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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • शिक्षा के उद्देश्य 

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    Vidyasagar.Guru

    शिक्षा के उद्देश्य मनुष्य जीवन के उद्देश्यों से भिन्न नहीं हैं। शिक्षा वह प्रणाली है जिससे जीवन के उद्देश्य प्राप्त होते हैं। शिक्षा मानव की उन अन्तर्निहित शक्तियों, कुशलताओं एवं गुणों का विकास करती है जिनसे वह अपने जीवन के उद्देश्यों को प्राप्त करने में सफल होता है। मानव जीवन का लक्ष्य है, " धर्माचरण के द्वारा अर्थ और काम पुरुषार्थों की साधना करते हुए परम पुरुषार्थ 'मोक्ष' अर्थात् सत्, चित् आनन्दस्वरूप परमात्मा की प्राप्ति करना । " भारतीय दृष्टि से विद्या प्राप्त करने का मुख्य उद्देश्य भी यही बताया गया है। “ सा विद्या या विमुक्तये " - विद्या वही है जो मोक्ष दिलाये । इस परम लक्ष्य की प्राप्ति हेतु व्यावहारिक पक्ष की शिक्षा भी आवश्यक मानी गयी है। ईशोपनिषद् में इसका उल्लेख है- 

     

     

     

    विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह।

    अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते ॥

    अन्ध तमः प्रवशन्ति येऽविद्यामुपासते । 

    ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रताः ॥ 

     

    जो लोग विद्या (अध्यात्म विद्या या पराविद्या) और अविद्या ( भौतिक विद्या अथवा अपराविद्या) दोनों को साथ-साथ जानते हैं, वे ही भौतिक विद्या के सहारे सुखपूर्वक इस मर्त्यलोक (संसार) को पार करके अध्यात्म विद्या के सहारे अमृत या मोक्ष प्राप्त करते हैं। जो लोग केवल अविद्या अर्थात् भौतिक शास्त्रों की उपासना करते हैं, वे अन्धकार में पड़े हुए हैं। किन्तु उनसे भी घने अन्धकार में वे लोग हैं जो संसार की चिन्ता न करके केवल अध्यात्म विद्या में लीन रहते हैं। अपरा विद्या के अर्न्तगत विज्ञान, साहित्य, इतिहास, अर्थशास्त्र, कला, शिल्प आदि सांसारिक ज्ञान हैं। इस प्रकार भारतीय शिक्षा दर्शन में आध्यात्मिक एवं भौतिक, दोनों प्रकार के ज्ञान का सामंजस्य है। डॉ० अल्तेकर ने प्राचीन भारत में शिक्षा के उद्देश्यों की गणना कराते हुए कहा है कि " शिष्य को पवित्रता और धर्म की भावना, चरित्र - निर्माण, व्यक्तित्व का विकास, नागरिक और सामाजिक कर्त्तव्य की भावना, सामाजिक समर्थता की समुन्नति और राष्ट्रीय संस्कृति के विस्तार की दृष्टि से शिक्षा देनी चाहिए। " 

     

    आधुनिक भारत के महान् विचारक स्वामी विवेकानन्द ने शिक्षा के उद्देश्यों पर अपने विचार प्रकट करते हुए कहा है- "शिक्षा विविध जानकारियों का ढेर नहीं है जो तुम्हारे मस्तिष्क में भर दिया गया है और जो आत्मसात् हुए बिना वहाँ आजन्म पड़ा रहकर गड़बड़ मचाया करता है। हमें उन विचारों की अनुभूति कर लेने की आवश्यकता है जो जीवन-निर्माण, मनुष्य-निर्माण तथा चरित्र-निर्माण में सहायक हों।" उन्होंने एक स्थान पर कहा है कि "हमें तो ऐसी शिक्षा चाहिए जिससे चरित्र बने, मानसिक वीर्य बढ़े, बुद्धि का विकास हो और जिससे मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा हो सके। " 1 

     

    श्री अरविन्द के अनुसार, " बालक की प्रकृति में जो कुछ सर्वोत्तम, सर्वाधिक शक्तिशाली, सर्वाधिक अन्तरंग और जीवनपूर्ण है, उसको व्यक्त करना शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए। बालक की सच्ची शिक्षा वही है जो कि उसके समस्त पक्षों का विकास करे। उसके जीवन, मस्तिष्क ओर आत्मा, व्यक्तिगत और सामाजिक स्थिति - सभी में, उसके सर्वांगीण विकास में योगदान दे। "2 श्री अरविन्द अन्तरराष्ट्रीयता के प्रबल समर्थक होते हुए भी कट्टर राष्ट्रवादी थे। वह यह मानते थे कि संसार में सर्वत्र मानव की आवश्यकताएँ समान हैं तथा ज्ञान एवं सत्य किसी देश की सीमा में नहीं बाँधे जा सकते, किन्तु फिर भी प्रत्येक देश का अपना एक स्वधर्म होता है, एक स्वभाव होता है । उसी के अनुसार उसका विकास किया जाना चाहिए। अतः भारत में शिक्षा-व्यवस्था राष्ट्रीय सिद्धान्तों पर आधारित होनी चाहिए। श्री अरविन्द ने कहा है- “हम जिस शिक्षा की खोज में हैं, वह एक भारतीय आत्मा और आवश्यकता तथा स्वभाव और संस्कृति के उपयुक्त शिक्षा है, केवल ऐसी शिक्षा नहीं जो भूतकाल के प्रति ही आस्था रखती 

    हो, बल्कि भारत के विकासमान आत्मा के प्रति, उसकी भावी आवश्यकताओं के प्रति, उसकी आत्मोन्नति की महानता के प्रति और उसकी शाश्वत आत्मा के प्रति आस्था रखती हो। " 1 

     

    श्री अरविन्द ने मानव की दिव्य पूर्णता को जीवन एवं शिक्षा का लक्ष्य माना है। शारीरिक, प्राणिक, मानसिक, आन्तरात्मिक एवं आध्यात्मिक विकास के द्वारा इस पूर्णता को प्राप्त करना है। श्री माँ के शब्दों में, “जब हम पूर्णता की इस मात्रा को प्राप्त हो जायेंगे, जो कि हमारा लक्ष्य है, तब हम देखेंगे कि जिस सत्य की खोज हम कर रहे हैं वह चार प्रधान तत्त्वों से बना है- प्रेम, ज्ञान, शक्ति और सौन्दर्य । सत्य के ये चारों रूप अपने आप हमारी सत्ता के अन्दर अभिव्यक्त होंगे। चैत्य पुरुष होगा सच्चे और शुद्ध प्रेम का वाहन, मन होगा अभ्रान्त ज्ञान का यन्त्र, प्राण प्रकट करेगा एक अदम्य शक्ति और सामर्थ्य और शरीर बन जायेगा पूर्ण सौन्दर्य और पूर्ण सामंजस्य की प्रतिमा । 

     

    उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि प्राचीन एवं अर्वाचीन भारतीय मनीषियों ने शिक्षा के उद्देश्यों के सम्बन्ध में जो विचार प्रकट किये हैं, वे प्रायः समान हैं। केवल अभिव्यक्ति की भिन्नता के कारण शब्दों में थोड़ा-बहुत अन्तर मिलता है। भारतीय शिक्षा दर्शन एवं मनोविज्ञान के प्रकरणों के विवेचन की पृष्ठभूमि को दृष्टिगत रखते हुए शिक्षा के उद्देश्यों को निम्नांकित चरणों के अनुसार निर्धारित किया जा सकता है। इसे हमने 'पंचमुखी शिक्षा' कहा है। 

     

    पंचमुखी शिक्षा 

    (1) शारीरिक शिक्षा : छात्रों के आध्यात्मिक, नैतिक, मानसिक एवं व्यावसायिक विकास का साधन शरीर है। अतः शारीरिक विकास को शिक्षा का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य माना गया है। शारीरिक विकास के अन्तर्गत अन्नमय एवं प्राणमय दोनों कोशों का विकास सम्मिलित है। 

     

    (2) व्यावसायिक शिक्षा : व्यक्तिगत जीविकोपार्जन हेतु एवं राष्ट्र की आर्थिक समृद्धि हेतु आवश्यक व्यावहारिक कुशलताओं एवं सम्बन्धित गुणों एवं बृत्तियों का विकास करना । 

     

    ( 3 ) मानसिक शिक्षा : इसके अन्तर्गत मानसिक एवं बौद्धिक शक्तियों एवं क्षमताओं का विकास एवं जिस विश्व में हम रह रहे हैं उसका ज्ञान प्राप्त करना समाहित है। 

     

    ( 4 ) नैतिक शिक्षा : ईश्वरोन्मुख जीवन के लिये ध्येयनिष्ठा, अनुशासन, स्वच्छता-बोध, सत्यवादिता, निःस्वार्थता, व्यवस्थाप्रियता, शिष्टाचार, समाज एवं राष्ट्र के प्रति भक्तिभावना आदि सद्गुणों का विकास करना । 

     

    (5) आध्यात्मिक शिक्षा : भारतीय जीवन-दर्शन के अनुसार जीवन के परम लक्ष्य के प्रति सचेत करना, अन्तरात्मा में एवं दूसरे प्राणियों में ईश्वर के दर्शन करना, निर्भयता, प्रेम, करुणा आदि आध्यात्मिक गुणों का विकास करना । 

     

    शिक्षा के उद्देश्यों का विचार करते समय यह समझना आवश्यक है कि जीवन की भाँति शिक्षा भी एक अखण्ड प्रक्रिया है। जिस प्रकार जीवन को समग्र रूप में ही देखा जा सकता है, उसी प्रकार शिक्षा को भी खण्ड-खण्ड नहीं किया जा सकता। हम विचार करने की सुविधा के लिये उसके विभाग करते हैं। शिक्षा के सभी उद्देश्य परस्पर सम्बन्धित होते हैं तथा उनका कोई निश्चित क्रम निर्धारित नहीं किया जा सकता। यह भी नहीं कहा जा सकता कि शिक्षा का अमुक उद्देश्य पहले प्राप्त करना चाहिए अथवा अमुक बाद में। देश, काल, परिस्थिति की माँग के अनुसार उन उद्देश्यों की विषयवस्तु (कॉण्टेण्ट्स) में परिवर्तन अथवा आग्रह में अन्तर आ सकता है। 

     

    यह तथ्य भी महत्त्वपूर्ण है कि मनुष्य की ज्ञानशक्ति, इच्छाशक्ति, एवं क्रियाशक्ति - तीनों शक्तियों का शिक्षा से सम्बन्ध है। शिक्षा के किसी भी उद्देश्य की प्राप्ति तभी सार्थक है, जब उसमें इन तीनों शक्तियों का योग हो । उदाहरण के लिये हम शिक्षा के शारीरिक विकास के उद्देश्यों को ही ले सकते हैं। इसकी प्राप्ति के लिये शरीर एवं उसके विकास के सम्बन्ध में ज्ञान, शरीर का विकास करने की इच्छा एवं उसको क्रिया रूप में परिणित करना आवश्यक है। इसके बिना शारीरिक विकास का उद्देश्य पूर्ण नहीं हो सकता। इसलिये ज्ञान, इच्छा और क्रिया के समन्वय को शिक्षा का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य माना है। 

    अब हम पंचमुखी शिक्षा के सोपानों का अलग-अलग विस्तार से विचार करेंगे। 

     

    (1) शारीरिक शिक्षा 

    “शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम् " - शरीर समस्त धर्म का साधन है। हमारी ज्ञानशक्ति, इच्छाशक्ति की भी अभिव्यक्ति का माध्यम शरीर है। स्वस्थ काया में स्वस्थ मन निवास करता है। जीवन के सुख के लिये स्वस्थ मन आवश्यक है। इस स्वस्थ मन के लिये शरीर का स्वस्थ होना आवश्यक है। शरीर के स्वास्थ्य के लिये शारीरिक शिक्षा का महत्त्व सभी ने स्वीकार किया है। यह उक्ति प्रसिद्ध है कि बाहुबल से रक्षित राष्ट्र ही शास्त्र का चिन्तन कर सकता है। शारीरिक शिक्षा से बालकों में जो पौरुष, बल एवं शक्ति का विकास होगा, उसी से हमारे देश में अध्ययन, अनुसंधान, देश की सीमा की रक्षा, विश्व में शान्ति, कल-कारखानों तथा खेत-खलिहानों में उत्पादन की वृद्धि सम्भव होगी। शारीरिक प्रशिक्षण से छात्रों में सामूहिक भावना, अनुशासन एवं व्यवस्थित कार्य करने की अभूतपूर्व क्षमता उत्पन्न होती है। उससे स्वस्थ समाज का निर्माण होता है । इस प्रकार शारीरिक शिक्षा व्यक्ति, समाज, राष्ट्र एवं विश्व के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करती है। 

     

    स्वामी विवेकानन्द ने शारीरिक बल पर अत्यधिक आग्रह किया है। उनके शब्दों में-“ अनन्त शक्ति ही धर्म है। बल पुण्य है और दुर्बलता पाप । सभी पापों और सभी बुराइयों के लिये एक ही शब्द पर्याप्त है और वह है - दुर्बलता...... आज हमारे देश को जिस वस्तु की आवश्यकता है, वह है लोहे की मांसपेशियाँ और फौलाद के स्नायु, दुर्दमनीय प्रचण्ड इच्छाशक्ति, जो सृष्टि के गुप्त तथ्यों और रहस्यों को भेद सके और जिस उपाय से भी हो अपने उद्देश्य की पूर्ति करने में समर्थ हो फिर चाहे उसके लिये समुद्र तल में ही क्यों न जाना पड़े- साक्षात् मृत्यु का ही सामना क्यों न करना पड़े। मेरे नवयुवक मित्रो ! बलवान बनो। तुम को मेरी सलाह है- गीता के अभ्यास की अपेक्षा फुटबाल खेलने से तुम स्वर्ग के अधिक निकट पहुँच जाओगे । तुम्हारी कलाई और भुजाएँ अधिक सुदृढ़ होने पर तुम गीता को अधिक अच्छी तरह समझोगे। तुम्हारे रक्त में शक्ति की मात्रा बढ़ने पर तुम श्रीकृष्ण की महान् प्रतिभा और अपार शक्ति को अच्छी तरह समझने लगोगे। तुम जब पैरों पर दृढ़ता के साथ खड़े होगे और तुमको जब प्रतीत होगा कि हम मनुष्य हैं, तब तुम उपनिषदों को और भी अच्छी तरह समझोगे और आत्मा की महिमा को जान सकोगे। " 1 

     

    शारीरिक शिक्षा का शाब्दिक अर्थ तो 'शरीर की शिक्षा' है, परन्तु इसका भाव शरीर तक सीमित नहीं है। वास्तव में शारीरिक शिक्षा के द्वारा बालक का शारीरिक, प्राणिक, मानसिक, नैतिक एवं आत्मिक विकास होता है, उसका सम्पूर्ण व्यक्तित्व सुगठित होता है। शारीरिक शिक्षा केवल शारीरिक क्रिया नहीं है । " शारीरिक शिक्षा, शिक्षा ही है । यह वह शिक्षा है जो शारीरिक क्रियाओं द्वारा बालक के सम्पूर्ण व्यक्तित्व, शरीर, मन एवं आत्मा के पूर्ण विकास हेतु दी जाती है । "2 

     

    शिक्षा के उद्देश्यों की पूर्ति में शारीरिक शिक्षा का महत्त्वपूर्ण योगदान है। खेल के मैदान में, धरती माता की धूल में ही बालक के व्यक्तित्व का वास्तविक गठन होता है। खेलों के द्वारा स्फूर्ति, बल, निर्णय-शक्ति, सन्तुलन, साहस, सतर्कता, आगे बढ़ने की वृत्ति, मिलकर काम करने की आदत, हार-जीत में समत्वभाव, अनुशासनबद्धता आदि शारीरिक, नैतिक, सामाजिक एवं आत्मिक गुणों का विकास होता है। शारीरिक क्रियाकलापों में व्यक्ति खुलकर बाहर आता है। भीतर की कुण्ठाएँ, घुटन, निराशा आदि खेल की मस्ती में घुल जाती हैं। उत्साह उमड़ता है। क्रियाशीलता बढ़ती है, और उसे योग्य दिशा मिलती है। आनन्द की प्राप्ति होती है, और आनन्द में ही मानव के विकास की प्रेरणा निहित है। 

     

    शारीरिक शिक्षा के अंग 

    भारतीय मनोविज्ञान में मानव की भौतिक काया को स्थूल शरीर कहा गया है । इस स्थूल शरीर के दो भाग हैं। स्थूल देह को अन्नमय कोश एवं दूसरे भाग को प्राणमय कोश कहा गया है। अतः शारीरिक शिक्षा के अन्तर्गत अन्नमय कोश और प्राणमय कोश- दोनों का विकास सम्मिलित है। सामान्य भाषा में अन्नमय कोश के विकास को शारीरिक विकास एवं प्राणमय कोश के विकास को संवेगात्मक विकास कहा जाता है। 

     

    (1) शारीरिक विकास 

    उद्देश्य - शारीरिक विकास के तीन प्रधान उद्देश्य हैं :- 

     

    (1) शरीर को हृष्ट-पुष्ट, सुन्दर, सुडौल बनाना एवं उसकी क्षमताओं का विकास करना । 

    (2) शरीर के सभी अंगों एवं संस्थानों की क्रियाओं का सर्वांगपूर्ण, प्रणालीबद्ध और सामंजस्यपूर्ण विकास करना । 

    (3) शरीर का पूर्ण नीरोग रहना । यदि शरीर में कोई दोष और विकृति हो तो उसे सुधारना । विशेष रूप से आँख, कान, नाक आदि इन्द्रियों को नीरोग एवं क्षमतावान् बनाना। 

     

    शारीरिक विकास के आवश्यक तत्त्व 

    शारीरिक विकास के निम्नांकित आवश्यक तत्त्व हैं :- 

    (1) भोजन : शारीरिक स्वास्थ्य के लिये भोजन का संतुलित एवं नियमित होना आवश्यक है। छात्रों को यह ज्ञान होना चाहिए कि सन्तुलित भोजन क्या होता है और भोजन नियमित समय पर और कितनी मात्रा में किस प्रकार करना चाहिए। पानी पीने के नियमों की जानकारी उपयोगी है। भोजन में स्वच्छता एवं पवित्रता का ध्यान रखना चाहिए। यह जानना आवश्यक है कि हम अपने शरीर को सबल और स्वस्थ रखने के लिये भोजन करते हैं, स्वादेन्द्रिय को सुख देने के लिये नहीं । 

    ( 2 ) स्वच्छता : शरीर को नीरोग एवं स्वस्थ रखने के लिये स्वच्छता आवश्यक है। नियमित स्नान द्वारा शरीर को स्वच्छ रखना, दाँत, नाखून, वस्त्र आदि की स्वच्छता, रहने, बैठने के स्थान आदि की स्वच्छता- इन पर विशेष ध्यान देना चाहिए। 

    ( 3 ) विश्राम : शरीर को समुचित विश्राम मिलना चाहिए। विश्राम अथवा सोने की अवधि आयु के अनुसार अलग-अलग हो सकती है। सोने का स्थान बिल्कुल शान्तं और हवादार होना चाहिए। स्नायुओं को आराम पहुँचाने के लिये पूर्ण निद्रा आवश्यक है। प्रत्येक व्यक्ति को जाग्रत अवस्था में मांसपेशियों और स्नायुओं को विश्राम देने की विधि जाननी चाहिए। योगासनों में शवासन या शिथिलीकरण की क्रिया इसके लिये बहुत उपयोगी है। 

    ( 4 ) व्यायाम : शरीर के विकास के लिये मांसपेशियों में अच्छी गति और सन्तुलित वृद्धि लाने के लिये प्रतिदिन व्यायामआवश्यक है। बालकों के दैनिक कार्यक्रम में व्यायाम, खेल-कूद को पर्याप्त स्थान देना चाहिए। रीढ़ की हड्डी और जोड़ों का कठोर हो जाना रुकना चाहिए। यह शरीर के स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है। इसके लिये योगासनों का अभ्यास बहुत उपयोगी है। इनसे शरीर नमनीय एवं लचीला, सुन्दर, सुडौल बनता है। 

    (5) सद्विचार एवं नियमितता : जीवन में सद्विचार, नियमितता तथा स्वस्थ आदतों का शारीरिक विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है। छोटी आयु से ही बालकों में शारीरिक स्वास्थ्य, शक्ति, सामर्थ्य और सुन्दर, सुडौल शरीर के प्रति आदर का भाव सिखाना चाहिए। अच्छी आदतों, अच्छे विचारों का शारीरिक स्वास्थ्य से घनिष्ठ सम्बन्ध है । ब्रह्मचर्य की साधना शरीर को बलशाली सुन्दर, सुडौल सुडौल और अदम्य क्षमतावान बनाती है। इसका महत्त्व छात्रों को यथासमय बताना चाहिए। 

     

    (2) प्राणिक विकास 

    प्राण तत्त्व क्रियात्मक ऊर्जा है, जो हमारे जीवन की समस्त क्रियाओं का आधार है। इसे जीवन - शक्ति भी कहते हैं। जिस प्रकार विद्युत् तार में व्याप्त होकर एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाकर बल्बों आदि में प्रकाश रूप में प्रकट होती है, उसी प्रकार प्राण तत्त्व हमारे देह में फैले गति - वाहकसूत्रों (तन्त्रिकातन्त्र) के माध्यम से सम्पूर्ण शरीर के अंग-प्रत्यंग में व्याप्त है। वायु प्राण तत्त्व का वाहक है। यह स्थूल देह का जीवन तथा सम्पूर्ण कार्य करने वाला बल है। हमारे संवेग, क्रोध, भय, लोभ, उत्साह, निराशा, भूख-प्यास, कामना आदि मूल प्रवृत्तियाँ प्राण के कार्य के ही अंग हैं। 

     

    जिस प्रकार स्थूल शरीर के हाथ-पैर आदि अंग एवं अंगुली आदि उपांग हैं, उसी प्रकार इस प्राणमय कोश के भी अंग - उपांग हैं। इनमें 5 अंग हैं और 5 उपांग हैं जो इस प्रकार हैं- 

    (1) अपान : अपान का गति क्षेत्र नाभि से आपाद - तल है। इसका 

    कार्य शरीर के अन्दर के मल आदि को बाहर निकालना है। 

    (2) समान : हृदय से नाभि तक इसका निवास एवं कार्य क्षेत्र है। भोजन की पाचन क्रिया का सम्पादन करना एवं भोजन से बने रस को यथास्थान वितरित करके देह को पुष्ट करना इसका कार्य है।

    (3) प्राण : इसका निवास-स्थान एवं कार्य क्षेत्र मुख से हृदयपर्यन्त है । यह श्वास-प्रश्वास के रूप में नासिका से हृदयपर्यन्त गमन करता है। वर्णों के उच्चारण में सहायता देना, भोजन को आमाशय में धकेलना, स्वेद बनाना, रक्त में ऊष्मा बनाये रखना, रक्त संचार करना, भूख-प्यास लगना इसी के कार्य हैं। 

    ( 4 ) उदान : इसका गति क्षेत्र कण्ठ से कपाल तक है। वमन, वर्णोच्चारण और गायन में सहायता करना तथा देह को ऊपर 

    उठाये रखकर सन्तुलन बनाये रखना इसके कार्य हैं। 

    ( 5 ) व्यान : समस्त देह में व्याप्त रहकर ज्ञानवाहक स्थूल सूक्ष्म नाड़ियों को गतिशील बनाये रखना इसका कार्य है। 

     

    उपप्राण 

    (1) देवदत्त : नासिका इसका स्थान है। छींक लाना इसका कार्य है। (

    2) कृकल : स्थान कण्ठ। जृम्भा ( जंभाई) लाना तथा भूख-प्यास उत्पादक माना जाता है। 

    ( 3 ) कूर्म : नेत्रों के पलकों में इसकी गति रहती है। निमेष - उन्मेष रूप पलकों को झपकाने का कार्य करता है। 

    ( 4 ) नाग : इसका स्थान मुख है। डकार, हिचकी लाना इसके ही कार्य हैं। 

    ( 5 ) धनञ्जय: समस्त देहव्यापी है। गमनागमन में सहायक एवं 

    देहपोषक है। 

     

    प्राणिक शिक्षा के उद्देश्य 

    प्राण के विकास के दो प्रधान रूप हैं- 

    1. इन्द्रियों का विकास एवं उनका उपयोग करना 

    देखना, सुनना, सूँघना, चखना, और स्पर्श- ये हमारी ज्ञानेन्द्रियों के व्यापार हैं। यदि समुचित साधना का अनुसरण किया जाय तो इन इन्द्रियों की संवेदनशीलता एवं इनकी चेतना का पर्याप्त विस्तार किया जा सकता है तथा इनके द्वारा दूर की वस्तुओं का भी सही रूप में ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। इन्द्रियों के प्रशिक्षण में यह बात भी महत्त्वपूर्ण है कि सामान्य शिक्षा के साथ 

    उनके व्यापारों में सुन्दर, स्वस्थ और शुद्ध वस्तु को ग्रहण करने का अभ्यास कराया जाये। इसी को सौन्दर्य-बोध और विवेक कहा जाता है। 

     

    2. चरित्र का विकास 

    प्राणिक विकास में अवांछनीय मूल प्रवृत्तियों-क्रोध, काम, लोभ, ईर्ष्या का रूपान्तरण करके अच्छे संवेगों के विकास के द्वारा उत्साह, मिलकर काम करने की आदत, साहस, आगे बढ़ने की वृत्ति, हार-जीत में समभाव, अनुशासन, सहनशीलता, प्रफुल्लता, क्रियाशीलता आदि अच्छे गुणों का निर्माण बालक के चरित्र में करना चाहिए। 

     

    ये गुण शारीरिक क्रिया-कलापों एवं खेल-कूद के माध्यम से विकसित किये जा सकते हैं। बालक में संकल्प की दृढ़ता का विकास एक बार हो जाय तो अच्छी आदतों का निर्माण करना सरल हो जाता है। आत्म-निरीक्षण और आगे बढ़ने की इच्छा, असफलता में हार न मानना, यह अभ्यास प्राणिक विकास की सही प्रक्रिया है। इसी के द्वारा बुरी आदतों से छुटकारा पाया जा सकता है और अच्छी आदतों का विकास किया जा सकता है। संवेगों के नियन्त्रण में योगासनों एवं प्राणायाम की साधना बहुत सहायक सिद्ध होती है। इनके अभ्यास से तन्त्रिकातन्त्र संस्थान एवं ग्रन्थियों के स्राव की क्रिया में सन्तुलन स्थापित होता है। इस प्रकार हमारे संवेगों का नियन्त्रण एवं रूपान्तरण होता है। 

     

    शारीरिक शिक्षा एवं आध्यात्मिकता 

    मानव-शरीर भोग-विलास एवं इन्द्रियों के सुख देने मात्र का माध्यम नहीं है, अपितु अपने जीवन-लक्ष्य 'भगवत् - प्राप्ति' का साधन है। वेदों में शरीर का' अयोध्या नगरी' के रूप में वर्णन किया गया है- 

    अष्टचक्रा नवद्वारा देवानांपुर्ययोध्या, 

    तस्यां हिरण्मयः कोश: स्वर्गो ज्योतिषावृतः । 

     

    आठ चक्रों एवं नौ द्वारों वाली अयोध्या नामक देवपुरी में प्रकाशरूप आत्मा वास करता है। 

     

    'शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्' आदि वाक्यों द्वारा इस मानव शरीर की महत्ता का वर्णन भारतीय वाड्.मय में स्थान-स्थान पर मिलता है। अतः अपने - शरीर के प्रति यह भारतीय आध्यात्मिक दृष्टिकोण बालकों में निर्मित करना आवश्यक है। शिक्षा के लक्ष्यों की प्राप्ति का आधार भी हमारा यह शरीर ही है। इस प्रकार अपने शरीर के प्रति सम्मान का स्थायी भाव छात्रों में विकसित करना चाहिए। आज की पश्चिमी भौतिकवादी सभ्यता के प्रभाव के कारण भारतीय युवक शरीर के प्रति इस स्वस्थ दृष्टिकोण से वंचित होते जा रहे हैं। शारीरिक शिक्षा के इस आध्यात्मिक पक्ष की ओर ध्यान देने की इस समय अतीव आवश्यकता है। 

     

    शारीरिक शिक्षा के सहगामी क्रियाकलाप 

    एन० सी० सी०, राष्ट्रीय सेवा योजना, स्काउटिंग आदि 

    बालकों को अच्छे नागरिक बनाने में स्काउटिंग सहयोग देती है। स्काउटिंग एक अन्तर्राष्ट्रीय लहर है। इसका आरम्भ इंग्लैण्ड में 1907 में लार्ड बेडन पावल ने किया। भारत में इस आन्दोलन को महामना पण्डित मदनमोहन मालवीय, श्रीराम वाजपेयी एवं पण्डित हृदयनाथ कुंजरू ने अथक परिश्रम के साथ फैलाया। इसका उद्देश्य विभिन्न शारीरिक क्रियाकलापों के माध्यम से ईश्वर - भक्ति, देश- सेवा, कर्त्तव्यपरायणता, आत्मानुशासन, सेवावृत्ति आदि नैतिक गुणों का विकास करना है। शारीरिक शिक्षा के साथ यह गतिविधि उपयोगी सिद्ध होती है। अतः प्रत्येक विद्यालय में स्काउटिंग कार्यक्रम अवश्य चलाना चाहिए। इसका प्रशिक्षण प्रत्येक छात्र के लिये आवश्यक है। इसके सम्बन्ध में विस्तार से जानकारी प्राप्त करने के लिये स्काउटिंग एवं गाइडिंग सम्बन्धी साहित्य का अध्ययन करना चाहिए जो पर्याप्त मात्रा में प्रकाशित हो चुका है। इसी प्रकार उच्च शिक्षा के छात्रों के लिये एन० सी० सी० और राष्ट्रीय सेवा योजना की गतिविधियाँ भी उपयोगी हैं। सैनिक शिक्षा एवं सेवा योजना सम्बन्धी शिविरों के आयोजन से छात्रों में अनुशासन, साहस, देशभक्ति, समाज-सेवा आदि गुणों का विकास होता है। युवक छात्रों की शारीरिक एवं प्राणिक शक्ति का रचनात्मक दिशा में रूपान्तरण करने के लिये ये कार्यक्रम अच्छे साधन बन सकते हैं। 

     

    प्राथमिक चिकित्सा-प्रशिक्षण 

    चोट लगने, रक्त बहने, हड्डी टूटने, मोच आने, विषैले कीड़े आदि के काटने जैसी आकस्मिक दुर्घटनाएँ प्रायः घटती रहती हैं। ऐसी स्थिति में अनेक बार चिकित्सक की सहायता तुरन्त प्राप्त होने में विलम्ब हो जाता है। इसके कारण रोगी को असह्य कष्ट होता है और कभी-कभी इस विलम्ब के कारण रोग के बढ़कर असाध्य होने का भी भय रहता है। अतः यह आवश्यक है कि रोगी को तत्काल घटनास्थल पर ही कुछ ऐसा उपचार उपलब्ध हो जाये जिससे उसे आराम पहुँचे और उसकी दशा बिगड़ने न पाये। घटनास्थल पर किये जाने वाले इस प्राथमिक उपचार को ही 'प्राथमिक चिकित्सा' कहते हैं। छात्रों को इस प्राथमिक चिकित्सा का प्रशिक्षण देने की व्यवस्था प्रत्येक विद्यालय को करनी चाहिए। इससे छात्रों के ज्ञान एवं कुशलता में तो वृद्धि होगी ही, साथ ही यह प्रशिक्षण इस प्रकार के घटनास्थल पर उपयोगी भी सिद्ध होगा। इसके द्वारा उनमें सेवा-भाव का विकास भी होगा। प्राथमिक चिकित्सा का ज्ञान बालक के जीवन में सदैव उपयोगी होगा। 

     

    घोषवादन (बैण्ड ) 

    आपने देखा होगा कि सेना में संचलन के अवसर पर घोषवादन कितना अच्छा लगता है। घोषवाद्यों की सामूहिक ध्वनि प्रत्येक सुनने वाले व्यक्ति के मन में एक उत्साह की लहर उत्पन्न कर देती है। घोषवादन संगीत कला का ही अंग है। शारीरिक शिक्षा के अन्तर्गत प्राणिक विकास के लिये इसकी संगीत - ध्वनि बहुत सहायक होती है। छात्रों में अनुशासन, आनन्द और उत्साह की भावना का जागरण होता है। तन्त्रिका - तन्त्र एवं ग्रन्थियों के स्राव पर इसका प्रभाव पड़ता है, जिसके कारण संवेगों का रूपान्तरण होने में सहायता मिलती है। छात्रों को इसका प्रशिक्षण देना चाहिए तथा शारीरिक कार्यक्रमों, संचलन, सामूहिक व्यायाम आदि अवसरों पर घोषवादन कराना चाहिए। इसके कारण मधुर वातावरण का निर्माण होगा। छात्रों में शारीरिक कार्यक्रमों के प्रति रुचि बढ़ेगी, आनन्द और उत्साह की भावना का जागरण होगा। इस प्रकार शारीरिक एवं प्राणिक विकास में सहायता मिलेगी। प्राय: अच्छे बिद्यालय अपने यहाँ घोषवाद्यवृन्दों की व्यवस्था करते हैं।

     

    शारीरिक शिक्षा का ज्ञानात्मक पक्ष 

    यद्यपि शारीरिक शिक्षा व्यावहारिक अधिक है, किन्तु इसका ज्ञानात्मक पक्ष समुचित विकास के लिये वांछनीय है। अतः विद्यालय की समय-सारिणी में शारीरिक शिक्षा के सिद्धान्त पक्ष का ज्ञान कराने की दृष्टि से कुछ वेलाएँ अवश्य निर्धारित होनी चाहिए। स्वास्थ्य के महत्त्व पर समय-समय पर व्याख्यानों के आयोजन भी छात्रों में स्वास्थ्य के प्रति चेतना जाग्रत करने में उपयोगी होते हैं।पुस्तकालय में शारीरिक शिक्षा एवं स्वास्थ्य सम्बन्धी अच्छे ग्रन्थों एवं पत्र-पत्रिकाओं की व्यवस्था होनी चाहिए तथा छात्रों को इनके स्वाध्याय के लिये प्रोत्साहित करना चाहिए। 

     

    अच्छे स्वास्थ्य के शरीर रचना एवं क्रिया - विज्ञान का सामान्य ज्ञान, नियम, खेलों का इतिहास, उनके नियम, खेल-संगठनों का परिचय आदि विषयों का ज्ञान छात्रों को उपलब्ध हो सके, इसकी व्यवस्था आवश्यक है। 

     

    ( 2 ) व्यावसायिक शिक्षा 

    व्यावसायिक शिक्षा, शारीरिक शिक्षा का ही अंग है, क्योंकि इसका सम्बन्ध अन्नमय कोश एवं प्राणमय कोश से है किन्तु महत्त्वपूर्ण विषय होने के कारण एवं विचार की सुविधा के लिये व्यावसायिक शिक्षा का हमने पृथक् विवेचन करना ही उपयुक्त समझा। व्यावसायिक शिक्षा जीविकोपार्जन हेतु शिक्षा का पर्याय है। जीविका जीवन के निर्वाह का आवश्यक साधन है। शिक्षा का सम्बन्ध सम्पूर्ण जीवन से है। अतः जीविकोपार्जन की शिक्षा भी सम्पूर्ण शिक्षा का महत्त्वपूर्ण अंग है। किन्तु आजकल जीविका शिक्षा का परम लक्ष्य बन गयी है। अधिकांश विद्यार्थी जीविका के लिये ही पढ़ते हैं। उनकी दृष्टि में ज्ञान का इतना महत्त्व नहीं है। दूसरी ओर आज की शिक्षा जीविका के लक्ष्य की पूर्ति भी नहीं कर पाती । जीविका सम्पूर्ण शिक्षा का लक्ष्य नहीं हो सकती, परन्तु शिक्षा के एक अंग के रूप में उसका स्थान अपरिहार्य है। प्राचीन भारतीय शिक्षा में जीविका की शिक्षा का स्थान था, परन्तु दृष्टि विस्तृत थी । उस काल में शिक्षा के अन्तर्गत जीवन के सभी अनुभव, शिक्षा और दीक्षा, सब समाहित थे तथा व्यक्ति को सामाजिक दृष्टि से उपयुक्त वृत्ति ग्रहण करने योग्य बनाया जाता था। आज दृष्टि संकुचित एवं स्वार्थकेन्द्रित हो गयी है। व्यक्ति जीविका का चयन अपने लाभ और अपनी प्रगति के अवसर को ध्यान में रखकर करता है, समाज या देश की आवश्यकता का विचार नहीं करता । इसके कारण देश में जीविका प्रदान करने की व्यवस्था में सन्तुलन बिगड़ गया है यद्यपि इसके लिये प्रचलित शिक्षा-पद्धति भी उत्तरदायी है। 

     

    आज आवश्यकता है ऐसी शिक्षा-व्यवस्था की, जो जीविका के प्रयोजन को पूर्ण कर सके और शिक्षा के व्यापक उद्देश्य के साथ उसका समुचित समन्वय कर सके। राष्ट्र की समृद्धि एवं आर्थिक सम्पन्नता के लिये भी व्यावसायिक शिक्षा की उपयुक्त व्यवस्था आवश्यक है। स्वामी विवेकानन्द ने प्रचलित शिक्षा की आलोचना करते हुए कहा है- " आँख खोलकर देखो, जो भारतखण्ड अन्न का अक्षय भण्डार रहा है, आज वहीं उसी अन्न के लिये कैसी करुण पुकार उठ रही है ! क्या तुम्हारी शिक्षा इसकी पूर्ति करेगी ?.... हमें यान्त्रिक और ऐसी सभी शिक्षाओं की आवश्यकता है जिनसे उद्योग-धन्धों की वृद्धि और विकास हो, जिससे मनुष्य नौकरी के लिये मारा-मारा फिरने के बदले अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये पर्याप्त कमाई कर सके और आपातकाल के लिये संचय भी कर सके। 

     

    व्यावसायिक शिक्षा का हमें समग्र राष्ट्र के परिप्रेक्ष्य में विचार करना होगा । प्रचलित शिक्षा-पद्धति देश में एक ऐसे अभिजात वर्ग का निर्माण कर रही है जो केवल बौद्धिक काम करना पसन्द करता है और हाथ से या शरीर से काम करना निम्न श्रेणी का मानता है। शारीरिक श्रम को हेय दृष्टि से देखा जाता है। परिणामतः वर्तमान शिक्षित समाज का जीवन बनावटी हो गया है। कम-से-कम श्रम करके अधिक-से-अधिक सुविधाएँ या भोग - सामग्री जुटा लेना उसके जीवन का मार्ग बन गया है। इस स्थिति को बदलने की आवश्यकता है। 

     

    हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि भारतवर्ष की 50 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामों में निवास करती है जो किसान, कारीगर और श्रमिक है और निरक्षरता एवं निर्धनता से ग्रस्त है, परन्तु निरक्षरता और निर्धनता के होते हुए भी ग्रामीण जन- समाज में विवेक, संस्कार और धर्मबुद्धि है। अतः हमें ऐसी शिक्षाप्रणाली चाहिए जो उनकी परम्परा एवं संस्कृति से उनको अपदस्थ न करे, परन्तु साथ ही बौद्धिक शिक्षा तथा विज्ञान की नवीन प्रविधि ( टैक्नीक) के प्रति अभिरुचि भी उत्पन्न करे। 

    भारतीय पृष्ठभूमि में व्यावसायिक शिक्षा का जब हम विचार करते हैं तो यह स्पष्ट होता है कि केवल शिक्षा के माध्यम से आजीविका - समस्या हल नहीं हो सकती। शिक्षा किसी व्यक्ति को व्यवसाय अथवा धन्धा देने की 'गारण्टी' नहीं दे सकती। शिक्षा के द्वारा कुशलताओं एवं ऐसे गुणों का विकास होता है जो व्यवसाय एवं धन्धे को भली प्रकार निर्वाह करने में सहायक होते हैं। व्यवसाय व धन्धों की उपलब्धि सामाजिक व्यवस्था पर निर्भर है। प्राचीन भारत में वर्ण-व्यवस्था प्रत्येक व्यक्ति को जीविका का साधन प्रदान करने की सर्वोत्तम व्यवस्था थी, कालान्तर में भले ही इस वर्ण-व्यवस्था ने विकृत रूप धारण कर लिया हो । वर्तमान शिक्षा प्रणाली उन पैतृक या परम्परागत व्यवसायों एवं उद्योगों को ध्वस्त करने में तो संलग्न है किन्तु विकल्प में नवीन व्यवस्था देने में असमर्थ है । इसके फलस्वरूप ग्रामीण जनसंख्या नगर की ओर पलायन करती जा रही है और भारत की समस्त सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्था में घोर अराजकता व्याप्त है। अतः हमें शिक्षा की ऐसी व्यवस्था की आवश्यकता है जो पैतृक या परम्परागत उद्योग व्यवसाय की विध्वंसक न होकर उसका परिमार्जन एवं विकास करने वाली हो। 

     

    भारतीय सन्दर्भ में हमें इस बात की भी सावधानी रखनी होगी कि आधुनिक विज्ञान एवं प्रविधि (तकनीक) को अपनाने के नाम पर हम पश्चिम का अन्धानुकरण न करें। इसमें सन्देह नहीं कि देश के आर्थिक विकास के लिये हम विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी (टैक्नोलॉजी) की सहायता लेंगे, किन्तु विज्ञान और प्रौद्योगिकी हमारे जीवन के आधार बन गये तो डा० राधाकृष्णन के शब्दों में राक्षस राज्य' की स्थिति उत्पन्न हो जायेगी । अत्यधिक औद्योगीकरण भारत की समस्या को हल करने के स्थान पर राष्ट्र जीवन को ध्वस्त कर देगा। गांधीजी ने कहा था, “ भारत में भारी औद्योगीकरण तभी सफल हो सकता है जब हम किसी उपाय से भारत की जनसंख्या घटाकर दशमांश कर लें और उसे कुछ नगरों में लाकर बसायें । " अतः उद्योगों की स्थापना केवल राष्ट्रीय आवश्यकता की पूर्ति के लिये होनी चाहिए। भारी उद्योगों के स्थान पर कृषि आधारित छोटे उद्योगों की विकेन्द्रित व्यवस्था होनी चाहिए। भारत कृषि प्रधान देश है और ग्रामों में बसा है। हमें ऐसी शिक्षा-व्यवस्था चाहिए जिसमें कृषि - शिक्षा केन्द्रीय विषय हो और जिससे हमारे ग्राम- जीवन का विकास हो। 

     

    प्रचलित शिक्षा से सम्बन्धित एक बात और महत्त्वपूर्ण है, कि आज की शिक्षा अत्यधिक व्यय - साध्य है। इस प्रणाली में छात्र, छात्र के अभिभावकों और राज्य पर अत्यधिक बोझ पड़ता है। यह व्यय दिन-पर-दिन बढ़ता ही जा रहा है। निर्धन तो शिक्षा प्राप्त ही नहीं कर सकते और जो करते हैं उसका भार राज्य पर पड़ता है तथा उसके फलस्वरूप समाज को शिक्षा के लिये राज्याश्रित होना पड़ता है। अतः भारत जैसे निर्धन देश में शिक्षा को यदि जनसाधारण तक पहुँचाना है तो उसे अपने परिवार, ग्राम और समाज के लिये उपयोगी एवं स्वावलम्बी बनाना होगा। इसके लिये शिक्षा में किसी उद्योग को केन्द्रीय विषय बनाना होगा, जिसके उत्पादन से शिक्षा का व्यय पूर्ण नहीं तो कुछ अंश में निकल सके। कुछ निर्धन वर्ग तो ऐसे हैं जिनके कम आयु के बालक भी पारिवारिक जीविकोपार्जन में माता-पिता का हाथ बँटाते हैं। इन बालकों के लिये तो ऐसी शिक्षा की व्यवस्था करनी होगी जिससे शिक्षा के साथ-साथ कमाई करके वे अपने माता-पिता को कुछ दे सकें। 

     

    गांधीजी ने भारत की समग्र पृष्ठभूमि का विचार किया और 'बुनियादी (Basic) शिक्षा' पद्धति के नाम से देश को एक नयी शिक्षा की योजना दी। एक गरीब देश में कोटि-कोटि निरक्षर जनता को साक्षर बनाने तथा उसमें प्राचीन संस्कृति की नींव पर नवीन जीवनोन्मेष लाने वाली शिक्षा योजना किस प्रकार बनायी जा सकती है, यह प्रश्न गांधीजी के सम्मुख था । बहुत चिन्तन और मनन के पश्चात् गांधीजी ने 1937 में अपनी शिक्षण की योजना प्रस्तुत की। किन्तु गांधीजी की शिक्षा - योजना को शिक्षा जगत् से सम्बद्ध लोगों ने हृदय से समर्थन नहीं दिया। उसे ठीक प्रकार से समझने का प्रयास भी नहीं किया और उसका विरोध भी नहीं किया। इसका परिणाम यह हुआ कि क्रियान्वयन के चरण में आकर 'बेसिक शिक्षा योजना' को असफलता का मुख देखना पड़ा। 

    कोठारी शिक्षा आयोग ने गांधीजी कि बेसिक शिक्षा योजना की भूमिका पर कार्यानुभव को सामान्य शिक्षा में आवश्यक विषय के रूप में रखने की संस्तुति की है। आयोग ने उच्चतर माध्यमिक स्तर पर दो वर्ष का व्यावसायिक पाठ्यक्रम चलाने की अनुशंसा भी की है। यह एक अच्छा विचार है। इसके क्रियान्वयन की कठिनाई मुख्य है। शासन की ओर से इसके अतिरिक्त पर्याप्त संख्या में औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान (आई०टी०आई०), पॉलीटैक्निक आदि 

     

    "As another programme to relate education to life and productivity, we recommend that work-experience should be introduced as an integral part of all education--general or vocational. We define work-experience as participation in productive work in the school, in the home, in a workshop, on a farm, in a factory or in any other productive situation." Report of the Education Commission 1964- 66, page 13. 

     

    व्यावसायिक शिक्षा संस्थाएँ खोली गयी हैं। उच्च शिक्षा-स्तर पर चिकित्सा, वकालत, अभियांत्रिकी आदि स्नातक स्तर के पाठ्यक्रम चल रहे हैं। इन सब पाठ्यक्रमों में एक बहुत बड़ा अभाव है कि छात्र विशुद्ध तन्त्रज्ञ के रूप में प्रशिक्षण प्राप्त करता है। इन पाठ्यक्रमों में विशुद्ध बौद्धिक व्यायाम होता है। उसमें भावात्मक और नैतिक पक्ष की उपेक्षा की जाती है। इसका परिणाम यह है कि इन संस्थानों से निकलने वाले चिकित्सक, अभियन्ता आदि हृदय की शिक्षा से शून्य रहते हैं। श्रीअरविन्द इस ओर हमारा ध्यान बहुत पहले आकृष्ट कर चुके हैं। उन्हीं के शब्दों में, “बौद्धिक रूप से विकसित मनुष्य जो वैज्ञानिक ज्ञान में बहुत बड़ा हो, जो स्थूल और सूक्ष्म प्रकृति का स्वामी हो, जो पंचतत्त्वों के दास के रूप में, जगत् का पादपीठ के रूप में उपयोग करता हो, वह मनुष्य यदि हृदय और भावना में अविकसित हो तो एक निम्न प्रकार का असुर बन जाता है जो अर्द्धदेव की शक्तियों का उपयोग पशु के स्वभाव को संतुष्ट करने के लिये करता है। ” l अतः इन व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में भावनात्मक शिक्षण हेतु इतिहास, धर्म, दर्शन और साहित्य आदि विषयों को भी सम्मिलित किया जाना चाहिए जिससे हृदय-पक्ष का पोषण हो सके। 

     

    विद्यालयीन स्तर पर व्यावसायिक शिक्षा एवं उसके उद्देश्य 

    अब तक के विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि व्यावसायिक शिक्षा सामान्य शिक्षा का अंग होनी चाहिए। इसका नामकरण कार्यानुभव, हस्तशिल्प ( दस्तकारी), समाजोपयोगी उत्पादक कार्य (SUPW) इत्यादि कुछ भी हो सकता है। यह विषय प्राथमिक से विद्यालयीन शिक्षा के समाप्त होने तक बालक को सामान्य शिक्षा के साथ सिखाना चाहिए। व्यावसायिक शिक्षा में उद्योग या व्यवसाय की विषयवस्तु का चयन स्थानीय परिवेश की आवश्यकता तथा उपयुक्तता के अनुरूप होना चाहिए। 

     

    व्यावसायिक शिक्षा का शाब्दिक अर्थ व्यवसाय की शिक्षा है, किन्तु इसका भाव व्यावसायिक नहीं है। वास्तव में व्यावसायिक शिक्षा के माध्यम से बालक का शारीरिक, प्राणिक, मानसिक एवं आत्मिक अर्थात् सम्पूर्ण विकास होता है । भगिनी निवेदिता ने शिल्प (दस्तकारी) की शिक्षा (मेन्युअल ट्रेनिंग ) पर 

     

    अत्यधिक बल देते हुआ कहा है, "शिल्पकला में प्रशिक्षित बालक गणित एवं अन्य विषयों की शिक्षा में उन छात्रों से अच्छा काम करते पाये जाते हैं जो शिल्पकला का शिक्षण प्राप्त नहीं करते। " 1 

     

    बालक के व्यक्तित्व का सुसंगत विकास करने के लिये, उसके मानसिक विकास के लिये केवल कुछ विषयों का अध्ययन ही नहीं अपितु ऐसे अवसर प्रदान करने चाहिए कि वह हाथ से काम कर सके और उसके प्रति सही दृष्टिकोण बना सके । पाठशाला और कर्म- जगत् के मध्य की वर्तमान खाई को पाटने की भी आवश्यकता है। आधुनिक वैज्ञानिक युग में कर्म की प्रक्रिया और शिल्प तीव्र गति से परिवर्तित हो रहे हैं। छोटी आयु में ही बालक को व्यावसायिक शिक्षा के माध्यम से इनसे परिचित कराना समय की आवश्यकता है। 

     

    व्यावसायिक शिक्षा के माध्यम से ऐसे ज्ञान, कुशलताओं और अभिवृत्तियों का विकास होता है, जिनकी सहायता से बालक भविष्य में उत्पादन- कार्यों में अपनी भूमिका अच्छी प्रकार से निभा सकता है। व्यावसायिक शिक्षा में उत्पादन, रख-रखाव, प्रविधियों के साथ-साथ, मानव-सम्बन्धों, संघटन एवं प्रबन्ध तथा विपणन आदि को सम्मिलित किया जाना चाहिए। इसके द्वारा बालक की कुशलताओं और व्यावहारिक ज्ञान का विस्तार होता है। 

     

    व्यावसायिक शिक्षा द्वारा हाथ से काम करने के प्रति उचित दृष्टिकोण का विकास, श्रम के प्रति आदरभाव जाग्रत होना चाहिए। बौद्धिक कार्य करने वाले श्रेष्ठ हैं और हाथ से कार्य करने वाले कारीगर आदि निम्न स्तर के हैं, समाज में व्याप्त इस गलत धारणा को समाप्त करने की आवश्यकता है। व्यावसायिक शिक्षा के अन्तर्गत भली-भाँति निर्देशित कार्यक्रम में उन लाभदायक व्यवसायों के प्रति सम्मान का भी विद्यार्थी को पता चलेगा जिनके लिये विशेष प्रवीणता, शारीरिक क्षमता, सहयोगियों के प्रति सद्भाव और दिये गये कार्य की पूर्ति तथा कर्त्तव्यपालन की सजगता की आवश्यकता होती है। इस प्रकार छात्र में अनेक नैतिक एवं सामाजिक गुणों का विकास होगा। 

    "We invariably find that a manual training boy can do better work in mathematics and in other studies requiring original thought than one who has not this training."- Sister Nevedita - Hints on National Education in India, page 177. 

     

    प्राथमिक स्तर पर, उपलब्ध स्थानीय सामग्री और सरल उपकरणों ( औजारों) से होने वाले छोटे-छोटे सर्जनात्मक और आत्माभिव्यक्ति वाले कार्य कराये जाने चाहिए। माध्यमिक स्तर पर एक ही व्यवसाय कार्य के विभिन्न स्तरों पर उपलब्ध कराकर छात्रों को व्यवसाय विशेष में प्रवीणता प्राप्त करने का अवसर दिया जाना चाहिए। इस प्रकार प्राप्त प्रवीणता से आठवीं या दसवीं कक्षा के पश्चात् उसे उस कार्य को नियमित व्यवसाय के रूप में अपनाने में सहायता प्राप्त होगी। माध्यमिक कक्षाओं के छात्रों को खेत, कारखाने या आसपास के किसी उद्योग में कुछ काम करने का अनुभव भी कराया जाना चाहिए। 

     

    व्यावसायिक शिक्षा के कार्यक्रम को सही ढंग से नियोजित किया जाना चाहिए, जिससे विद्यार्थियों के लिये आय का साधन भी बन सके। विद्यालय के उपयोग में आने वाली सामग्री, जैसे- फाइल कवर, रजिस्टर, कापियाँ, चॉक, स्याही, डस्टर आदि सामग्री यदि छात्रों से तैयार करायी जाये तो पर्याप्त मात्रा में धन की बचत भी की जा सकती है और छात्रों का कौशल विकास भी हो सकता है । इस प्रकार घरेलू उपयोग की अनेक प्रकार की वस्तुएँ - साबुन, तेल, वाशिंग पाउडर, त्रिफला चूर्ण, पिसे हुए मसाले आदि भी आय के अच्छे साधन बन सकते हैं। 

     

    उत्पादक कार्य सर्जनात्मकता एवं आत्माभिव्यक्ति के विकास का सर्वोत्तम साधन है। व्यावसायिक शिक्षा एक प्रकार की कला है। बालक अपने विचारों और भावों को इसके माध्यम से मूर्त रूप देता है। ज्ञान, भावना और क्रिया का इसमें सुन्दर समन्वय होता है। सृजन में आध्यात्मिक आनन्द की प्राप्ति होती है, जो कि कला का वास्तविक लक्ष्य है। इसके द्वारा बालक की कल्पना, निरीक्षण, विश्लेषण, संश्लेषण, तुलना, विभेदन आदि अनेक सूक्ष्म मानसिक शक्तियों का विकास होता है। इस प्रकार व्यावसायिक शिक्षा का उद्देश्य बालक के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास करना है। 

     

    3) मानसिक शिक्षा 

    मानसिक शिक्षा का सन्दर्भ मनोमय कोश एवं विज्ञानमय कोश से है। पाँच ज्ञानेन्द्रियों सहित मन से युक्त मनोमय कोश क्रिया-प्रधान है। बुद्धि तत्त्व सहित विज्ञानमय कोश ज्ञान एवं विचार प्रधान है। भारतीय मनोविज्ञान में इन दोनों कोशों को अन्त:करण की संज्ञा दी है जिसके मन, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार, ये चार स्तर माने गये हैं। योगदर्शन में अन्त:करण को चित्त कहा है। मन को छठी ज्ञानेन्द्रिय भी माना जाता है। मन का काम है विषय-वस्तु के बिम्ब को दृष्टि, श्रुति, घ्राण, स्वाद और स्पर्श द्वारा प्राप्त करना और फिर उन्हें विचार- संवेदनाओं में अनूदित करके निर्णय हेतु बुद्धि के समक्ष प्रस्तुत करना । चित्त मानसिक संस्कारों का अर्थात् स्मृतियों का भण्डार है । अहंकार विषय-वस्तु का अहं अर्थात् मैं से, अपने से सम्बन्ध जोड़ता है। बुद्धि मन के द्वारा प्रस्तुत विषय-वस्तु के बिम्ब को चित्त और अहंकार के आधार पर विचार कर निर्णय अर्थात् प्रतिक्रिया व्यक्त करती है । अन्तःकरण की यह प्रक्रिया क्षणांश में सम्पन्न होती रहती है। सामान्य भाषा में अन्तःकरण को मन कहते हैं। पाश्चात्य मनोविज्ञान में मस्तिष्क (ब्रेन) को ही मन ( माइण्ड ) कहते हैं। वहाँ मन का कोई अलग अस्तित्व नहीं माना है। भारतीय दृष्टि से अन्तःकरण मानसिक शिक्षा का उपकरण है। 

     

    साधारणतः मानसिक शिक्षा का अर्थ कुछ विषयों की जानकारी बालक के मस्तिष्क में भर देना समझा जाता है। प्रचलित शिक्षा-पद्धति मानव-मनोविज्ञान की घोर उपेक्षा करती है एवं बालक की उन नैसर्गिक शक्तियों और उपकरणों को क्षति पहुँचाती है जिनके द्वारा वह ज्ञान को आत्मसात् करता है, नयी सृष्टि करता है तथा मेधाशक्ति का विकास करता है। वास्तव में विभिन्न विषयों की जानकारी वह सामग्री है जिसके माध्यम से ज्ञान एवं मानसिक शक्तियों का विकास होता है। प्रचलित शिक्षा-पद्धति का मौलिक दोष यह है कि इसने अपने आपको स्मृति की संचयन-शक्ति के प्रशिक्षण और तथ्यों के संचय तक ही सीमित रखा है और उपयोग की तीन महान् क्षमताओं, अर्थात् तर्क - शक्ति, तुलना और भेद करने की शक्ति तथा अभिव्यक्त करने की शक्ति की उपेक्षा की है। इसलिये सुधार का पहला पग ऐसा होना चाहिए जो हमारी शिक्षा के सारे लक्ष्य और उसकी पद्धति को बदल दे। 

     

    हमें अपने अध्यापकों को इस बात के लिये अभ्यस्त करना चाहिए कि वे अपनी शक्ति के दस में से नौ भाग सक्रिय मानसिक क्षमताओं की शिक्षा में लगायें। निष्क्रिय और संचित रखने की क्षमता जिसे हम स्मृति कहते हैं, उसे स्थान तो मिलना चाहिए, परन्तु उसका स्थान उन क्षमताओं के नीचे होना चाहिए। मानसिक शिक्षा के उद्देश्य मानसिक शिक्षा के उद्देश्यों का दो मुख्य भागों में विचार कर सकते हैं- प्रथम, ज्ञानार्जन और द्वितीय, मानसिक शक्तियों एवं क्षमताओं का विकास। शिक्षा का प्रमुख कार्य मानसिक शक्तियों एवं क्षमताओं का विकास करना है। मानसिक शक्तियाँ विकसित होने पर शिक्षा का ज्ञानार्जन का लक्ष्य सहज प्राप्त हो जाता है। वास्तव में ज्ञानार्जन और मानसिक शक्तियों का विकास अन्योन्याश्रित हैं। मानसिक शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य ज्ञान के साथ विद्वत्ता का विकास करना है। गीता में इसको 'ज्ञानं विज्ञान सहितम् ' कहा है। ' 

     

    1. ज्ञानार्जन 

    बालक जिस विश्व में रह रहा है उसका ज्ञान आवश्यक है। इस विश्व के ज्ञान को समझने के लिये हम तीन भागों में बाँट सकते हैं, यद्यपि ये परस्पर आश्रित हैं- (1) प्रकृति अर्थात् भौतिक जगत् का ज्ञान, (2) समाज का ज्ञान, (3) अध्यात्म जगत् का ज्ञान। इस प्रकार हम शिक्षा की विषय-वस्तु को तीन रूपों में रख सकते हैं- हमारा प्रकृति से सम्बन्ध, समाज से सम्बन्ध तथा अध्यात्म जगत् अर्थात् मूल्यों से हमारा सम्बन्ध । भारतीय दर्शन में इसे अधिदैवम्', 'अधिभूतम्' और 'अध्यात्मम्' कहा है। 2 

     

    प्रकृति के ज्ञान में विज्ञान सम्बन्धी विभिन्न विषय आते हैं। सामाजिक ज्ञान में इतिहास, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, भाषा आदि विषय तथा अध्यात्म ज्ञान में मानव के आन्तरिक जीवन की प्रेरणा, भावनाओं, आदर्शों, नैतिक मूल्यों का ज्ञान तथा धर्म, दर्शन, साहित्य आदि विषयों का अध्ययन आता है। 

     

    यह बात समझना आवश्यक है कि विज्ञान, इतिहास, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र आदि विषयों के ज्ञान का मुख्य उद्देश्य यह है कि इनके ज्ञान का उपयोग हम अपने राष्ट्र की समस्याओं के समाधान के लिये करें। भौतिक विज्ञान, गणित, भाषाओं, सामाजिक विज्ञानों आदि का देश व राष्ट्र एवं मानव के विकास एवं उसकी समस्याओं के समाधान के सन्दर्भ में अध्ययन कराया जाना चाहिए, केवल स्वयं में इन विषयों के ज्ञान का कोई अर्थ नहीं है। है। एक ओर ज्ञान के प्रकाश से जीवन के विविध पक्ष विकसित होते हैं तथा दूसरी ओर ज्ञान का अनुराग जीवन की साधना बन जाता है। सत्य के प्रति अनुराग, उत्कण्ठा तथा अन्वेषणवृत्ति से ही ज्ञान-विज्ञान का विकास हुआ है। अतः आवश्यकता है बालक में ज्ञान के प्रति अनुराग जाग्रत करने की, जिससे वह सत्य की खोज को अपने जीवन का लक्ष्य बना सके। विभिन्न विषयों की जानकारी ज्ञान नहीं है, यह तो ज्ञान प्राप्त करने की सामग्री है। ज्ञान तो चेतना का प्रकाश है, जिसे जाग्रत करना ही शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य है। 

     

    2. मानसिक शक्तियों का विकास 

    मानसिक विकास में एवं ज्ञानेन्द्रियों की संवेदनाओं को व्यवस्थित रीति से ग्रहण करने में मन की चंचलता सबसे बड़ी बाधा है। राजयोग में आत्मज्ञान के लिये चित्तवृत्तियों के निरोध को प्रथम आवश्यकता माना है। शिक्षा के लिये भी मन की एकाग्रता परमावश्यक है। एकाग्रता की शक्ति जितनी अधिक होगी, ज्ञान की प्राप्ति भी उतनी अधिक होगी। अरविन्द आश्रम की श्री माँ ने मन की शिक्षा का प्रथम उद्देश्य माना है- “ एकाग्रता की शक्ति का, सजग होने की क्षमता का विकास करना । 

     

    "1 स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में- " मैं तो मन की एकाग्रता को ही शिक्षा का यथार्थ सार समझता हूँ, ज्ञातव्य विषयों के संग्रह को नहीं । यदि मुझे एक बार फिर से शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिले तो मैं विषयों का अध्ययन नहीं करूँगा। मैं तो एकाग्रता की और मन को विषयों से अलग करने की शक्ति को बढ़ाऊँगा और तब साधन यन्त्र की पूर्णता प्राप्त हो जाने पर इच्छानुसार विषयों का संग्रह करूँगा । "2 स्वामी विवेकानन्द ने एकाग्रता एवं प्रबल बौद्धिक विकास के लिये ब्रह्मचर्य का पालन आवश्यक साधन माना है। मनोविज्ञान के सिद्धान्त के अनुसार जिस विषय को हम बालक को सिखाना चाहते हैं, उसमें उसकी रुचि उत्पन्न कर दें, सीखने का अनुराग तथा उन्नति करने की इच्छा जगा दें तो विषय पर उसका मन एकाग्र हो जाता है। 

     

    मन की एकाग्रता के साथ अवलोकन (Observation) की क्षमता का विकास शिक्षण का महत्त्वपूर्ण अंग है। यदि मनोयोगपूर्वक अवलोकन की क्षमता का प्रयोग किया जाये तो ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त हो सकने वाली पूरी जानकारी मिल जाती है। सूक्ष्म अवलोकन के अभ्यास से अन्वेषण की वृत्ति विकसित होती है, जो विज्ञान की शिक्षा के लिये आवश्यक है। अवलोकन की क्षमता का विकास होने पर तुलना और वैषम्य का अवलोकन करने वाले मानसिक केन्द्रों का भी विकास होता है। यदि इस प्रकार के अभ्यास को बार-बार दोहराया जाये तो स्मरण शक्ति का विकास भी होता है। विज्ञान के शिक्षण में अवलोकन, तुलना, स्मरण, मूल्यांकन आदि क्षमताओं का विकास करने की ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। तथ्यों और शुष्क सूचनाओं की रटाई से बालक की इन क्षमताओं का विकास तो दूर रहा, शिक्षण में अरुचि उत्पन्न होकर उसका विकास अवरुद्ध हो जाता है। 

     

    मानसिक शिक्षा में निर्णय शक्ति का प्रशिक्षण अत्यन्त आवश्यक है। बालक को सही निर्णय करने के साथ-साथ अन्य व्यक्तियों के निर्णयों से अपने निर्णय की तुलना करके अपनी त्रुटियों को समझना भी सीखना चाहिए। मानसिक विकास में तार्किक शक्ति के प्रशिक्षण का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह प्रशिक्षण पुस्तकों से नहीं हो सकता। इसके लिये शिक्षार्थी को तथ्यों से अनुमान लगाना और परिणामों तथा कारणों में सम्बन्ध स्थापित करना सीखना चाहिए। उसे अपने तर्क की भूलों को समझना चाहिए, उन्हें स्वीकार करना चाहिए और इस प्रकार शुद्ध तर्क करने की क्षमता का विकास करना चाहिए। 

     

    मानसिक शिक्षा में काव्यकला और संगीत के प्रशिक्षण का भी महत्त्व है। काव्य संवेगों को ऊँचा उठाता है, कला संवेगों को सन्तुलित करती है, संगीत संवेगों को गहराई प्रदान करता है। श्री अरविन्द ने बुद्धि की क्षमताओं को दो भागों में बाँटा है- दाहिने भाग की क्षमताएँ और बायें भाग की क्षमताएँ । दाहिने भाग की क्षमताएँ व्यापक, स्वर्जनात्मक, समन्वयात्मक होती हैं। निर्णय, मूल्यांकन, कल्पना, स्मृति, अवलोकन दायें भाग की क्षमताएँ हैं । बायें भाग की क्षमताएँ आलोचनात्मक - विश्लेषणात्मक होती हैं। समालोचनात्मक क्षमताएँ भेद करती हैं, तुलना करती हैं, श्रेणीबद्ध करती हैं, व्यापक बनाती हैं, परिणाम निकालती हैं, अनुमान करती और निष्कर्ष निकालती हैं। ये तर्कबुद्धि के घटक हैं। ये क्षमताएँ विज्ञान, गणित, न्यायशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि के अध्ययन से विकसित होती हैं। भाषा, साहित्य, कला, संगीत, दर्शन, धर्म, इतिहास के अध्ययन से मनुष्य का उसके कार्यों के आधार पर अध्ययन करना और समझना, प्रकृति और मनुष्य को व्याख्यात्मक और विश्लेषणात्मक क्षमताओं द्वारा समझना - ये दायें भाग के बौद्धिक क्रियाकलाप हैं। 

     

    अतः आवश्यकता यह है कि बालक में इन शक्तियों का विकास करने के लिये विविध प्रकार की सामग्री चतुरतापूर्वक उपस्थित करें। साथ-ही-साथ बालक में उस शक्ति को जाग्रत करें, जिसकी सहायता से वह ज्ञान प्राप्त कर सकता है। प्रत्येक बालक में असीम शक्ति है, केवल उसको अभिव्यक्त करने का अवसर प्रदान करने की आवश्यकता है। श्री माँ ने मन की शिक्षा के निम्नलिखित पाँच प्रधान अंग माने हैं-

    (1) एकाग्रता की शक्ति का, सजग होने की क्षमता का विकास करना । 

    (2) मन को व्यापक, विशाल, बहुविध और समृद्ध बनाने की क्षमताएँ विकसित करना।

    (3) जो केन्द्रीय विचार या उच्चतर आदर्श या परमोज्ज्वल भावना जीवन में पथ-प्रदर्शक का काम करेगी उसे केन्द्र बनाकर समस्त विचारों को सुसंगठित व्यवस्थित करना । 

    (4) विचारों को संयमित करना, अनिष्ट विचारों का त्याग करना, जिससे मनुष्य अन्त में जो कुछ चाहे वही और जब चाहे तभी विचार कर सके ।

    ( 5 ) मानसिक निश्चलता का, परिपूर्ण शान्ति का और सत्ता के उच्चतर क्षेत्रों से आने वाली अन्त:प्रेरणाओं को अधिकाधिक पूर्णता के साथ ग्रहण करने की क्षमता का विकास करना। 

     

    भाषा का विकास 

    बालक के मानसिक विकास में भाषा का विकास भी सम्मिलित है। भाषा के विकास से अभिव्यक्त करने की मानसिक क्षमता का विकास होता है। भाषा के विकास में यह ध्यान रखने की आवश्यकता है कि मानसिक क्षमताओं का उपयोग पहले वस्तुओं पर होना चाहिए और बाद में शब्दों और विचारों पर । पहले मन को शब्द का, उसके रूप, उसकी ध्वनि और उसके भाव का भली-भाँति अभ्यास कराना चाहिए। भाषा के विकास में महत्त्व की बात यह है कि ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से जो ज्ञान मन प्राप्त करता है, उसे कर्मेन्द्रियों ( वाक्- हाथ ) के द्वारा शुद्ध रूप में अभिव्यक्त करना सीख सके। इस क्षमता का विकास विभिन्न प्रकार के अभ्यासों से होता है। 

     

    (4 ) नैतिक शिक्षा 

    प्रायः सभी विचारकों एवं शिक्षाशास्त्रियों ने नैतिकता एवं चरित्र-निर्माण को शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य माना है। नैतिकता एक सामाजिक भावना है। चरित्र से तात्पर्य आचरण या व्यवहार से है। नैतिकता 'नीति' शब्द से बनी भाववाचक संज्ञा है । नीयते इति नीतिः अर्थात् जो आगे ले जाये, वह नीति है। मनुष्य को आगे या अभ्युदय की ओर ले जाने वाले उसके गुण होते हैं व नैतिक स्वभाव होता है। आज बौद्धिक रूप से विकसित मनुष्य वैज्ञानिक ज्ञान में बहुत प्रगति कर चुका है, किन्तु यदि मनुष्य हृदय और भावना में अविकसित हो तो वह एक निम्न प्रकार का असुर बन जाता है। नैतिक शिक्षा हृदय की शिक्षा है। अतः परिपूर्ण व्यक्तित्व के विकास के लिए नैतिक शिक्षा अपरिहार्य है। 

     

    भारतीय चिन्तन में नैतिकता और धर्म समानार्थी हैं। प्राचीन भारतीय शिक्षा में धर्म का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व तक देश में 'धर्म- शिक्षा' शब्द ही अधिक प्रचलित था। परन्तु भारतीय संविधान की धर्मनिरपेक्षता की नीति का अर्थ ठीक प्रकार से ग्रहण न करने के कारण तथा धर्म शब्द सम्प्रदाय, पन्थ, मजहब (रिलीजन) के पर्यायवाची रूप में प्रयुक्त होने के कारण 'नैतिक शिक्षा' शब्द प्रयोग शिक्षा - जगत् में प्रचलित हो गया। भारतीय संस्कृति में धर्म नैतिक मूल्यों एवं सामाजिक जीवन को व्यवस्था प्रदान करने वाले सार्वभौमिक नियमों की ही संज्ञा है । 'धारयते इति धर्म:'- जो धारण किया जाये वही धर्म है। 'धारणाद् धर्म इत्याहुर्धर्मो धारयते प्रजा' जो (समाज) की धारणा करे, वह धर्म है। अर्थात् व्यक्ति जिन गुणों को धारण करता है और जिनसे समाज की धारणा होती है, उन्हें धर्म कहा गया है। इस सम्बन्ध में लिखा गया है-

     

    धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः । 

    धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥ 

     

    धैर्य, क्षमा, दम, अस्तेय, पवित्रता, इन्द्रियनिग्रह, ज्ञान, विवेक, सत्य, अक्रोध, ये दस धर्म के लक्षण हैं। 

     

    नैतिकता, धर्म का भावात्मक तत्त्व है। इस प्रकार धर्म और नैतिकता अविच्छिन्न हैं, दोनों में अटूट सम्बन्ध है । धर्म और नैतिकता एक ही सिक्के के दो पार्श्व हैं, धर्म क्रियात्मक और नैतिकता भावात्मक पक्ष है। एक विद्वान् के अनुसार - " बिना धर्म के नैतिकता की बात करना उसी प्रकार है जैसे बिना जड़ों के वृक्ष | " 

     

    कुछ लोग धर्म के नाम से चौंक पड़ते हैं। उनका कथन है कि धर्म-निरपेक्ष भारत में धर्म की शिक्षा विद्यालयों में नहीं दी जा सकती, परन्तु वे नैतिक शिक्षा का समर्थन करते है। इस सम्बन्ध में यह स्पष्ट समझना आवश्यक है कि नैतिकता मनुष्य का चरम लक्ष्य नहीं है, वह तो लक्ष्य तक पहुँचने का मार्ग है। उपयोगितावाद मनुष्य के नैतिक सम्बन्धों की व्याख्या नहीं कर सकता । उपयोगिता के आधार पर हम किसी भी नैतिक नियम पर नहीं पहुँच सकते। कोई भी नैतिक नियम तब तक नहीं टिक सकते जब तक वे अतीन्द्रिय ज्ञान पर आधारित न हों। उपयोगितावादी हमसे कहते हैं कि नैतिक नियमों का पालन करो, समाज का कल्याण करो। अन्ततः हम क्यों किसी का कल्याण करें? क्यों नैतिक बनें ? भलाई करने की बात तो गौण है, प्रमुख बात है - एक आदर्श । नैतिकता स्वयं साध्य नहीं, वह तो साध्य को प्राप्त करने का साधन है। यदि उद्देश्य नहीं है तो हम क्यों नैतिक बनें? हम क्यों दूसरों की भलाई करें ? क्यों हम लोगों को सतायें नहीं? यदि आनन्द ही मानव-जीवन का उद्देश्य है, तो क्यों न मैं दूसरों को कष्ट पहुँचाकर भी स्वयं सुखी बनूँ ? इन प्रश्नों के उत्तर हमें धर्म तथा आध्यात्मिकता पर आधारित भारतीय जीवन-दर्शन ही देने में समर्थ है। अन्य सभी मत-वाद इस सम्बन्ध में मौन हैं। अतः हमें छात्रों को धर्म एवं जीवन के उस चरम लक्ष्य को हृदयंगम कराना होगा, जो नैतिक बनने के लिए प्रेरित करता है। डा० राधाकृष्णन् ने भी इसी भाव को प्रकट करते हुए लिखा है- “ बहुत से लोग ऐसे हैं जो समझते हैं कि धर्म का स्थान नैतिकता ले सकती है। हमें यह समझना होगा कि निष्ठा, साहस, अनुशासन, आत्मत्याग आदि महान् गुणों का उपयोग अच्छे और बुरे दोनों उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये किया जा सकता है। ये गुण अच्छे नागरिक की सफलता के लिए और दुष्ट व्यक्ति की सफलता के लिये आवश्यक होते है। मनुष्य को वास्तव में उसका 'उद्देश्य' गुणवान बनाता है, जिसके लिये वह जीवन जीता है। अच्छाई और बुराई हमारे जीवन की दिशा और ढंग के द्वारा निर्धारित होती हैं, जिससे हम अपना जीवन गठित करते है। "1 

     

    अतः भारतीय जीवन-मूल्यों व आदर्शों के आधार पर हमें अपने छात्रों को नैतिक शिक्षा देने की व्यवस्था करनी होगी। इन तत्त्वों की चर्चा हम 'भारतीय शिक्षा-दर्शन के मूलाधार' शीर्षक अध्याय में कर चुके हैं। भारतीय जीवन के इन आदर्शों के प्रति छात्रों में स्थायी भाव निर्मित करने की आवश्यकता है। स्थायी भाव ही आचरण को प्रभावित करते हैं। जब किसी वस्तु, व्यक्ति या विचार के प्रति बार - बार भाव उत्पन्न होते हैं तब स्थायी भावों का विकास होता है। इसी को मनोविज्ञान में भावात्मक आदतें कहा है। बालक स्थूल से सूक्ष्म की ओर अग्रसर होता है। केवल धर्म के सिद्धान्त पढ़ा देने से बालक धार्मिक और नैतिक नहीं बन सकते। इसका मुख्य कारण यह है कि हृदय मन नहीं है और यह आवश्यक नहीं है कि मन को प्रशिक्षित करने से हृदय बदल जाये। यह कहना भी ठीक नहीं है कि इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता । अन्तःकरण में विचारों को फैला दिया जाये और उनका अभ्यास करा दिया जाये तो आचरण पर उनका प्रभाव पड़ता है। किन्तु नैतिक शिक्षा की पाठ्य पुस्तकों में यह बड़ा संकट है कि इनके द्वारा विचार यांत्रिक और कृत्रिम बन जाते हैं और जो कुछ यांत्रिक या कृत्रिम होता है, वह व्यावहारिक नहीं होता । अतः इस यांत्रिकता से बचना होगा। 

     

    "There are many who feel that morality can take place of religion. We have to understand that the great virtues of loyalty, courage, discipline and self-sacrifice may be used for good or bad ends. These are essential for a successful citizen as well as for a successful villain. What makes man truly virtuous is the purpose for which he lives, his general outlook on life. Virtues and vices are determined by the direction in which we move, by the way in which we organise our life. " Dr. Radhakrishnan, The Report of the University Education Commission 1948-49, page 299.

    श्री अरविन्द के अनुसार, “ मनुष्य की नैतिक प्रकृति के साथ व्यवहार करते हुए तीन बातें अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होती हैं-भाव, संस्कार अर्थात् बनी हुई आदतें और साहचर्य तथा स्वभाव । अपने-आपको नैतिक दृष्टि से प्रशिक्षित करने का एक ही तरीका है अपने-आपको समुचित भावों, उदात्ततम सम्बन्धों, सर्वोत्तम मानसिक, भावनात्मक और भौतिक आदतों के लिए अभ्यस्त करना और अपनी तत्त्वगत प्रकृति के मौलिक आवेगों का समुचित क्रिया में अनुसरण । "1

     

    नैतिक शिक्षा के उद्देश्य 

    सामान्यतः मानव का व्यवहार उसकी मूल प्रवृत्तियों-आहार, निद्रा, आदि इन्द्रिय- सुख की इच्छाओं से संचालित होता है किन्तु शिक्षा के संस्कारों द्वारा निम्नतर प्रवृत्तियों का रूपान्तरण एवं नियमन करना होता है, अन्यथा मानव और पशु में कोई अन्तर ही नहीं रहेगा। मानव - मानव में संघर्ष पर विजय एवं मानव की अन्तःप्रकृति पर विजय नैतिक शिक्षा के द्विविध उद्देश्य बन जाते हैं। अन्त: प्रकृति पर विजय मानव के हृदय में उदात्त भावनाओं एवं जीवनादर्श के प्रतिष्ठान से होती है तथा मानव-मानव के संघर्ष पर विजय समान उदात्त जीवनादर्शों एवं समान जीवन की प्रेरणाओं की स्थापना से सम्भव होती है। इसी के आधार पर मानव रूपी पशु में मानवता का उदय एवं सामंजस्यपूर्ण मानव-समाज का विकास होता है और यही नैतिक शिक्षा का उद्देश्य है। इस उद्देश्य का विवेचन हम निम्नलिखित बिन्दुओं में कर सकते हैं- 

     

    (क) धर्म एवं संस्कृति के प्रति श्रद्धा, (ख) राष्ट्र-प्रेम, (ग) सदाचार |

     

    क. धर्म एवं संस्कृति के प्रति श्रद्धा 

    भारतीय चिन्तन में मनुष्य का धर्म है अपने हृदय में परमेश्वर की उपस्थिति की अनुभूति करना एवं प्रत्येक प्राणी में परमेश्वर का दर्शन करना । अन्त:करण की निम्नतर प्रवृत्तियों के नियमन से एवं चित्त की शुद्धि से यह सम्भव होता है। नैतिक शिक्षा के अन्तर्गत मानव-मन का यह प्रशिक्षण मुख्य कार्य है। इस दृष्टि से विकसित करने के लिये बालक को क्रियात्मक अवसर एवं बौद्धिक प्रोत्साहन मिलना चाहिए। उक्त धर्म का व्यावहारिक रूप ही संस्कृति के रूप में विकसित हुआ है। भारतीय धर्म एवं संस्कृति का परिचय विभिन्न रुचिकर पद्धतियों से बालक को कराना चाहिए। भारतीय संस्कृति के आदर्शों, प्रतीकों एवं परम्पराओं के प्रति सम्मान एवं श्रद्धा के स्थायी भावों का विकास बालक के मन में करना चाहिए। प्रार्थना, ध्यान, मौन आदि राजयोग के अभ्यासों को भी अपनाया जा सकता है। सांस्कृतिक समारोहों एवं धार्मिक पुरुषों की जयन्तियों के आयोजनों से भी छात्रों को अपनी संस्कृति एवं आदर्शों का ज्ञान प्राप्त होता है एवं मानसिक संस्कार होता है। सारांश यह है कि हमें छात्रों में बाल्यावस्था से ही अपने महान् धर्म, उज्जवल संस्कृति एवं श्रेष्ठ परम्पराओं के प्रति ज्ञानयुक्त भक्तिभावना जाग्रत करनी चाहिए। इसके लिये विद्यालय का क्रियात्मक एवं संस्कारक्षम वातावरण अपेक्षित है। परिवारों में भी इसी प्रकार का वातावरण बालक को मिलना चाहिए। काव्य, कला एवं संगीत के संस्कार भी हृदय को उसकी गहराई तक छूने में प्रभावी माध्यम हैं। 

     

    भारतीय संस्कृति का ज्ञान इतिहास- शिक्षण के माध्यम से भली प्रकार हो सकता है। धर्म एवं आदर्शों के लिये अपने जीवन की आहुति देने वाले महापुरुषों, जैसे- दधीचि, शिवि, गोभक्त कूकाओं, बन्दा बैरागी, गुरुपुत्रों, वीर हकीकत आदि के जीवन चरित्र सुनाने चाहिए या पढ़ने के लिये प्रेरित करना चाहिए। 'मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव, अतिथि देवो भव' तथा 'मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत्, आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः ' आदि सुभाषितों के पठन-पाठन के माध्यम से छात्रों को भारतीय संस्कृति एवं जीवनादर्शों से परिचित कराना, उनसे भावनात्मक सम्बन्ध जोड़ना एवं कृति में परिणत करने के लिये प्रत्यक्ष उदाहरण के द्वारा प्रेरित करना चाहिए। इस प्रकार अपने धर्म एवं संस्कृति के आदर्श बालक के जीवन में प्रस्थापित होंगे और उसे नैतिक बनने की प्रेरणा प्रदान करेंगे। 

     

    ख. राष्ट्र-प्रेम 

     

    भारतीय चिन्तन में समाज या राष्ट्र को उस अव्यक्त ब्रह्म का विशाल एवं विराट् व्यक्त रूप माना गया है, अतः अपने जीवन को इस राष्ट्ररूपी परमेश्वर की सेवा में पूर्णरूपेण समर्पित करना ही जीवन का चरम लक्ष्य कहा गया है। इसी में मानव जीवन का सच्चा विकास निहित है। वास्तव में मनुष्य अपने अल्पत्व को नष्ट कर जितनी विशालता का अनुभव करेगा, उतना ही उसे मिलेगा। यही भाव 'यो वै भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति श्रुति वाक्य में सुख प्रकट हुआ है। मनुष्य का अल्पत्व इसी कारण है कि वह अपने को एक देहधारी मात्र समझता है। अपने शरीर को ही सर्वस्व समझकर उसके सुख के निमित्त बाह्य साधन, परिवार, शरीर- भरण-पोषण इत्यादि में मग्न रहकर 'मैं' और 'मेरा' की भावना की चारों ओर सीमाएँ बना लेता है। अतः नैतिक जीवन के विकास के लिये एवं ध्येय की प्राप्ति के लिये इन क्षुद्र सीमाओं को तोड़ना आवश्यक है। पूर्ण नि:स्वार्थपरता ही चरम लक्ष्य है। वही नैतिकता की नींव है। इसीलिए नैतिकता की यही एकमात्र व्याख्या की गयी है कि "जो स्वार्थपरक है वह नीतिविरुद्ध है और जो निःस्वार्थ है वह नीतिसंगत है। " 

     

    राष्ट्र - प्रेम निःस्वार्थता का भावात्मक पर्याय है। 'स्व' के विकास की विशालतम व्यावहारिक परिधि राष्ट्र तक मानी गयी है जो सामान्य जन की पहुँच के भीतर है। विश्व या चराचर जगत् की विशालतम परिधियाँ भी हैं, परन्तु वहाँ तक बिरले जन ही विकास कर पाते हैं। भारतीय राष्ट्र-प्रेम इस उच्चतम विकास में सहायक है, बाधक नहीं, क्योंकि आध्यात्मिक भारतीय राष्ट्रवाद का लक्ष्य ही 'वसुधैव कुटुम्बकम्' है। 

     

    समाज की उन्नति एवं राष्ट्र का उत्थान इस बात में निहित है कि जनमानस निःस्वार्थ भावना एवं राष्ट्र-प्रेम से ओतप्रोत हो । कुछ लोगों में राष्ट्र की या विश्व-प्रेम की भावना जाग्रत होने से राष्ट्र का या मानव जाति का कल्याण नहीं होगा। अतः हमें शिक्षा के माध्यम से प्रत्येक छात्र के हृदय में जन्म से स्थित स्वार्थभाव का रूपान्तरण राष्ट्र-प्रेम में करना है। मनोविज्ञान के अनुसार यह रूपान्तरण, स्थूल से सूक्ष्म की ओर क्रमिक होता है। 'स्व' केन्द्रित भावना का परिवार - भावना में, तत्पश्चात् ग्राम, नगर, समाज, देश एवं राष्ट्र और फिर विश्व तक इस भावना का विस्तार करना होता है। इसके लिये विद्यालय, परिवार एवं समाज, सभी का वातावरण इस भावना के विकास हेतु संस्कार देने वाला होना चाहिए। 

     

    विद्यालय में नैतिक शिक्षा के माध्यम से राष्ट्र-प्रेम की भावना का जागरण करना शिक्षा का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है। सभी शिक्षा आयोगों एवं शिक्षाशास्त्रियों ने देश-प्रेम की भावना का विकास आवश्यक माना है। राष्ट्र-प्रेम का पहला पाठ है - 'माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः '- अर्थात् राष्ट्र-भूमि को अपनी माता और स्वयं को उसका पुत्र समझना । पुत्र होने के नाते मातृभूमि के लिये अपना तन, मन, धन, सब कुछ अर्पित करने को तैयार रहना । राष्ट्र-प्रेम का दूसरा पाठ है राष्ट्रजन के प्रति बन्धुता का भाव । राष्ट्र-भूमि का पुत्र होने के कारण सभी जन बन्धुता के कोमल तन्तु से बँधे हैं। समाज के सुख-दुःखों के साथ समरस होना एवं राष्ट्र में किसी भी कोने पर समाज - बान्धवों पर विपत्ति आती है तो 'यह विपत्ति मेरे ऊपर आयी है, यह अनुभूति प्रत्येक राष्ट्रजन में होना राष्ट्र-प्रेम का परिचायक है। इस सह - अनुभूति का विकास छात्रों में नैतिक शिक्षा के माध्यम से किया जाना चाहिए। 

     

    भारत की वर्तमान परिस्थिति में, जबकि देश में क्षुद्र राजनीति, क्षेत्रीयता, भाषावाद, साम्प्रदायिकता आदि संकीर्ण विचार सक्रिय हैं, राष्ट्रीय चेतना, देशभक्ति एवं एकात्मता की भावना का जागरण शिक्षा के माध्यम से होना समय की आवश्यकता है। 

     

    आज भारत में बड़ी जनसंख्या निर्धनता की रेखा से नीचे अपना जीवन व्यतीत करती है। वनवासी, गिरिवासी, जो दरिद्रता एवं अज्ञानता के गर्त में डूबे हुए हैं, इन करोड़ों भारतवासियों के दुःखों को अनुभव कराना, उनके प्रति छात्रों के हृदय में प्रेम जाग्रत करना समय की आवश्यकता है। प्रेम असम्भव को भी सम्भव कर देता है। उनकी दुर्दशा का निवारण करने के लिये कोई कर्तव्य- निश्चित करें एवं दृढ़ लगन के साथ उसको पूरा करें, यह संकल्प एवं कर्तव्य - बुद्धि छात्रों में बाल्यावस्था से उत्पन्न करने की आवश्यकता है और यही व्यावहारिक राष्ट्र - प्रेम है। स्वामी विवेकानन्द ने युवक छात्रों को सम्बोधित करते हुए कहा है- " ऐ मेरे भावी सुधारकों, मेरे भावी देशभक्तों, तुम हृदयवान बनो । क्या तुम हृदय से अनुभव करते हो कि देवों और ऋषियों की करोड़ों सन्तानें आज पशुतुल्य हो गयी हैं? क्या तुम हृदय से अनुभव करते हो कि लाखों लोग आज भूखों मर रहे हैं... और अज्ञान के काले बादलों ने भारत को ढक लिया है? क्या तुम यह सब सोचकर द्रवित हो जाते हो?....क्या राष्ट्रदेव की दुर्दशा की चिन्ता ही तुम्हारे ध्यान का एकमात्र विषय बन बैठी है?" इस प्रकार छात्रों में हृदय की शिक्षा की आवश्यकता है। 

     

    श्री अरविन्द ने भी शिक्षा में राष्ट्रीय भावना के जागरण को आवश्यक बताया है। उसे शिक्षा के साथ समन्वित करने पर बल देते हुए कहा है-“हमारी राष्ट्रीय शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो व्यक्ति के लिये अन्तरात्मा और उसकी शक्तियों तथा सम्भावनाओं के विकास को ही केन्द्रीय उद्देश्य के रूप में रखे और राष्ट्र के लिये राष्ट्रीय आत्मा और राष्ट्र-धर्म की सुरक्षा, बल और समृद्धि को प्रथम स्थान दे। "

     

    मातृभूमि के प्रति भक्तिभाव, समाज के साथ एकात्मता की भावना, आसेतु हिमालय यह मेरा विशाल परिवार एवं घर है, भारत की सभी भाषाएँ मेरी भाषाएँ हैं, जाति, सम्प्रदाय, पंथ, वेशभूषा, खान-पान, रीति-रिवाज आदि विभिन्नताओं के मध्य भारत एक राष्ट्र है, हमारी धमनियों में एक ही पूर्वजों का रक्त प्रवाहित हो रहा है, राष्ट्र का अपमान मेरा अपमान है, राष्ट्र का सम्मान मेरा सम्मान है, राष्ट्र के ऊपर आया किसी भी प्रकार का संकट मेरे ऊपर संकट है, इस प्रकार की राष्ट्रीय भावात्मक एकात्मता का विकास करना नैतिक शिक्षा का परम उद्देश्य है। 

     

    ग. सदाचार एवं सद्गुणों का विकास 

    अपने धर्म एवं संस्कृति के प्रति ज्ञानयुक्त श्रद्धा और राष्ट्रभक्ति से प्रेरित व्यक्तियों में नैतिक आचरण की भूमि तैयार होती है। इस प्रकार राष्ट्रीय जीवनादर्श छात्रों को नैतिक बनने की प्रेरणा प्रदान करते हैं। हमें सदाचार एवं सद्गुणों का विकास छात्रों में मनोविज्ञान के आधार पर नैतिक शिक्षा के माध्यम से करना है। सदाचार या सच्चरित्रता के अन्तर्गत शील और नैतिकता की वे भावनाएँ निहित हैं जिनमें मनुष्य अपना सुख छोड़कर दूसरों को सुख दे, अपना स्वार्थ छोड़कर परोपकार करे और मन, वचन या कर्म से किसी को कष्ट न दे। सत्य बोलना, बड़ों का आदर करना, पारस्परिक प्रेम और सम्मान की भावना का विकास, त्याग, दया, न्याय, सहानुभूति, चोरी न करना, धोखा न देना, साहस, निर्भयता आदि सद्गुणों का विकास विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से किया जा सकता है। 

     

    यह बात महत्त्वपूर्ण है कि सदाचार संस्कृति एवं समाज की नैतिक धारणा के अनुसार मान्य होते हैं। उदाहरण के लिये- भारतीय समाज में पर-स्त्री को स्पर्श करना भी नैतिक दोष माना जाता है किन्तु यूरोप में पर- स्त्री के साथ नृत्य करना शिष्टाचार का अंग माना जाता है। अतः चरित्र की शिक्षा के अन्तर्गत समाज के नैतिक नियमों का पालन करना चरित्र - शिक्षा का विशेष अंग होना चाहिए। यह बात आज के सन्दर्भ में अधिक महत्त्वपूर्ण है। पश्चिमी सभ्यता एवं शिष्टाचार का अन्धानुकरण हमारे समाज में तीव्र गति से हो रहा है। कामुक भावों का प्रदर्शन, विवाह आदि सामाजिक कार्यक्रमों में पाश्चात्य ढंग से नृत्य करना हमारे देश में बढ़ रहा है। भारतीय समाज में इन प्रवृत्तियों को नैतिक दृष्टि से पतन ही माना जायेगा। पश्चिमी सभ्यता में संयुक्त परिवार की प्रथा नहीं है। माता-पिता की वृद्धावस्था में सेवा करना भारत में धर्म एवं नैतिकता का अनिवार्य अंग है, जबकि यूरोप और अमेरिका आदि देशों में माता-पिता वृद्धाश्रमों में जीवन बिताते हैं। उनकी संतानें अधिक से अधिक उनके जन्मदिन पर उन्हें पुष्पगुच्छ (गुलदस्ता ) भेंट करने जाती हैं। भारतीय संस्कृति में माता-पिता की सेवा नैतिक कर्तव्य माना जाता है। गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है- “ श्रवण कुमार की पितृभक्ति और हरिश्चन्द्र की सत्यनिष्ठा - इन दो पौराणिक कथाओं ने मुझे बहुत प्रभावित किया। माता-पिता और शिक्षक की सेवा करने का महत्त्व सहस्र पृष्ठों के ग्रन्थ का अध्ययन करने से भी महान् है । मेरी बुद्धि और हृदय के विकास, मेरे चरित्र के निर्माण तथा संवर्धन और अविरत प्रगति का रहस्य यही है कि मैंने बचपन में पिताजी की सेवा की। " अतः सदाचार की शिक्षा में माता-पिता और आचार्य की सेवा को महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान करना है। माता-पिता एवं आचार्य व्यक्ति नहीं हैं, ये पद एवं संस्थाएँ हैं जिन्हें हमें निरपेक्ष भाव से सम्मान प्रदान करना चाहिए।

     

    यह सत्य है कि सदाचार का बीज जीवन की प्रारम्भिक अवस्था में पड़ता है और परिवार में उसका अंकुरण होता है। बालक के परिवार और समाज के संस्कार ही आगे चलकर उसकी शिक्षा के सम्बल बनते हैं। अतः माता-पिता को बालक के चारित्रिक विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने की आवश्यकता है। सत्य बोलना, चोरी न करना, बड़ों का आदर करना, पारस्परिक प्रेम और सहयोग की भावना, अतिथियों के प्रति सम्मान एवं शिष्टाचार आदि की शिक्षा घर पर ही दी जानी चाहिए। माता-पिता द्वारा अपना उदाहरण प्रस्तुत करके परिवार में सदाचार एवं नैतिक आचरण का वातावरण निर्मित करके यह किया जा सकता है। 

     

    विद्यालय में 'सरल से कठिन एवं स्थूल से सूक्ष्म की ओर' मनोविज्ञान के इस शिक्षण - सिद्धान्त के अनुसार स्वच्छता, व्यवस्थाप्रियता, समयपालन, अनुशासनपालन, शिष्टाचार, परस्पर सहयोग एवं उत्तरदायित्व की भावना आदि स्थूल एवं सरल गुणों का विकास सहपाठ्य क्रियाकलापों के माध्यम से किया जाना चाहिए। विद्यालय में शिक्षक के व्यक्तित्व का प्रभाव छात्र के चरित्रनिर्माण में सबसे प्रभावी होता है। यह ध्यान रखना चाहिए कि नैतिक शिक्षा या चरित्र का निर्माण उपदेशों से नहीं होता । नैतिक शिक्षण का प्रथम नियम है सुझाव देना । सुझाव देने का सबसे उत्तम ढंग है व्यक्तिगत उदाहरण, अनौपचारिक वार्ता तथा महान् पुरुषों के जीवन के दृष्टान्त, उनके श्रेष्ठ विचार एवं उच्चतम भावों को जाग्रत करने वाले साहित्य के अंश एवं इतिहास के प्रसंग छात्रों के सम्मुख रोचक एवं सरस शैली में प्रस्तुत किये जायें। यदि स्वयं शिक्षक का जीवन उन आदर्शों में ढला हो जिन्हें वह छात्रों के सामने रख रहा है तो यह अत्यधिक प्रभावशाली पद्धति होती है। 

     

    अन्त में यह बात समझना आवश्यक है कि नैतिक शिक्षा अथवा धर्म - शिक्षा का शिक्षण अन्य विषयों के समान एक विषय के रूप में करना उपयोगी एवं प्रभावकारी नहीं होता। सभी शिक्षकों को सभी विषयों के शिक्षण के साथ नैतिकता-विषयक बातों को छात्रों के सामने प्रस्तुत करना चाहिए । नैतिक शिक्षा के लिये विद्यालय का संस्कारक्षम वातावरण बहुत सहायक होता है। 

     

    (5) आध्यात्मिक शिक्षा 

    भारतीय मनोविज्ञान की मान्यता के अनुसार मानव की मूल प्रकृति आध्यात्मिक है। इस आध्यात्मिक प्रकृति के कारण ही मनुष्य ने विज्ञान, साहित्य, संस्कृति, कला, सदाचार एवं धर्म के रूप में अपने को अभिव्यक्त किया है। अध्यात्म का सम्बन्ध आत्मा से है। आत्मा को जीवन और जगत् का परम तत्त्व माना गया है। वही जगत् का कारण है। इस चराचर जगत् में व्याप्त परमात्म तत्त्व कोही मनुष्य का अन्तरात्मा माना गया है। " आत्मा को अधिकृत करके जो रहता है, उसे अध्यात्म करते हैं। स्वयं गीताकार ने, परब्रह्म का प्रति रूप देह में अन्तरात्मा रूप से स्वभाव रूप में जो स्थापित होता है, उस स्वभाव को ही अध्यात्म कहा है। "1 आत्मा मनुष्य की सत्ता का अन्तरतम मर्म है। उसे इन्द्रियों, मन, अहंकार और बुद्धि से परे माना है । यह अहंकारातीत आत्मा ही विद्या का प्रकाश और उसकी प्रेरणा है। मन, बुद्धि और इन्द्रियाँ आत्मा की शक्ति से ही प्रेरित होती हैं। आत्मा की चेतना से ही वे विषयों के अधिगम में समर्थ होती हैं। इन्द्रियों के धर्मों, मन के विकारों और अहंकार के अवच्छेदों के अतिक्रमण के द्वारा हमें इस आत्मा के स्वरूप का कुछ आभास हो सकता है। अहंकार के पूर्ण विगलित होने पर ही आध्यात्मिक भाव की जागृति होती है। अधिकांश व्यक्तियों में यह आत्मा की शक्ति अज्ञात और अपरिचित रूप में पर्दे के पीछे से कार्य करती है। बिरले ही लोगों में इसकी उपस्थिति प्रत्यक्ष रूप में प्रकट होती है। ऐसे ही लोग जीवन में एक विशेष विश्वास और शक्ति के साथ आगे बढ़ते हैं। इस अन्तरात्मा की उपस्थिति के प्रति सचेतन होने के लिए ही आध्यात्मिक शिक्षा की आवश्यकता है। 

     

    आध्यात्मिक शिक्षा के उद्देश्य 

    अपने भीतर आत्मा की उपस्थिति के प्रति सचेत होने के लिये सर्वप्रथम आवश्यकता है देह और मन से जो तादात्म्य हमारे अहं ने स्थापित कर रखा है, उसे त्यागने का । हम यह अनुभव करें कि मैं यह 'देह' या 'मन' नहीं हूँ। मैं आत्मा' हूँ, जो अजर-अमर, अविनाशी सत्ता है। देह के नाश के साथ मेरा नाश नहीं होता। यह आत्मा ही ईश्वर तत्त्व है जो सर्व चराचर जगत् में व्याप्त है। अपने भीतर इस ईश्वर तत्त्व की अनुभूति करना तथा समस्त प्राणियों में इसके दर्शन यही वास्तव में आध्यात्मिक शिक्षा की आधारशिला है । आज भौतिकवादी सुखों ने मानव मस्तिष्क को अपनी ओर पूर्ण रूप से आकृष्ट कर रखा है। फलस्वरूप, मानव आध्यात्मिक जीवन तथा उससे जुड़ी असीम सम्भावनाओं को पूरी तरह भुला बैठा है। वह भौतिक संसार में ही जीता तथा उपभोग करता है। अपनी सत्ता को शरीर और मन से अधिक नहीं मानता। यह एक ऐसी भ्रान्ति है जिसके रहते जीवन के उच्चस्तरीय आयामों में प्रवेश करते नहीं बनता। इस भ्रान्ति या अज्ञान से मुक्ति दिलाना ही शिक्षा का परम लक्ष्य है। 'सा विद्या या विमुक्तये' - विद्या वही है जो मुक्ति दिलाये। ईश्वर सत्, चित् और आनन्दस्वरूप है। इसके ज्ञान से ही चिरन्तन आनन्द की प्राप्ति सम्भव है। भारतीय चिन्तन के अनुसार जीवन का लक्ष्य भी यही है। 

     

    अध्यात्म जीवन का सत्य है। यह जीवन का दृष्टिकोण है। अध्यात्म जीवन जीना है। हमारा स्वभाव आध्यात्मिक बने, हमारे समस्त व्यवहार में आध्यात्मिकता प्रकट हो, यह सतत साधना का विषय है। शिक्षा भी एक साधना है। छात्रों के जीवन को अध्यात्म के संस्कारों से संस्कारित करना आध्यात्मिक शिक्षा का उद्देश्य है। आध्यात्मिक शिक्षा के अन्तर्गत छात्रों में हम अग्रांकित गुणों के विकास का इसके उद्देश्य के रूप में विचार कर सकते हैं : 

     

    1. ईश्वर के प्रति आस्था एवं भक्ति 

    बालक को प्रारम्भिक अवस्था से ही ईश्वर के अस्तित्व के प्रति सचेतन करने की आवश्यकता है। यह कार्य परिवार में भली-भाँति हो सकता है। ईश्वर के जिस रूप में भी आस्था हो, उसके प्रति घर में प्रार्थना, पूजा आदि सभी परिवारजन करते हैं तो बालकों पर उसका अनुकूल प्रभाव होता है। विद्यालय में भी अच्छे प्रभावी वातावरण में प्रार्थना सभा से शिक्षा कार्य आरम्भ हो । भक्त बालकों एवं महापुरुषों के जीवन के दृष्टान्त भी ईश्वर के प्रति आस्था एवं भक्तिभाव जगाने में सहायक होते हैं। मौन, ध्यान, भजन-संगीत आदि के कार्यक्रमों से बालक अन्तर्मुखी होता है, शान्ति और आनन्द की अनुभूति करता है। इनसे ईश्वर के प्रति सचेतन होने का वातावरण बनता है। 

     

    2. मैं देह नहीं, आत्मा हूँ' 

    मानव देह नहीं, आत्मा है, ईश्वर का स्वरूप है। यह भाव बार-बार छात्रों के सम्मुख भिन्न-भिन्न ढंग से आना लाभदायक है । इसका अर्थ भी रुचिकर ढंग से उदाहरण देकर समझाना चाहिए। अपने को देह मानने वाले केवल अपनी देह और इन्द्रियों को सुख देना ही अपने जीवन का लक्ष्य मानते है। देह की सुख-सुविधाओं की साधन-सामग्री जुटाने में ही उनके जीवन की समग्र शक्ति व्यय होती है फिर भी उन्हें शान्ति या संतोष नहीं मिलता। अपने को आत्मा मानने वाला व्यक्ति देह को भोग का साधन न समझकर परमात्मा की भक्ति एवं दूसरों की सेवा में अपने जीवन का उपयोग करता है। इससे उसे जीवन में शान्ति, संतोष और आनन्द की प्राप्ति होती है। 

     

    3. जीवन - लक्ष्य के प्रति सजगता 

    ईश्वर का साक्षात्कार करना ही मानव-जीवन का लक्ष्य है। अपने हृदय में उसकी अनुभूति करना तथा दूसरों में भी ईश्वर के दर्शन हों, यही वास्तव में अध्यात्म भाव है । इस भाव जागरण के लिये साधना करनी होती है। धर्माचरण एवं नैतिक जीवन द्वारा चित्त की शुद्धि होने पर ही इस भाव जागरण की सम्भावना होती है। इसका सतत प्रयास करना ही साधना है। यह साधना इस जीवन में और आगे के जीवन में भी लक्ष्य की प्राप्ति तक करनी होती है। छात्रों में जीवन की इस साधना के प्रति सजगता निर्मित करने का प्रयास करना है। 

     

    4. निर्भयता 

    यह भी आध्यात्मिक गुण है। छात्रों में इसका विकास करना आध्यात्मिक शिक्षा का अंग है। हमारे आध्यात्मिक साहित्य उपनिषदों में 'अभी: ' (निर्भयता) शब्द का प्रयोग बारम्बार आता है। कौन व्यक्ति निर्भय हो सकता है? जिसका अन्त:करण निर्मल है, जो दिन-रात परोपकार और सेवा में निरत है, अपने व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठ चुका है, बलिदानी है, दूसरों का भय दूर करने में संलग्न है, क्षमाशील है और जो पवित्र एवं निःस्वार्थ भाव से अन्याय और अत्याचार का प्रतिरोध करता है। एक विद्वान् ने कहा है कि मनुष्य को सत्ता भ्रष्ट नहीं करती, बल्कि उसके छूटने का भय भ्रष्ट करता है। आध्यात्मिक पुरुष को तो साक्षात् मृत्यु का भय भी नहीं होता । अरण्यवासी, शिलाखण्ड पर बैठे उस महान् योगी की इतिहास - प्रसिद्ध घटना है। महाप्रतापशाली सम्राट् सिकन्दर उनके ज्ञान पर मुग्ध होकर उन्हें यूनान चलने के लिये अर्थ और मान-प्रतिष्ठा का प्रलोभन देता है और संन्यासी उसकी प्रलोभन की बात सुनकर हँसी के साथ यूनान जाना अस्वीकार कर देता है। तब सिकन्दर अपनी राजसत्ता के मद में तलवार निकालकर ललकारता है, “यदि तुम नहीं चलोगे तो मैं तुम्हें जान से मार डालूँगा ।" वह योगी खिलखिलाकर हँस पड़ते हैं और कहते हैं, "मैंने आज तक ऐसी झूठी बात कभी नहीं सुनी। मुझे भला कौन मार सकता है? मैं तो अजर-अमर और अविनाशी आत्मा हूँ। " सिकन्दर उनके चरणों पर गिरकर क्षमा माँगता है। यह है आध्यात्मिक बल और निर्भयता । परमात्मा की सत्ता के प्रति पूर्ण विश्वास होना, मनुष्य को पूर्ण अभय बना देता है। 

     

    5. स्वतन्त्रता 

    मनुष्य को स्वतन्त्र और स्वाधीन होना प्रिय है। यह आत्मा का स्वभाव है। आध्यात्मिक पुरुष जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अधिकतम स्वतन्त्र रहना चाहता है, क्योंकि गहरे स्तर पर उसकी आत्मा स्वतन्त्र एवं स्वाधीन है। आध्यात्मिक व्यक्ति अपनी इच्छाओं का अथवा मन का दास नहीं, वरन् स्वामी होता है। संन्यासियों में अपने नाम के साथ स्वामी शब्द इसी भाव से जोड़ा जाता है। स्वतन्त्रता आध्यात्मिकता का मूल मन्त्र है। इच्छाओं और मन की दासता मनुष्य के समस्त दुःखों का कारण है। अध्यात्म स्वाधीन होने का पथ है। आनन्द का मूल स्रोत स्वतन्त्रता में है। छात्रों के विकास में स्वतन्त्रता सहायक होती है। 

     

    6. प्रसन्नता 

    आत्मा आनन्दस्वरूप है। आध्यात्मिक जीवन आनन्दरूप बन जाता है। वह भीतर के आनन्द को प्रकट करता है। गांधीजी के बारे में कहते हैं कि वे बहुत लावण्यशाली पुरुष नहीं थे, परन्तु जब हँसते या मुस्कराते थे तो सारे व्यक्तित्व पर लावण्य की ऐसी आभा छा जाती थी कि देखने वाला मुग्ध हो जाता था । श्रीगुरुजी की वह निश्छल हँसी भी ऐसी ही प्रभावोत्पादक थी जो भीतर की आत्मसत्ता के भाव में उद्बोधित आनन्द में रत रहने वाला व्यक्ति है उसके जीवन में लावण्य छलकता है। आनन्द आध्यात्मिकता का ऐश्वर्य है। इस आनन्द में लावण्य है। अध्यात्म में एक ऐसा अक्षय, अक्षुण्ण आनन्द का स्रोत उपलब्ध हो जाता है कि सुख और दुःख में समान रूप से उसके मुखमण्डल पर प्रसन्नता झलकती रहती है। प्रसन्नता आत्मा का गुण है। 

     

    प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते । 

    प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥ गीता २ - ६५ 

     

    प्रसाद (प्रसन्न रहना) गुण धारण करने पर समस्त मानसिक क्लेश की निवृत्ति हो जाती है, क्योंकि जिसका मन प्रसन्न रहता है उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है। 

     

    7. विनयशीलता 

    विनयशीलता अध्यात्म का अलंकार है, विद्यावान या ज्ञानी पुरुष का स्वभाव है। 'विद्या ददाति विनयं' - विद्या विनय देती है । विनयशीलता अहंकारशून्यता का पर्याय है। अध्यात्मभाव अहंकार के विगलित होने पर ही प्रकट होता है। जो पुरुष जितना अधिक आध्यात्मिकता में डूबा होगा, वह उतना ही अधिक विनयशील होगा । सन्त प्रभुदत्त ब्रह्मचारी और श्री गुरुजी गोलवलकर, दोनों के मिलने का दृश्य आज भी सजीव है। गुरुजी ब्रह्मचारीजी के आश्रम में जैसे ही प्रवेश करते हैं, उनके स्वागत में खड़े ब्रह्मचारीजी श्री गुरुजी के चरण-स्पर्श करने झुकते हैं और उसी क्षण गुरुजी भी ब्रह्मचारीजी के चरण-स्पर्श करने का प्रयास करते हैं। दो महान् पुरुषों में एक-दूसरे के चरण-स्पर्श करने की होड़ लगी है। विनयशीलता का यह साक्षात् चित्र अविस्मरणीय है। अहंकारशून्यता के बिना यह विनयशीलता सम्भव नहीं है जो आध्यात्मिक पुरुषों में प्रकट होती है। अध्यात्म - शिक्षा द्वारा छात्रों में यह विनयशीलता का गुण विकसित किए जाने का प्रयास अपेक्षित है। 

     

    8. प्रेम 

    प्रेम आत्मा का स्वभाव है। प्रेम समस्त सीमाएँ समाप्त कर प्राणिमात्र के साथ तादात्म्य स्थापित कर देता है। प्रेम की अनुभूति बौद्धिक धरातल से ऊपर उठाकर होती है। प्रेम राग, मोह और वासना से परे है। राग, मोह और वासना में संकीर्णता है, स्वार्थपरता है। प्रेम व्यापक एवं निःस्वार्थ होता है। प्रेम से अन्तःकरण निर्मल हो जाता है। हृदय के निर्मल होने पर ही प्रेमतत्त्व का ग्रहण सम्भव है। प्रेम का अर्थ है अपनी शक्ति, ज्ञान, धन आदि का परहित में सेवा-भाव से विनियोग । प्रेमपूर्ण स्वभाव सबके लिये सुखद एवं कल्याणकारक होकर समाज में सुख-शान्ति की प्रस्थापना करता है। प्रेम में उत्सर्ग ही उत्सर्ग है। स्वदेश-प्रेम में अपने प्राणों का भी उत्सर्ग सहज भाव से होता है। समाज के प्रति प्रेम सेवा का रूप धारण कर लेता है। प्रेम अहिंसा का पर्याय है। अहिंसा के मूर्तिमन्त रूप महावीर स्वामी प्रेम के साक्षात् अवतार थे। उनके समीप गौ और व्याघ्र परस्पर मैत्री भाव से मुक्त होकर विचरण करते थे। प्रेम आध्यात्मिक विकास का प्रतिफल है। कर्म, मन, वाणी से सब प्राणियों से ऐसा व्यवहार करना कि उन्हें हमसे क्लेश न प्राप्त होकर सुख की प्राप्ति हो, इस भाव का नाम प्रेम है। इसी को अहिंसा कहा जाता है। प्रेम शब्द अहिंसा का ही भावात्मक प्रयोग है। 

     

    9. करुणा 

    आध्यात्मिक साधना में करुणा का भाव हृदय में फूट पड़ता है। दया एवं सहानुभूति में अहंकार का पुट होता हैं करुणा की अनुभूति अहंकारशून्यता में ही सम्भव है। आध्यात्मिक व्यक्ति दूसरों के दुःख सहन नहीं कर सकता। देशवासियों की दरिद्रता को देखकर स्वामी विवेकानन्द के हृदय की करुणा अश्रु बनकर फूट पड़ती थी। भारत के करोड़ों जन आज भूखे, नंगे रहकर जीवन व्यतीत कर रहे हैं। देशवासियों के हृदय में अपने इन आत्मीयजनों के प्रति जब करुणा का भाव जाग्रत होगा, तब वर्तमान स्थिति से इन्हें उबारने के संकल्प का उदय होगा। स्वामी विवेकानन्द कहते थे, " मैं उसी को महात्मा कहूँगा जिसका हृदय गरीबों के लिये रोता है।" आध्यात्मिक साधना से सिद्धि प्राप्ति करने पर भी योगी एवं संन्यासी जन करुणा के भाव के कारण ही लोकसंग्रह के कार्य में संलग्न होते हैं। हृदय में करुणा के भाव का जागरण आध्यात्मिक विकास का स्वाभाविक परिणाम है। 

     

    आध्यात्मिक शिक्षा के आयाम 

    मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षण बताये गए हैं। इसी प्रकार आध्यात्मिक विकास के लक्षणों के रूप में यहाँ कुछ गुणों की चर्चा की गयी है। वास्तव में अध्यात्म का शिक्षण नहीं होता। यह तो सहज प्रस्फुटित होता है। धर्माचरण, नैतिक भावना एवं उपयुक्त वातावरण में आध्यात्मिक विकास की सम्भावना निहित है। नैतिक शिक्षा आध्यात्मिक विकास का साधन है। अध्यात्म मानव का मूल स्वभाव है । जिस प्रकार मल के आवरण से ढके दर्पण में दिखाई नहीं देता, उसी प्रकार मन के विकारों एवं चित्तवृत्तियों की चंचलता के कारण मनुष्य का मूल आध्यात्मिक स्वभाव परिच्छिन्न रहता है। धर्माचरण एवं चित्तवृत्तिनिरोध से मन के विकार दूर होते हैं और आध्यात्मिकता का अनावरण होता है। आध्यात्मिक शिक्षा की प्रक्रिया भी यही है । 

     

    आध्यात्मिक शिक्षा के लिये आध्यात्मिक गुणों से युक्त शिक्षक का जीवन उदाहरणस्वरूप आवश्यक है। आध्यात्मिक पुरुषों की संगति का बालक के अन्तःकरण पर गहरा संस्कार होता है, जो उसके आध्यात्मिक विकास का सम्बल बनता है। शिक्षा के सन्दर्भ में अध्यात्म की साधना का समस्त भार केवल छात्रों और शिक्षकों पर ही नहीं लादा जा सकता। शिक्षा की व्यवस्था और साधना सामाजिक परिवेश में ही होती है। अतः श्रेष्ठ शिक्षा के अनुकूल परिवेश के निर्माण के लिये समाज की व्यवस्था में स्वार्थ और अहंकार का समुचित समाधान करना होगा। व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की उन्नति के द्वार स्वार्थ और अहंकार के अतिक्रमण से ही खुलते हैं। आध्यात्मिक शिक्षा का यह सामाजिक पक्ष ध्यान देने योग्य है। अध्यात्म व्यक्ति की एकान्त-साधना नहीं है। आत्मा अहंकार के समान इकाई नहीं है। वह पारस्परिक अद्वैत का भाव है। अनुकूल सामाजिक वातावरण की प्रेरणा अध्यात्म की सफलता के लिये अपेक्षित है। 

     

    आध्यात्मिक शिक्षा से ही बालक के जीवन का विकास पूर्ण होता है। श्री अरविन्द ने भी जीवन के इसी सर्वांग विकास को शिक्षा का लक्ष्य माना उन्हीं के शब्दों में, “सर्वांग जीवन का अर्थ है ऐसा जीवन, जिसमें तन, मन और प्राण का भी समुचित सन्तोष और विकास हो । यह आध्यात्मिक जीवन से ही सम्भव है, क्योंकि आत्मा ही निम्न तत्त्वों का समन्वय कर सकता है। मानसिक स्तर का जीवन एक द्वन्द्वात्मक जीवन है। यह द्वन्द्व ही आधुनिक व्यक्ति और 

     

    समाज की समस्त समस्याओं का मूल कारण है। इसका एकमात्र सुलझाव मानसिक स्तर का अतिक्रमण करना है। मानव जाति के आध्यात्मिक स्तर पर आरोहण करने से ही विश्व की सामाजिक और राजनीतिक समस्याएँ सुलझ सकती है। अन्य सभी प्रयत्न केवल थोड़ा-बहुत ही निदान कर सकते हैं। " 

     

    इस प्रकार शारीरिक, व्यावसायिक, मानसिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक पंचमुखी शिक्षा के द्वारा बालक का सर्वांगीण विकास होता है, जो कि शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य है। 


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