिक्षा को राष्ट्र की उन्नति का माध्यम बनाया जा सकता है। सभ्यता के युग में शिक्षा ही राष्ट्र की उन्नति का मार्ग है। विद्या को राष्ट्रीयता का विधायक तथा राष्ट्रीयता का समानान्तर मूल्य मानने पर ही शिक्षा की फलदायक व्यवस्था सम्भव हो सकती है। हम राष्ट्र और विद्या के सेवक बनकर ही राष्ट्रनिर्माता बन सकते हैं। इसके लिये नेता, अधिकारी एवं आचार्य - तीनों को अपनी व्यक्तिगत महिमा का दम्भ छोड़ना होगा, तभी हमारी शिक्षा-संस्थाएँ राष्ट्र-निर्माण के तीर्थ होंगी और विद्यार्थियों को राष्ट्र की विभूति मानकर उन्हें अभ्युदय की दिशाओं में प्रेरित कर सकेंगी। 

     


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