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अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • शिक्षा के भारतीय मनोवैज्ञानिक आधार 

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    Vidyasagar.Guru

     

    शिक्षा के क्षेत्र में भारतीय विचारधारा और संस्कृति की विषय-सामग्री को सम्मिलित कर देने मात्र से कोई शिक्षा भारतीय नहीं बन जाती। हमें भारत की उन मनोवैज्ञानिक पद्धतियों की खोज करनी होगी जो मनुष्य की उन नैसर्गिक शक्तियों एवं उपकरणों को सजीव बना देती हैं जिनके द्वारा वह ज्ञान को आत्मसात् करता है, नवीन सृष्टि करता है तथा मेधा, पौरुष और ऋतम्भरा प्रज्ञा का विकास करता है। उस विपुल बौद्धिकता, आध्यात्मिकता और अतिमानवीय नैतिक शक्ति का रहस्य क्या था, जिसे हम वेद, उपनिषद्, रामायण, महाभारत, प्राचीन दर्शन-शास्त्रों में, भारत के सर्वोत्कृष्ट काव्य, कला, शिल्प और स्थापत्य में स्पन्दित होते हुए देखते हैं? हमें भारत की आत्मा, आदर्शों और उन पद्धतियों को अधिक प्रभावशाली और आधुनिकतम संगठन के रूप में जीवित करना होगा, जिनके आधार पर विकसित शिक्षा ही भारतीय शिक्षा होगी। इसी दृष्टि से यहाँ हम शिक्षा के भारतीय मनोवैज्ञानिक आधारों की संक्षेप में चर्चा कर रहे हैं।

     

     

     

    मनुष्य की मूल प्रकृति आध्यात्मिक 

     

    भारतीय मनोविज्ञान के अनुसार मनुष्य की मूल प्रकृति आध्यात्मिक है। प्रायः मनुष्य अपनी इस आध्यात्मिक प्रकृति की ओर सचेत नहीं रहता । आत्मा सत्-चित्-आनन्द स्वरूप है। इसी कारण मनुष्य के गहरे आध्यात्मिक स्तर पर परम सत्य की जिज्ञासा है, जिससे प्रेरित होकर मानव वैज्ञानिक अनुसन्धान करता है और सत्य की अनवरत खोज मे संलग्न है। ज्ञानरूपता में वह अपनी पूर्णता के दर्शन करना चाहता है। आत्मा आनन्दस्वरूप है, अतः सुख की खोज मनुष्य की सहज प्रवृत्ति है। 

    श्री अरविन्द के अनुसार, “मानव की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि 

     

    उसमें एक ऐसी चेतना विद्यमान है जिसमें वह अपने सीमित भौतिक अस्तित्व से ऊपर उठ सकता है। यही विशेषता मनुष्य को पशु से भिन्न ठहराती है। दूसरे शब्दों में, मनुष्य में एक ऐसा आध्यात्मिक तत्त्व विद्यमान है जोकि उसके भौतिक, प्राणिक और मानसिक पहलुओं से ऊँचा है। यह कारण शरीर है जो कि समस्त ज्ञान और आनन्द का वाहक है । यही मनुष्य के भावी विकास का माध्यम है। " 

     

    मनुष्य की इस आध्यात्मिक प्रकृति के कारण ही उसने कला, संस्कृति, सदाचार और धर्म के रूप में अपने को अभिव्यक्त किया है। मनुष्य इस आध्यात्मिक प्रकृति के कारण अन्य जीवों से भिन्न ही नहीं है, वरन् उसमें यह भी शक्ति है कि वह अपने वातावरण को बदल सकता है। अन्य जीवों को विवश होकर भौतिक वातावरण को स्वीकार करके उसी में पड़े रहना पड़ता है; या तो वे अपने को उसके अनुकूल बना लें, या समाप्त हो जायें। मनुष्य की यह आध्यात्मिक प्रकृति उस पर ऊपर से लादी हुई नहीं है, वह तो उसके अस्तित्व का मूल तत्त्व है। इसीलिये जीवशास्त्रियों ने मनुष्य को जो उच्चतम जीव कहा है, वह अपर्याप्त है। वास्तव में मनुष्य आध्यात्मिक जीव है। 

     

    आधुनिक शिक्षा में मानव की इस आध्यात्मिक प्रकृति की घोर उपेक्षा की जा रही है। परिणामतः विकास की असीम सम्भावनाओं से वह पूर्णत: वंचित है तथा जीवन के उच्चस्तरीय आयामों में प्रवेश नहीं कर पा रहा है। अतः भारतीय मनोविज्ञान के इस महत्त्वपूर्ण तत्त्व को शिक्षा का आधार बनाने की आवश्यकता है। 

     

     

    ज्ञान की प्रक्रिया 

     

    1. समस्त ज्ञान मनुष्य के अन्तर में 

     

    समस्त ज्ञान मनुष्य के अन्तर में स्थित है। भारतीय मनोविज्ञान के अनुसार आत्मा ज्ञानस्वरूप है। ज्ञान आत्मा का प्रकाश है। मनुष्य को बाहर से ज्ञान प्राप्त नहीं होता, प्रत्युत् आत्मा के अनावरण से ही ज्ञान का प्रकटीकरण होता है। श्री अरविन्द के शब्दों में, “मस्तिष्क को ऐसा कुछ भी नहीं सिखाया जा सकता जोकि जीव की आत्मा में सुप्त ज्ञान के रूप में पहले से ही गुप्त न हो। " स्वामी विवेकानन्द ने भी इसी बात को इन शब्दों में व्यक्त किया है, “मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है। ज्ञान मनुष्य में स्वभाव सिद्ध है।

     

    1. श्री अरविन्द - 'द सिन्थेसिस ऑफ योग' पृष्ठ 2 

     

    कोई भी ज्ञान बाहर से नहीं आता, सब अन्दर ही है। हम जो कहते हैं कि मनुष्य 'जानता' है, यथार्थ में, मानवशास्त्र - संगत भाषा में हमें कहना चाहिए कि वह आविष्कार करता है, अनावृत या प्रकट करता है। "] अतः समस्त ज्ञान, चाहे वह भौतिक हो अथवा आध्यात्मिक, मनुष्य की आत्मा में है। बहुधा वह प्रकाशित न होकर ढका रहता है, और जब आवरण धीरे-धीरे हट जाता है तो हम कहते हैं कि 'हम सीख रहे हैं।' जैसे-जैसे इस अनावरण की क्रिया बढ़ती जाती है, हमारे ज्ञान की वृद्धि होती जाती है। 

    जिस मनुष्य पर से यह आवरण उठता जाता है, वह अन्य व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक ज्ञानी है, और जिस पर आवरण तह - पर तह पड़ा हुआ है, वह अज्ञानी है। जिस पर से यह आवरण पूरा हट जाता है, वह सर्वज्ञ तथा सर्वदर्शी हो जाता है । चकमक पत्थर के टुकड़े में अग्नि के समान, ज्ञान छिपा हुआ है। सुझाव या उद्दीपक कारण ही वह घर्षण है, जो उस ज्ञानाग्नि को प्रकाशित कर देता है। सभी ज्ञान और सभी शक्तियाँ मनुष्य की आत्मा से ही प्रकट होती हैं। 

     

    इस प्रकार शिक्षा का लक्ष्य नये सिरे से कुछ निर्माण करना नहीं है, उसे तो मनुष्य में पहले से ही सुप्त शक्तियों का अनावरण और उनका विकास करना है। 

     

    2. अन्तःकरण चतुष्टय 

     

    ज्ञान- प्रक्रिया को समझने के लिये अन्तःकरण के स्वरूप और उसकी प्रकृति को समझना आवश्यक है। वेदान्त में अन्त:करण के चार प्रकार एवं उनके कार्य इस प्रकार बताये गये हैं- 

    मनोबुद्धिरहंकारश्चित्तं करणमन्तरम् । 

    संशयो निश्चयो गर्वः स्मरणं विषया इमे ॥ 

     

    अन्तःकरण के चार रूप हैं- मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त । मन से वितर्क और संशय होता है। बुद्धि निश्चय करती है। अहंकार से गर्व अर्थात् अहंभाव की अभिव्यक्ति होती है । चित्त में स्मरण होता है।" अन्तःकरण को मन भी कहा जाता है। योग-दर्शन में इसे 'चित्त' संज्ञा दी है। 

     

    मन का काम है विषय-वस्तु के बिम्ब को ज्ञानेन्द्रियों-दृष्टि, श्रुति, घ्राण, स्वाद, स्पर्श के माध्यम से प्राप्त करना और फिर उन्हें विचार - संवेदनों में अनूदित करके निर्णय हेतु बुद्धि के समक्ष प्रस्तुत करना । चित्त मानसिक संस्कारों का अर्थात् स्मृतियों का भण्डार है। अहंकार विषय-वस्तु का अहं अर्थात् मैं, मेरा, अपने से सम्बन्ध जोड़ता है । बुद्धि मन के द्वारा प्रस्तुत विषय-वस्तु के बिम्ब का चित्त (स्मृति) और अहंकार के आधार पर विचार कर निर्णय अर्थात् प्रतिक्रिया व्यक्त करती है । अन्त:करण जड़ तत्त्व है। आत्मा के प्रकाश से ही अन्त:करण द्वारा ज्ञान प्रक्रिया सम्पन्न होती है। 

     

    3. ज्ञान-प्राप्ति के मार्ग 

    (1) प्रत्यक्ष ज्ञान - ज्ञानेन्द्रियों के विषय - सन्निकर्ष के आधार पर उत्पन्न अन्तःकरण की वृत्ति स्वरूप अध्यवसाय को प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं। इन्द्रियों द्वारा बाह्य विषयों से चित्त (अन्तःकरण) सम्बन्धित होकर विषयाकार हो जाता है। चेतन पुरुष (आत्मा) का प्रकाश चित्त पर पड़ता है। चेतन से प्रकाशित चित्त अपनी वृत्तियों द्वारा विषय को प्रकाशित करता है। उस विषय का प्रकाशित होना ही उस विषय का ज्ञान कहलाता है। 

     

    (2) अनुमान ज्ञान अनुमान का शाब्दिक अर्थ हुआ पीछे होने वाला ज्ञान, अर्थात् एक बात जानने के उपरान्त दूसरी बात का ज्ञान ही अनुमान हुआ। जैसे कहीं धुआँ उठ रहा है तो उसे देखकर हमे वहाँ अग्नि का अनुमान होता है । प्रातः काल उठने पर आँगन के भीगे हुए होने पर रात्रि की वर्षा का अनुमान होता है । इस प्रकार के अनुमान से उत्पन्न ज्ञान भी यथार्थ ज्ञान माना जाता है। वास्तव अनुमान भी प्रत्यक्ष ज्ञान के कारण ही सम्भव है। हमने पहले अग्नि में से धुआँ निकलते हुए दृश्य का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त कर लिया था, तभी हमने धुआँ देखकर अग्नि की उपस्थिति का अनुमान कर लिया। अनुमान ज्ञान मुख्यतः बौद्धिक तर्क पर आधारित होता है। 

     

    (3) शब्द ज्ञान - जिन विषयों का ज्ञान प्रत्यक्ष तथा अनुमान के द्वारा प्राप्त नहीं हो सकता, उनके यथार्थ ज्ञान को प्राप्त करने के लिये हमें शब्द प्रमाण का सहारा लेना पड़ता है। कोई ऐसा व्यक्ति हो जिसने उस विषय का प्रत्यक्ष अथवा अनुमान से ज्ञान प्राप्त कर लिया है, उसके द्वारा उपदेश से सुनकर, अथवा लिपिबद्ध है तो पढ़कर, उस विषय का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। इसी शब्द से अर्थ का विषय करने वाली चित्त की वृत्ति को शब्द से प्राप्त ज्ञान कहते हैं। यहाँ यह बात महत्त्वपूर्ण है कि कोई भी विषय सुनने से अथवा पढ़ने मात्र से हमारे ज्ञान का अंग नहीं बनता। वही विषय हमारे ज्ञान का अंग बनता है जिसके अर्थ का हमें बोध होता है, क्योंकि चित्त विषय के अर्थ से विषयाकार होता है, शब्द से नहीं। चित्त के विषयाकार होने से ही ज्ञान का संस्कार होता है, जोकि हमारी स्मृति का अंग बन जाता है। शिक्षण-प्रक्रिया में यह बात ध्यान देने योग्य है। 

     

    सारांश यह है कि चित्त के विषयाकार होने से ही ज्ञान होता है, चाहे वह प्रत्यक्ष से हो, अनुमान से हो, अथवा शब्द से। 

     

    ( 4 ) अन्तर्ज्ञान - अन्तर्ज्ञान मन और यथार्थ वस्तु के बीच घनिष्ठ ऐक्य से पैदा होता है। यह वस्तुओं के साथ तादात्म्य के द्वारा सत्य का ज्ञान है । अन्तर्ज्ञान जो कुछ प्रकट करता है वह एक सिद्धान्त उतना नहीं, जितना कि चेतना होता है। वह मन की एक स्थिति होती है, न कि ज्ञेय वस्तु का लक्षण । भाषा और तर्क ज्ञान के घटिया रूप हैं। ज्ञान वास्तव में ज्ञाता और ज्ञेय के बीच साधन और सन्निकट ऐक्य है। विचार उसे आंशिक रूप में प्रकट और प्रस्तुत करने के साधन हैं। उदाहरण के लिए क्रोध के भाव का इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष ज्ञान सम्भव नहीं है। बुद्धि तर्क के द्वारा क्रोध की मानसिक स्थिति का विश्लेषण करने में अक्षम है। क्रुद्ध होने का अर्थ क्या है, यह हम स्वयं क्रुद्ध होकर ही जान सकते है। कोई भी व्यक्ति मानवीय प्रेम या पितृवात्सल्य की प्रबलता को तब तक नहीं जान सकता जब तक कि वह स्वयं उन भावों में से न गुजरे। ज्ञेय वस्तु के साथ तादात्म्य से जो ज्ञान प्राप्त होता है, वही एकमात्र सच्चा और सीधा ज्ञान होता है, शेष सब ज्ञान आनुमानिक होता है। 

     

    एकाग्रता 

    ज्ञान की प्राप्ति के लिये केवल एक ही मार्ग है और वह है 'एकाग्रता' । मन की एकाग्रता ही सम्पूर्ण शिक्षा का सार है। एकाग्रता की शक्ति जितनी अधिक होगी, ज्ञान की प्राप्ति भी उतनी ही अधिक होगी। एक ही विषय पर ध्यान देने का नाम है एकाग्रता । मन में सदैव संकल्प-विकल्प पानी की लहरों के समान उत्पन्न होते रहते हैं। मन या चित्त अति चंचल होता है। निरन्तर बाह्य विषयों में प्रवृत्त होता रहता है। ऐसा चित्त अशान्त और अस्थिर बना रहता है। चित्त की इस बिखरी हुई शक्ति से कोई कार्य सम्पादित नहीं होता। प्राचीन भारतीय दार्शनिकों ने चित्तवृत्ति निरोध को शिक्षा का लक्ष्य माना। वास्तव में चित्त ही शिक्षा का वाहन है। राजयोग में धारणा, ध्यान और समाधि एकाग्रता के ही क्रमिक स्तर हैं। समाधि पूर्ण एकाग्रता की स्थिति है जहाँ ज्ञानस्वरूप आत्मा का दर्शन होकर विषय का यथार्थ ज्ञान होता है। व्यक्ति अपनी मूल प्रकृति आध्यात्मिकता से जुड़ जाता है और ज्ञान के उच्चतम स्तर पर पहुँच जाता है। चरम विवेक, सत्य का अन्तर्भासात्मक दर्शन, वाणी को प्राप्त पूर्ण अन्त:प्रेरणा, ज्ञान का ऐसा प्रत्यक्ष दर्शन जो प्राय: अन्त: प्रकाश तक पहुँच जाता है और मनुष्य सत्य का द्रष्टा बन जाता है। "1 

     

    पातञ्जल योग-सूत्र में चित्त की पाँच अवस्थाएँ मानी गयी हैं। मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध । मन (चित्त) की रजोगुण प्रधान अवस्था क्षिप्त रहती है। इसमें मन की चंचलता या अस्थिरता की स्थिति रहती है। मूढ़ावस्था चित्त की तमः प्रधान अवस्था है। इस अवस्था में मनुष्य निद्रा, तन्द्रा, मोह, भय, आलस्य, क्रोध आदि के वशीभूत होकर विवेकशून्य होने के कारण उचित - अनुचित का विचार नहीं कर पाता । मनोविज्ञान की दृष्टि से अधिकांश छात्र सामान्यतः क्षिप्त या मूढ़ावस्था में ही मिलते हैं। 

     

    विक्षिप्तावस्था सत्वप्रधान अवस्था है। इसमें अन्य दोनों गुण रजस् और तमस् गौण रूप से रहते हैं। विक्षिप्तावस्था में व्यक्ति में चित्त की आंशिक स्थिरता रहती है। इस स्थिति में वह प्रसन्नता, उत्साह, क्षमा, ज्ञान, आदि उच्च विचारों की ओर प्रवृत्त होता है। इस अवस्था में प्राप्त किया हुआ ज्ञान अक्षय होता है। 

     

    एकाग्रावस्था में चित्त विशुद्ध सत्वरूप होता है। इस अवस्था में चित्त एक ही विषय में लीन रहता है। निरुद्धावस्था में चित्त की समस्त वृत्तियों का निरोध हो जाता है। यह ज्ञान की पराकाष्ठा की अवस्था है। इस अवस्था में ज्ञान के लिये किसी आलम्बन की आवश्यकता नहीं होती। इस स्थिति को प्राप्त व्यक्ति सत्य का द्रष्टा बन जाता है। आधुनिक मनोविज्ञान मन की इस अवस्था से पूर्णत: अनभिज्ञ है। वर्तमान शिक्षा के क्षेत्र में मन की प्रथम तीन अवस्थाओं का ही प्रयोग किया जा रहा है। 

     

    भारतीय मनोविज्ञान के अनुसार इस एकाग्रता की स्थिति ध्यानयोग के अभ्यास से प्राप्त होती है। इस विषय पर हम योग के प्रकरण में विस्तार से विचार करेंगे। योगाधारित शिक्षा ही वास्तविक शिक्षा है। योगाभ्यास से प्राप्त एकाग्रता की शक्ति ही ज्ञान के कोष की कुंजी है। ज्ञानार्जन के लिये निम्नतम श्रेणी के मनुष्य से लेकर उच्चतम वैज्ञानिक तक को इसी मार्ग का अवलम्बन करना पड़ता है। एकाग्रता के कारण ही ब्रह्माण्ड के समस्त रहस्य खुलते हैं। 

     

    ब्रह्मचर्य 

    प्राचीन भारतीय शिक्षा-पद्धति के मूल में सबसे महत्त्वपूर्ण वस्तु थी ब्रह्मचर्य का अभ्यास। भारतीय चिन्तन के अनुसार जीवन और प्राण-शक्ति का मूल स्रोत भौतिक नहीं आध्यात्मिक है; किन्तु जिस आधारशिला पर जीवन-शक्ति क्रिया-शील होती है, वह भौतिक है। यूरोपीय जड़वाद की मूलभूत भूल यह है कि वह भौतिक आधार को ही सब कुछ मान लेता है और उसे ही शक्ति का मूल स्रोत समझता है। भारतीय चिन्तन में कारण और आधार का स्पष्ट भेद समझा गया है। भारतीय चिन्तन में शक्ति का कारण आत्मा और स्थूल या भौतिक तत्त्व उसका आधार माना है। श्री अरविन्द के अनुसार, “भौतिक तत्त्व का आध्यात्मिक सत्ता में उत्कर्षण ही ब्रह्मचर्य है । " 1 भारतीय मनोविज्ञान के अनुसार मूलभूत भौतिक इकाई रेतस् है । मनुष्य के अन्तःस्थित इस रेतस् में समस्त ऊर्जा विद्यमान है। यह शक्ति या तो स्थूल भौतिक रूप में व्यय की जा सकती है या सुरक्षित रखी जा सकती है। समस्त मनोविकार, भोगेच्छा, कामना, इस शक्ति को स्थूल रूप में या सूक्ष्मतर रूप में शरीर से बाहर फेंककर नष्ट कर देते हैं। अनैतिक आचरण उसे स्थूल रूप में बाहर फेंकता है, अनैतिक विचार सूक्ष्म रूप में। अब्रह्मचर्य जैसे शारीरिक होता है, वैसे ही मानसिक और वाचिक भी। दक्ष संहिता में अब्रह्मचर्य के आठ प्रकार बताये गए हैं - 

     

    स्मरणं कीर्तनं केलिः प्रेक्षणं गुह्यभाषणभ्। 

    संकल्पोऽध्यवसायश्च क्रियानिवृत्तिरेव च।।

    एतन्मैथुनमष्टांगं प्रवदन्ति मनीषिणः । 

    विपरीत ब्रह्मचर्यमेतदेवाष्ट लक्षणम्॥ 

     

     

    स्मरण, चर्चा, क्रीड़ा, दर्शन, एकान्त में (स्त्री से) बातचीत करना, भोगेच्छा, सम्भोग-निश्चय और सम्भोग क्रिया - ये आठ प्रकार के मैथुन हैं, जिनके विपरीत आचरण करना ही ब्रह्मचर्य है। 

     

    समस्त आत्मसंयम रेतस् में निहित ऊर्जा की रक्षा करता है और रक्षा के साथ सदा वृद्धि होती रहती है। भारतीय सिद्धान्त के अनुसार रेतस् जल तत्त्व है जो प्रकाश, ऊष्मा और विद्युत् से परिपूर्ण है। रेतस् का संचय सर्वप्रथम ऊष्मा या तपस् में परिवर्तित होता है जो सारे शरीर को प्रदीप्त करता है। इसी कारण आत्मसंयम के सभी रूप तपस् या तपस्या कहलाते हैं। यह तपस् (ऊष्मा) ही समस्त शक्तिशाली कर्म और सिद्धि का मूल स्रोत है। यह रेतस जल से तपस् में, तेजस् में और विद्युत् में तथा विद्युत् से ओजस् में परिष्कृत होकर शरीर को शारीरिक बल, ऊर्जा और मस्तिष्क को शक्ति से भर देता है। वह ओजस् ही ऊर्ध्वगामी होकर मस्तिष्क को उस मूल ऊर्जा से अनुप्राणित कर देता है जो भौतिक तत्त्व का सबसे परिष्कृत रूप है और जो आत्मा के सबसे अधिक निकट है। उस ओजस् का ही नाम 'वीर्य' अर्थात् आध्यात्मिक शक्ति है जिसके द्वारा मनुष्य आध्यात्मिक ज्ञान और आध्यात्मिक शक्ति को प्राप्त करता है । 

     

    भारतीय शिक्षा का मूल आधार ब्रह्मचर्य पालन है, जोकि प्रत्येक शिक्षार्थी के लिये अपरिहार्य है। प्राचीन भारतीय शिक्षा-पद्धति के अनुसार तो विद्याध्ययनकाल ही ब्रह्मचर्य आश्रम कहलाता था। स्वामी विवेकानन्द जी ने भी शिक्षा प्राप्त करने के लिये ब्रह्मचर्य का पालन आवश्यक बताया है। उन्हीं के शब्दों में, “पूर्ण ब्रह्मचर्य से प्रबल बौद्धिक और आध्यात्मिक शक्ति उत्पन्न होती है। वासनाओं को वश में कर लेने से उत्कृष्ट फल प्राप्त होते हैं। कामशक्ति को आध्यात्मिक शक्ति में परिणत कर लो। यह शक्ति जितनी प्रबल होगी, उससे उतना ही अधिक कार्य कर सकोगे। ब्रह्मचारी के मस्तिष्क में प्रबल कार्य-शक्ति और अमोध इच्छा-शक्ति रहती है। पावित्र्य के बिना आध्यात्मिक शक्ति नहीं आ सकती। "1 

     

    ज्ञान बौद्धिक प्रक्रिया है। राग, द्वेष, काम, क्रोध, अहंकार आदि मन के विकारों से बुद्धि आच्छादित हो जाती है, अर्थात् ज्ञान-शक्ति का नाश हो जाता है। गीता में कहा है- 

     

    ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते ।

    सङ्गात्सजायतेकामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥

    क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः ।

    स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥ 

     

    अर्थात् विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है और आसक्ति से विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से अविवेक अर्थात् मूढ़ भाव उत्पन्न होता है और अविवेक से स्मरण शक्ति भ्रमित हो जाती है। स्मृति भ्रमित हो जाने से बुद्धि अर्थात् ज्ञान-शक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश होने से वह पुरुष अपने श्रेय-साधन से गिर जाता है। "1 

     

    ज्ञान की प्रक्रिया की सफलता हेतु मन को इन विकारों से बचाये रखना परम आवश्यक है। इसीलिये प्राचीन भारतीय शिक्षा में ब्रह्मचर्य का पालन महत्त्वपूर्ण था। ब्रह्मचर्य कोई प्राचीन रूढ़ि नहीं है। यह संयम और साधना का सनातन मन्त्र है। संयम और साधना की पीठिका पर ही ज्ञान की साधना सम्भव होती है। ये सब अध्यात्म की अभिव्यक्ति के रूप हैं। इसी अध्यात्म के द्वारा उत्तम शिक्षा एवं श्रेष्ठ प्रतिभा का विकास सम्भव है। शिक्षा, विद्या, साहित्य, विज्ञान, कला आदि क्षेत्रों में जिन महान् पुरुषों ने कुछ श्रेष्ठ उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं, उनको यह सफलता इसी साधना के आधार पर मिली है। 

     

    कुछ आधुनिक मनोवैज्ञानिकों एवं चिकित्सकों का यह कथन है कि काम - प्रवृत्ति के दमन से अनेक रोगों की उत्पत्ति होती है। इनके अनुसार ब्रह्मचर्य शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य के लिये घातक है । किन्तु कुछ विद्वानों का मत इसके विपरीत है। सत्य तो यह है कि मन पर नियन्त्रण न होने किन्तु केवल शरीर तथा इन्द्रियों के व्यवहार को ही नियन्त्रित करने से हानि पहुँचने की सम्भावना है। 

     

    ब्रह्मचर्य का ढोंग और ब्रह्मचर्य - दोनों में बहुत भेद है। गीता में भी श्रीकृष्ण ने कहा है, “जो मूढबुद्धि पुरुष कर्मेन्द्रियों को हठ से रोककर इन्द्रियों के भोगों का मन से चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है। " 

     

    कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्। 

    इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥ ' 

     

    अतः ब्रह्मचर्य - पालन के लिये मन का नियन्त्रण आवश्यक है। वास्तव में ब्रह्मचर्य पालन शारीरिक की अपेक्षा मानसिक अधिक है। इन्द्रियों पर पूर्ण नियन्त्रण, सात्विक विचार और सात्विक आहार ब्रह्मचर्य पालन के अनिवार्य अंग हैं। संयम से ही ब्रह्मचर्य पालन सम्भव है । इस प्रकार ब्रह्मचर्य से जीवन में अदम्य उत्साह, शारीरिक बल, बौद्धिक शक्ति उत्पन्न होती है जो ज्ञान-प्राप्ति के लिये आवश्यक है। भौतिकता पर आधारित पाश्चात्य मनोविज्ञान में तो ब्रह्मचर्य की संकल्पना ही नहीं है। भारतीय मनोविज्ञान के अनुसार ज्ञानार्जन एवं बालक के व्यक्तित्व का विकास ब्रह्मचर्य पालन के बिना आकाश-कुसुम के समान है। 

     

    आधुनिक शिक्षा - जगत् के लिये यह विचारणीय विषय है। आज ब्रह्मचर्य के अभाव के कारण हमारे देश की तरुणाई निस्तेज है और दिव्य शक्ति नष्टप्रायः हो रही है। क्षात्रतेज एवं ब्रह्मतेज से ओतप्रोत भारत की युवा शक्ति जब जाग्रत होगी, तभी तेजस्वी भारत का निर्माण होगा, जो विश्व का आध्यात्मिक दिशा-निर्देशन करने में समर्थ होगा। 

     

    संस्कार - सिद्धान्त 

    भारतीय ऋषियों ने मानव के अवचेतन मन के क्षेत्र का ज्ञान अति प्राचीन काल में प्राप्त कर लिया था, जिसका पूर्ण ज्ञान पाश्चात्य मनोविज्ञान को अभी तक प्राप्त नहीं है। अवचेतन मनोविज्ञान (Depth Psychology) के द्वारा किये गये अन्वेषणों के बहुत पहले ऋषियों को यह ज्ञान उपलब्ध हो गया था कि मनुष्य की समस्त क्रियाओं, विचारों तथा उद्वेगों आदि का कारण उनकी अवचेतन अवस्थाएँ हैं। भारतीय मनोविज्ञान के अनुसार इस अवचेतन को बनाने वाले घटक 'संस्कार' हैं जिन्हें अवचेतन मनोविज्ञान संसेचन (Impregnation), काम - प्रसुप्ति ( Latency), अवशेष (Residues) आदि नामों से जानता है। भारतीय मनोविज्ञान में इन संस्कारों का आधुनिक मनोविज्ञान के समान केवल ज्ञान के लिये अन्वेषण नहीं किया गया, अपितु उनके ऊपर पूर्ण रूप से नियन्त्रण स्थापित करने की प्रक्रिया का भी ज्ञान प्राप्त किया गया है। 

     

    चित्त की वृत्तियाँ चित्त में अपने समान ही छाप छोड़ जाती हैं। इन वृत्तियों के अनुरूप छाप को ही संस्कार कहते हैं। इन्हीं संस्कारों को आधुनिक मनोवैज्ञानिक पर्सीनन ने 'एनग्राम' (Engram) कहा है। संस्कार ज्ञानात्मक (Cognitive), भावात्मक (Affective ) और क्रियात्मक (Conative ) - तीन प्रकार के होते हैं। भारतीय मनोविज्ञान में इन तीन प्रकार के संस्कारों के अतिरिक्त पूर्वजन्म तथा जन्म से पूर्व गर्भावस्था के संस्कार भी होते हैं जिन्हें वासनाएँ भी कहते हैं, जो हमारी रुचियों तथा प्रवृत्तियों को बताती हैं। इस जन्म के अनुभव ज्ञानजन्य संस्कार, उद्वेग भावात्मक संस्कार तथा क्रियाएँ कर्म-संस्कार छोड़ जाती हैं। स्मृति का कारण ये ज्ञानज संस्कार ही हैं। ये सब ज्ञानज संस्कार अवचेतन अवस्था में होते हैं जो उपयुक्त परिस्थिति में चेतनावस्था को प्राप्त हो जाते हैं। कुछ ज्ञानज संस्कार सदैव ही अवचेतन बने रहते हैं। इन्हें चेतन में लाने के लिये योग में विधि बतायी है। आधुनिक मनोविज्ञान ने भी अनेक विधियाँ बतायी हैं, परन्तु योग की विधियों के समान उन्हें चेतन के घटक बनाने में सफलता प्राप्त नहीं की । ज्ञानज संस्कार केवल स्मृति ही प्रदान नहीं करते, अपितु संवेदनाओं को अर्थ प्रदान करने का कार्य भी करते हैं। ज्ञानज संस्कारों को आधुनिक मनोविज्ञान के सम्प्रत्यक्ष (apperception) शब्द के समकक्ष माना जा सकता है। हमारी चेतना में नवीन तत्त्वों के अर्थ संस्कारों के उस क्षेत्र पर आधारित होते हैं जिससे वे सम्बधित होते हैं। स्मृति अनुभव के विषयों की ही होती है। ये संस्कार इसी जन्म के अनुभवों के नहीं होते, अपितु असंख्य जन्मों के संस्कार चित्त में रहते हैं। जब जिन संस्कारों को जाग्रत करने वाले साधन उपस्थित होते हैं, तब वे ही संस्कार उदय हो जाते हैं। चित्त की एकाग्रता, सहचर-दर्शन आदि अनेक साधन हैं जिनमें से किसी एक की उपस्थिति में संस्कार - विशेष जाग्रत होकर तत्सम्बन्धी स्मृति प्रदान करता है। 

     

    स्मृति केवल ज्ञानज संस्कारों की ही होती है, अन्य संस्कारों की नहीं । संस्कार तो भावनाओं, संवेगों तथा कर्मों के भी होते हैं, किन्तु उनकी स्मृति नहीं होती । भावनाएँ एवं संवेग हमारी क्रियाओं के प्रेरक हैं। इनके संस्कार भी चित्त पर अंकित हो जाते हैं। संवेग के संस्कार संवेग को ही उत्पन्न करते हैं तथा भावनाओं के संस्कार भावनाओं को ही उत्पन्न करते हैं। हमारे समस्त कर्मों के भी संस्कार होते हैं। इन्हें कर्माशय (Conative Disposition) कहा जाता है। शुभ कर्मों से धर्म और अशुभ कर्मों से अधर्म उत्पन्न होता है। ये धर्म-अधर्म रूप कर्माशय ही जन्म, आयु और भोग उत्पन्न करते हैं। इन कर्माशयों से युक्त चित्त जीवात्मा सहित पूर्व जन्म के शुभ-अशुभ कर्मों की वासनाओं से एक देह से दूसरी देह को धारण करता रहता है। इस प्रकार ज्ञानज संस्कार स्मृति को, भावात्मक संस्कार क्लेशों तथा संवेगों को और कर्माशय जाति, आयु और भोगों को उत्पन्न करते हैं। सब संस्कार चित्त के ही धर्म हैं। 

     

    कर्म - संस्कार तीन प्रकार के माने गये हैं- संचित, प्रारब्ध, क्रियमाण । संचित कर्म वे हैं जो केवल संस्कार रूप से विद्यमान हैं, किन्तु उनके फल भोगने की अवधि नहीं आयी है। ये कर्म जन्म-जन्मान्तरों के हैं। प्रारब्ध कर्म वे हैं जिनको भोगने के लिये हमें वर्तमान जन्म और आयु प्राप्त हुई है । क्रियमाण कर्म वे हैं जिन्हें हम इस जन्म में नवीन कर्मों के द्वारा संग्रह करते हैं। भारतीय जीवन-दर्शन का पुनर्जन्म एवं कर्म - सिद्धान्त और भारतीय मनोविज्ञान का यह कर्म - संस्कार - सिद्धान्त अन्योन्याश्रित हैं। 

     

    ज्ञानज संस्कार, भावना - संस्कार एवं कर्म-संस्कार भले ही एक दूसरे से भिन्न हैं, किन्तु ये परस्पर सम्बन्धित हैं। इन्हें एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। ये ज्ञान, इच्छा और क्रिया के ही शक्तिरूप हैं। ज्ञान से इच्छा उत्पन्न होती है और इच्छा क्रिया की प्रेरक होती है। इस प्रकार इन तीनों प्रकार के संस्कारों की प्रक्रिया चलती है। 

    संस्कार - सिद्धान्त में यह बात भी महत्त्वपूर्ण है कि कोई भी संस्कार नष्ट नहीं होता, चाहे वह ज्ञानज संस्कार हो, संवेगात्मक हो अथवा कर्म - संस्कार हो । वे सभी अवचेतन अवस्था में दबे पड़े रहते हैं । उद्दीपन की परिस्थिति प्राप्त होते ही वे चेतनावस्था में आ जाते हैं। इसीलिये जीवन में कुसंस्कार समस्या बने रहते हैं। कुसंस्कार को अच्छे संस्कारों के द्वारा केवल प्रभावहीन बनाया जा सकता है तथा यह प्रयास करना पड़ता है कि कुसंस्कारों को उद्दीप्त करने वाले वातावरण से बचा जाये। यह प्रयास ज्ञानपूर्वक आत्मनिर्देशन के द्वारा ही सफल होता है, बलपूर्वक सम्भव नहीं होता । योग में अभ्यास के द्वारा संस्कारों को दग्धबीज किया जाता है। जिस प्रकार जले हुए बीज खेत में बोने पर अंकुरित नहीं होते, उसी प्रकार दग्धबीज संस्कार भी प्रभावहीन हो जाते हैं। यह योगाभ्यास की उच्च अवस्था में ही सम्भव होता है। 

     

    भारतीय मनोविज्ञान के अनुसार संस्कार- सिद्धान्त शिक्षा का मूलाधार है। संस्कारों के आधार पर ही शिक्षा के द्वारा बालक का शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास होता है। अधिगम की सम्पूर्ण क्रिया इस संस्कारसिद्धान्त पर ही आधारित है। आधुनिक मनोवैज्ञानिकों ने चूहों और कुत्तों पर प्रयोग करके अधिगम के विभिन्न सिद्धान्त निर्धारित किये हैं। भारतीय मनोविज्ञान में अधिगम के समस्त सिद्धान्त इन संस्कार - सिद्धान्तों के आधार पर सहस्रों वर्ष पूर्व सफलतापूर्वक प्रयुक्त किये जा चुके हैं। 

     

    वास्तव में शिक्षा स्वयं संस्कार - प्रक्रिया है । आधुनिक शिक्षा-प्रणाली में संस्कार - सिद्धान्त की घोर उपेक्षा की जा रही है, परिणामतः शिक्षा निष्फल हो रही है। अतः शिक्षा का आधार संस्कार-सिद्धान्त को बनाने की आवश्यकता है। ज्ञान के उपार्जन और बुद्धि के विकास में ही नहीं, बालकों के नैतिक चरित्र एवं सांस्कृतिक व्यक्तित्व के निर्माण में भी संस्कारों का बहुत महत्त्व होता है। हिन्दू समाज में सोलह संस्कारों की परम्परा मानव - प्रकृति के सांस्कृतिक उन्नयन की प्रक्रिया ही थी। समाज में यह संस्कार - परम्परा भी अब ढीली पड़ती जा रही है। उधर संस्कारों से शून्य शिक्षा नयी पीढ़ियों को मन से हीन बना रही है। अत: आज गम्भीर चिन्तन करने एवं वर्तमान स्थिति में सुधार लाने हेतु उपाय करने की आवश्यकता है। समाज और शिक्षालयों में नैतिक और सांस्कृतिक संस्कारों का वैभव बढ़ने पर ही स्वतन्त्र भारत एक गौरवशाली राष्ट्र बन सकता है। 

     

    व्यक्तित्व 

    व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास शिक्षा और मनोविज्ञान का मूल विषय है। आधुनिक मनोविज्ञान में व्यक्तित्व के अध्ययन को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है, किन्तु व्यक्तित्व को पूर्ण रूप से अभिव्यक्त करने वाली परिभाषा आधुनिक मनोवैज्ञानिकों द्वारा इसके अध्ययन के प्रति जागरुक रहते हुए भी अभी तक नहीं दी जा सकी है। आधुनिक मनोवैज्ञानिकों में प्रो० आलपोर्ट ने व्यक्तित्व की जो परिभाषा दी है, वह अधिक मान्य है। इनके अनुसार, " व्यक्तित्व व्यक्ति की उन मनोशारीरिक पद्धतियों का वह आन्तरिक गत्यात्मक संगठन है जो कि पर्यावरण में उसके अनन्य समायोजन को निर्धारित करता है। " 1 आधुनिक मनोविज्ञान व्यक्तित्व को केवल शरीर और मन का योग मानता है। " भारतीय दर्शन में व्यक्ति के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए आत्मा का उल्लेख किया गया है। मनुष्य न केवल शरीर है, बल्कि उसके भीतर एक ऐसी प्राण-शक्ति है जो आध्यात्मिक स्वरूप रखती है। दूसरे शब्दों में, मानव शरीर और आत्मा का एक समग्र पुंज है। मनुष्य के केवल शारीरिक, बौद्धिक अथवा भावात्मक व्यवहारों से उसके व्यक्तित्व का सही अनुमान नहीं लगाया जा सकता । 

     

    आधुनिक मनोविज्ञान ठीक-ठीक यह नहीं बता पाता है कि एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से क्यों भिन्न है? वह अपना विशिष्ट व्यक्तित्व क्यों रखता है? भौतिकवाद के ऊपर आधारित मनोविज्ञान व्यक्तित्व के विषय में बहुत से प्रश्नों के उत्तर नहीं दे पाता। उसके अनुसार तो मृत्यु के साथ व्यक्ति और व्यक्तित्व दोनों समाप्त हो जाते हैं। किन्तु अनुभव से वह सत्य सिद्ध नहीं होता । महान् आध्यात्मिक व्यक्तियों के व्यक्तित्व की उपस्थिति आज भी अनुभव होती है। राम, कृष्ण, बुद्ध, ईसा, विवेकानन्द, गांधी आदि महापुरुषों का व्यक्तित्व आज भी विद्यमान है। श्री अरविन्द आश्रम, पाण्डिचेरी में श्री अरविन्द एवं श्री माँ की उपस्थिति उनके शरीरान्त के पश्चात् आज भी प्रत्येक व्यक्ति अनुभव करता है । 

     

    अतः स्थूल शरीर के समाप्त हो जाने के पश्चात् भी व्यक्तित्व विद्यमान रहता है, यह भारतीय मनोविज्ञान की मान्यता तो है ही, हमारा अनुभव भी यही बताता है। 

     

    पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक व्यक्तित्व को वंश-परम्परा तथा वातावरण द्वारा प्रभावित होने वाला मानते हैं। उनका कहना है कि व्यक्तियों में भिन्नता वंशपरम्परा एवं वातावरण के कारण है। व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिक वाट्सन तो वातावरण को ही व्यक्तित्व का प्रधान निर्धारक मानते हैं। भारतीय मनोविज्ञान के अनुसार व्यक्तित्व के मुख्य निर्धारक तत्त्व व्यक्ति के संस्कार हैं। व्यक्ति के पूर्व-जन्मों के एवं वर्तमान जन्म के संस्कार मिलकर व्यक्तित्व का निर्धारण करते हैं। भारतीय मनोविज्ञान में व्यक्तित्व के सर्वांगपूर्ण स्वरूप का चिन्तन हुआ है। यहाँ व्यक्तित्व के स्वरूप के साथ उसके सर्वांगपूर्ण विकास की पद्धति भी विकसित हुई है। महर्षि पतञ्जलि के अष्टांग योग ने एवं आधुनिक काल में श्री अरविन्द के सर्वांगीण योग ने सामान्य जीवन को विकास के उच्चतम स्तर पर ले जाकर दिव्य जीवन में रूपान्तरित करना सम्भव बना दिया है। 

     

    श्री अरविन्द के अनुसार, “जीवन में मनुष्य का समस्त कर्म अन्तरात्मा की उपस्थिति और प्रकृति की क्रियाओं दोनों की अर्थात् पुरुष और प्रकृति की ग्रंथि है। पुरुष की उपस्थिति एवं उसका प्रभाव प्रकृति में हमारी सत्ता की एक विशेष शक्ति के रूप में अपने आपको प्रकट करता है। "1 भारतीय मनोविज्ञान में इसी को व्यक्तित्व कहा गया है जो आत्मा के प्रभाव से हमारी प्रकृति में शक्ति के रूप में प्रकट होता है। सामान्य मनुष्य, जो विकास की साधारण कोटि तक पहुँचा होता है, उसकी यान्त्रिक प्रकृति चिन्मय सत्ता (पुरुष) अर्थात् आत्मा को सीमित और परिच्छिन्न कर लेती है। जो मनुष्य प्रबलतर शक्ति से सम्पन्न होते हैं उनमें आत्मा की शक्ति अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में ऊपरी सतह पर आयी होती है और वे एक ऐसे व्यक्तित्व का विकास कर लेते हैं जिसे महान या शक्तिशाली कहा जाता है। 

     

    वास्तव में मनुष्य का सम्पूर्ण व्यक्तित्व उसकी चेतना के विकास पर आधारित है। जैसे-जैसे चेतना का ऊर्ध्वगमन होता है, मनुष्य का व्यक्तित्व खिल उठता है। 

     

    व्यक्तित्व का सर्वांगपूर्ण स्वरूप - पंचकोश 

    उपनिषदों में, जो भारतीय मनोविज्ञान के आधार हैं, व्यक्तित्व के अग्रलिखित पाँच स्तरों का उल्लेख मिलता है। श्री अरविन्द ने भी इन्हीं के आधार पर मानव व्यक्तित्व के पाँच सोपान बताये हैं- 

    (1) अन्नमय कोश, (2) प्राणमय कोश, (3) मनोमय कोश, (4) विज्ञानमय कोश, (5) आनन्दमय कोश । 

     

    अन्नमय कोश भौतिक शरीर है। इसे स्थूल शरीर भी कहते हैं। मनुष्य का शरीर एवं इन्द्रियाँ इस अन्नमय कोश के अंग हैं। यह अन्न से बने हुए रज-वीर्य से उत्पन्न होता है और उसी से बढ़ता है। इसी कारण इसका नाम अन्नमय कोश है। इसके पश्चात् दूसरा प्राणमय कोश है। प्राणिक शरीर भौतिक शरीर में स्थित जीवन को बनाये रखता है। यह जैविक एवं भावात्मक शक्तियों का स्रोत है । शरीर की समस्त क्रियाएँ इसी के द्वारा संचालित होती हैं। 

     

    प्राणमय कोश से अधिक सूक्ष्म तीसरा कोश मनोमय कोश है। यह मन, ज्ञानेन्द्रियों और तन्मात्राओं का धारक है। यह अन्नमय एवं प्राणमय कोशों में संकलन बनाये रखने का कार्य करता है। मन के संकल्प और विकल्प आदि का सम्बन्ध मनोमय कोश से है। यह भौतिक शरीर के विभिन्न इन्द्रियानुभवों एवं संवेदनाओं को ग्रहण करता है एवं सभी कोशों में परस्पर सम्बन्ध स्थापित करता है। 

     

    मनोमय कोश से भी सूक्ष्म एवं व्यापक विज्ञानमय कोश है। विज्ञानमय कोश निश्चयात्मक बुद्धि का स्तर है। यह अन्तर- प्रज्ञा अर्थात् सहज ज्ञान का अधिष्ठान है। अन्तिम एवं पाँचवाँ कोश आनन्दमय कोश है। इसी में प्रकाशरूप जीवात्मा अवस्थित है। इसे कारण शरीर, हिरण्मय कोश, लिंग शरीर भी कहते हैं। पुराणों में इसे ‘ज्योतिर्लिंग' के नाम से कहा गया है। 

     

    इस प्रकार भारतीय मनोविज्ञान में व्यक्तित्व के विकास के स्तर शरीर से आत्मा की ओर अर्थात् भौतिक पक्ष से आध्यात्मिक स्तर तक हैं। श्री अरविन्द ने आत्मा के लिये 'चैत्य' शब्द का प्रयोग किया है। उनके अनुसार सर्वांगीण व्यक्तित्व के विकास का केन्द्र-बिन्दु 'चैत्य' चेतना है । 

     

    अतः व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास का बाह्य पक्ष भौतिक, प्राणिक एवं मानसिक सोपानों पर आधारित है। व्यक्तित्व के आन्तरिक पक्ष का विकास आध्यात्मिक चेतना के जागरण पर प्रारम्भ होता है। पश्चिमी मनोविज्ञान मन के घेरे से बाहर निकलने में असमर्थ है। उनके मत से 'मानस' ही सर्वोच्च मानवीय तत्त्व है। भारतीय चिन्तन में व्यक्तित्व में मानस को नहीं, बल्कि आत्मा को सर्वोच्च तत्त्व माना है। 

     

    व्यक्तित्व के भेद 

    भारतीय चिन्तन में व्यक्तित्व के भेद अनेक प्रकार से किये गये हैं। आयुर्वेद में वात, पित्त, कफ के आधार पर, वात- प्रधान, पित्त प्रधान, एवं कफ-प्रधान तीन प्रकार के व्यक्ति बताये गये हैं, जिनके अनुसार उनका स्वास्थ्य, शरीर की बनावट, स्वभाव तथा व्यवहार होता है। योग में चित्त के आधार पर व्यक्तित्व का विभाजन कर मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र, निरुद्ध के भेद से पाँच प्रकार के व्यक्ति बताये हैं जिनका विवेचन पूर्व-प्रकरण में किया जा चुका है। 

     

    गीता में सांख्ययोग प्रतिपादित त्रिगुणात्मक प्रकृति के आधार पर व्यक्तित्व के भेद बताये गए हैं। सत्व, रज और तमस्-इन तीन गुणों में जिस एक गुण की प्रधानता अन्य दो गुणों की अपेक्षा होती है, उसी के आधार पर व्यक्तित्व का निर्धारण होता है। इन तीनों गुणों का अनुपात भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में भिन्न-भिन्न प्रकार का है। इसी कारण प्रत्येक व्यक्ति दूसरे से भिन्न होता है। गीता में इन तीनों गुणों के आधार पर व्यक्तित्व के तीन प्रकार बताये गए हैं। श्रीकृष्ण ने कहा है कि पृथ्वी में या स्वर्ग में अथवा देवताओं में ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है जो इन तीनों गुणों से रहित हो- 

     

    न तदस्ति पृथ्व्यिां वा दिवि देवेषु वा पुनः ।

    सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः ॥ गीता ( १८/४०) 

     

    सात्विक व्यक्तित्व 

     

    सात्विक व्यक्तियों का स्वभाव श्रद्धायुक्त, आस्थावान तथा ईश्वरपरायण होता है। सात्विक व्यक्तियों के समस्त कर्म आसक्ति एवं फलाशा से रहित और धर्मानुकूल होते हैं। वे सफलता और असफलता का ध्यान न रखते हुए केवल कर्तव्यबुद्धि से कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। उन्हें सात्विक भोजन प्रिय होता है, जिसके द्वारा आयु, बुद्धि, बल, स्वास्थ्य, सुख आदि की वृद्धि होती है। भाव प्रकाश में सात्विक व्यक्ति के लक्षण इस प्रकार बताये गए हैं- 

     

    आस्तिक्यं प्रविभज्य भोजनमनुत्तापश्च तथ्यं वचो ।

    मेधा बुद्धि धृतिक्षमाश्च करुणा ज्ञानं च निर्दम्भतो ।

    कर्मानिन्दितमस्पृहश्च विनयो धर्मे सदैवादरो ।

    ह्यतै ह्य सत्त्वगुणान्वितस्य मनसो गीता गुणा ज्ञानिभिः ॥ 

     

    आस्तिक्य, सत्-असत् विवेचनापूर्वक भोजन, अक्रोध, सत्यवचन का प्रयोग, मेधा, बुद्धि, धृति, क्षमा, करुणा, आत्मतत्त्व का ज्ञान, दंभहीनता, अनिन्दित कर्म का आचरण, अस्पृहा, विनय और यत्नपूर्वक धर्मानुष्ठान, ये सब सात्विक मन के कार्य हैं। जिनका मन सत्वगुणान्वित है, वे इस प्रकार के कर्म करते हैं। 

     

    राजसिक व्यक्तित्व 

    राजसिक व्यक्तित्व वाले व्यक्तियों की राजसिक श्रद्धा होती है। इनको राजसिक भोजन - खट्टा, तीक्ष्ण, अति उष्ण, उत्तेजक - प्रिय होता है जो कि दुःख, चिन्ता और अस्वास्थ्य को उत्पन्न करने वाला होता है। राजसिक व्यक्ति फल, मान और प्रतिष्ठा के लिये तप, यज्ञ आदि अच्छे कर्म करते हैं। उनमें विवेक बुद्धि नहीं होती। सफलता और असफलता में सुखी और दुखी होते रहते हैं। 

     

    क्रोधस्ताडनशीलता च बहुलं दुःखं सुखेच्छाधिका ।

    दम्भः कामुकताऽप्यलीकवचनं चाधीरता दुष्कृतिः ।

    ऐश्वर्ये ह्यभिमानितातिशयिताऽनन्दोऽधिकश्चारणम् ।

    प्रख्याता हि रजोगुणेन सहितस्यैते गुणाश्चेतसः ॥ 

     

    क्रोध, ताडनशीलता ( मार-पीट), अत्यन्त दुःख, सुख की इच्छा, दम्भ, कामुकता, मिथ्या भाषण, अधीरता अहंकार, ऐश्वर्य में अतिशय अभिमान, अधिक आनन्द और परिभ्रमण - ये सब राजसिक मन के लक्षण हैं। जिनका मन रजोगुणान्वित होता है, वे इस प्रकार के कार्यों में प्रवृत्त होते हैं। 

     

    तामसिक व्यक्तित्व 

    तामसिक व्यक्तित्व वाले व्यक्ति भूत, प्रेत, पिशाच आदि का पूजन करते हैं। वे पूजा के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ होते हैं। वे दूसरों के कष्टों को ध्यान में न रखते हुए समस्त कार्य करते हैं। वे घमण्डी, अपकारी, अज्ञानी, मूर्ख, धोखा देने वाले तथा विचारहीन होते हैं। वे सदैव उल्टा ही सोचते हैं। उनकी बुद्धि विपरीत दिशा में ही कार्य करती है। उनकी धारणा हर विषय के प्रति गलत होती है। वे अधपका, अपवित्र, बासी, नीरस, दुर्गन्धपूर्ण, उच्छिष्ट भोजन प्रिय होते हैं। वे दूसरों का अहित करने एवं पीड़ा पहुँचाने के लिये तप आदि करते हैं। ' 

     

    नास्तिक्यं सुविषण्णताऽतिशयितालस्यं च दुष्टामतिः ।

    प्रीतिर्निन्दितकर्मशर्मणि सदा निद्रालुताऽहर्निशम् ।

    अज्ञानं किल सर्वतोऽपि सततं क्रोधान्धता मूढ़ता।

    प्रख्याता हि तमोगुणेन सहितस्यैते गुणाश्चेतसः ॥2 

     

    नास्तिकता, अतिशय विषण्णता, अत्यन्त आलस्य, दुष्ट बुद्धि, सर्वदा निन्दित कर्मजनित सुख में प्रीति, रात-दिन निद्रालुता, अत्यन्त अज्ञानता, सदा क्रोध और मूर्खता ये तामसिक मन के लक्षण हैं। जिन व्यक्तियों का मन तमोगुणान्वित होता है, वे इस प्रकार के कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। 

     

    दैवी एवं आसुरी सम्पदा 

    श्रीमद्भगवद् गीता में व्यक्तित्व के त्रिगुणात्मक विभाजन के अतिरिक्त दैवी और आसुरी सम्पदा वाले दो प्रकार के व्यक्तित्व भी बताये गए हैं। दैवी सम्पदा वाले व्यक्तियों का अन्तःकरण शुद्ध होता है। वे अभय एवं सात्विक वृत्ति वाले होते हैं। दान, इन्द्रियों का दमन, यज्ञ, स्वाध्याय, तप, सरलता, अहिंसा, सत्य, अक्रोध, शान्त स्वभाव, किसी की निन्दा न करना, सब प्राणियों के प्रति दया, अलोलुपता, कोमलता, लोक और शास्त्र विरुद्ध आचरण में लज्जा, व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव, तेजस्विता, क्षमा, धैर्य, शौच, अद्रोह, अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव आदि गुणों से युक्त होना दैवी सम्पदा को प्राप्त हुए व्यक्तित्व के लक्षण हैं। 

     

    आसुरी व्यक्तित्व वाले पाखण्डी, घमण्डी, अभिमानी, क्रोधी, कटुभाषी और अज्ञानी होते हैं। उनका भौतिकवादी दृष्टिकोण होता है। वे ईश्वर को नहीं मानते। समस्त विश्व उनके लिये आधाररहित है । वे अपनी तुच्छ बुद्धि से सदैव विश्व के विनाश - कार्य में संलग्न रहते हैं। उनके समस्त क्रियाकलाप इन्द्रियों को सन्तुष्ट करने के लिये होते हैं। वे इन्द्रिय-सुखों को ही स्थायी सुख मानते हैं। अपने इन सुखों के लिये वे दूसरों को कष्ट देते, मारते और नष्ट करते हैं। आसुरी सम्पदा वाले व्यक्तियों को उचित और अनुचित का विवेक नहीं होता ।

     

    चतुर्विध व्यक्तित्व 

    व्यक्तित्व के उपर्युक्त विभाजन के अतिरिक्त श्री अरविन्द ने चतुर्विध व्यक्तित्व का उल्लेख्ख किया है। उन्होंने कहा है- " भगवान अर्थात् प्रकृति में अभिव्यक्त आत्मा अनन्त गुणों के महासिन्धु के रूप में लीला करता दिखाई देता है । परन्तु कार्यवाहिका या यान्त्रिक प्रकृति सत्व, रज और तम इन तीनों गुणों से निर्मित है और अनन्त गुणमय भगवान अर्थात् उनके अनन्त गुणों की आध्यात्मिक क्रीड़ा इस यान्त्रिक प्रकृति में अपने स्वरूप को इन तीन गुणों के विशिष्ट रूप में परिवर्तित कर देती है । मनुष्य की उपर्युक्त आत्मशक्ति में यह प्रकृतिगत भगवान चार प्रकार की कार्यक्षम शक्ति, चतुर्व्यूह के रूप में अपने आपको प्रकट करते हैं। वे चार शक्तियाँ ये हैं- ज्ञानशक्ति, पौरुष शक्ति ( क्षात्रशक्ति), पारस्परिकता और सक्रिय एवं उत्पादन- व्यवसायगत सम्बन्ध और आदान-प्रदान की शक्ति (वैश्य शक्ति) और कार्य-कलाप, श्रम एवं सेवा की शक्ति (शूद्र शक्ति)। भगवान की उपस्थिति समस्त मानव जीवन को इन चार शक्तियों को ग्रन्थि तथा बाह्याभ्यन्तर क्रिया के रूप में ढाल देती है। भारत के प्राचीन मनीषी सक्रिय मानव-व्यक्तित्व और प्रकृति के इस चतुर्विध विभेद से परिचित थे । अतएव उन्होंने इससे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्ररूपी चार वर्णों की सृष्टि की थी । " 1 

     

    श्रीमद्भगवद्गीता में भी श्रीकृष्ण ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र-इन चार प्रकार के व्यक्तियों का उल्लेख किया है। यह विभाजन कर्म तथा स्वभाव से उत्पन्न हुए गुणों के आधार पर किया गया है। 2 कालान्तर में, मानव स्वभाव के आधार पर किया गया यह विभाजन जन्मगत जातियों में रूढ़ हो गया और परिणामत: समाज में अज्ञानवश अनेक विकृतियाँ उत्पन्न हो गयीं। श्री अरविन्द ने इस चतुर्विध विभाजन को मनुष्य के जन्म से स्वीकार नहीं किया है। उन्होंने कहा है - " यह असंस्कृत बाह्य धारणा कि मनुष्य जन्म से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र रूप में और एक मात्र इसी रूप में पैदा होता है, हमारी सत्ता का मनोवैज्ञानिक सत्य नहीं है। मनोवैज्ञानिक तथ्य यह है कि हमारे अन्दर परम आत्मा की तथा उसकी कार्यवाहिका शक्ति की ये चार सक्रिय शक्तियाँ और प्रवृत्तियाँ हैं तथा हमारे व्यक्तित्व के अपेक्षाकृत सुगठित भाग में इनमें से किसी एक या दूसरे की प्रधानता के कारण ही हमें हमारी मुख्य प्रवृत्तियाँ, प्रभुत्वपूर्ण गुण और क्षमताएँ, कर्म और जीवन की प्रभावशाली दिशा प्राप्त होती है । परन्तु ये न्यूनाधिक मात्रा में सभी मनुष्यों में विद्यमान हैं। "3 

     

    उपर्युक्त विबेचन का निष्कर्ष यह है कि भारतीय मनोविज्ञान में व्यक्तित्व का सर्वांगपूर्ण विचार, मनोवैज्ञानिक आधार पर उसका विभाजन तथा उसके विकास के स्तर एवं पद्धति आदि सभी पक्षों पर गहन चिन्तन हुआ है। 

     

    योग विज्ञान 

    योग विज्ञान का इतिहास अति प्राचीन है। वैदिक ऋषियों ने ब्रह्मविद्या के साथ ही योग विद्या का आविष्कार किया। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि वैदिक मन्त्रों की रचना योगाभ्यास की उच्चतम भूमिकाओं का ही परिणाम है जिसे पतञ्जलि ने ऋतम्भरा प्रज्ञा कहा है। मानव का मन जब ब्रह्मरूप ऋत से संयुक्त हो जाता है तो ऋतम्भरा प्रज्ञा की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। उसी ऋतम्भरा प्रज्ञा की स्थिति में विश्व के जिन सत्यों का दर्शन होता है, वे ही वैदिक मन्त्रों में प्रकट हुए हैं। योग की उच्चतम भूमिका समाधि अवस्था है । उस समाधि अवस्था में सत्य - दर्शन की क्षमता जिन्हें प्राप्त हुई, वे ऋषि थे। अतः ऋषियों को मन्त्रद्रष्टा कहा गया है। 

     सत्य- दर्शन की अभिलाषा मानव का सहज धर्म है। भारतीय साधना के प्रत्येक क्षेत्र में सत्य के साक्षात्कार की जिज्ञासा रही है। सत्य ही सर्वसाधनाओं का साध्य रहा है। अतः भारतीय साधना के प्रत्येक क्षेत्र में योग का सर्वोच्च स्थान है। अविद्या के प्रभाव से मानव का चित्त स्वभावतः बहिर्मुख है। इस बहिर्मुख चित्त को अन्तर्मुख करने का प्रयत्न योग का प्राथमिक रूप है। कर्म के मार्ग से हो, चाहे ज्ञान के मार्ग से हो अथवा भक्ति मार्ग से हो अथवा अन्य किसी उपाय से हो, चित्त की एकाग्रता का सम्पादन साध्य की प्राप्ति हेतु आवश्यक है। एकाग्रता की उच्च अवस्था ही समाधि है। इस समाधि अवस्था में ही सत्य के दर्शन होते हैं। यही योग का परम उद्देश्य है। 

     

    'योग' शब्द संस्कृत की दो धातुओं से बना है, एक है युज जिसका अर्थ होता है 'समाधा', दूसरी है 'युजिर' जिसका अर्थ है युक्त करना, मिलना, ऐक्य । शरीर, मन और आत्मा की समग्र शक्तियों को साध्य में संयोजित करना ही योग है । मानव शरीर, मन एवं आत्मा का एक संगठित रूप है। शरीर पर नियन्त्रण, मन पर अनुशासन एवं आत्मा के गूढ़तम रहस्यों के उद्घाटन के साथ ही तीनों में संतुलन एवं समन्वय की स्थापना ही योग है। 

     

    योगदर्शन भारतीय षड्दर्शनों में से एक है। महर्षि पतञ्जलि ने इस दर्शन के सिद्धान्तों को 195 योग सूत्रों में संकलित किया है। पातञ्जल योग - सूत्र भारतीय मनोविज्ञान का आधारभूत एवं प्रामाणिक शास्त्र है। श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय में ध्यानयोग विषय का प्रतिपादन योगदर्शन का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रमाण है। योग व्यष्टि चेतना (जीवात्मा) का विश्व चेतना (परमात्मा) में मिलन है। इस मिलन के विभिन्न मार्ग हैं। क्रियाशील व्यक्ति निष्काम कर्म अर्थात् कर्मयोग के मार्ग से परमात्मा के दर्शन करता है। भावनाशील व्यक्ति भक्तियोग के मार्ग से उसे प्राप्त करता है, जहाँ उसे अपने आराध्यदेव के प्रति अनन्य प्रेम और भक्ति से अनुभूति प्राप्त होती है। बुद्धिमान मनुष्य ज्ञानयोग का अनुसरण करता है, जहाँ ज्ञान से उस परम चेतना के अस्तित्व का बोध होकर उससे एकता प्राप्त करता है। ध्यानी पुरुष मन के संयम द्वारा उसका साक्षात्कार करता है। इन्द्रियों का राजा मन है। जिसका अपने मन पर अधिकार है, वह राजयोगी है। पतञ्जलि ने मन को वश में करने के साधन बताये हैं और उसे 'अष्टांग योग' कहा है। अष्टांग योग ही राजयोग है। 'हठयोग प्रदीपिका' के रचयिता स्वात्माराम ने इसी मार्ग को 'हठयोग' कहा है, क्योंकि इसमें कठिन अनुशासन की आवश्यकता होती है। 

     

    अष्टांग योग 

    पातञ्जल अष्टांग योग के आठ अंग निम्नलिखित हैं :1 

     

    यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि । यम, नियम योग की आधारशिलाएँ हैं। इनसे चित्तशुद्धि होती है। इनके पालन से साधक का विकारों और वासनाओं पर नियन्त्रण स्थापित होता है। 

     

    यम, नियम का पालन केवल साधक के लिये ही नहीं, अपितु सबके लिये आवश्यक है । इनके पालन के बिना समाज की व्यवस्था सुचारु रूप से चल ही नहीं सकती। 

     

    1. यम अर्थात् सार्वभौम नैतिक कर्त्तव्य 

    अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहाः यमाः ।

     

    (क) अहिंसा - मन, वाणी और कर्म से किसी प्राणी को किसी प्रकार का कष्ट न देना। 

    (ख) सत्य - मन में समझे गये के अनुसार ही दूसरों से कथन करना । 

    (ग) अस्तेय - मन से भी किसी के धन आदि वस्तु को बिना उसकी अनुमति के ग्रहण करने की इच्छा न करना । 

    (घ) ब्रह्मचर्य - समस्त इन्द्रियों के निरोध के द्वारा पूर्ण मानसिक पवित्रतापूर्वक काम-वासना पर संयम रखना । 

    (ड.) अपरिग्रह - आवश्यकता से अधिक वस्तुओं, धन आदि का संग्रह न करना । 

     

    2. नियम अर्थात् अनुशासन द्वारा चित्त की शुद्धि 

    शौचसंतोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः ।।

    (क) शौच- आभ्यन्तर तथा बाह्य शुद्धि । 

    (ख) संतोष- प्रत्येक स्थिति में प्रसन्न रहते हुए सभी प्रकार की तृष्णा से मुक्त होना । 

    (ग) तप - भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख, मान-अपमान, हर्ष - शोक आदि द्वन्द्वों को सहन करने की शक्ति जगाना ।

    (घ) स्वाध्याय - वेद, उपनिषद्, योगदर्शन, गीता आदि आध्यात्मिक ग्रन्थों का अध्ययन एवं प्रणव आदि मन्त्रों का जप करना ।

    (ड.) ईश्वर - प्रणिधान - फल सहित समस्त कर्म एवं इच्छाएँ ईश्वर को समर्पित करना । 

     

    3. आसन 

    योग का तीसरा अंग 'आसन' अर्थात् शारीरिक स्थिति है। आसन से स्थिरता, स्वास्थय तथा अंगों में हल्कापन आता है। स्थिर और सुखकर शारीरिक स्थिति मानसिक सन्तुलन लाती है और मन की चंचलता को रोकती है। आसन शारीरिक व्यायाम मात्र नहीं हैं, वे शारीरिक स्थितियाँ हैं । उनका अभ्यास करने से चपलता, सन्तुलन, धैर्य और चेतना का विकास होता है। शरीर की प्रत्येक मांसपेशी, नाड़ी और ग्रन्थि को प्रयोग में लाने एवं उनका व्यायाम करने के लिये आसनों का विकास हुआ है। योगासनों के अभ्यास से स्नायुओं, सूक्ष्म अवयवों तथा ग्रन्थियों का मृदुमर्दन होता है, जिससे उनकी कार्य-प्रणाली का सुधार होता है तथा नियन्त्रित रखकर उन्हें सदैव स्वस्थ रखा जाता है। हठयोग में आसनों का 

     

    मुख्य कार्य शरीर को स्वस्थ, नीरोग और हल्का बनाना है। आसनों के अभ्यास से साधक शरीर पर विजय प्राप्त करता है और उसे साधना के योग्य बनाता है। 

     

    4. प्राणायाम 

    प्राण स्थूल व सूक्ष्म शक्ति है जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। यह प्राणशक्ति समस्त जीव तथा वनस्पति जगत् में सक्रिय रूप से विद्यमान है। मानव शरीर में इस प्राण-शक्ति का दक्षतापूर्वक संचालन करना प्राणायाम का लक्ष्य है। प्राण का तात्पर्य श्वास-प्रश्वास या उसकी प्रक्रिया से लिया जाता है, जो उचित नहीं है। प्राण तो विद्युत् तत्त्व है जो श्वास-प्रश्वास को भी चलाता है। यह वह ऊर्जा है जो शरीर को जीवन्त रखती है । ब्रह्माण्ड में जो भी गतिशील, विकासशील और सक्रिय है, उसके अस्तित्व का रहस्य प्राण ही है। 

     

    आयाम' का अर्थ लम्बाई, विस्तार, कसाव या प्रतिरोध है । प्राणायाम शब्द का अर्थ श्वास के माध्यम से प्राणतत्त्व का विस्तारण एवं नियन्त्रण है। प्राणायाम क्रिया में श्वास को फुफ्फुस में भरना 'पूरक', रिक्त करना 'रेचक' एवं रोकना 'कुम्भक' कहलाता है। प्राणायाम के अभ्यास से मन का नियन्त्रण सरलता से हो जाता हैं क्योंकि प्राण और मन का घनिष्ठ सम्बन्ध है। कहा गया है कि जिस प्रकार अग्नि द्वारा धातुओं का मल नष्ट होता है, उसी प्रकार प्राणायाम द्वारा इन्द्रियों के मल अर्थात् वासनाओं को क्षीण करके चित्त को शुद्ध किया जाता है। प्राणायाम द्वारा चक्रों पर चित्त को केन्द्रित करके कुण्डलिनी शक्ति का जागरण किया जाता है। प्राणायाम से ब्रह्मचर्य की धारणा दृढ़ होती है। 

     

    5. प्रत्याहार 

    यम, नियम, एवं आसन का अभ्यास दृढ़ हो जाने के पश्चात् साधक प्राणायाम के अभ्यास के योग्य होता है। प्राणायाम के अभ्यास से चित्त की चंचलता नष्ट हो जाती है। उसका व्यापार बन्द हो जाता है। फलत: इन्द्रियाँ भी फिर विषयों में प्रवृत्त नहीं होतीं । इन्द्रियों का अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त न होकर चित्त में लीन होना प्रत्याहार है। प्रत्याहार शब्द का अर्थ ही पीछे जाना या वापस होना है। इन्द्रियों का विषयों की ओर न जाकर बुद्धि तत्त्व की ओर अन्तर्मुखी होना ही प्रत्याहार की अवस्था मानी जाती है। प्रत्याहार सिद्ध होने पर साधक पूर्ण रूप से जितेन्द्रिय हो जाता है। 

    यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार - योग के ये पाँच बहिरंग साधन हैं जिनका अभ्यास दृढ़ हो जाने पर साधक धारणा, ध्यान, समाधि के अभ्यास के योग्य हो जाता है। 

     

    6.धारणा 

    जब शरीर को आसनों द्वारा साधा गया है, जब मन प्राणायाम की अग्नि से सुसंस्कृत और पवित्र किया गया है और जब इन्द्रियाँ प्रत्याहार द्वारा वश में की गयी हैं, तब साधक धारणा नामक योग की छठी अवस्था को प्राप्त करता है। महाभारत में वर्णित अर्जुन के एक उदाहरण द्वारा धारणा का तात्पर्य स्पष्ट होता है । गुरु द्रोण ने राजकुमारों की प्रवीणता की परीक्षा लेने हेतु धनुर्विद्या- प्रतियोगिता का आयोजन किया। वृक्ष पर बैठे पक्षी की आँख का लक्ष्य भेदन करना था । एक-एक करके राजकुमार बुलाये गये और उन्हें लक्ष्य भेद करते समय क्या दिखाई दे रहा है, उसका भी वर्णन करने के लिये कहा गया। अर्जुन के अतिरिक्त सभी राजकुमारों ने पक्षी, वृक्ष, घोंसला आदि दिखाई दे रहा है, इसका वर्णन किया। केवल अर्जुन ने कहा, “गुरु जी, मुझे केवल पक्षी की आँख दिखाई दे रही है।" यह अवस्था ही धारणा की अवस्था है। 

    जब मन की ऐसी अवस्था उत्पन्न हो जाये कि लक्ष्य के अतिरिक्त अन्य विषय साधक के मन में न रहे, तब वह धारणा की अवस्था को प्राप्त होता है। 

     

    7.ध्यान 

     

    धारणा के विषय में चित्त का व्यवधानरहित निरन्तर प्रवाहित होते रहना ध्यान है। ध्यानावस्था में चित्त ध्येय वस्तु में पूर्णरूपेण एकाग्र हो जाता है, उसमें दूसरी वृत्ति का बिलकुल उदय नहीं होता । धारणा में बीच-बीच में दूसरी वृत्तियाँ उठ जाया करती हैं, किन्तु ध्यान में एक ही वृत्ति धारारूप से निरन्तर प्रवाहित होती रहती है। धारणा की परिपक्वता ही ध्यान है। ध्यान की आदर्श अवस्था प्राप्त कर साधक योग की अन्तिम अवस्था 'समाधि' में प्रवेश करता है। 

     

    8. समाधि 

    ध्यान की पराकाष्ठा समाधि है। ध्यान का अभ्यास करते-करते जब ध्यान करने वाला, ध्यान की शक्ति तथा ध्येय, इन तीनों की स्वतन्त्र सत्ता समाप्त - सी हो जाय तब वही समाधि अवस्था कहलाती है। समाधि की अवस्था में प्रज्ञा उत्पन्न होती है जिसे समाधिजन्य बुद्धि कहा जाता है । समाधि की कई अवस्थाएँ है, जिनका विशद विवेचन पातञ्जल योग सूत्रों में किया गया है। 

     

    नाड़ीमण्डल, चक्र एवं कुण्डलिनी शक्ति 

    योगाभ्यास के लिये शरीर का ज्ञान अति आवश्यक है। इसी कारण योग विषयक सभी ग्रन्थों में शरीर विज्ञान का विवेचन प्राप्त होता है। योग उपनिषदों में नाड़ीमण्डल (Nervous System) के विषय में बहुत सुन्दर विवेचन किया गया है। सुषुम्ना की स्थिति तथा उससे समस्त नाड़ियों का सम्बन्ध शास्त्रों में लगभग आधुनिक शरीरविज्ञान के समान ही प्राप्त होता है। अनेक स्थल ऐसे हैं जिनसे यह प्रतीत होता है कि शरीरविज्ञान का ज्ञान प्राचीन काल में आज के ज्ञान से कहीं अधिक था। आयुर्वेद के ग्रन्थों-सुश्रुत शरीर-स्थानम् एवं चरक शरीर- र-स्थानम् में भी शरीरविज्ञान का विशद विवेचन मिलता है। 

    उपनिषदों में शरीर को अन्नमय कोश कहा गया है। वेदों में इसे देवपुरी अयोध्या कहा है- 

     

    अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पुर्ययोध्या । 

    तस्यां हिरण्मयः कोश: स्वर्गो ज्योतिषावृतः ॥ ' 

     

    इस शरीर के भीतर सूक्ष्म रूप से समस्त ब्रह्माण्ड विद्यमान है। 2 तन्त्रशास्त्र में नाड़ियों, चक्रों आदि शक्ति केन्द्रों का वर्णन अधिक उपलब्ध है।

     

    नाड़ीमण्डल एवं चक्र 

    शिव संहिता में साढ़े तीन लाख नाड़ियों का उल्लेख मिलता है। त्रिशिखि ब्राह्मणोपनिषत् में तथा अन्य योग उपनिषदों में बहत्तर हजार नाड़ियों का विवेचन मिलता है। नाड़ियों की संख्या में यह अन्तर नाड़ियों के उपविभाजन के कारण हो सकता है। स्थूल शरीर में इन नाड़ियों का जाल - सा बिछा है। शरीर का कोई भी अंग, छोटा या बड़ा, नाड़ियों से रिक्त नहीं है । नाड़ियों के द्वारा ही शरीर की समस्त क्रियाएँ सम्पन्न होती हैं। नाड़ियों के द्वारा ही सम्पूर्ण शरीर के विभिन्न अंगों में पारस्परिक सम्बन्ध बना रहता है और शरीर एक इकाई के रूप में कार्य करता है | दर्शनोपनिषत् में बहत्तर हजार नाड़ियों में से चौदह प्रमुख नाड़ियों के नाम दिये हैं। ये चौदह नाड़ियाँ हैं - सुषुम्ना, इड़ा, पिंगला, गान्धारी, हस्त - जिह्विका, कुहू, सरस्वती, पूषा, शंखिनी, पयस्विनी, वरुणा, अलम्बुसा, विश्वोदरी, यशस्विनी । शिवसंहिता में भी इन चौदह नाड़ियों के ये ही नाम मिलते हैं। इन चौदह नाड़ियों में इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना तीन मुख्य हैं। इनका विस्तृत विवेचन प्रत्येक योग-ग्रन्थ में मिलता है। इनमें भी सुषुम्ना का महत्त्व योग में सर्वोच्च है। मेरुदण्ड के भीतर इड़ा, पिंगला के मध्य में सुषुम्ना की स्थिति बतायी गई है। इसे ब्रह्मनाड़ी भी कहा गया है। यह मूलाधार से प्रारम्भ होकर ब्रह्मरन्ध्र में पहुँचती है। तन्त्रों में मस्तिष्क और सुषुम्ना को ही चेतना का केन्द्र माना गया है। ब्रह्मरन्ध्र के मुख पर आज्ञाचक्र में इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना मिलती हैं। शिव-संहिता में इड़ा को गंगा, पिंगला को यमुना और सुषुम्ना को सरस्वती कहा है। इसीलिये शरीर के भीतर इस त्रिवेणी संगम-स्थान को प्रयागराज कहा गया है। इस संगम पर ही योगी ध्यान केन्द्रित करते हैं। 

    पिंगला को सूर्य नाड़ी तथा इड़ा को चन्द्र नाड़ी भी कहते हैं । नाड़ी मानसिक मार्ग को कहते हैं । नाड़ियों में प्राण - शक्ति विद्युत् के समान प्रवाहित होकर शरीर में चेतना तथा प्राण का वितरण एवं नियन्त्रण करती है। प्राणायाम की क्रिया का सम्बन्ध भी इन नाड़ियों से ही है । सुषुम्ना में ही समस्त चक्रों की स्थिति बतायी है। इन चक्रों का विवरण वेदों, उपनिषदों एवं समस्त योग-ग्रन्थों में मिलता है। ये चक्र मानसिक शक्ति केन्द्र हैं। इन केन्द्रों का ज्ञान शरीर की शल्यक्रिया से नहीं वरन् मानसिक अन्तरावलोकन द्वारा प्राप्त होता है। 

     

    1. मूलाधार चक्र 

    मूलाधार चक्र सुषुम्ना के सबसे नीचे स्थित है, अतएव इसे आधार चक्र भी कहा जाता है। यह प्रकृति में पृथ्वी तत्त्व से सम्बन्धित है। यह मानसिक अस्तित्व का आधार है। यह कुण्डलिनी या आध्यात्मिक शक्ति का अधिष्ठान है। 

     

    2. स्वाधिष्ठान चक्र 

    स्वाधिष्ठान का शाब्दिक अर्थ 'स्वयं का निवास' है। अवचेतन मन से सम्बन्धित यह दूसरा चक्र है । यह चक्र अवचेतन मन में समस्त संस्कारों तथा सुदूर आनुवंशिक स्मृतियों का भण्डारगृह है। भौतिक शरीर में इसका सम्बन्ध प्रजनन तथा उत्सर्जक अंगों से है। यह चक्र उपस्थ के मूल में स्थित है। इसका सम्बन्ध जल तत्त्व से है। 

     

    3. मणिपूर चक्र 

    यह चक्र सुषुम्ना में कुछ ऊपर चलकर नाभिस्थान में स्थित है। यह अग्नि तत्त्व का केन्द्र है। इसका सम्बन्ध शरीर की जीवन-शक्ति एवं ऊर्जा से है। मणिपूर चक्र प्राणतत्त्व का उत्पादन केन्द्र है। 

     

    4. अनाहत चक्र 

    यह चक्र मेरुदण्ड में हृदय प्रदेश के पीछे स्थित है। यह चक्र गहरे ध्यान की स्थिति में सुनाई पड़ने वाली अनाहत ध्वनि का केन्द्र है। यह संवेदनाओं और ईश्वर-प्रेम का केन्द्र - स्थल माना जाता है। यहीं ईश्वर के लिये प्रेम संचित होकर दिव्यानुभूति में परिणत होता है। जीवात्मा का यही स्थान माना जाता है। 

     

    5. विशुद्ध चक्र 

    इस चक्र की स्थिति कंठकूप के पीछे मेरुदण्ड में मानी जाती है। यह आकाशतत्त्व-प्रधान चक्र है । यह वाक् शक्ति का स्थान है। भाषा तथा सप्त स्वरों का यह उद्गम स्थान है। 

     

    6. आज्ञा चक्र 

    यह चक्र भ्रूमध्य के पीछे स्थित है। यह इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना - तीनों नाड़ियों का संगम - केन्द्र है। यह ज्ञानात्मक शक्तियों का केन्द्र है। इसी को तृतीय ज्ञाननेत्र कहा जाता है। इस पर ध्यान करने वाला योगी दिव्य दृष्टि प्राप्त करता है। योगविज्ञान में आज्ञा चक्र का अत्यधिक महत्त्व है। 

     

    7. बिन्दु चक्र 

    सिर के सर्वोच्च स्थान में, जहाँ हिन्दू परम्परानुसार चोटी रखते हैं, यह बिन्दु चक्र स्थित है। इसको सोम चक्र भी कहते हैं। 

     

    8. सहस्रार चक्र 

    अन्य चक्रों में सहस्रार की स्थिति सर्वोच्च है। ऐसा माना जाता कि इस चक्र में अन्य सभी चक्र समाहित हैं। यह सम्पूर्ण चेतना का केन्द्र है। यह शिव (उच्चतम चेतना) एवं शक्ति (सूक्ष्म प्राण) का परम मिलन-स्थान है। इस चक्र को ब्रह्मरन्ध्र, दशम द्वार भी कहते हैं। 

     

    कुण्डलिनी शक्ति 

    कुण्डलिनी वह महाशक्ति है जो प्रत्येक व्यक्ति में विद्यमान है। प्राणशक्ति ही कुण्डलिनी के नाम से जानी जाती है। कुण्डलिनी का तात्पर्य कुण्डली मारकर बैठे हुए उस सर्प के समान है जो मूलाधार चक्र में स्थित है। कुण्डली मारकर बैठा सर्प मनुष्य में छिपी अपार शक्ति का प्रतीकात्मक वर्णन है। इस शक्ति की सुप्तावस्था में सुषुम्ना मार्ग बन्द रहता है और तब प्राणशक्ति इड़ा और पिंगला में होकर बहती रहती है। 

     

    कुण्डलिनी शक्ति के जागरण में यह सर्प रूपी शक्ति अपनी कुण्डली खोलकर एक-एक करके प्रत्येक चक्र को भेदते हुए ऊपर चढ़ती है। यह आरोहण सुषुम्ना नाड़ी में होता है तथा परम चेतना के अधिष्ठान सहस्रार चक्र में जाकर समाप्त हो जाता है। सभी चक्र विद्युत् के 'स्विच' के समान हैं जो प्रत्यक्ष रूप से सहस्रार से सम्बन्धित सम्बन्धित हैं। जब ये सक्रिय होते हैं तो चेतना क्रम से जाग्रत होने लगती है। इस प्रक्रिया की पूर्णता ही समाधि है । समाधि को तन्त्र - शास्त्रों में दो विरोधी तत्त्वों का मिलन कहा है। इसी को शिव और शक्ति, परमात्मा और आत्मा, पुरुष और प्रकृति, विश्व चेतना और व्यष्टि चेतना का मिलन कहते हैं। यही योग है। 

    कुण्डलिनी शक्ति शरीर के शुद्ध और सूक्ष्म होने पर - सात्विक विचार, शुद्ध अन्तःकरण, ईश्वर की सच्ची भक्ति और परिपक्व वैराग्य की अवस्था में- एकाग्रता अर्थात् निश्चल ध्यान से जाग्रत होती है। श्री अरविन्द ने भी कुण्डलिनी शक्ति के जागरण की चर्चा 'योगसमन्वय' के राजयोग प्रकरण में की है। उन्होंने कहा है- “हमारी सत्ता की वास्तविक शक्ति हमारे प्राण-संस्थान की गहराइयों में प्रसुप्त और निश्चेतन पड़ी हुई है और प्राणायाम के अभ्यास से वह जाग उठती है। "1 

     

    मातृका शक्ति 

    मातृका का अर्थ वर्णमाला है। संस्कृत वर्णमाला के 50 वर्णों का सीधा सम्बन्ध हमारे शरीरस्थ शक्ति केन्द्रों एवं चक्रों से है । वर्णों को अक्षर भी कहते हैं। अक्षर का अर्थ है जो नष्ट न हो। अक्षर ध्वनि विशेष हैं। यह विज्ञान-सिद्ध है कि ध्वनि कभी नष्ट नहीं होती। इस सिद्धान्त का ज्ञान भारतीय ऋषियों को था, अतः वर्ण को उन्होंने अक्षर संज्ञा प्रदत्त की । ध्वनि की उत्पत्ति कम्पन से होती है। इस कम्पन की गुरुता एक से दस 'डेसीबेल' तक होती है। ध्वनि का प्रभाव शरीर के संगठन में भौतिक परिवर्तन लाता है। ध्वनि एक ऊर्जा है। इसको तीव्रता की उस सीमा तक एकाग्र किया जा सकता है कि वस्तुएँ बिखर कर नष्ट होती देखी गयी हैं । ध्वनि में सुर, स्वर, तीव्रता तथा कुछ विशेष सूक्ष्म गुण होते हैं। ऋषियों ने इन तथ्यों को अनुभव किया और उसी आधार पर संस्कृत वर्णों की रचना की। 

     

    वर्णमाला का प्रत्येक अक्षर एक ध्वनि विशेष शक्ति है। इनका सम्बन्ध सुषुम्नागत चक्रों से है। विशुद्ध चक्र में 16 स्वर, अनाहत में क से ठ तक 12 अक्षर, मणिपूर में ड से फ तक 10 अक्षर, स्वाधिष्ठान में ब से ल तक 6 अक्षर, मूलाधार में व श ष स 4 अक्षर और आज्ञाचक्र में क्ष तथा ह 2 अक्षर माने जाते हैं। इन वर्णों से सम्बन्धित शक्तियाँ इन चक्रों में स्थित हैं। वर्णों के शुद्ध उच्चारण से इन चक्रों की शक्तियाँ जाग्रत होती हैं। मंत्रों की रचना भी इसी सिद्धान्त पर आधारित है और मंत्रों के जप से शक्ति जागरण का भी यही रहस्य है। प्राचीन ऋषियों को ध्वनि-विज्ञान का उच्च ज्ञान प्राप्त था। यह ज्ञान मंत्र - शक्ति में छिपा हुआ है। 

     

    वाणी (वाक् शक्ति) का मूल स्थान भी मूलाधार चक्र है । यहाँ वाणी का नाम 'परा' है। मणिपूर चक्र में इस परा नामक वाणी को गति प्राप्त होकर उसका नाम 'पश्यन्ती' पड़ा है। अनाहत चक्र में उस वाणी को भाव मिलता है और उसे 'मध्यमा' कहा जाता है। विशुद्ध चक्र में उसे 'वैखरी' कहते हैं जहाँ वाणी वाक् शक्ति ( मुख से बोली जाने वाली) के रूप में प्रकट होती है। वाणी को सरस्वती भी कहा गया है। 

     

    ॐ (ओ३म् ) 

    ॐ की ध्वनि को आदि शब्द माना गया है। इसे नाद ब्रह्म भी कहा जाता है । ॐ के लिये दूसरा शब्द प्रणव है । ॐ प्रतीकात्मक शब्द है जो ब्रह्म एवं परमात्मा का वाचक है। कहा जाता है कि ब्रह्म के द्वारा सृष्टि का आरम्भ होते समय प्रकाश की हलचल से जो सर्वप्रथम कम्पन हुआ उस कम्पन में से ॐ की ध्वनि निकली। परमाणुओं की हलचल से उत्पन्न कम्पन में यह ध्वनि होती रहती 

    है। ॐ शब्द अ, उ, म् तीन अक्षरों से बना है। लिखते समय मात्रा के रूप में अर्द्धचन्द्र और एक बिन्दु लगाया जाता है । ॐ की ध्वनि का नाड़ी केन्द्रों पर एवं प्राण की तरंगों पर चमत्कारिक प्रभाव होता है। मस्तिष्क में 'ऐल्फा', 'बीटा' और 'गामा' तरंगें ॐ की ध्वनि से सक्रिय एवं सन्तुलित होती हैं। मन पूर्णत: शान्त एवं एकाग्र हो जाता है। इस ध्वनि से नाड़ी केन्द्रों की अर्थात् चक्रों की चेतना - शक्ति जाग्रत होती है एवं मस्तिष्क की शक्तियाँ बढ़ती हैं। ॐ के विधिवत् उच्चारण से हृदयरोग आदि अनेक व्याधियों का निवारण होता है । ॐ के जप से शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास होता है। ॐ की ध्वनि का जप सभी भारतीय धर्मों में स्वीकार किया गया है। विद्यालयों में ॐ की ध्वनि को दैनिक प्रार्थना का अंग बनाना चाहिए तथा शिक्षण कार्य ॐ की ध्वनि से प्रारम्भ करना चाहिए। इससे मस्तिष्क शान्त एवं एकाग्र होता है, जो ज्ञानार्जन हेतु आवश्यक है। 

     

    योग एवं शिक्षा 

    पूर्वोक्त विवेचन का निष्कर्ष यह है कि योग-विज्ञान का उपयोग प्राचीन शिक्षा-पद्धति का अभिन्न अंग था। वर्तमान शिक्षा-प्रणाली में इस अमूल्य विज्ञान का उपयोग किस प्रकार हो सकता है, यह विषय शिक्षाशास्त्रियों के लिये विचारणीय है। 

     

    योगविज्ञान भारतीय मनोविज्ञान का व्यावहारिक रूप है। इसको शिक्षा का आधार बनाना परमावश्यक है, तब ही हमारी शिक्षा सही अर्थों में फलदायक होगी । परमेश्वर द्वारा प्रदत्त हमारे इस भौतिक शरीर में अपार शक्तियाँ विद्यमान हैं। परन्तु वे शक्तियाँ सुप्त पड़ी हुई हैं। आधुनिक मनोविज्ञान का कथन है कि मनुष्य के मस्तिष्क का केवल दसवाँ भाग ही उपयोग में आता है, शेष भाग सुप्त है। यह सुप्त भाग योग के अभ्यास द्वारा ही जाग्रत किया जा सकता है। योगाभ्यास द्वारा मानसिक शक्तियों का विकास होता है, यह विज्ञान-सिद्ध है। लेखक स्वयं आगरा के डा० सुभाष जैन से परिचित है, जो मानसिक विकास की दृष्टि से सामान्य स्तर के थे। किन्तु एक योगी के निर्देशन में उन्होंने प्राणायाम एवं योगनिद्रा का तीन मास तक अभ्यास किया। उसके फलस्वरूप उनकी स्मृतिशक्ति इतनी जाग्रत हो गयी है कि जो वह एक बार सुनते हैं अथवा पढ़ते हैं, वह उनकी चेतन स्मृति का स्थायी अंग बन जाता है। आज हम असाधारण अशांति के काल में हैं। प्रायः प्रत्येक व्यक्ति वर्तमान जीवन के प्रति असन्तुष्ट है और परिस्थितियों के साथ स्वयं को समायोजित कर पाने में अक्षम दिखाई देता है। आज का व्यक्ति प्रत्येक क्षण टूटने के चरम बिन्दु पर है। इस परिस्थिति में उसमें पाशविक आक्रोश का विस्फोट होना स्वाभाविक है। हमारा युवा एवं छात्र वर्ग इससे सर्वाधिक ग्रस्त है। 

    हम इस समस्या की गहराई में पहुँचने का प्रयास ही नहीं करते और सरलता से इस प्रश्न को देश की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक समस्याओं से जोड़ देते हैं। कुछ हमारी शिक्षा-पद्धति को दोष देते हैं। शिक्षा में सुधार के प्रयास भी हुए, परन्तु समस्या का समाधान बाह्य परिवेश में परिवर्तन लाने में खोजते हैं। परिणामत: सभी प्रयास विफल हुए हैं। 

     

    वास्तव में आज की यह समस्या मनो-शारीरिक के अतिरिक्त कुछ नहीं है। जब मनुष्य का नाड़ी केन्द्र - विशेष, जिस पर उनका व्यवहार निर्भर रहता है, उत्तेजित हो जाता है, उस समय वह अपनी विवेक शक्ति खो देता है। इस अवस्था में कोई भी बौद्धिक तर्क या उपदेश उसके व्यवहार में परिवर्तन नहीं ला सकते। हमारी प्राचीन योगविद्या की पद्धति ही इसका एक सही समाधान है। आसन, प्राणायाम एवं ध्यान के अभ्यास से उत्तेजित नाड़ी केन्द्र सन्तुलित एवं शान्त हो जाते हैं एवं विक्षिप्त अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ नियमित स्त्राव करती हैं। इनके अभ्यास से स्वतः गम्भीरता उत्पन्न होती है। योग से व्यक्ति के सात्विक आचार-विचार बनते हैं। अतः यह आवश्यक है कि शिक्षाशास्त्री इस सनातन भारतीय विद्या का अध्ययन करें एवं योग को शिक्षा-पद्धति का आधार बनायें। 

     

    शिक्षा ज्ञान की साधना है। ज्ञान आत्मा का प्रकाश है। मनुष्य को ज्ञान बाहर से प्राप्त नहीं होता, वरन् आत्मा के अनावरण से ही ज्ञान का प्रकटीकरण होता है। वास्तव में मनुष्य की इस अन्तर्निहित ज्ञान-शक्ति को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है। इस ज्ञान की प्राप्ति का एकमात्र मार्ग एकाग्रता है। चित्त की एकाग्र अवस्था में ही आत्मा के प्रकाश से विषयों का यथार्थ ज्ञान होता है। भारतीय चिन्तन में चित्तवृत्ति निरोध को ही शिक्षा का लक्ष्य माना गया है। चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है। वास्तव में योग-साधना शिक्षा की प्रणाली है। योग आधारित शिक्षा ही यथार्थ में शिक्षा है। 

     


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