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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ्यक्रम निर्धारण के सिद्धान्त 

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    Vidyasagar.Guru

     

    शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति का माध्यम - पाठ्यक्रम 

    किसी भी देश में उसके संविधान का जो स्थान होता है, शिक्षा जगत् में वही स्थान पाठ्यक्रम का है। पाठ्यक्रम शिक्षा की आत्मा का प्रतिनिधित्व करता है । पाठ्यक्रम को अंग्रेजी भाषा में 'करीकुलम' कहते हैं। करीकुलम लातिन भाषा के 'कुरेंर' शब्द से बना है, जिसका अर्थ है 'दौड़ का मैदान'। उसका लाक्षणिक अर्थ हो गया 'शिक्षा के क्षेत्र में विद्यार्थी की प्रगति का क्षेत्र'। पाठ्यक्रम के माध्यम से ही छात्र द्वारा शिक्षा के लक्ष्य प्राप्त किये जाते हैं। पाठ्यक्रम उन सभी क्रियाओं और अनुभवों का योग है जो ज्ञानार्जन एवं छात्रों के सर्वांगीण विकास के निमित्त विद्यालय के निर्देश में नियोजित किये जाते हैं। 

     

    शिक्षा के उद्देश्य के प्रकरण में हम विस्तार से विचार कर चुके हैं कि शिक्षा का उद्देश्य बालक का शारीरिक, व्यावसायिक, मानसिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक अर्थात् उसके व्यक्तितव का सर्वांगीण विकास करना है। पाठ्यक्रम शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति का साधन है। अतः पाठ्यक्रम का निर्धारण इस ढंग से होना चाहिए जिससे उक्त उद्देश्यों की पूर्ति छात्र के द्वारा की जा सके। इसके लिये पाठ्यक्रम निर्धारण करते समय निम्नलिखित विषयों का विचार अपेक्षित है

    (क) छात्र अपने अनुभव, ज्ञान एवं विचारों को शुद्ध, कलात्मक, मधुर तथा प्रभावोत्पादक भाषा में मौखिक अथवा लिखित रूप से अभिव्यक्त कर सकें तथा दूसरों की कही या लिखी हुई बात को समझने की क्षमता प्राप्त करें, क्योंकि भाषा सम्पूर्ण सामाजिक व्यवहार एवं ज्ञानार्जन का आधार है।

    ख) समाज में शील, सद्भावना, सदाचार एवं आत्मीयतापूर्ण व्यवहार करने के योग्य बनें, क्योंकि मनुष्य सामाजिक प्राणी है। वह समुदाय में रहकर औरव्यवहार करके ही मनुष्य बनता है। इसलिये छात्रों को अपने देश और समाज की नीति, रीति एवं संस्कृति का परिचय हो, इतिहास और भूगोल का ज्ञान हो, सामाजिक प्रवृत्तियों में कार्य करने का व्यावहारिक ज्ञान हो जिसका अनुभव सामाजिक सम्पर्क से उन्हें प्राप्त हो । सामाजिक चेतना, देशप्रेम एवं राष्ट्रीय एकता की भावना के विकास के लिये शैक्षिक गतिविधियों का आयोजन हो । विद्यालय पाठ्यक्रम का केन्द्र बिन्दु चरित्र-निर्माण होना चाहिए। शैक्षिक क्रियाकलापों का आयोजन इस प्रकार से हो कि छात्रों में नैतिक गुणों का संवर्द्धन सहज रूप से हो सके।

     

    (ग) सम्मानपूर्ण तथा प्रामाणिकता से व्यवसाय द्वारा जीविका अर्जित करने में समर्थ हों, इसलिये छात्रों को उनकी प्रवृत्ति के अनुसार गणित, अन्य शास्त्र, शिल्प तथा विज्ञानों का अध्ययन करने की सुविधा मिले। इस सुविधा के लिये यह आवश्यक है कि उनके लिये अनेक विषयों, विधाओं और कलाओं का व्यापक क्षेत्र खुला रहे जिससे वे अपनी प्रकृति के अनुकूल विषय का चयन कर सकें। 

     

    (घ) स्वस्थ होकर दूसरों के श्रद्धाभाजन बनें और अपने देश की सुरक्षा तथा दुर्बलों की सहायता एवं रक्षा करने में समर्थ हों। इसलिये उनके शारीरिक संस्कार की व्यवस्था हो। उन्हें खेल, व्यायाम, सैन्य - शिक्षा, योगासन, प्राणायाम आदि के द्वारा शारीरिक विकास करने की सुविधा हो । स्वास्थ्य विज्ञान की जानकारी सभी स्तरों पर करायी जानी चाहिए। 

     

    (ड) अपना मानसिक तथा कलात्मक संस्कार करके सौन्दर्य - भावना पल्लवित कर सकें। इसलिये उन्हें चित्रकला, संगीत, मूर्तिकला आदि की शिक्षा प्राप्त करने के अवसर हों। 

     

    (च) सात्विक जीवन एवं धर्मनिष्ठता के माध्यम से आध्यात्मिक विकास करते हुए अपने जीवनलक्ष्य - परमात्म तत्त्व की प्राप्ति की ओर प्रगति कर सकें। इसके लिये पवित्रता से युक्त, भक्ति भावनापूर्ण आध्यात्मिक वातावरण की व्यवस्था हो तथा भारतीय संस्कृति, धर्म एवं जीवन-दर्शन के ज्ञान हेतु गीता आदि ग्रन्थों एवं महापुरुषों के जीवन चरित्र शिक्षा के पाठ्यक्रम में सम्मिलित हों। 

     

    (छ) चराचर प्राकृतिक जगत् के ज्ञान के लिये विज्ञानों के अध्ययन एवं अनुसन्धान की सुविधा हो तथा विश्व के विभिन्न देशों में बसे मानव-समाज के जीवन एवं परस्पर सम्बन्धों का ज्ञान तथा विश्व बन्धुत्व की भावना के विकास हेतु विश्व - इतिहास तथा विभिन्न देशों के साहित्य के अध्ययन की सुविधा छात्रों को प्रदान की जाय । 

     

    पाठ्यक्रम में योग आधार - विषय हो 

    बालक इन्द्रियों, मन, बुद्धि, चित्त आदि के माध्यम से समस्त ज्ञान एवं अनुभव अर्जित करता है। इसीलिये इन्हें अन्त:करण कहा गया है। यह अन्त:करण ज्ञान का साधन एवं उपकरण है। यह साधन - यन्त्र अपनी पूर्ण क्षमता के साथ एवं बिना बाधा के सही ढंग से कार्य कर सके, इसके लिये योग का अभ्यास आवश्यक है। अतः योग विषय पाठ्यक्रम का आधारभूत अंग होना चाहिए। 'शिक्षा के भारतीय मनोवैज्ञानिक आधार' प्रकरण में इस विषय पर विस्तार से विचार हुआ है, जिस का निष्कर्ष यह है कि सत्यान्वेषण एवं यथार्थ ज्ञानार्जन के लिये ब्रह्मचर्य पालन, अनासक्त भाव एवं एकाग्रता परमावश्यक है। मनोविज्ञान का यह नियम सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक है। अतः पाठ्यक्रम योग आधार विषय के रूप में होना चाहिए। शैक्षिक पर्यावरण इस प्रकार का निर्मित किया जाये जिससे छात्रों को ब्रह्मचर्य पालन एवं योगाभ्यास की प्रेरणा प्राप्त हो। 

     

    पाठ्यक्रम छात्रों की पात्रता एवं रुचि के अनुरूप हो 

    सभी शिक्षाशास्त्रियों का यह समवेत विचार है कि शिक्षा बालक के लिये है, बालक शिक्षा के लिये नहीं । पाठ्यक्रम भी बालक के लिए है। बालक पाठ्यक्रम के लिए नहीं है। तात्पर्य यह है कि पाठ्यक्रम निर्माण करते समय बालक की अवस्था, उसकी शारीरिक समर्थता, बौद्धिक योग्यता, मानसिक वृत्ति, सामाजिक वातावरण तथा घर की परिस्थिति आदि सब बातों का ध्यान रखकर ऐसा पाठ्यक्रम बनाना चाहिए जिससे बालक केवल कुछ विषयों की जानकारी और कुछ ज्ञानक्षेत्रों का परिचय मात्र न प्राप्त करके अपना सर्वांगीण विकास करने के अवसर प्राप्त करे और यह विकास बलपूर्वक न होकर प्रेरणा से हो, अध्यापक अथवा अन्य किसी के दबाव से नहीं। 

     

    आजकल शिक्षा - क्षेत्र में इतनी भयंकर अराजकता व्याप्त है कि छोटे बालकों के मस्तिष्क पर असामान्य भार लादकर उन्हें अनेक ऐसे विषय पढ़ने के लिये बाध्य किया जा रहा है जो न उनकी रुचि के अनुकूल हैं और न जिनमें उनकी प्रवृत्ति ही है। दुर्बल शरीर, कोमल मति और सुकुमार मन के बालकों पर पाठ्यक्रम का भार लाद दिया गया है। पाठ्यक्रम बालक के मानसिक स्तर, पात्रता एवं रुचि के अनुसार क्रमवर्धित होना चाहिए। 

     

    पाठ्यक्रम निर्माण में निम्नांकित नियमों का ध्यान रखना आवश्यक है-

    (क) सक्रमता : बालक के मानसिक स्तर के अनुसार विषय धीर-धीरे क्रम 

    और पढ़ाना। इसे सक्रमता का नियम कहते हैं। 

    से बढ़ाना

    (ख) पर्याप्तता : जो विषय एक बार एक अवधि में पढ़ाया जाये वह इतना पर्याप्त हो कि उस निर्धारित अवधि में भली-भाँति पढ़ाया जा सके, अर्थात् वह न कम हो न अधिक । 

    (ग) सम्बद्धता : प्रत्येक विषय का अगला चरण उसके पिछले अंश के साथ उपयुक्त ढंग से सम्बद्ध होना चाहिए, उसमें एक प्रकार की क्रमिक और नियमित वृद्धि होनी चाहिए अर्थात् किसी भी विषय का आगे का ज्ञान पिछले ज्ञान से इस प्रकार सम्बद्ध हो कि बालक को आगे का ज्ञान प्राप्त करने में कठिनाई न हो और उसका बौद्धिक ज्ञान भी विकसित होता चले। 

    (घ) निरन्तरता : जो ज्ञान एक बार प्रारम्भ किया जाये उसकी धारा निर्बाध रूप से शिक्षा-जीवन के अन्त तक बहती चलनी चाहिए। उसमें किसी प्रकार का व्यक्तिगत या सामूहिक व्यवधान नहीं आना चाहिए। यह ज्ञानधारा इस प्रकार व्यवस्थित की जानी चाहिए कि बालक क्रम से, धीरे-धीरे, निर्बाध रूप से आदि से अन्त तक उस विषय का अध्ययन निरन्तर करता चले। 

     

    पाठ्यक्रम समाज एवं राष्ट्र की आवश्यकताओं का पूरक 

    आज अपने देश में आवश्यकता इस बात की है कि शिक्षा के स्वरूप को परिवर्तित करके उसे जन-जीवन की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं से सम्बद्ध किया जाये और उसे सामाजिक उन्नति का साधन बनाया जाये । इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये पाठ्यक्रम राष्ट्रीय एकता, सामाजिक न्याय, उत्पादन, समाज में व्याप्त घोर निर्धनता के निराकरण तथा भारतीय संस्कृति और आध्यात्मिक मूल्यों की पुनःस्थापना में योगदान करने वाला होना चाहिए। 

     

    राष्ट्र में व्यावसायिक एवं यान्त्रिक प्रगति के लिये विज्ञान एवं शिल्प के शिक्षण की आवश्यकता है। इसलिये सामान्य शिक्षा के पाठ्यक्रम में तो विज्ञान और शिल्प विषय अनिवार्य हों ही, किन्तु ऐसे विभिन्न प्रकार के औद्योगिक एवं व्यावसायिक पाठ्यक्रम की भी आवश्यकता है जिनसे भारतीय जनशक्ति एवं अपार स्थानीय खनिज सम्पदा एवं अन्य उपलब्ध साधन-सामग्री का उपयोग हो सके। आज पाठ्यक्रम के निर्माण में केवल नगरों एवं बड़े कस्बों के लोगों का ही ध्यान रखा जाता है। भारत की 80 प्रतिशत ग्रामीण जनसंख्या को ध्यान में रखकर कृषि एवं सम्बन्धित ग्रामीण उद्योगों पर आधारित पाठ्यक्रम का निर्माण करने की तीव्र आवश्यकता है। जीवनोपयोगी पाठ्यक्रम के माध्यम से ही शिक्षा का प्रसार देश में होगा, केवल साक्षरता के प्रसार के अभियान से शिक्षा-प्रसार सम्भव नहीं है। महात्मा गांधी द्वारा प्रतिपादित 'बेसिक शिक्षा' के मूल में यही भावना थी, किन्तु उसको शासन एवं शिक्षा अधिकारियों द्वारा ठीक प्रकार से नहीं समझा गया।

     

    पाठ्यक्रम में उत्पादक कार्यानुभव 

    व्यावसायिक शिक्षा के अन्तर्गत उत्पादक कार्य का सामान्य शिक्षा के पाठ्यक्रम में आवश्यक विषय के रूप में समावेश करना चाहिए। इसे विज्ञान और प्रौद्योगिकी (तकनॉलॉजी) के उपयोग तथा कृषि और उद्योग में उत्पादन से सम्बद्ध किया जाना चाहिए। वर्तमान शिक्षा के द्वारा हमारे देश में 'सफेदपोश ' (White-collared) लोगों का निर्माण हो रहा है। शिक्षित व्यक्ति का अर्थ 'जिसे हाथ से कार्य न करना पड़े', यह धारणा प्रचलित हो गयी है। इस धारणा को समाप्त करने की आवश्यकता है। उत्पादक कार्य विषय को पाठ्यक्रम में रखने से हाथ के काम करने का अभ्यास, श्रम के प्रति निष्ठा, उत्पादन- कार्य में निहित भौतिक वस्तुओं और मानव-सम्बन्धों को समझने की आन्तरिक दृष्टि आदि गुणों का छात्रों में विकास होगा । 

     

    अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा आयोग के प्रतिवेदन 'लर्निंग टू बी' के अनुसार शिक्षा जीवन और कर्म से कटी और अलग-थलग है। कर्म और शिक्षा के मध्य यह अन्तर अप्राकृतिक है। इसे समाप्त किया जाना चाहिए। अतः पाठ्यक्रम जीवनोपयोगी बनाने एवं कर्म से जोड़ने की आवश्यकता है, तभी विद्यालयी शिक्षा के अवसर सबके लिये समान हो सकेंगे तथा उच्चवर्गीय शिक्षा व जनशिक्षा के बीच की खाई को पाटा जा सकेगा। 

     

    शिक्षा का माध्यम मातृभाषा 

    सभी शिक्षाशास्त्रियों का यह समवेत मत है कि शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होना चाहिए। मातृभाषा का ज्ञान प्रत्येक व्यक्ति के लिए इतना अपेक्षित है कि वह शुद्ध और प्रभावशाली भाषा में अपने विचार मौखिक एवं लिखित रूप से व्यक्त कर सके और दूसरों की कही हुई और लिखी हुई बात समझ सके । मातृभाषा पर यह अधिकार शिक्षा का माध्यम होने से ही सम्भव है। दुर्भाग्यवश आज अपने देश में मातृभाषा की उपेक्षा हो रही है। अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है। पुस्तकों के अभाव की आड़ में उच्च शिक्षा में भी मातृभाषा उपयुक्त स्थान प्राप्त नहीं कर पा रही है। परिणामतः विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षित छात्र - छात्राएँ मानसिक एवं भावात्मक दृष्टि से देश की संस्कृति एवं जीवन से जुड़ नहीं पाते। 

     

    अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा ग्रहण करने वाले छात्रों को अंग्रेजी साहित्य, उपन्यासों, नाटक, कथा, कविता आदि का अध्ययन करना पड़ता है। मातृभाषा के साहित्य से वे वंचित रह जाते हैं। परिणामतः वे पाश्चात्य संस्कृति एवं समाज - जीवन के प्रत्ययों से प्रभावित रहते हैं और अपने देश में ही विदेशी बन जाते हैं। 

     

    गांधीजी ने इस सम्बन्ध में कहा है-" शिक्षण का माध्यम अंग्रेजी होने के कारण शिक्षा प्राप्त करने वाले बालकों के बौद्धिक स्रोतों पर इतना अधिक दबाव पड़ता है कि उन्हें जो उच्च विचार विद्यालयों द्वारा प्राप्त होते हैं उनको वे पचा नहीं पाते। अच्छे-से-अच्छे विद्यार्थी को भी उन्हें तोते की भाँति रटना पड़ता है।" आगे उन्होंने कहा है, “समाज की सबसे बड़ी सेवा जो हम कर सकते हैं वह यह है कि हमने अंग्रेजी भाषा का जो अन्धविश्वासपूर्ण सम्मान करना सीखा है उससे स्वयं मुक्त हों और समाज को मुक्त करें। "] 

     

    मातृभाषा के शिक्षण का सम्बन्ध मात्र किसी भाषा के ज्ञान तक सीमित नहीं है। मातृभाषा संस्कार का माध्यम होती है। इसके अध्ययन एवं प्रयोग से उक्तिचातुर्य, शिष्टाचार, वाणी का संस्कार, चरित्र-निर्माण, भावना का परिष्कार एवं राष्ट्रीय संस्कृति का ज्ञान होता है। इससे मनुष्य के उदात्त भावों का विकास होता है और उसमें नैतिक बल का परिपाक होता है। विश्वविद्यालय शिक्षा - आयोग एवं अन्य शिक्षा आयोगों एवं समितियों ने भी इस बात की पुष्टि की है। 

     

    त्रि-भाषा सूत्र 

    भारत एक विशाल देश है। विभिन्न भारतीय भाषाएँ इस देश में प्रचलित एवं विकसित हुई हैं। इन सभी भारतीय भाषाओं की जननी राष्ट्रभाषा संस्कृत है। इसी कारण सभी भारतीय भाषाओं के भाव एवं संस्कार देने वाले गुण समान भारतीय भाषाएँ ही शिक्षा एवं राज्यकार्य के व्यवहार का माध्यम होनी चाहिए। परन्तु दुर्भाग्यवश अंग्रेजों का शासन इस देश पर रहने के कारण अंग्रेजी भाषा भारत की सरकारी सम्पर्क भाषा बनी और भारतीय भाषाओं को इस दृष्टि से विकास करने का अवसर नहीं मिल सका। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् हिन्दी को देश की सम्पर्क भाषा के रूप में स्थान मिला एवं राज्यों में उनकी भाषाएँ व्यवहार का माध्यम बनीं। परन्तु अंग्रेजी का मोह न छूटने के कारण हिन्दी सम्पर्क भाषा के रूप में उपयुक्त स्थान नहीं ले सकी । अतः इसके लिये सर्वप्रथम हमें शैक्षिक क्षेत्र में पूर्ण मनोबल के साथ प्रयत्न करने की आवश्यकता है। केन्द्रीय सरकार ने त्रि-भाषा सूत्र का सिद्धान्त स्वीकार किया है, यह लागू होना चाहिए। 

     

    त्रि-भाषा सूत्र के अनुसार पाठ्यक्रम में निम्नांकित व्यवस्था हो-

    1. प्रथम मातृभाषा 

    मातृभाषा प्राथमिक स्तर पर शिक्षा का माध्यम हो । अत: मातृभाषा का शिक्षण इस ढंग से हो कि छात्र का उस पर अधिकार स्थापित हो सके।

    2. द्वितीय भाषा हिन्दी 

    हिन्दी का द्वितीय भाषा के रूप में शिक्षण आरम्भ किया जाये। इससे हिन्दी देश में सम्पर्क भाषा के रूप में स्थान प्राप्त कर सकेगी। जिन 

    प्रदेशों में हिन्दी मातृभाषा है उनके लिये एक अन्य भारतीय भाषा का अध्ययन अनिवार्य हो । 

    1. "The study of the lauguage and the literature of our mother tongue should occupy the first place in general education. Languages incarnates the genius of the people which has fashioned it. Every word, every phrase conveys some idea of men and women..... We get into the spirit of our people by acquiring control over the language."--University Education Commission Report, p. 40. 

    3. तृतीय भाषा संस्कृत 

    तृतीय भाषा के रूप में छात्र संस्कृत का अध्ययन करें। संस्कृत हमारी संस्कृति की भाषा है। संस्कृत भारतीय जीवन के संस्कारों की भाषा तो है ही, किन्तु इससे बढ़कर बात यह है कि भारतीय जीवन में उच्च दैवी जीवन के जिन उदात्त आदर्शों की स्थापना के लिये भारतीय समाज सदैव सचेत रहा है उनकी अभिव्यक्ति संस्कृत साहित्य में ही हुई है। इसके साथ ही संस्कृत का अपना भाषागत और साहित्यिक महत्त्व भी है । हमारी सभी भारतीय भाषाओं ने संस्कृत की कोख से जन्म लिया है, उसकी विभूति से वे समृद्ध हुई हैं, इसके साहित्य ने हमारी भारतीय भाषाओं का पथ-प्रदर्शन किया है, शैली दी है, शब्द - शक्ति दी है, शब्द - भण्डार दिया है, विचार दिये हैं, कथा - वस्तुएँ प्रदान की हैं। संस्कृत ग्रन्थों में ज्ञान - विज्ञान भरा पड़ा है। भौतिक विज्ञान, जीव विज्ञान, ज्योतिष, खगोल, औषधि, सैन्य विज्ञान - अर्थात् ज्ञान-विज्ञान की ऐसी कोई शाखा नहीं है जिसका भण्डार संस्कृत ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं हो। अंग्रेजों और जर्मनों ने संस्कृत ग्रन्थों को अपने देश में ले जाकर अध्ययन किया और विज्ञान के प्राचीन भारतीय सिद्धान्तों को नवीन आविष्कार का रूप देकर अंग्रेजी एवं यूरोपीय भाषाओं में उनका प्रकाशन किया। अब भारतीय छात्र अपने देश की विद्याओं का अंग्रेजी भाषा के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करते हैं। अतः इस दृष्टि से भी प्रत्येक भारतीय छात्र को संस्कृत भाषा का ज्ञान आवश्यक है । समस्त विश्व जिस संस्कृत साहित्य से प्रभावित एवं लाभान्वित हुआ है, हमारे भारतीय छात्र उससे वंचित रहें, इससे अधिक मूर्खता की बात दूसरी नहीं हो सकली। छात्रों को संस्कृत का इतना ज्ञान अवश्य होना चाहिए जिससे उन्हें संस्कृत ग्रन्थ पढ़ने की प्रेरणा मिले और साहित्य में अभिरुचि जाग्रत हो। गांधीजी ने संस्कृत भाषा के अध्ययन का समर्थन करते हुए कहा है, " संस्कृत शिक्षा के बिना मैं किसी हिन्दू की शिक्षा अधूरी समझता हूँ। " 1 

     

    अंग्रेजी एवं अन्य विदेशी भाषाएँ 

    अंग्रेजी भाषा एवं अन्य विदेशी भाषाओं के शिक्षण की व्यवस्था वैकल्पिक विषय के रूप में होनी चाहिए। जो छात्र विदेशी भाषा का अध्ययन करना चाहते हों, उन्हें पूर्ण सुविधा प्राप्त होनी चाहिए । कुछ लोगों की आवश्यकता के कारण अंग्रेजी भाषा को देश के सभी छात्रों पर लादना घोर राष्ट्रीय आत्मघात है। यह भी सत्य है कि जब तक मातृभाषा में वैज्ञानिक शास्त्र नहीं समझाये जाते, तब तक राष्ट्र को नया ज्ञान नहीं मिल सकता। यह तो स्वयंसिद्ध है कि- 

    1. सारी जनता को नये ज्ञान की आवश्यकता है। 

    2. सारी जनता कभी अंग्रेजी नहीं समझ सकती। 

    3. यदि अंग्रेजी पढ़ने वाला ही नया ज्ञान प्राप्त कर सकता है तो सारी जनता को नया ज्ञान कभी नहीं मिल सकेगा। 

     

    अतः भारतीय भाषाओं को सभी दृष्टियों से समृद्ध एवं शासन के व्यवहार एवं शिक्षा का माध्यम बनाया जाये, साथ ही यह आवश्यक कि अंग्रेजी एवं अन्य विदेशी भाषाओं के अध्ययन की उत्तम से उत्तम सुविधा प्रदान करने हेतु अलग से विशेष पाठ्यक्रम संचालित करने चाहिए। रूसी आदि भाषाओं के अध्ययन की व्यवस्था आज भी की गयी है। जापान का उदाहरण हमारे सामने है। उसने सम्पूर्ण शिक्षा का माध्यम अपनी भाषा को बनाकर सभी क्षेत्रों में उन्नति की है। जापान में अंग्रेजी एवं विदेशी भाषाओं के अध्ययन की अलग से उत्तम व्यवस्था की गयी है। उस देश का अनुभव यह है कि अंग्रेजी भाषा का जितना ज्ञान जापानी बालक प्राथमिक से स्कूल शिक्षा काल तक दस वर्षों में प्राप्त कर पाता था, वह विद्यालयी शिक्षा समाप्त करने के पश्चात् केवल तीन माह पढ़कर प्राप्त कर लेता है। भारत में भी विदेशी भाषाओं के अध्ययन की व्यवस्था इसी प्रकार की जानी चाहिए। 

     

    मानविकी, विज्ञान एवं गणित विषय 

    ज्ञान परिवार में मानविकी, गणित और विज्ञान ये तीन बहिनें हैं। सामान्य शिक्षा के पाठ्यक्रम में ज्ञान के ये तीनों अभिन्न अंग होने चाहिए किन्तु उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में भी इनकी ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि एक पर तो अच्छी प्रकार अधिकार प्राप्त किया जा सके और दूसरों का भी थोड़ा-बहुत  अध्ययन चलता रहे। आजकल शिक्षा के क्षेत्र में विशिष्टीकरण (स्पेशलाइजेशन) का इतना प्रचलन हो गया है कि उच्च शिक्षा में ज्ञानोपार्जन के संकीर्ण क्षेत्र में अपने-आपको सीमित कर लिया जाता है। यह मानवीय विकास के लिये घातक है। इसके परिणामस्वरूप विज्ञान का विकास विश्व के समक्ष विनाश के भय के रूप में खड़ा है। विज्ञान की प्रगति ने मानव को आश्चर्य में डाल दिया है, साथ ही उसे इतना हृदयहीन बना दिया है कि मानव मानव से भयभीत है। श्री अरविन्द ने इस बात को इन शब्दों में कहा है- " बौद्धिक रूप से विकसित मनुष्य, जो वैज्ञानिक ज्ञान में बहुत बड़ा हो, जो स्थूल और सूक्ष्म प्रकृति का स्वामी हो, जो पंच तत्त्वों का दास के रूप में, जगत् का पादपीठ के रूप में उपयोग करता हो, वह मनुष्य यदि हृदय और भावना में अविकसित हो तो एक निम्न प्रकार का असुर बन जाता है जो अर्द्धदेव की शक्तियों का उपयोग पशु के स्वभाव को सन्तुष्ट करने के लिये करता है।" टेनिसन इसका वर्णन 'प्रकृति में भली-भाँति अभ्यस्त आँख, किन्तु बन्धनग्रस्त दरिद्र आत्मा' के रूप में करता है। 

     

    कहने का तात्पर्य यह है कि विशिष्टीकरण पद्धति में सुधार कर विज्ञान एवं गणित विषयों के क्षेत्र में भी मानविकी विषयों-दर्शन, धर्म, इतिहास एवं साहित्य के कुछ अंश का तो समावेश करना ही चाहिए। पाठ्यक्रम में मानव की ज्ञान, भावना एवं क्रिया- तीन शक्तियों का समन्वित विकास हो, इस प्रकार का पाठ्यक्रम निर्धारित हो । 

     

    पाठ्यक्रम ज्ञान की प्रक्रिया का साधन 

    ज्ञानात्मक विकास के क्षेत्र में विषय-वस्तु पर अधिकार प्राप्त करना उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना कि अधिकार प्राप्त करने की विधि। अतः सीखने और सिखाने की प्रक्रिया का ऐसा विधान होना चाहिए कि समस्याओं के हल ढूँढने में बालक सक्रिय भाग ले सके। पाठ्यक्रम की मूल भावना यह होनी चाहिए कि छात्र ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया पर अधिकार करे, न कि केवल पाठ्यक्रम में निर्धारित विषयों के सीमित ज्ञान को पूरा करे। ज्ञानार्जन की प्रक्रिया (लर्निंग प्रोसेस) जानना सब प्रकार के अनुभवों के लिये आवश्यक है। जो छात्र ज्ञानार्जन की प्रक्रिया पर अधिकार कर लेता है उसके हाथ में नयी समस्याओं का सामना करने की शक्ति आ जाती है। छात्रों में ज्ञान प्राप्ति की भूख जाग्रत करना, ज्ञान के प्रति प्रेम उत्पन्न करना तथा ज्ञान की खोज करने की प्रवृत्ति का विकास करना पाठ्यक्रम का प्रमुख उद्देश्य होना चाहिए, न कि छात्रों को कोई सीमित ज्ञानराशि प्रदान करना। श्री अरविन्द के शब्दों में- "विद्यार्थी को ज्ञान देना आवश्यक है, किन्तु उससे भी अधिक आवश्यक है उसके अन्दर ज्ञान - शक्ति का निर्माण करना। "

     

    पाठ्यक्रम के स्वीकृत सिद्धान्तों में गतिशीलता एवं लचक (Flexibility ) हो 

    समाज और व्यक्ति - सापेक्ष पाठ्यक्रम निर्धारित करने के लिये उसमें लचक और गतिशीलता का होना अनिवार्य है, अन्यथा तीव्रता से विस्तारमान विज्ञान और प्रौद्योगिकी (तकनॉलॉजी) के ज्ञान और हमारे समाज की बदलती सामाजिक-आर्थिक स्थिति के समक्ष किसी भी पाठ्यक्रम का जीवन क्षणिक रह जाने की सम्भावना है। भारत एक विशाल देश है। यहाँ अनेक भाषाएँ, सामाजिक रीतियाँ, व्यवहार और असमान आर्थिक विकास है। अतः पाठ्यक्रम पर एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश के समाज और व्यक्तियों की माँगों के अलग-अलग दबाव होंगे। परन्तु समान स्तर एवं राष्ट्रीय एकात्मता के लिये स्वीकृत सिद्धान्तों और मूल्यों की रूपरेखा के अन्तर्गत देश में एकसमान पाठ्यक्रम आवश्यक है । फिर भी पाठ्यक्रम को यन्त्रवत् नहीं बनाया जा सकता । व्यक्तियों और समुदाय की आवश्यकताओं के अनुरूप पाठ्यक्रम को ढालने की छूट शिक्षाविदों एवं अध्यापकों को देना आवश्यक है। साथ ही पाठ्यक्रम को यदि जीवन्त और आधुनिक बनाये रखना है तो यह अनिवार्य है कि वह सदैव परिवर्तनशील और विकासमान रहे। 

     

    पाठ्यक्रम में विषयों की सह-सम्बद्धता 

    अन्त में एक बात विचारणीय है कि जीवन के समान ज्ञान भी अखण्ड एवं अविभाज्य इकाई है। अतः यह आवश्यक है कि विषय पाठ्यक्रम के छोटे-छोटे अंगों को छोड़कर तात्त्विक विषय-सामग्री की व्यापक एकात्मता पर विशेष ध्यान दिया जाये। यदि भली प्रकार सह- सम्बद्धता (कोरिलेशन) को नियोजित किया जाये तो सभी विषयों की सुन्दर व्यापक एकता स्थापित की जा सकती है। इस प्रकार हम छात्रों के समन्वित ज्ञान का विकास कर सकेंगे। 

     

    प्रतिभावान छात्रों की शिक्षा 

    सामान्य शिक्षण के कार्यक्रम के लिये देश में मूलभूत पाठ्यक्रम आवश्यक है, पर हमें प्रतिभावान विद्यार्थियों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखना होगा। प्रतिभावान छात्रों के लिये विशिष्ट पाठ्यक्रम की व्यवस्था कर उनकी प्रतिभा को विकास की सुविधा प्रदान करनी होगी। राष्ट्र की प्रगति के लिये भी यह व्यवस्था आवश्यक है। ऐसे प्रतिभाशाली छात्रों के लिये विद्यालयों की अलग इकाइयाँ स्थापित करनी होंगी जो ज्ञान-विज्ञान के किसी विशेष क्षेत्र में उच्च शिक्षण प्राप्त करना चाहते हैं। 

    प्रतिभावान छात्रों की शिक्षा-व्यवस्था में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि सम्पन्न परिवारों के बालकों तक ही यह सीमित न रह जाए। ग्रामीण, निर्धन एवं पिछड़े क्षेत्रों में भी अनेक बार प्रतिभाएँ छिपी पड़ी रह जाती हैं। इन सभी क्षेत्रों के प्रतिभाशाली बालकों की खोज करके उनके विकास की समुचित व्यवस्था करनी चाहिए। परिवार की निर्धनता, क्षेत्र की दूरी अथवा दुर्गमता को इसमें बाधक नहीं बनने देना चाहिए। 

     

    अनौपचारिक शिक्षा 

    इसी प्रकार पिछड़े हुए एवं गैर- औपचारिक क्षेत्रों से आने वाले छात्रों के लिये उपचार इकाइयाँ अथवा सेतु इकाइयाँ स्थापित करनी होंगी। साथ ही हमें भारत की बहुसंख्यक, शिक्षा से वंचित जनसंख्या के लिये अनौपचारिक शिक्षा के पाठ्यक्रम की व्यवस्था करनी होगी, क्योंकि औपचारिक शिक्षा के माध्यम से भारत की विशाल जनसंख्या के अन्तिम छोर तक पहुँचने के लिये अधिक साधन एवं समय चाहिए। अतः हमें अंशकालिक अथवा अनौपचारिक पाठ्यक्रमों का संचालन कर उन्हें लागू करने हेतु भारी प्रयास करने होंगे, तभी शिक्षा का लाभ सभी देशवासियों को मिल सकेगा। 

     

    शिक्षा के साथ अर्थोपार्जन 

    हमारे देश में घोर दरिद्रता व्याप्त है। जनसंख्या की बड़ी प्रतिशतता ऐसी है जो गरीबी की रेखा से नीचे अमानवीय जीवन व्यतीत करती है और जिसे दो समय पेट भर भोजन भी प्राप्त नहीं होता । इन परिवारों के बच्चे धरती पर चलना सीखने के साथ ही जीविकोपार्जन के कामों में अपने माता-पिता की सहायता में जुट जाते हैं। इन अभागे बच्चों के पास आज शिक्षा के प्रकाश की एक किरण भी नहीं पहुँच पाती। देश की शिक्षा का विचार करते समय हमारा यह राष्ट्रीय कर्त्तव्य है कि इन बच्चों की शिक्षा की समुचित व्यवस्था करें। इसके लिये ऐसे पाठ्यक्रमों की आवश्यकता है जो शिक्षा के साथ अर्थोपार्जन में सहायक हो सकें। विद्यालय में पढ़ने के बाद ये कुछ रुपये अर्जित करके अपने साथ ले जा सकें, तभी ये बालक शिक्षा प्राप्त कर सकेंगे। गांधीजी की बेसिक शिक्षा की कल्पना के पीछे इसी प्रकार की योजना थी। इस कल्पना को साकार करने की आवश्यकता है। 

     

    स्त्री-शिक्षा 

    हमें यह सत्य स्वीकार करना होगा कि विज्ञान और समाज चाहे जितने उन्नत हो जायें और सामाजिक दृष्टि से स्त्रियों और पुरुषों के व्यवहार- क्षेत्र तथा कार्यक्षेत्र में चाहे जितनी समानता आ जाये किन्तु पुरुषों और स्त्रियों की शिक्षा सम्बन्धी आवश्यकताओं और उन आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन में अवश्य अन्तर रहेगा। यह अन्तर कुछ तो उनकी नैसर्गिक प्रकृति की भिन्नता के कारण और 

    कुछ उनकी शारीरिक शक्ति और कार्यभिन्नता के कारण आवश्यक है। सामाजिक समानता का अर्थ यह नहीं है कि पुरुष और स्त्री- दोनों की प्रकृति एक हो जाये। यह सम्भव नहीं है। इसका अर्थ यही है कि किसी प्रकार के सामाजिक अधिकार से स्त्रियाँ वंचित न हों। इसलिये स्त्रियों की मूलभूत, मनोवैज्ञानिक और भावात्मक विशेषताओं, उनकी सौन्दर्यात्मक वृत्ति, मातृत्वभावना, गृहिणी के रूप में उनके उत्तरदायित्व आदि का ध्यान रखते हुए उनकी शक्तियों के विकास के अनुकूल उनकी सामान्य शिक्षा के पाठ्यक्रम की व्यवस्था की जाये। साथ ही उच्च शिक्षा एवं ज्ञान के सभी क्षेत्रों में उन्हें प्रगति करने की पूर्ण सुविधा प्रदान करनी होगी। इस दृष्टि से उनकी सामान्य शिक्षा का पाठ्यक्रम इस प्रकार चाहिए- 

     

    सांस्कृतिक विषय- भाषा (मातृभाषा का पूर्ण ज्ञान, संस्कृत का व्यावहारिक ज्ञान), चित्रकला, नृत्य, संगीत, सांस्कृतिक एवं धार्मिक साहित्य, आदर्श नारियों के जीवन-चरित्र, योगाभ्यास, सांस्कृतिक पर्व मनाना आदि। 

    सामाजिक विषय - इतिहास, भूगोल, नागरिकशास्त्र, अर्थशास्त्र एवं 

    बाल मनोविज्ञान। 

    व्यावहारिक - सामान्य विज्ञान, गणित, स्वास्थ्य - विज्ञान, गृह विज्ञान,शारीरिक व्यायाम, खेल, योगासन, सद्व्यवहार, अतिथि सत्कार, शिशुपालन, घरेलू चिकित्सा आदि । 

    हस्तकौशल - गृह सज्जा, सिलाई, कढ़ाई - बुनाई, रंगाई, बागवानी आदि । 

    स्त्री-शिक्षा के पाठ्यक्रम के लिये स्वामी विवेकानन्द ने इतिहास और पुराण, गृह - विज्ञान, कला तथा धर्म की शिक्षा पर बल दिया है। इन सबके साथ-साथ पुरुषों के समान स्त्रियों को भी शारीरिक शिक्षा दी जानी चाहिए, ताकि वे स्वयं अपनी रक्षा कर सकें और निर्भय होकर घूम-फिर सकें। युवकों के समान युवतियों में भी साहस और शौर्य उत्पन्न करने की आवश्यकता है। ऐसी माताएँ ही साहसी बालकों को जन्म दे सकती हैं। उन्हीं की गोद में पलकर देश का निर्माण करने वाले सपूत पैदा हो सकते हैं। 

     

    शिशु वाटिका (पूर्व प्राथमिक शिक्षा ) 

    प्राचीन भारत में तीन से छ: वर्ष की आयु के शिशुओं के लिये घर एक उत्तम शिक्षा-केन्द्र होता था। परिवार के बच्चों की माँ और दादी घर के आँगन में खेल आदि क्रिया-कलापों एवं कहानी आदि के माध्यम से उनके विकास में रुचि लेती थी। किन्तु आधुनिककाल में आर्थिक एवं सामाजिक परिवेश में परिवर्तन होने के कारण परिवारों में शिशुओं के शिक्षण का वातावरण प्रायः समाप्त होता जा रहा है। अब शिशु - शिक्षा केन्द्रों के रूप में विभिन्न प्रकार के विद्यालय चलने लगे हैं। इन विद्यालयों को शिशु वाटिका (नर्सरी या किण्डरगार्टन) कहते हैं। यूरोप और अमेरिका आदि पश्चिमी देशों में शिशुगृहों (होम नर्सरी या Creche) की संख्या अत्यधिक है। ये शिशुगृह सामाजिक कल्याण की संस्था के रूप में चलते हैं जिनका काम जीविका के लिये दिन में काम करने वाली माताओं के छोटे-छोटे बच्चों की दिन-भर देखभाल करना है। भारत में भी पश्चिम के अनुकरण के रूप में इस प्रकार के शिशुगृह महानगरों में चलते हैं, परन्तु माता के स्नेह के अभाव में शिशुगृहों में पोषित बच्चों का सन्तुलित एवं समुचित विकास नहीं हो पाता। 

     

    शिशु वाटिका ( नर्सरी स्कूल) विद्यालय इन शिशुगृहों से अलग हैं। इनमें 3 वर्ष से 6 वर्ष तक की आयु के बच्चों के संरक्षण एवं शिक्षा की व्यवस्था होती है। पश्चिमी देशों में किंडरगार्टन के जन्मदाता फ्रोबेल ने बालकों की रचना-शक्ति एवं सक्रियता का उपयोग करते हुए खेल-खेल में आनन्द के साथ विकसित होने की पद्धति का समर्थन किया है। मोण्टेसरी ने स्वयंशिक्षा, निर्देशित स्वतन्त्रता, आवयविक शिक्षा, बालक के व्यक्तित्व का आदर और स्वावलम्बन आदि शिशुशिक्षा सिद्धान्तों की बात तो कही, परन्तु अपने बनाये हुए शिक्षा- उपकरणों के आग्रह के कारण उसकी शिक्षा-पद्धति कृत्रिम हो गयी। वह शिक्षा - क्रम भारत के लिये ही नहीं, संसार भर के बालकों के लिये पूर्णत: अस्वाभाविक है। गांधीजी से जब मिस मोण्टेसरी भेंट करने आयी तो उन्होंने उसकी शिक्षा प्रणाली को भारत के लिये पूर्णतः अनुपयुक्त कहा। महाराष्ट्र में ताराबाई मोदक एवं गुजरात में गिजुभाई बधेका ने भारतीय शिशु-शिक्षा-पद्धति का विकास बालवाड़ी के रूप में करके सफल प्रयास किया है। ग्रामीण एवं वनवासी क्षेत्रों के बच्चों का स्थानीय सामग्री के माध्यम से, खेल-खेल में, क्रियाशीलता से मानसिक एवं इन्द्रिय विकास तथा सामाजिक एवं सांस्कृतिक गुणों का विकास करने की स्वाभाविक पद्धति के रूप में बालवाड़ी शिक्षा को मान्यता प्राप्त हुई है। 

    प्राय: शिशु - विद्यालयों में, जो नर्सरी एवं मोण्टेसरी के नाम से चलते हैं, प्राथमिक शिक्षा - क्रम के समान ही पढ़ना-लिखना, अंकगणित आदि विषयों के शिक्षण पर आग्रह रहता है। 3-4 वर्ष की आयु से बालकों पर इस लिखने-पढ़ने की औपचारिक शिक्षा का विपरीत प्रभाव पड़ता है। कोमल इन्द्रियों एवं मति के बच्चों का विकास इससे अवरुद्ध हो जाता है। 

    अतः शिशु वाटिका ( पूर्व प्राथमिक शिक्षा) स्तर पर बालकों को उनकी रचना - शक्ति एवं सक्रियता का पूर्ण उपयोग करते हुए, खेल-क्रियाओं के माध्यम से उनका मानसिक, शारीरिक, भावात्मक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास करने वाले अनौपचारिक पाठ्यक्रम की आवश्यकता है। भारत में सरस्वती शिशु-मन्दिरों में इस आयु के बालकों के लिये सफल शिशु वाटिका शिक्षा-पद्धति एवं अनौपचारिक पाठ्यक्रम का विकास एवं प्रयोग हो रहा है। 

                                                                                             ग्रामीण शिक्षा 

    भारत की 76 प्रतिशत जनसंख्या 7 लाख ग्रामों में निवास करती है। भारत की इस ग्रामीण जनसंख्या के विचार के बिना राष्ट्र की संकल्पना ही नहीं की जा सकती। हजार वर्षों के विदेशी आक्रमणों से संघर्ष करता हुआ हमारा देश विश्व में सम्मानित राष्ट्र के रूप में आज खड़ा है। इसके अनेक कारणों में से ग्रामों में बसा भारत भी एक प्रमुख कारण है। आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, शैक्षिक, पंचायत-व्यवस्था आदि की दृष्टि से ग्राम एक सम्पन्न एवं स्वावलम्बी इकाई थी। यह धारणा असत्य है कि भारत की ग्रामीण जनसंख्या सदा से निरक्षर एवं अशिक्षित थी। भारत में अंग्रेजों के आगमन से पूर्व साक्षरता का प्रतिशत आज से अधिक था। (देखें श्री धर्मपाल की पुस्तक 'दब्यूटीफुल ट्री' ) प्रत्येक ग्राम में पहले एक शिक्षकीय विद्यालय होता था जो उत्तर भारत में टोल एवं दक्षिण भारत में अग्रहार कहलाता था। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के राज्य के समय केवल बंगाल प्रान्त में अस्सी हजार टोल थे। (डा० अल्तेकर) मन्दिरों, आश्रमों एवं गुरुकुलों में उच्च शिक्षा की व्यवस्था थी । इस औपचारिक शिक्षा-व्यवस्था के अतिरिक्त देशभर में अनौपचारिक शिक्षा की उत्तम व्यवस्था थी। पुरोहित, कथावाचक, मन्दिर, संन्यासियों के प्रवास, तीर्थयात्राएँ, पर्व, मेले आदि अनौपचारिक शिक्षा के सशक्त माध्यम थे जिनके कारण भारत में अद्भुत राष्ट्रीय एकता एवं सांस्कृतिक संगठन विद्यमान था और पर्याप्त मात्रा में आज भी अवशिष्ट है। 

    अंग्रेजों के शासन काल में ग्रामों की उपेक्षा हुई । अपना शासन बनाये रखने के लिये उन्होंने केवल कुछ नगरों की ओर ध्यान दिया और अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति लागू की। अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोग ग्रामीण जीवन को पिछड़ा समझने लगे और उसे हेय दृष्टि से देखने लगे। गांधी जी ने ग्रामों के महत्त्व को समझा और स्वतन्त्रता संघर्षकाल में भी ग्राम स्वराज्य, स्वदेशी आन्दोलन, ग्रामोद्योग, 'बेसिक शिक्षा' आदि रचनात्मक कार्यक्रम आरम्भ किये और इन्हें अपने आन्दोलन का आधार बनाया। 

    स्वाधीन भारत की सरकार द्वारा भी ग्रामों की उपेक्षा की गयी। रूस और अमरीका की प्रतिकृति बनाने का स्वप्न साकार करने के लिये देश को औद्योगीकरण की होड़ में झोंक दिया। गांधी जी इसका सदा से विरोध करते आ रहे थे। उनका कहना था कि भारत में औद्योगीकरण की नीति तभी सफल हो सकती है जब भारत की जनसंख्या का किसी प्रकार से 1/10 भाग ही शेष रह जाये और उसे कुछ नगरों में लाकर बसा दिया जाय। उन्होंने स्पष्ट कहा कि पश्चिम का अनुकरण कर भारत की संस्कृति, सामाजिक जीवन, ग्रामीण समाज-व्यवस्था और परिवार व्यवस्था नष्ट-भ्रष्ट हो जायेंगे। पं. दीनदयाल उपाध्याय की आर्थिक सत्ता के विकेन्द्रीकरण की नीति के पीछे भी यही भाव था। 

     

    सन् 1948 में डा० राधाकृष्णन की अध्यक्षता में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग ने देशभर में भारी संख्या में ग्रामीण अंचलों में ही ग्रामीण विद्यापीठ आरम्भ करने की संस्तुति की थी। उन्होंने इन विद्यापीठों को आदर्श ग्रामों के रूप में बसाने को कहा था। डा० राधाकृष्णन् ने और भी अनेक सुझाव और चेतावनियाँ दी थीं। उनकी एक चेतावनी यह थी कि “यदि हमने बिना सोचे समझे पश्चिम के विज्ञान और प्रौद्योगिकी का अनुकरण किया तो भारत में राक्षसराज्य की स्थिति उत्पन्न हो जायेगी।" 

     

    किन्तु हमारे नेताओं पर पश्चिम का भूत सवार रहा । परिणाम हमारे सामने हैं। इसमें सन्देह नहीं कि देश में प्रगति हुई है । परन्तु यह प्रगति केवल नगरों, कस्बों और उनके आसपास के कुछ गाँवों तक, देश की केवल 20 प्रतिशत जनसंख्या तक सीमित है। देश की 80 प्रतिशत जनता आज भी पिछड़ी है, जिसे विकास का लाभ प्राप्त नहीं हो रहा है। 56 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी की रेखा से नीचे जीवन व्यतीत कर रही है, जिसे दो समय भोजन भी प्राप्त नहीं होता। 5 करोड़ वनवासी (आदिवासी) अमानवीय जीवन व्यतीत कर रहे हैं। ग्रामों में केवल 28 प्रतिशत साक्षरता बतायी जाती है, वह भी कागजी है। ग्रामीण विद्यालयों की दुरावस्था से सभी परिचित हैं। इसमें सन्देह नहीं कि हमें देश को इस स्थिति से मुक्त करने के लिये आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी का भरपूर उपयोग करना होगा किन्तु पश्चिम का अन्धानुकरण न कर हम अपने देश की परिस्थिति की आवश्यकता के अनुसार परिवर्तन कर उसका उपयोग करेंगे। 

     

    किन्तु इस तथ्य की उपेक्षा कर नगरों के विकास एवं भारी उद्योगों की स्थापना की नीति स्वतन्त्र भारत की सरकार ने अपनायी । 

    कृषि को विकास योजनाओं का आधार नहीं बनाया गया। परिणामतः ग्रामों से भारी जनसंख्या नगरों की ओर पलायन करने लगी। महानगरों में श्रमिकों की मलिन वस्तियों की जनसंख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। 

     

    देश के सभी विश्वविद्यालय नगरों में स्थित हैं। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिये ग्रामीण युवक नगरों में आते हैं। वे नगर सभ्यता की चकाचौंध से प्रभावित होकर ग्रामों में वापस नहीं जाना चाहते और नगरों में ही नौकरी की तलाश करते रहते हैं। परिणामत: परिवार टूट रहे हैं, प्राचीन ग्रामीण कुटीर उद्योग समाप्त हो गये, कृषि उद्योग परम्परागत पद्धति से चल रहा है। ग्रामीण भारतीय संस्कृति नष्ट हो रही है और टेलीविजन एवं नगरों के सम्पर्क के कारण ग्रामीण जनता उनका अनुकरण करने में संलग्न है। बहुजन संख्या बीमारी, अज्ञानता एवं निर्धनता की समस्याओं से ग्रस्त है। इसके परिणामस्वरूप सरकारी ग्रामीण विकास योजनाओं को ग्रामों के निचले स्तर तक ले जाने वाले कार्यकर्ता उपलब्ध नहीं हो रहे हैं। ग्रामीण विद्यालय बिना शिक्षकों के और ग्रामीण अस्पताल बिना चिकित्सकों के चल रहे हैं। 

     

    अत: भारत की 76 प्रतिशत ग्रामीण जनसंख्या की शिक्षा एवं उनके विकास के सभी पक्षों की ओर हमारा चिन्तन एवं योजनाएँ केन्द्रित होनी चाहिए। इसके बिना देश उन्नति नहीं कर सकता और न ही एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में ही खड़ा हो सकता है। डा० राधाकृष्णन् विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग की संस्तुति के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में ग्रामीण विद्यापीठों की स्थापना की जाये। ये विद्यापीठ ग्रामों के सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक चेतना के केन्द्रों के रूप में कार्य करें। इनमें ग्रामीण परिवेश के अनुरूप शिक्षा का स्वरूप विकसित हो, जिससे छात्रों में अपने देश और समाज के साथ-साथ ग्राम- जीवन के प्रति भी प्रेम जाग्रत हो तथा उसमें यह भाव उत्पन्न हो कि शिक्षा समाप्त करके अपने ग्राम की सेवा एवं उसके विकास में अपना जीवन समर्पित करेंगे और नगरों की ओर पलायन नहीं करेंगे। 

     

    आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के साथ कृषि विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी तथा उससे सम्बन्धित उद्योग पाठ्यक्रम के मूल विषय हों। छात्रों में श्रम के प्रति निष्ठा का संवर्द्धन करने की आवश्यकता है। प्रतिभाशाली ग्रामीण छात्रों की खोज करके उनके विकास में आवश्यक सहायता की जाये तथा उनमें ग्रामीण समाज का नेतृत्व करने की क्षमता एवं प्रवृत्ति उत्पन्न करने पर विशेष ध्यान देना होगा। 

     

    इन विद्यापीठों के माध्यम से अनौपचारिक शिक्षा के कार्यक्रम अपनाये जायें तथा इनके द्वारा ग्रामीण समाज में लोक-शिक्षण एवं लोक-संस्कार करने की बृहद् योजना संचालित की जानी चाहिए। इससे ग्रामीण समाज में रोगग्रस्तता, अज्ञान, दारिद्र्य एवं सामाजिक कुरीतियों से छुटकारा प्राप्त करने के प्रति चेतना जाग्रत होगी। यह कार्य शासन के बल पर पूर्ण होना सम्भव नहीं है। धार्मिक एवं सामाजिक संस्थाओं को इस क्षेत्र में आगे आने की आवश्यकता है। इसके बिना भारत उन्नत एवं सशक्त राष्ट्र के रूप में खड़ा नहीं हो सकता । 

     

                                                                                                   वनवासी - शिक्षा 

    वनवासी समाज 

    अपने देश में पाँच करोड़ वनवासियों की जनसंख्या अधिकांशतः गिरि-कन्दराओं एवं जंगलों में छोटे-छोटे ग्राम- समूहों में निवास करती है। इनमें लगभग 15 लाख जनसंख्या नौकरी या मजदूरी आदि करने के लिए नगरों में पलायन कर गयी है। सरकारी भाषा में वनवासियों को अनुसूचित जनजाति (शेड्यूल्ड ट्राइब्स ) कहा जाता है। अंग्रेजों ने इन्हें हिन्दू समाज से अलग करने की अपनी कुटिल नीति के कारण आदिवासी (ट्राइब्स) नाम दिया जो आज भी प्रचलित है। हम लोग इन्हें समाज का अभिन्न अंग मानते हैं तथा 'वनवासी' शब्द से सम्बोधित करते हैं। 

    वनवासियों के विषय में प्रायः यह धारणा प्रचलित है कि वे असभ्य, जंगली एवं हिंसक लोग होते हैं जोकि पूर्णतः असत्य है। वनवासी समाज निष्कपट होने के साथ-साथ सेवाभाव, स्वाभिमान, त्याग, भक्ति, शौर्य और पराक्रम गुणों से सम्पन्न होता है। भगवान राम से लेकर महाराणा प्रताप एवं शिवाजी के काल तक देश-रक्षा के लिये समय-समय पर प्रकट किये गये उनके पराक्रम तथा बलिदानों की गाथाएँ इतिहास की धरोहर हैं। सन् 1857 व उसके बाद भी अंग्रेजों से भारत को मुक्त कराने के लिये लड़े नये स्वाधीनता संग्राम में वन-वासियों का योगदान महत्त्वपूर्ण रहा। 

     

    घोर दारिद्र्य और ईसाई मिशनरी 

    वनवासी बन्धु आज दारिद्र्य और अकल्पित विवशता की पराकाष्ठा का जीवन व्यतीत कर रहे हैं। वे आधुनिक सभ्यता के साधनों से पूर्णतः वंचित हैं और सभी प्रकार के अभावों से ग्रस्त होकर शोषण तथा दमन की यातनाएँ भोग रहे हैं। ईसाई मिशनरियों ने उनकी इस स्थिति का भरपूर लाभ उठाकर अंग्रेजी शासन के प्रारम्भ से आज स्वाधीन भारत में भी धर्मान्तरण का अपना कार्य चालू रखा हुआ है। उत्तर-पूर्वांचल में नागालैण्ड, मेघालय एवं मिजोरम राज्यों का जन्म इन्हीं धर्मान्तरित ईसाइयों की राजनीति के कारण हुआ है। बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, झारखण्ड एवं छत्तीसगढ़ में इनके प्रयत्न चल रहे हैं। मध्य प्रदेश के नियोगी आयोग के प्रतिवेदन ने ईसाइयों के कुचक्र का पर्याप्त विवरण दिया है। इसीके परिणामस्वरूप मध्य प्रदेश, उड़ीसा एवं अरुणाचल राज्यों की सरकारों को धर्मान्तरण के विरुद्ध विधान (कानून) बनाना पड़ा। 

     

    हमारे द्वारा उपेक्षा 

    वनवासियों की आज की स्थिति के लिये हमारा सम्पन्न नगरीय समाज भी कम दोषी नहीं है। हमने उनकी सदैव उपेक्षा की है। उनके साथ मनुष्यता का व्यवहार नहीं किया, केवल अपने स्वार्थ के लिये हमने उनका उपयोग किया। उनको दो समय पेट भर भोजन मिल सके, इसकी व्यवस्था नहीं की। उन्हें कोई उद्योग-धन्धे नहीं दिये। सम्मान से वे अपना जीवनयापन करते हुए राष्ट्र के सुव्यवस्थित घटक बनें, इसके लिये हमने उनकी शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था नहीं की। कुछ शताब्दियों से हमने उनके प्रति अपने इस कर्तव्य का पालन नहीं किया। श्रीरामकृष्ण मिशन तथा ठक्कर बापा द्वारा आदिम जाति संघ के माध्यम से अवश्य कुछ वर्षों से इस क्षेत्र में काम हुआ है। अब स्वतन्त्र भारत में वनवासी कल्याण आश्रम द्वारा इस क्षेत्र में एक चेतना की लहर जाग्रत हुई है। 

     

    1960 के उ० न० डेबर आयोग के प्रतिवेदन के पश्चात् शासन का ध्यान वनवासी क्षेत्र की ओर गया। जनजातियों के विकास के लिये पर्याप्त आर्थिक सुविधाओं की व्यवस्था की गयी। इन आर्थिक सुविधाओं का लाभ केवल कुछ ऊपर के वर्ग को प्राप्त हुआ, सर्वसामान्य वनवासी की स्थिति और भी दयनीय ही हुई। शिक्षा के क्षेत्र में भी शासन ने कुछ प्रयास किये। आश्रम विद्यालय पर्याप्त संख्या में खोले गये किन्तु इनकी साक्षरता का प्रतिशत 9 से अधिक नहीं बढ़ सका। 

     

    वनवासी- शिक्षा का उद्देश्य 

    हमारी यह मान्यता है कि वनवासी अपने समाज एवं राष्ट्रीय जीवनधारा के अभिन्न अंग हैं। हिन्दू समाज की उपेक्षा के कारण ही आज उनकी दयनीय स्थिति हुई है। विदेशी ईसाई मिशनरियों ने हमारी उपेक्षा एवं उनकी दरिद्रता का लाभ उठाकर उनका धर्मान्तरण किया है। अब हमें अपनी भूल का परिमार्जन कर वनवासी बन्धुओं को प्रेम, सेवा एवं शिक्षा के माध्यम से एवं राष्ट्रीय जीवन का स्वाभिमानी, जागरुक एवं स्वावलम्बी घटक बनाना है। इस उद्देश्य को वनवासी क्षेत्र में शिक्षा-प्रसार के द्वारा पूर्ण करने की आवश्यकता है। 

     

    1. वनवासी क्षेत्र की शिक्षा का स्वरूप

    राष्ट्रीयता एवं देश-भक्ति के संस्कार : आज देश के सम्मुख सबसे प्रमुख समस्या है राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता की। इस समस्या का समाधान शिक्षा में निहित है। हमें शिक्षा के माध्यम से वनवासी समाज के बालकों को राष्ट्रीयता के एवं मातृभूमि भारत के प्रति भक्तिभाव के संस्कारों से संस्कारित करना है। उनमें भारतीय संस्कृति, धर्म एवं आध्यात्मिकता के प्रति गौरवयुक्त श्रद्धा के भाव जाग्रत करने होंगे। 

     

    2. वनवासी- जीवन की विशेषताओं का विकास- वनवासी जीवन की सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक परम्पराओं आदि की विशेषताओं का शिक्षा के माध्यम से विकास करना है। आधुनिकता के नाम पर उनकी विशेषताओं को समाप्त नहीं करना है। वनवासियों में स्वाभिमान, सेवाभाव, परिश्रम, ईमानदारी आदि ऐसे महत्त्वपूर्ण गुण विद्यमान हैं जो तथाकथित शिक्षित एवं विकसित वर्ग में उपलब्ध नहीं होते। हमें ऐसी शिक्षा प्रणाली अपनानी होगी जिससे उनके इन गुणों का विकास हो सके। 

     

    3. राष्ट्रीय इतिहास के साथ वनवासियों के गौरवपूर्ण इतिहास का ज्ञान कराना : भारत के राष्ट्रीय इतिहास के ज्ञान के साथ-साथ वनवासियों के गौरवपूर्ण इतिहास का परिचय भी छात्रों को कराना चाहिए। उदाहरणार्थ- गोंड राजाओं ने शताब्दियों तक राज्य किया । उत्तर-पूर्वांचल में दिमासा जनजाति के अनेक राजा हुए जिन्होंने असम पर मुसलमानों के आक्रमणों का सामना किया। महाराणा प्रताप एवं शिवाजी को भिल्ल सरदारों ने अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी सहयोग दिया - इस प्रकार के ऐतिहासिक प्रसंगों को छात्रों का बताना चाहिए। भारतीय स्वतन्त्रता-संग्राम में भगवान तुल्य पूजित बिरसा मुण्डा के एवं रानी माँ गाइदिन्ल्यु इत्यादि के जीवन चरित्र पढ़ाने चाहिए। रामायण एवं महाभारत की कथाओं के माध्यम से प्राचीन भारत का इतिहास बताना चाहिए और उनमें वनवासियों के प्रसंगों पर राष्ट्रीय एवं धार्मिक महत्त्व की दृष्टि से प्रकाश डालना चाहिए। 

     

    4.शिक्षा का माध्यम- मातृभाषा : वनवासी बालकों की प्रारम्भिक शिक्षा का माध्यम उनकी मातृभाषा होनी चाहिए। यद्यपि यह सत्य है कि वनवासियों की भाषाएँ अनेक हैं और उनकी अपनी कोई लिपि भी नहीं होती, किन्तु इसके लिये प्रयास करने की आवश्यकता है। उसके लिये क्षेत्रीय भाषा की लिपि एवं देवनागरी- इन दोनों लिपियों को अपनाना होगा जिससे वे अपने क्षेत्र के साथ-साथ सम्पूर्ण देश के साथ जुड़ सकें। इसके लिये हमें उनकी भाषा में प्रारम्भिक कक्षाओं की पुस्तकें तैयार करनी होंगी और उनकी भाषा के जानकार शिक्षक भी तैयार करने होंगे। हाफलोंग में जेमी भाषा की प्रारम्भिक पुस्तकें देवनागरी लिपि में तैयार करायी गयी हैं और उनके माध्यम से उन्हें शिक्षा प्रदान की जाती है। इस प्रकार का प्रयास हमें वनवासी क्षेत्रों में सर्वत्र करना होगा। 

     

    5.व्यावसायिक शिक्षा : वनवासी क्षेत्र की शिक्षा को जीविका के साधनों से जोड़े बिना सफलता प्राप्त नहीं की जा सकती। वनवासी बालक-बालिकाएँ धरती पर चलना सीखने के साथ ही माता-पिता की अनेक काम-धन्धों में सहायता करते हैं। ऐसी स्थिति में उस क्षेत्र के अनुकूल व्यावसायिक शिक्षा को उनके पाठ्यक्रम का महत्त्वपूर्ण अंग बनाना होगा, तभी शिक्षा उनके लिये आकर्षक एवं जीवनोपयोगी हो सकती है। वनवासी बालक परिश्रमी एवं कलाकौशल में निपुण होते हैं। अतः कृषि एवं कुटीर उद्योग- कताई-बुनाई, हस्तकला, चित्रकारी - वनीकरण (फोरेस्ट्री), बागवानी, पशुपालन आदि विषयों का प्रशिक्षण सामान्य ज्ञान-विज्ञान के साथ आवश्यक है।

     

    6.शिक्षण-प्रणाली : विभिन्न विषयों का ज्ञान परिवेश को आधार बनाकर, सरल कथाकथन-पद्धति से, चित्रों, मॉडल, गीतों आदि के माध्यम से कराना होगा। 'बेसिक शिक्षा' पद्धति इन क्षेत्रों में उपयोगी सिद्ध हो सकती है। वनवासी क्षेत्र के परिवारों का वातावरण भिन्न प्रकार का होता है, अतः इन क्षेत्रों की शिक्षण विधि नगर के समान अपनाने से शिक्षक को सफलता प्राप्त नहीं हो सकती। 

     

    7. विद्यालय सामाजिक चेतना के केन्द्र हों : वनवासी क्षेत्र के विद्यालयों का सम्बन्ध केवल उनमें पढ़ने वाले छात्रों के जीवन तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए, अपितु विद्यालय वनवासी ग्राम अथवा क्षेत्र के जीवन से जुड़ा हुआ होना चाहिए। वनवासी समाज में व्याप्त कुरीतियों का अध्ययन कर उनके उन्मूलन की चेतना उन्हीं के भीतर से जाग्रत हो, इस प्रकार का प्रयत्न करना चाहिए । विद्यालय के माध्यम से क्षेत्र में राष्ट्रीयता, देशभक्ति, भारतीय संस्कृति एवं धर्म के प्रति आस्था एवं गौरव के भाव जाग्रत करने हेतु विविध क्रियाकलाप अपनाये जाने चाहिए। पर्वों, उत्सवों, सम्मेलनों के आयोजनों द्वारा उनके भीतर अपेक्षित स्वस्थ सामाजिक चेतना जाग्रत की जा सकती है। 

     

    वनवासी क्षेत्र के लोगों की समस्याओं एवं कठिनाइयों के समाधान का मार्गदर्शन विद्यालय से मिलना चाहिए, तभी हम उनके जीवन के साथ समरस हो सकते हैं और अपेक्षित सामाजिक परिवर्तन कर सकते हैं। क्षेत्र के लोगों में विद्यालय के प्रति अपनेपन की भावना का विकास भी इसी प्रकार होगा। 

     

    8. विद्यालय स्वावलम्बी बनें : वनवासी क्षेत्र में आर्थिक समस्याएँ विकट रूप में होती हैं। छात्र विद्यालय शुल्क देने में असमर्थ, किन्तु परिश्रमी होते हैं। अत: उनके इस गुण का उपयोग करते हुए विद्यालय में कृषि, उद्यान आदि में उनके द्वारा काम कराया जा सकता है, जिसकी आय से विद्यालय को सहयोग मिल सकता है। विद्यालय के भवन निर्माण एवं टूट-फूट -सुधार में भी छात्रों एवं ग्रामवासियों का शारीरिक सहयोग प्राप्त किया जा सकता है। हाफलोंग के विद्यामन्दिर में छात्रों ने भवन-निर्माण में शारीरिक सहयोग देकर हजारों रुपये की मजदूरी की बचत की। छात्र ही छात्रावास के लिये जंगल से बाँस और फूस काटकर लाये तथा उन्होंने स्वयं इतने सुन्दर छप्पर का निर्माण किया जिसका यदि मजदूरी देकर निर्माण कराया जाता तो दस हजार रुपये से कम व्यय नहीं होता । इसी प्रकार ग्रामवासियों से भी विभिन्न प्रकार का सहयोग प्राप्त कर विद्यालय को स्वावलम्बी बनाया जा सकता है। 

     

    हमें सरकारी अनुदान पर निर्भर न रहकर समाज के सहयोग के बल पर वनवासी क्षेत्र में विद्यालय चलाने हैं। हमारा कार्य अच्छा है तो समाज से आर्थिक सहयोग प्राप्त करने में कंठिनाई नहीं होगी। 

     

    छात्रों को वनवासी समाज का नेतृत्व ग्रहण करने हेतु तैयार करना 

    प्रायः देखा यह गया है कि वनवासी छात्र शिक्षा प्राप्त करके नगरों को पलायन कर जाते हैं। यहाँ तक कि वे अपने ग्राम में आना भी नहीं चाहते। हमें इस प्रवृत्ति को रोकना है। छात्रों में प्रारम्भ से ही अपने परिवार, ग्राम एवं समाज के प्रति लगाव एवं प्रेम का निर्माण करना है, जिससे वे विकसित होकर अपने ग्राम एवं समाज का नेतृत्व ग्रहण कर उनकी सेवा करें तथा उन्हें वर्तमान दयनीय स्थिति से उबारकर देश के अन्य लोगों के साथ विकास के मार्ग पर अग्रसर कर सकें। यह शिक्षा पाकर वे अपने गाँवों और समाज को इस योग्य बनायें कि वे देश की राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक मुख्य धारा से जुड़ सकें तथा हमारे विशेष अधिकारों और कर्तव्यों में अपना भाग प्राप्त कर सकें। 

    हमें प्रारम्भ से ऐसे बालकों का, उनकी प्रतिभा की खोज करके, चयन करना होगा और उन्हें इस दृष्टि से ज्ञान, कुशलता एवं चरित्र से सम्पन्न बनाकर विकसित करने का प्रयास करना होगा। उन्हीं में से वनवासी क्षेत्र के लिये हमें अच्छे शिक्षक भी प्राप्त हो सकेंगे। 

     

    शिक्षक एवं उनका प्रशिक्षण 

    शिक्षक शिक्षा-प्रक्रिया की धुरी होता है। वनवासी क्षेत्र की शिक्षा की सफलता हमारे शिक्षकों पर निर्भर है। इसके लिये हमें अच्छे शिक्षकों की खोज कर उनके विकास हेतु प्रशिक्षण की व्यवस्था करनी होगी। अपने वनवासी बन्धुओं के प्रति आत्मीयता का भाव रखने वाले, सेवा एवं ध्येय-वृत्ति के युवक ही वनवासी क्षेत्र में शिक्षक के दायित्व का निर्वाह कर सकते हैं। हमें वनवासी युवकों को ही इस दृष्टि से प्राथमिकता देनी चाहिए। उनकी शिक्षा आदि की कमियों को पूरा कर उन्हें अच्छा प्रशिक्षण देकर कुशल शिक्षक के रूप में विकसित करना होगा। 

     

    वनवासी समाज को हेय दृष्टि से न देखने वाला, उनकी सांस्कृतिक एवं सामाजिक परम्पराओं से परिचित और उनकी भाषा समझने वाला व्यक्ति ही वनवासी क्षेत्र में सफल शिक्षक हो सकता है तथा वह वनवासी बन्धुओं के मित्र, हितैषी एवं मार्गदर्शक के रूप मे कार्य कर सकता है। 


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