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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • परिवार और शिक्षा 

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    Vidyasagar.Guru

    परिवार संस्था का महत्त्व

    सृष्टि में मानव शिशु सबसे अधिक दुर्बल एवं असहाय प्राणी होता है। जिस समय उसका जन्म होता है, उस समय वह न चल-फिर सकता है, न स्वयं खा-पी सकता है और न अपनी आवश्यकताओं को अभिव्यक्त ही कर सकता है । जहाँ अन्य पशुओं के शिशु कुछ सप्ताह अथवा कुछ माह पश्चात् ही हाथ पैरों से पुष्ट होकर उछलने-कूदने और उदर पूर्ति की क्रियाओं में संलग्न हो जाते हैं वहीं मानव शिशु कितने ही वर्षों तक सर्वथा निरुपाय और पर निर्भर बना रहता है। परिवार में यदि उसकी देखभाल न हो तो उसका अस्तित्व नहीं बच सकता । किन्तु यही निरुपाय प्राणी बड़ा होकर समस्त प्राणी जगत पर शासन करता है। परिवार संस्था में ही यह निरुपाय और पर निर्भर मानव शिशु सब प्रकार से विकसित होकर मनुष्य की संज्ञा पाने योग्य बनता है। 

     

     

    परिवार प्रकृति की देन है । थोड़ी बहुत भिन्नता के साथ परिवार सभी प्राणि-समूहों में होते हैं। पशु-पक्षियों में प्रजनन एवं संरक्षण कार्य तक ही परिवार सीमित हैं। इन प्राणियों में नवजात शिशु को बड़े होने पर अपने माता-पिता का ज्ञान भी समाप्त हो जाता है । पाश्चात्य समाज में भी इस प्रकृति जन्य परिवार संस्था का कार्य प्रजनन एवं संरक्षण से अधिक आगे नहीं बढ़ सका । पश्चिमी देशों में परिवार का अर्थ पति-पत्नी और बच्चे होता है। बच्चे भी बड़े होकर अपना अलग परिवार बसाकर रहते हैं। उनके माता-पिता वृद्ध होकर अकेले रहते हैं अथवा वृद्धाश्रमों में अपना जीवन यापन करते हैं। उनके पुत्रादि टेलीफोन से कभी-कभी हालचाल पूछ लेते हैं अथवा जन्मदिन आदि पर उन्हें आश्रम में जाकर गुलदस्ता भेंट कर आते हैं। शरीरान्त का समाचार मिलने पर उनकी अन्तिम क्रिया की व्यवस्था कर देते हैं। बाहर होने पर कई यह भी नहीं कर पाते। 

    एक मित्र ने एक भारतीय चिकित्सक की जो संयुक्त राज्य अमेरिका में व्यवसाय करता है, की घटना सुनाई। एक दिन कुछ लोग एक वृद्ध को दिखाने उसकी डिस्पेन्सरी पर लाये और बोले “डाक्टर, यह व्यक्ति अभी एक मोटर गाड़ी से दुर्घटनाग्रस्त हो गया है। इसे कृपा करके देख लें। " परन्तु वह वृद्ध मर चुका था। रात्रि के ग्यारह बज चुके थे। इस डाक्टर को मृत व्यक्ति की डायरी में उसके पुत्र का फोन नम्बर मिल गया। उस फोन पर उसने कहा, "मुझे अत्यन्त दुःख के साथ समाचार देना पड़ रहा है कि आपके पिताजी दुर्घटनाग्रस्त होकर समाप्त हो चुके हैं, उनका शव मेरी डिस्पेन्सरी में है। आप उसे ले जाने की व्यवस्था करें।" फोन पर उत्तर मिला "डाक्टर, तुम भारतीय मालूम पड़ते हो, क्या तुम सुबह तक प्रतीक्षा नहीं कर सकते थे? तुमने मेरी नींद में इतनी रात्रि में बाधा क्यों डाली ?" वह व्यक्ति डाक्टर पर काफी नाराज हुआ। हम भारत में इस प्रकार के व्यवहार की कल्पना भी नहीं कर सकते। 

     

    भारतीय घर-परिवार एक सांस्कृतिक संस्था 

    भारतीय जीवन पद्धति में परिवार का विकास सांस्कृतिक संस्था के रूप हुआ है। भारतीय परिवार का कार्य प्रजनन एवं संरक्षण तक ही सीमित नहीं रहा किन्तु परिवार ने मानवीय सम्बन्धों को उच्च सांस्कृतिक धरातल तक पहुँचाया । पुत्र का माता - पिता के प्रति भक्ति एवं कर्त्तव्य, भाई का बहिन के प्रति पवित्र सम्बन्ध विश्व के अन्य देशों में नहीं मिलता है । पूर्वकाल में तो बड़े बड़े संयुक्त परिवार होते थे। आज भी कहीं-कहीं मिलते हैं। उन बड़े परिवारों में प्रेम, सहयोग एवं निःस्वार्थ भाव देखते ही बनते हैं। प्रेम, सहानुभूति, सहयोग, निःस्वार्थता यह समाज जीवन के आवश्यक गुण हैं। इनकी शिक्षा व्यक्ति को परिवार में मिलती है। जो व्यक्ति परिवार के चार व्यक्तियों के साथ रहकर अपना समायोजन नहीं कर सकता वह समाज के लिये भी भार स्वरूप ही होता है। वास्तव में परिवार समाज जीवन का लघुरूप होता है जहाँ व्यक्ति के 'स्व' का विस्तार होता है। उसका सुख-दुःख बृहद परिवारीजनों के सुख-दुःख के साथ समरस होता है। इस प्रकार विकास करता हुआ व्यक्ति समाज एवं राष्ट्र जीवन के साथ भी समरस होता है। भारतीय संस्कृति की समृद्धि में इस परिवार संस्था का अत्यधिक योगदान रहा है। 

    दुर्भाग्यवश आज इस परिवार संस्था का सांस्कृतिक रूप समाप्त होता हुआ दिखायी देता है। पश्चिमी सभ्यता एवं औद्योगीकरण का प्रभाव भारतीय परिवारों पर तीव्र गति से हो रहा है। अतः शिक्षा संस्थाओं को इस दिशा में जागरुक होकर भारतीय परिवारों के सांस्कृतिक रूप को विघटित होने से बचाने के लिये प्रयास करने की आवश्यकता है। 

    परिवार में राष्ट्र द्वारा अर्जित सहस्रों वर्षों के अनुभव बालक को सहज ही प्राप्त हो जाते हैं। परिवार के माध्यम से ही वह अपने समाज की संस्कृति को ग्रहण करता है। परिवार में ही बालक भाषा सीखता है, उसके शारीरिक, मानसिक, नैतिक और आध्यात्मिक विकास की नींव पड़ती है। बालक का चरित्र, कुशलतायें, आदतें तथा जीवन की छोटी से छोटी बातें परिवार पर निर्भर हैं। वास्तव में बालक के भावी जीवन के बीज संस्कार के रूप में परिवार में ही पड़ते हैं। परिवार बालक की प्रथम पाठशाला, माता उसकी प्रथम गुरु, पिता, संरक्षक एवं अन्य बड़े लोग उसके शिक्षकगण होते हैं। 

    भारतीय समाज व्यवस्था में गृहस्थ आश्रम, अन्य तीनों आश्रम ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ एवं सन्यास से श्रेष्ठ माना गया है। गृहस्थ आश्रम पर ही अन्य तीनों आश्रमों का जीवनयापन आधारित रहता था। आज भी धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक आदि स्वयंसेवी संस्थाओं के कार्य गृहस्थों की सहायता से ही चलते हैं। पाश्चात्य सभ्यता के समान भारतीय गृहस्थ जीवन भोग विलास एवं काम वासनाओं की तृप्ति के लिये नहीं माना गया है। राष्ट्रीय प्रजाति की वृद्धि हेतु सन्तान की उत्पत्ति एवं योग्य संस्कारों से युक्त श्रेष्ठ नागरिक बनाकर तैयार करना गृहस्थ जीवन का उद्देश्य है। यह ही उसका धर्म है, पितृ ऋण से उऋण होने हेतु सन्तान उत्पन्न की जाती है। गर्भाधान संस्कार से लेकर जातकर्म, चूड़ाकर्म, उपनयन आदि संस्कारों की भारतीय परम्परा योग्य सन्तान के निर्माण के लिये ही प्रचलित है। स्वस्थ राष्ट्र जीवन के विकास के लिये माता-पिता के लिए यह भारतीय दृष्टि वर्तमान काल में भी उतनी ही समीचीन है। 

     

    परिवार में बड़ों का व्यवहार 

    उपर्युक्त उद्देश्य की पूर्ति हेतु यह आवश्यक है कि हम परिवारों में संस्कारक्षम वातावरण का निर्माण करें। वातावरण की बाल मानस पर गहरी छाप पड़ती है। माता-पिता एवं परिवार के लोगों के व्यवहार का प्रभाव बालक पर पड़ता है। अतः परिवार में बड़े लोगों को ऐसा कोई व्यवहार नहीं करना चाहिये जिसका बालक के मन पर कुप्रभाव पड़े। कई बार हम अकरणीय कार्य बालक की उपस्थिति में उसे छोटा एवं नासमझ मानकर कर देते हैं किन्तु नासमझ बालक के मानस पर इसका कुप्रभाव होता है। माता-पिता के परस्पर झगड़े, उस समय प्रयोग किये गए शब्दों का प्रभाव भयंकर पड़ता है। उसके परिणामस्वरूप बालक में अनेक प्रकार की मनोग्रन्थियों का निर्माण हो जाता है। अनेक बार युवावस्था में माता-पिता अपने मनोरंजन का अधिक ध्यान रखते हैं, बालक का ध्यान नहीं रखते । विशेष रूप से आजकल रेडियो और दूरदर्शन के कामोत्तेजक कार्यक्रम परिवारों में बालकों के जीवन पर कुसंस्कारों के माध्यम बने हुए हैं। इनसे हमें अपने बच्चों को बचाने की आवश्यकता है। 

     

    माता-पिता बच्चों को भरपूर स्नेह दें 

    आजकल प्रायः देखा जाता है कि माता-पिता व्यावसायिक कार्यों में इतने व्यस्त रहते हैं कि वे अपने बच्चों के साथ जितना समय व्यतीत करना चाहिये, नहीं कर पाते। परिणामस्वरूप बच्चे अपने माता-पिता के स्नेह के भूखे रहते हैं और उनमें अनेक मानसिक ग्रन्थियाँ निर्माण हो जाती हैं जो उनके व्यक्तित्व के विकास में बाधक बनती है। अनेक माता-पिता विशेष रूप से पाश्चात्य जीवन से प्रभावित लोग अपने बच्चों को घर पर सेविका के पास छोड़कर मनोरंजन करने के लिये बाहर पर्याप्त समय व्यतीत करते हैं। इन माता-पिताओं की सन्तानें भी स्नेह से वंचित रहती हैं। उनमें अपने माता-पिता के प्रति ईर्ष्या - ग्रन्थि निर्माण हो जाती है और वयस्क होने पर वे अपने माता-पिता की भी चिन्ता नहीं करते। अतः माता-पिता को अपने बच्चों के साथ पर्याप्त समय बिताना चाहिये, उन्हें अपना भरपूर प्रेम देना चाहिये, तभी उनके बच्चों के व्यक्तित्व का ठीक विकास होगा। बाद में वे भी माता-पिता के प्रति आदर और आत्मीयता का व्यवहार करेंगे। भारतीय परिवारों में इस दृष्टि से विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है अन्यथा हमारी परिवार संस्था भी टूटकर पश्चिमी जीवन का अनुसरण करेगी और वृद्धावस्था में माता-पिता या तो एकाकी जीवन व्यतीत करेंगे अथवा उन्हें भी वृद्धाश्रमों में भर्ती होना पड़ेगा। बड़े नगरों में विशेष रूप से अंग्रेजी सभ्यता से प्रभावित भारतीय परिवारों में यह दुर्दशा देखने को मिलती है 

     

    घरों में संस्कारक्षम सज्जा 

    प्रायः यह देखा जाता है कि माता-पिता एवं अन्य परिवारजन अपनी रुचि के अनुसार घरों में सिनेमा की तारिकाओं आदि के चित्र लगाकर कमरों को सजाते हैं। उन्हें यह ध्यान ही नहीं रहता कि बच्चों के मन पर इन चित्रों का क्या प्रभाव होगा। अतः घरों में सुसंस्कार देने वाले महापुरुषों आदि के चित्र लगाना चाहिये। प्रत्येक हिन्दू घर में सांस्कृतिक भारत का मानचित्र एवं ॐ का चित्र अवश्य लगना चाहिये । बैठकादि कक्षों की सज्जा भारतीय ढंग से इस प्रकार करनी चाहिये जिससे मन पर पवित्रता एवं सादगी के संस्कार जाग्रत हों। आजकल धन का प्रदर्शन करने हेतु भोग-विलास के संस्कार देने वाली सज्जा घरों में अधिक मिलती है। यह उचित नहीं है। बैठक कक्षों में फर्नीचर आदि सुविधाजनक हो सकते हैं किन्तु भोग विलासिता का प्रदर्शन करने वाली व्यवस्था बालकों के जीवन को उसी ओर ले जाती है। उसी प्रकार शयन कक्षों का वातावरण मन में अच्छे विचार उत्पन्न करने वाला होना चाहिये । 

    आजकल पुत्र-पुत्रियाँ के वयस्क होने के पश्चात भी उनके माता-पिता डबल बैड पर एक कक्ष में सोते हैं। उसका प्रभाव बालक-बालिकाओं पर भी होता है और उनका जीवन भी घोर कामुक एवं भोग प्रधान बनता है। भारतीय संस्कृति के अनुसार गृहस्थ जीवन संयमयुक्त होना चाहिये। माता-पिता का जिस प्रकार का जीवन होगा, बच्चे भी उसी प्रकार के बनेंगे। अतः हमें घर पर प्रत्येक व्यवहार इस प्रकार करना चाहिये जिससे बालकों के जीवन को सही दिशा एवं सुसंस्कार मिले। 

     

    भोजन पद्धति पवित्रतापूर्ण एवं संस्कारप्रद 

    भारतीय संस्कृति में भोजन क्रिया को यज्ञ रूप बताया गया है। जिस प्रकार का अन्न खायेंगे उसी प्रकार का हमारा मन बनता है । यह सिद्धान्त विशुद्ध वैज्ञानिक एवं अनुभवसिद्ध है। इसी कारण भारतीय पद्धति में भोजन की सामग्री, उसके बनाने एवं भोजन करने की पद्धति के सम्बन्ध में पर्याप्त विचार हुआ है। उसमें भोजन की स्वच्छता, पवित्रता एवं भोजन करते समय मन में प्रसन्नता एवं सद्विचार आवश्यक बताये गये हैं । अतः घरों में पाकशाला एवं भोजन कक्ष का वातावरण तदनुसार होना चाहिये। आजकल पाश्चात्य सभ्यता के अनुरूप भारतीय नगरों में भी पाकशाला एवं भोजन करने की पद्धति पश्चिमी ढंग की होती जा रही है। भारतीयता के प्रेमीजनों को इस पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव को आग्रहपूर्वक रोकना चाहिये । सुविधा एवं आधुनिकीकरण बुरा नहीं है परन्तु स्वच्छता, पवित्रता एवं सद्विचारों के संस्कार देने वाली भोजन पद्धति को सुविधा और आधुनिकीकरण के नाम पर समाप्त नहीं करना चाहिये। आज भी दक्षिण भारतीय घरों में भोजन कक्षों का एवं भोजन करने की पद्धति का वातावरण विशुद्ध भारतीय संस्कार - प्रद रूप में प्रचलित है। जहाँ तक सम्भव हो भोजन सभी परिवारजनों को सामूहिक करना चाहिये। इससे परिवार में परस्पर प्रेम और आत्मीयता के भावों की वृद्धि होती है। भोजन मन्त्र बोलकर, परमेश्वर को समर्पित कर अर्थात् उसका स्मरण कर, सद्विचारों सहित एवं प्रसन्नचित्त होकर करना चाहिये। भोजन कक्ष में सुन्दर चित्र एवं भोजन के समय पुष्प एवं सुगन्धित धूपादि से वातावरण पवित्र बनता है। घर के पालतू पशु-पक्षियों आदि का भाग भोजन करने से पूर्व अलग रख देना चाहिये । हमारे यहाँ इसे यज्ञ कहा गया है । इस पद्धति से किया हुआ भोजन अच्छी प्रकार पचेगा, बालकों के मन में सुसंस्कार उत्पन्न होकर उनका शारीरिक एवं सांस्कृतिक विकास समुचित होगा।

     

    घर में ईश्वर आस्था एवं आध्यात्मिकता का वातावरण 

    भारतीय संस्कृति के अनुसार घर और परिवार श्रेष्ठ मानव जीवन निर्माण करने वाली सांस्कृतिक संस्था है। परिवार वासनाओं की तृप्ति एवं सुख-भोग सम्पादन करने का क्लब नहीं है। अतः प्रत्येक घर में भारतीय संस्कृति के अनुरूप वातावरण आवश्यक है। तभी हम परिवार के सांस्कृतिक उद्देश्यों की पूर्ति कर सकेंगे। भारतीय घर में ईश्वर आस्था एवं आध्यात्मिक वातावरण अपेक्षित है। ईश्वर आस्था एवं आध्यात्मिकता हमारे जीवन के आधार हैं। हम परमेश्वर के जिस रूप में, भाव में आस्था रखते हों उसकी आराधना के लिये कक्ष अथवा कोना घर में अवश्य चाहिये, जहाँ छोटे-बड़े सभी परिवारीजन बैठकर नित्य परमेश्वर का स्मरण कर अपने श्रद्धा सुमन अर्पित कर सकें। 

    भारतीय संस्कृति में प्रात:कालीन वेला का विशेष महत्व है। सूर्योदय से पूर्व जागरण होकर परिवार में सभी लोगों को प्रातः स्मरण अथवा अच्छे धार्मिक गीत आदि बोलना चाहिये। इससे आध्यात्मिक वातावरण का निर्माण होता है। उसका दिन भर के जीवन पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। आज भी अनेक घरों में प्रात:काल पूर्ण आध्यात्मिक एवं सद्विचारों से ओतप्रोत रहता है। इसका प्रभाव बालकों के मानस पर बहुत अच्छा होता है। संध्याकालीन एवं रात्रि शयन के समय भी इसी प्रकार परमेश्वर का स्मरण करने की एवं आध्यात्मिक विचारों से मन को संस्कारित करने की भारतीय परम्परा है। 

    प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व सभी परिवारीजनों का जागरण, स्मरण करना, कम से कम प्रातः स्मरण के दो श्लोकों का सस्वर उच्चारण, विस्तर से नीचे पैर रखते समय धरती माता का हाथों से स्पर्श कर हाथ माथे से लगाकर वन्दना करना और पैर रखने के लिये क्षमा याचना करना, माता-पिता एवं वरिष्ठजनों के चरण स्पर्श एवं प्रणाम करना, तत्पश्चात् शौचादि एवं स्नान के लिये जाना वास्तव में यही भारतीय परम्परा है। 

     

    यह परम्परा हमारे घरों में व्यवस्थित रूप से चलती रहे इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता है। क्योंकि आजकल विशेष रूप से सम्पन्न घरों में प्रातः देर से सोकर उठना, बिस्तर पर चाय पीना और अखबार पढ़ना, इसी कार्यक्रम से दिनचर्या आरम्भ होती है। इस अभारतीय परम्परा के कारण घरों का वातावरण घोर भोगवादी, नास्तिकता एवं तामसिकता से परिपूर्ण बनता जा रहा है। व्यक्ति और समाज के जीवन को विनाश की ओर ले जाने वाले घरों के इस वातावरण को हमें जागरुक होकर परिवर्तित करने की आवश्यकता है। 

     

    घरों में संस्कारप्रद पत्र-पत्रिकायें 

    सम्पन्न घरों में बालकों के लिये अच्छे संस्कार देने वाली पुस्तकें एवं पत्र-पत्रिकाओं की व्यवस्था करनी चाहिये । गीता, रामायण आदि धार्मिक पुस्तकें प्रत्येक शिक्षित परिवार में रखनी चाहिये। आजकल फिल्म फेयर आदि पत्र पत्रिकायें पढ़ना सम्पन्न परिवारों में आधुनिकता एवं प्रगति का पर्याय बन गया है। बाल मानस पर इन पत्रिकाओं के अच्छे संस्कार नहीं होते। माता-पिता को इस ओर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। 

     

    सांस्कृतिक पर्वों का शुद्ध रूप में आयोजन 

    भारतीय राष्ट्र जीवन परम्परा में संस्कृति का जीवन्त रूप पर्वों, उत्सवों, व्रतों, संस्कारों, मेलों, तीर्थयात्राओं के रूप में प्रचलित है। संस्कृति के इस जीवन्त रूप ने मानवीय जीवन के प्राकृतिक रूप का तो उन्नयन किया ही है, उसे आनन्द, उल्लास, सौन्दर्य एवं सामाजिक भावना से ओत-प्रोत कर समृद्ध बनाया है। भारतीय राष्ट्र जीवन की एकात्मता को इस जीवन्त संस्कृति ने ही दृढ़ किया है। 

     

    दीपावली और होली के अतिरिक्त अन्य अनेक तीज-त्यौहार पर्व आदि हमारे पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन में आनन्द और उल्लास लेकर आते हैं। एक प्रकार से हमारा सम्पूर्ण वर्ष ही पर्वों, व्रतों और उत्सवों का निरन्तर क्रम है। इन्हीं के साथ समय - समय पर पारिवारिक संस्कारों और मेलों आदि के उत्सवों से जीवन संगीतमय बन जाता है। वर्ष के आरम्भ में नवरात्रि की दुर्गापूजा, कौमार्य वन्दना, मातृपूजा आदि आरम्भ होकर अक्षय तृतीया, वट सावित्री, गंगा दशहरा, व्यास पूर्णिमा, रक्षा बन्धन, जन्माष्टमी, गणेश चतुर्थी, ऋषि पंचमी, अनन्त चतुर्दशी, पितृपक्ष, शारदीय नवरात्रि, दीपावली, गोवर्धन पूजा, मकर संक्रान्ति, बसन्त पंचमी और शिवरात्रि के पर्वों का आनन्द जनमानस को परिमार्जित करता हुआ होली के लोक पर्व में चरमोत्कर्ष पर पहुँचता है। इसी प्रकार जन्मोत्सव, उपनयन, विवाह आदि साक्षात जीवन के संस्कार हैं। गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि तक के सोलह संस्कार जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त जीवन को सुन्दर बनाते हैं। संस्कृति के इतने समृद्ध एवं विपुल रूप किसी भी अन्य देश व समाज में कदाचित ही मिलेंगे। अतः संस्कृति के इस रूप का शुद्ध रूप समाज में प्रचलित हो, इस दृष्टि से प्रयत्न करने की आवश्यकता है। ऐतिहासिक तथा अन्य कारणों से पर्वों एवं उत्सवों आदि के रूप में अनेक विकृतियाँ पदार्पण कर गई हैं। परिणामतः इनके प्रति श्रद्धा का भाव कम होता जा रहा है और केवल औपचारिकता मात्र की वस्तु बनते जा रहे हैं। आज बड़े नगरों में पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव बढ़ गया है। परिवार में बच्चों के जन्म - दिवस पश्चिमी पद्धति से मनाने की प्रथा चल पड़ी है। मोमबत्ती जलाना और केक काटना, “हैप्पी बर्थ डे टू यू" का गीत गाना और सगे-सम्बन्धियों द्वारा उपहार प्राप्त करना, यह जन्मोत्सव का अभारतीय रूप है। यज्ञ हवन, पूजादि होकर सम्बन्धित व्यक्ति को वरिष्ठजनों द्वारा आशीर्वाद लेना एवं दानादि कराना - इस रूप में जन्मोत्सव मनाना चाहिये । पर्व, व्रत आदि मनाने की परम्परा भी कम होती जा रही है। अतः जागरुक एवं प्रबुद्ध परिवारों को इस दिशा में विचार करने की आवश्यकता है और वे इन पर्वों, व्रतों, उत्सवों आदि को सही रूप से पुनर्जीवित करने की पहल करें।

     

    भारतीय वेशभूषा एवं मातृभाषा के प्रति स्वाभिमान 

    दुर्भाग्यवश स्वाधीनता के पश्चात् भारत में पश्चिमी वेश-भूषा एवं अंग्रेजी भाषा का प्रचलन अधिक बढ़ गया है। विवाह संस्कार जैसे पावन 

    अवसरों पर भी वर, कोट- पैण्ट और टाई पहनकर गौरव का अनुभव करते हैं। वर- यात्रा के समय युवक-युवतियाँ पाश्चात्य ढंग के डिस्को आदि नृत्य में शरीर के अंगों का कामुक प्रदर्शन निर्लज्ज होकर करते हैं। भारतीय संस्कार परम्परा में सबसे बड़ा विवाह का संस्कार है। विवाह को जीवन का अन्त्यन्त महत्वपूर्ण एवं पवित्र बन्धन का रूप दिया गया है। भारतीय समाज में उसे विस्तृत और महत्वपूर्ण भूमिका में प्रतिष्ठित किया गया है। दो व्यक्तियों का विवाह सम्बन्ध परिवार, कुटुम्ब और समाज के लिये एक अपूर्व उत्सव बन जाता है। विवाह का ऐसा समारोह अन्य किसी देश में नहीं होता। अग्निवेदिका, पुरोहित, वेद मंत्र, सप्तपदी आदि विवाह को धार्मिक पवित्रता प्रदान करते हैं। स्वजन का सौहार्द, गीत वाद्य, भोज आदि उसे एक उल्लासपूर्ण उत्सव का रूप देते हैं। विवाह के इस सांस्कृतिक रूप की गरिमा बनाये रखने की आवश्यकता है। विवाह समारोह पर उत्तरी भारत में ही पाश्चात्य वेश-भूषा का अधिक प्रभाव बढ़ा है। बंगाल एवं दक्षिण भारत में अंग्रेजी शिक्षित परिवारों में भी परम्परागत भारतीय वेश-भूषा का प्रयोग प्रचलित है, उत्तर भारत में इस असांस्कृतिक परम्परा को रोकने की आवश्यकता है। पर्वों, उत्सवों एवं संस्कारों के अवसर पर धोती कुर्ता आदि भारतीय वेश-भूषा पहनने में बालक, युवक आदि सभी परिवारीजन गौरव का अनुभव करें, यह चेतना उत्पन्न करने की आवश्यकता है। 

    प्रायः यह भी देखने को मिलता है कि विवाह के निमन्त्रण पत्र, नववर्ष के बधाई पत्र आदि अंग्रेजी भाषा में छापे जाते हैं और इसे हम प्रगति एवं गौरव का प्रतीक मानते हैं। अनेक परिवार तो ऐसे देखे हैं जिनमें घर में एक भी व्यक्ति अंग्रेजी भाषा का जानकार नहीं है किन्तु उन परिवारों में भी विवाह की निमन्त्रण पत्रिकायें अंग्रेजी भाषा में छपाई जाती है। माता-पिता अपने बच्चे से 'मम्मी-डैडी " कहलाने में गौरव का अनुभव करते हैं। यह भारतीय कुप्रथा उन परिवारों की अंग्रेजी मानसिक दासता की मनोवृत्ति का परिचायक है। अतः परिवारों में भारतीय वेश-भूषा, संस्कार, परम्परा एवं मातृभाषा के प्रति स्वाभिमान एवं गौरव का भाव जाग्रत करने हेतु प्रयास करने की आवश्यकता है। 

     

    विद्यालय एवं परिवार 

    विद्यालय एवं परिवार बालकों के विकास में पूरक हैं। विद्यालय और परिवार के समुचित सहयोग के अभाव में बालक का वांछित विकास सम्भव नहीं है। विद्यालयों में बालकों के चरित्र निर्माण के लिये संस्कारक्षम वातावरण आवश्यक है। किन्तु यदि बालक को विद्यालय के समान घर पर संस्कारक्षम वातावरण नहीं मिलता, तो उनका मन अनेक प्रकार की कुण्ठाओं से ग्रस्त हो जाता है। जिस विद्यालय में बहुत अच्छी ईश-वन्दना होती है, नैतिक विकास हेतु सभी सम्भव प्रयास किये जाते हैं, किन्तु यदि उस विद्यालय के जिन छात्रों के घर पर ईश्वर का कोई स्मरण तक नहीं करता और धार्मिक एवं नैतिक वातावरण से घर पूर्णत: शून्य है ऐसे बालकों में ईश्वर आस्था एवं नैतिक चरित्र के संस्कारों का विकास होना कठिन है। अतः विद्यालय और परिवार के मध्य सहयोग एवं पूरकता परमावश्यक है। विद्यालय एवं परिवार अर्थात् आचार्यों एवं अभिभावकों के परस्पर सहयोग एवं सक्रिय चेतना से समाज में व्याप्त कुरीतियों एवं अभारतीय परम्पराओं को दूरकर समाज में अपेक्षित परिवर्तन लाया जा सकता है। 

    परिवारों में संस्कारक्षम वातावरण निर्माण करने हेतु जिन विषयों का विवेचन पूर्व में किया गया है विद्यालय के लिये भी ये विषय उतने ही महत्वपूर्ण हैं। विद्यालयों में आचार्यों का बच्चों के प्रति प्रेम एवं आत्मीयतापूर्ण व्यवहार अपेक्षित है। आचार्यों का आदर्शपूर्ण जीवन ही छात्रों के जीवन में प्रेरणा उत्पन्न कर अपनी संस्कृति के प्रति श्रद्धा का भाव उत्पन्न कर सकेगा। 

     

    आचार्य एवं अभिभावक सम्पर्क 

    आचार्यों और अभिभावकों का सजीव सम्पर्क अपेक्षित है। आचार्य और अभिभावक परस्पर मिलकर बालक के विकास के सम्बन्ध में विचार-विमर्श करें तथा समस्याओं से परस्पर परिचित रहें तो बालक का वांछित विकास कर सकते हैं। आचार्यों को अभिभावक सम्पर्क हेतु समय-समय पर घरों पर जाना चाहिये। आचार्यों के घर पर जाने से आत्मीय सम्बन्ध स्थापित होते हैं, साथ ही बालक एवं परिवार के सम्बन्ध में यथेष्ट प्रत्यक्ष जानकारी मिलती रहती है जो शिक्षा कार्य में सहायक होती है । जिस छात्र के घर पर सम्पर्क हेतु जाते हैं उस छात्र का मनोविज्ञान, अध्ययन, उसकी प्रकृति, स्वभाव, आदतें, शिक्षा कार्य में स्थिति, खेलों में रुचि आदि विषयों की समुचित जानकारी आचार्य को होना अपेक्षित है अन्यथा अभिभावक सम्पर्क के समय अनावश्यक विषयों पर ही चर्चा होगी। आचार्य को अभिभावकों से बालक के विकास में क्या अपेक्षायें हैं, उस पर स्पष्ट विचार-विमर्श होना चाहिये। इसी प्रकार परिवार में संस्कारक्षम वातावरण के बिन्दुओं पर सुझाव दे सकने की स्थिति आचार्य की चाहिये। ये सब बातें आचार्य और अभिभावक के परस्पर आत्मीयतापूर्ण सम्बन्धों पर ही निर्भर हैं। अभिभावकों को भी आचार्यों के प्रति सम्मानपूर्वक व्यवहार करना चाहिये। विद्यालय से अपेक्षाओं को अत्यन्त शालीनतापूर्वक आचार्य के सम्मुख प्रस्तुत करना चाहिये। अनेक परिवारों में आचार्यों को समुचित सम्मान प्रदान नहीं किया जाता। इसके कारण आचार्य उन परिवारों में सम्पर्क हेतु जाने में उपेक्षा करते हैं जो कि स्वाभाविक है। आचार्य और अभिभावक दोनों का उद्देश्य बालक का हित है। यह ध्यान में रखकर परस्पर विचार-विमर्श एवं व्यवहार होना चाहिये। अभिभावकों को भी समय-समय पर विद्यालय जाना चाहिये और प्रधानाचार्य एवं आचार्यों से सम्पर्क स्थापित कर बालक के विकास के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करते रहना चाहिये । प्रायः अभिभावक बालक के प्रवेश के समय ही विद्यालय जाते हैं और समझते हैं कि अब बालक के विकास का पूर्ण उत्तरदायित्व विद्यालय का है। यह धारणा उचित नहीं है। वास्तव में बालक के विकास का अधिक भार तो अभिभावक पर ही होता है, क्योंकि बालक विद्यालय में केवल पाँच-छः घण्टे ही रहता है, अधिकांश समय तो बालक घर पर रहता है। अतः घर पर उनके विकास की समुचित व्यवस्था एवं अभिभावकों द्वारा देख-रेख आवश्यक है। अतः अभिभावकों का विद्यालय सम्पर्क अपेक्षित है।

     

    अभिभावक सम्मेलन 

    विद्यालयों में समय-समय पर अभिभावक सम्मेलनों का आयोजन आवश्यक है। इस प्रकार के सम्मेलनों में आचार्य और अभिभावक मिलकर सामूहिक विषयों पर चिन्तन एवं विचार-विमर्श कर सकते हैं। परिवारों में संस्कारक्षम वातावरण के विषयों पर चर्चा एवं क्रियान्वयन के बिन्दु उन सम्मेलनों में अभिभावक स्वयं निश्चित करें तो उत्तम रहता है। बालकों के शारीरिक, मानसिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास में अभिभावक का योगदान, परिवारों में संस्कृति की सुरक्षा, विद्यालयों से अपेक्षायें आदि विषयों पर चर्चा इन सम्मेलनों में होनी चाहिये। कभी-कभी किसी योग्य विद्वान से भी विषयों का प्रतिपादन कराना प्रभावकारी होता है। कभी-कभी कक्षानुसार अभिभावक सम्मेलन भी उपयोगी रहते हैं। कक्षानुसार सम्मेलन में छोटा समूह होने से विषयों पर परिचर्चा खुलकर और अच्छी होती है। 

     

    सांस्कृतिक परम्परा की रक्षा और शिक्षा 

    स्वाधीनता के बाद राजनैतिक और आर्थिक स्वार्थ इतने प्रबल हो गये कि संस्कृति का कोई महत्त्व ही नहीं रहा है। वह श्रद्धास्पद न रहकर उपचार की वस्तु रह गई है। समाज में राजनैतिक एवं आर्थिक दृष्टि से समृद्ध लोगों का प्रभाव बढ़ रहा है। हमारी परिवार संस्थायें जो आज तक श्रद्धापूर्वक संस्कृति की रक्षा करती रहीं वे अब उससे उदासीन हो रही हैं। शिक्षा और समाज में पश्चिमी प्रभाव बढ़ रहा है। पर्वों एवं उत्सवों की सांस्कृतिक परम्परा का रूप क्षीण हो रहा है । अपनी इस संस्कृति को खोकर हमारा पारिवारिक जीवन कितना शून्य हो जायेगा, इसकी कल्पना हम नहीं कर सकते। संस्कृति जीवन की समृद्धि है। शिक्षा और परम्परा के द्वारा इसे सुरक्षित रखकर ही हम अपने पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन को सुन्दर और सुखी बना सकते हैं। 

     

                                                                        शिक्षा की देवी - काका साहब कालेलकर

    मैं सत्ता का दासी नहीं हूँ । कानून की किंकरी नहीं हूँ, कला की प्रतिहारी नहीं हूँ, विज्ञान की सखी नहीं हूँ, अर्थशास्त्र की बांदी नहीं हूँ। मैं तो धर्म का पुनरागमन हूँ। मनुष्य की बुद्धि, हृदय और सर्व इन्द्रियाँ की स्वामिनी हूँ । मानसशास्त्र और समाजशास्त्र मेरे दो चरण हैं, कला और कारीगिरी मेरे दो हाथ है, विज्ञान मेरा मस्तक है, धर्म मेरा हृदय है, तर्क और निरीक्षण मेरी दो आँखे हैं, इतिहास मेरे कान है, स्वातंत्र्य मेरा श्वास है, उत्साह और उद्योग मेरे दो फेफडे हैं, धैर्य मेरा व्रत है, श्रद्धा मेरा चैतन्य है, ऐसी 'मैं जगदम्बा' हूँ, जगत्धात्री हूँ। मेरा उपासक कभी किसी का भी मोहताज नहीं रहेगा, मेरी कृपा से उनकी सर्व कामनाएँ पूर्ण होंगी " । 

     


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