परीक्षा-प्रक्रिया
परीक्षा शिक्षण-प्रक्रिया का अभिन्न अंग है। यह शिक्षण का साधन है। किन्तु दुर्भाग्यवश आज के वातावरण में परीक्षा ही शिक्षण का उद्देश्य बन गयी है। विद्यार्थी परीक्षा उत्तीर्ण करने हेतु अध्ययन करते हैं। शिक्षक भी छात्रों को परीक्षा उत्तीर्ण कराने के उद्देश्य से पढ़ाते हैं । सम्पूर्ण शिक्षण-प्रक्रिया परीक्षोन्मुख बनकर रह गयी है। सही शिक्षण के लिये परीक्षा को शिक्षण का साधन मानकर चलना आवश्यक है। परीक्षा के माध्यम से छात्र द्वारा अर्जित ज्ञान के स्तर का मापन होता है जिससे छात्र को अपनी स्थिति का ज्ञान हो जाता है और तदनुसार वह अपने अध्ययन एवं अभ्यास की गति और पद्धति में सुधार ला सकता है। शिक्षक को भी परीक्षा के माध्यम से अपने छात्रों की स्थिति ज्ञात हो जाती है और वह अपनी शिक्षण-पद्धति में सुधार ला सकता है तथा आवश्यकतानुसार छात्रों की व्यक्तिश: सहायता भी कर सकता है। अतः परीक्षा का शिक्षण-प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण स्थान है।
विभिन्न प्रकार की परीक्षाओं द्वारा छात्र की विद्वता का, उसकी क्रियाशक्ति का, उसकी सामान्य योग्यता का, उसकी मेधा-शक्ति का, स्मृति का, बुद्धिकौशल का और उसकी वाक्चातुरी का परीक्षण किया जाता है। छात्र की बुद्धि
और उपलब्धि का परीक्षण करने के लिये अनेक प्रकार के बाह्य परीक्षण (ऑब्जेक्टिव टेस्ट) प्रचलित हैं, जिनके माध्यम से केवल अध्यापक ही नहीं अपितु छात्र भी अपनी प्रगति, उपलब्धि और अर्जित ज्ञान का उचित परीक्षण कर सकते हैं।
मूल्यांकन का क्षेत्र
मूल्यांकन प्रक्रिया का क्षेत्र व्यापक है। परीक्षा भी मूल्यांकन प्रक्रिया का एक भाग है। वर्तमान शिक्षाशास्त्रियों का शिक्षण में मूल्यांकन प्रक्रिया को अपनाने पर अधिक बल है। यह सभी का अनुभव है कि कागज - पेन्सिल के माध्यम से जो परीक्षण किये जाते हैं, उनके द्वारा छात्रों की शिक्षा-सम्बन्धी उन्नति और व्यवहार के बहुत सीमित भाग का मापन होता है। इसीलिये बाह्य परीक्षण को महत्त्व दिया गया है। किन्तु साथ ही छात्र के सर्वांगीण अभिलेख, व्यक्तिगत अध्ययन, साक्षात्कार, कक्षा-विवरण आदि के माध्यम से उसके व्यवहार एवं प्रगति का मूल्यांकन करने की पद्धति प्रचलित हुई, जो शैक्षिक प्रक्रिया एवं उसके उद्देश्य की प्राप्ति में सहायक सिद्ध हुई है।
मूल्यांकन का प्रमुख लक्ष्य यह देखना है कि पाठ्यक्रमों के निर्धारित उद्देश्यों की किस सीमा तक प्राप्ति हुई है। यह प्रक्रिया स्वभावतः शैक्षिक अनुभवों और शिक्षण की उन विधियों से सम्बद्ध है जो ज्ञानार्जन की प्रक्रिया में प्रयुक्त की गयी हों। मूल्यांकन प्रक्रिया से छात्रों को अध्ययन के लिये मार्गदर्शन एवं प्रेरणा प्राप्त होती है एवं शक्तियों और दुर्बलताओं का ज्ञान होता है।
स्व-मूल्यांकन
शिक्षक शिक्षण-प्रक्रिया के माध्यम से निर्धारित पाठ्यक्रम को अपनाकर शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु प्रयास करता है। उसे निरन्तर स्व-मूल्यांकन करते रहना चाहिए कि पाठ्यक्रम का जो संयोजन किया गया है वह उचित है या नहीं और उसकी प्रकृति के अनुसार छात्रों की अपेक्षित प्रगति हो रही है या नहीं। यदि नहीं हो रही है तो पाठ्यक्रम के रूप में उसके संयोजन और प्रयोग में क्या परिवर्तन अपेक्षित और वांछनीय हैं? साथ ही शिक्षक को अपने शिक्षण की पद्धति का भी मूल्यांकन करते रहना चाहिए कि वह उचित है या नहीं, तथा आवश्यकतानुसार उसमें भी सुधार या परिवर्तन करना चाहिए। शिक्षक का यह भी कर्तव्य है कि वह इस प्रकार की परिस्थिति उत्पन्न करे और ऐसी व्यवस्था करे कि स्वयं छात्र भी अपनी प्रगति और बौद्धिक विकास की गति का स्वयं मूल्यांकन कर सकें। शिक्षा के क्षेत्र में इस स्वमूल्यांकन की व्यवस्था को अत्यधिक महत्त्व प्रदान किया जा रहा है। जीवन की प्रत्येक क्रिया का, विशेषत: ज्ञानार्जन-क्रम का मूल्यांकन करते रहना चाहिए, जिससे एक ओर यह ज्ञात होता चले कि हमारी कितनी प्रगति हो रही है और दूसरी ओर प्रगति और दूसरी ओर प्रगति में बाधक सिद्ध होने वाले तत्त्वों का निराकरण करके तदनुसार पाठ्यक्रम में अथवा - शिक्षण योजना में उचित परिवर्तन किया जा सके।
मूल्यांकन सर्वांगीण एवं सतत प्रक्रिया
1. सर्वांगीण मूल्यांकन
मूल्यांकन की प्रक्रिया ऐसी अपनायी जाये जिससे शिक्षण के सभी उद्देश्यों की प्राप्ति की दिशा में हुई प्रगति का ज्ञान हो सके।
शिक्षा का उद्देश्य बालक का सर्वांगीण - अर्थात् शारीरिक, व्यावसायिक, मानसिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास माना गया है। अतः मूल्यांकन की प्रक्रिया ऐसी अपनायी जाय जिससे व्यक्तित्व के इन सभी पक्षों के विकास का मूल्यांकन होता चले। शिक्षक प्रायः मानसिक विकास के मूल्यांकन तक ही अपना प्रयास सीमित कर देते हैं तथा अन्य पक्षों की उपेक्षा कर देते हैं। इसके परिणामस्वरूप बालक का सर्वांगीण विकास उपेक्षित रहता है। अतः शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु शिक्षक को सर्वांगीण मूल्यांकन करते रहना चाहिए।
दूसरी बात, जो सर्वांगीण मूल्यांकन के लिये आवश्यक है, वह है पाठ्य विषय के शिक्षण के सभी उद्देश्यों की प्राप्ति हुई है या नहीं, इसका मूल्यांकन करना । पाठ्य विषय के तथ्यों से सम्बन्धित जानकारी छात्र को हुई या नहीं, पाठ्य विषय के मूल सिद्धान्त या तत्त्व को उसने समझा है या नहीं, अपेक्षित कुशलताओं का विकास, ज्ञान का प्रयोग कर पाना उसे आया है या नहीं तथा उसकी अभिवृत्ति का विकास एवं स्वाध्याय के क्षेत्र में छात्र ने क्या उपलब्धि की है, शिक्षण के इन समस्त पदों का मूल्यांकन करना सफल शिक्षण के लिये अपरिहार्य है।
2. सतत मूल्यांकन
मूल्यांकन शिक्षण-प्रक्रिया का अभिन्न अंग है, अतः प्रत्येक क्षेत्र में छात्रों की प्रगति का सतत मूल्यांकन होते रहना चाहिए। छात्रों को ज्ञान-प्राप्ति के बाद यथाशीघ्र ज्ञान का परिणाम मिलना चाहिए। उन्हें ज्ञात होना चाहिए कि उन्होंने क्या सीखा है और कितना सीखा है तथा कितनी अच्छी तरह सीखा है। अध्यापक को भी अपनी शिक्षण-प्रक्रिया का मूल्यांकन प्रत्येक शिक्षण इकाई समाप्त होने के पश्चात् करना चाहिए, तभी वह अपनी शिक्षण-प्रक्रिया के सम्बन्ध में अपेक्षित विचार कर सकेगा। वार्षिक, अर्थात् केवल नियमित कालावधियों पर अर्धवार्षिक या मासिक मूल्यांकन करने से मूल्यांकन का सही उपयोग नहीं हो सकता। अतः मूल्यांकन शिक्षण के साथ-साथ सतत प्रक्रिया के रूप में चलते रहना चाहिए। अनेक शिक्षाविदों ने शिक्षण के पदों में मूल्यांकन को भी एक पद के रूप में माना है।
मूल्यांकन की पद्धति
सामान्यतः मूल्यांकन की निम्नलिखित पद्धतियाँ प्रचलित हैं-
1. लिखित परीक्षा द्वारा मूल्यांकन करना। इसके लिये निबन्धात्मक, लघु निबन्धात्मक तथा विविध प्रकार के वस्तुनिष्ठ परीक्षण प्रचलित हैं।
2. छात्र द्वारा किये गये सृजनात्मक कार्य या उत्पादक कार्य का विश्लेषण करके मूल्यांकन करना ।
3. कक्षा में प्रश्नावली द्वारा अथवा विचार-मंथन करके मूल्यांकन करना ।
4. छात्र के व्यवहार का निरीक्षण करके मूल्यांकन करना । व्यवहार का निरीक्षण अनौपचारिक ढंग से भी किया जाता है और किसी विशिष्ट व्यवहार के लिये विशेष परिस्थिति का योजनाबद्ध निर्माण करके व्यवस्थित निरीक्षण भी किया जाता है।
5. पारस्परिक विचार-विमर्श द्वारा एवं व्यक्तित: अथवा समूह में साक्षात्कार के द्वारा मूल्यांकन करना ।
आदर्श मूल्यांकन-पद्धति की विशेषताएँ
मूल्यांकन की पद्धति को उपयोगी बनाने के लिये उसमें निम्नलिखित विशेषताओं का होना आवश्यक है -
1. मूल्यांकन निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति के विश्वसनीय और ठोस प्रमाण देने वाला होना चाहिए।
2. उसे क्रमश: कई उद्देश्यों और फिर सम्पूर्ण पाठ्यक्रम को अपनी सीमा में लेने वाला होना चाहिए।
3. यह बात महत्त्वपूर्ण है कि विद्यार्थी मूल्यांकन के प्रति गलत दृष्टिकोण अपनाने की अपेक्षा उसे अपनी उपलब्धियों में सुधार का साधन समझकर सही रूप में ग्रहण करे। पाठ्यक्रम के सभी विषयों में एक ही समय उत्तीर्ण होने पर बल देने और अनुत्तीर्ण होने के भय के कारण . बहुत से विद्यार्थी असन्तुलित हो जाते हैं और उनका विकास अवरुद्ध हो जाता है। अतः मूल्यांकन में लचक होनी चाहिए। मूल्यांकन की विधि ऐसी होनी चाहिए कि विद्यार्थी कण्ठस्थ करने की प्रवृत्ति न अपनाये और अपने ज्ञान का उपयोग नवीन परिस्थितियों एवं समस्याओं के समाधान ढूँढने में कर सके। छात्र तब तक आलोचनात्मक चिन्तन, सर्जनात्मकता और मूल्यात्मक निर्णय जैसी ज्ञान की उच्च सीमाओं तक पहुँचने के लिये प्रयास नहीं करेंगे, जब तक कि ज्ञान को उपयुक्त अनुभवों से विकसित करने और उसका उचित मूल्यांकन करने की व्यवस्था नहीं की जायेगी। जहाँ विद्यालयों में केवल शुष्क शैक्षिक अनुभव दिये जाते हैं या मूल्यांकन की विधि रटने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करती है, वहाँ समस्त शैक्षिक उद्देश्य निरर्थक हो जाते हैं।
4. प्राथमिक स्तर पर बालक छोटे और कोमल होते हैं। इस स्तर पर उन पर मूल्यांकन की कोई लचकहीन प्रणाली लागू नहीं की जा सकती। अत: मूल्यांकन शिक्षण-प्रक्रिया में ही सन्निहित होना चाहिए। प्रत्येक छात्र का लगातार प्रगति का लेखा रखने की प्रणाली का विकास किया जाना चाहिए। इसका आधार निरीक्षण और मौखिक परीक्षाएँ होनी चाहिए । प्रोन्नति का आधार वर्ष के अन्त में ली जाने वाली परीक्षा नहीं होनी चाहिए। सम्पूर्ण सत्र में प्रगति के लेखे के आधार पर ही बालक को अगली कक्षा में चढ़ाना चाहिए। कुछ शिक्षाशास्त्रियों का मत है कि प्राथमिक स्तर पर सामान्यतः सभी छात्रों को अगली कक्षा में चढ़ा देना चाहिए। वर्तमान में केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड तथा अनेक राज्य सरकारों ने ऐसी ही व्यवस्था लागू कर रखी है। फिर भी उन छात्रों पर विशेष ध्यान देने की व्यवस्था करनी चाहिए जो सन्तोषजनक प्रगति नहीं करते।
5. प्रत्येक क्षेत्र में विद्यार्थियों की प्रगति का सतत मूल्यांकन एक नियमित कार्य-पद्धति पर आधारित होना चाहिए। माध्यमिक एवं आगे के स्तर के विद्यार्थियों की विभिन्न विषयों में प्रगति के मूल्यांकन के लिये लिखित परीक्षाएँ भी होनी चाहिए किन्तु परीक्षण की विधि केवल निबन्धात्मक परीक्षाओं की ही नहीं होनी चाहिए। उसके लिए विभिन्न अलग-अलग पद्धतियाँ अपनानी चाहिए। प्रायोगिक परीक्षाएँ होनी चाहिए। निरीक्षण, जाँच सूचियाँ, मौखिक परीक्षाएँ, विद्यार्थियों द्वारा वस्तुओं का मूल्यांकन भी इस परीक्षण के अतिरिक्त साधनों और विधियों के रूप में प्रयोग करने चाहिए। यदि आवश्यक हो तो वार्षिक परीक्षा भी ली जा सकती है, किन्तु वर्ष में किये गये अन्य मूल्यांकनों की तुलना में इस पर अधिक बल नहीं देना चाहिए। वास्तव में किसी भी परीक्षा में कोई उत्तीर्ण अथवा अनुत्तीर्ण नहीं होना चाहिए। उनके स्तर को सूचित करने वाले अक्षरों (क, ख, ग, घ, ङ) का प्रयोग किया जा सकता है। इस मूल्यांकन का आगामी शिक्षा में उपयोग महत्त्वपूर्ण है । विद्यार्थियों को उनकी परीक्षण की गयी उत्तर-पुस्तिकाएँ लौटाकर उनकी अशुद्धियों पर बातचीत करनी चाहिए तथा उन्हें और अच्छे ढंग से कार्य कर सकने के लिये मार्गदर्शन देना चाहिए। यदि कोई विद्यार्थी अपने किसी मूल्यांकन में अपना स्तर सुधारना चाहता है तो उसे उस विषय में पुनः परीक्षा देने का अवसर दिया जाना चाहिए।
6. प्रत्येक विषय में विद्यालय द्वारा किये गये संचयित मूल्यांकन का अभिलेख (रिकार्ड) बनाया जाना चाहिए और इस प्रकार के मूल्यांकन में छात्र की समस्त गतिविधियों की प्रगति का लेखा होना चाहिए तथा विद्यालय छोड़ने के समय यह लेखा विद्यार्थी को प्रमाण-पत्र के रूप में देना चाहिए।
निष्कर्ष
मूल्यांकन का प्रयोग पाठ्यक्रम के विकास के सम्बन्ध में मुख्यतः उपयोगी होता है। किसी एक अवस्था के बालकों को लेकर उनका मूल्यांकन करने पर ही यह निश्चित करना सम्भव हो पाता है कि अमुक अवस्था के बालकों को कौन से विषय, किस सीमा तक, किस पद्धति से सिखाये जायें। अतः मूल्यांकन का शिक्षण-प्रक्रिया में सतत प्रयोग नितान्त आवश्यक है। इसका निरन्तर प्रयोग करते रहने से पाठ्यक्रम में नवीन विषय जोड़ने, पुराने विषय कम करने, घटाने या बढ़ाने का नियोजन भी किया जा सकता है। अतः शिक्षक को निर्धारित पाठ्यक्रम का दास न बनकर उसे इस प्रकार नियोजित करते रहना चाहिए कि व्यापक रूप से छात्रों का हित और उनका सर्वांगीण विकास हो, जिसका अनुभव और मूल्यांकन स्वयं छात्र भी कर सकें और अभिभावक भी।