Jump to content
नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • मनोविज्ञान और शिक्षा 

       (0 reviews)

    Vidyasagar.Guru

     

    शिक्षा-दर्शन के द्वारा शिक्षा की दिशा निर्धारित होती है। शिक्षा के लक्ष्य तथा शिक्षा के विभिन्न पक्षों का स्वरूप क्या हो, यह शिक्षा-दर्शन निश्चित करता है। किन्तु शिक्षा के लक्ष्य कैसे प्राप्त किये जा सकते हैं? अथवा, शिक्षा की पद्धति क्या हो? यह मनोविज्ञान द्वारा निर्धारित होता है। अतः शिक्षा एवं मनोविज्ञान का घनिष्ठ सम्बन्ध है। शिक्षा मानव विकास की प्रक्रिया है। मनोविज्ञान मानव-प्रकृति का अध्ययन करता है, मनस् तत्त्व की व्याख्या करता है। प्रकृति एवं मनस्, विकास के अभिकरण हैं। मनोविज्ञान शिक्षा की प्रक्रिया में सहायक होता है। इसी कारण शिक्षा मनोविज्ञान का विकास स्वतन्त्र विषय के रूप में हुआ है। 

     

     

    मनोविज्ञान का शाब्दिक अर्थ मन का विज्ञान है। 'साइकोलॉजी' शब्द का अर्थ आत्मा का विज्ञान है। पश्चिमी जगत् में पहले आत्मा (सोल) के विज्ञान के रूप में मनोविज्ञान की मान्यता थी । किन्तु कुछ शताब्दियों के पश्चात् आत्मा को एक दार्शनिक एवं धार्मिक प्रत्यय कहा गया और उसके स्थान पर मन (माइण्ड) को स्वीकार किया गया। परन्तु मन क्या है? उसका स्वरूप क्या है ? पश्चिम के मनोविज्ञानवेत्ता इसका निश्चित उत्तर नहीं दे सके। अतः भौतिकवादियों ने मनोविज्ञान के अध्ययन का विषय जीव का व्यवहार निश्चित किया है। 

     

    पाश्चात्य मनोविज्ञान 

    पाश्चात्य मनोविज्ञान के इतिहास की ओर ध्यान देने से हमें ज्ञात होता है कि यह तथाकथित वैज्ञानिक रूप इसको बहुत थोड़े समय से प्राप्त हुआ है। सत्रहवीं शताब्दी तक इसका कोई विशिष्ट रूप नहीं था। इसकी प्रगति अन्य विज्ञानों में नवचेतना व प्रगति आने के साथ हुई है | शरीरशास्त्र के अन्वेषणों का प्रभाव इसके ऊपर अधिक पड़ा, क्योंकि इन दोनों का अत्यधिक घनिष्ठ सम्बन्ध है और दोनों की समस्याएँ एवं पद्धतियाँ भी बहुत कुछ मिलती-जुलती-सी हैं। इसी कारण शरीर - विज्ञान की प्रयोगात्मक पद्धति के प्रचलन से प्रेरणा लेकर मनोविज्ञान भी प्रयोगात्मक बना। 1889 में सर्वप्रथम वुण्ट ( Wundt) ने जर्मनी में लीपजिग विश्वविद्यालय में एक मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला स्थापित की और मनोविज्ञान को एक स्वतन्त्र विज्ञान के रूप में विकसित करने का श्रेय प्राप्त किया। 

     

    19वीं शताब्दी में मनोविज्ञान का पर्याप्त विकास हुआ। उस समय अनेक मनोवैज्ञानिक सम्प्रदायों का जन्म हुआ । किन्तु वे सभी मन के केवल चेतन तत्त्वों के अध्ययन तक ही सीमित रहे । चिकित्साशास्त्र में जब औषधियों के द्वारा अनेक रोगों का निवारण चिकित्सक नहीं कर सके तो उन रोगों का निवारण करने के लिये उनका कारण जानने का प्रयत्न किया गया। फ्रायड (Freud) ने इस अन्वेषण में अवचेतन मन (subconscious mind) के विषय में ज्ञान प्राप्त किया। उसके अनुसार मनुष्य की सारी क्रियाएँ एवं सारा जीवन अवचेतन मन से शासित होता है । फ्रायड ने उस मानसिक शक्ति को, जिसके द्वारा क्रियाओं को प्रेरणा और गति मिलती है, कामशक्ति (Libido) माना है। इस शक्ति का दमन करने से अनेक मानसिक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। फ्रायड के इस मनोविश्लेषणवादी सम्प्रदाय में एडलर, युंग आदि अनेक मनोवैज्ञानिक हुए, जिनमें परस्पर भी मतभेद थे। 

     

    बीसवीं शताब्दी के प्रयोजनवादियों ने, जिनमें विलियम मैक्डूगल प्रमुख थे, मनुष्य के प्रत्येक व्यवहार को प्रयोजनपूर्ण माना है और यह प्रयोजन मूल प्रवृत्तियों के द्वारा निश्चित होता है । व्यवहारवादी सम्प्रदाय के प्रमुख, अमेरिकी मनोवैज्ञानिक जे० वी० वाट्सन मानव को यन्त्रवत् मानते है | चेतन का अस्तित्व उनके यहाँ भ्रम मात्र है। उनके अनुसार मनोविज्ञान का विषय केवल प्राणी के व्यवहार का अध्ययन करना है। जर्मनी का अवयवीवाद सम्प्रदाय है, जिसके प्रमुख प्रवर्तकों में डाक्टर मैक्सवरदीमर, कर्ट कौफका, कोहलर आदि हैं। वे चेतना का पूर्णता के रूप में अध्ययन करते हैं। उनके अनुसार चेतना पूर्ण इकाई है। अलग-अलग अवयवों के मिलने से अवयवी का ज्ञान नहीं होता । 

     

    आधुनिक पाश्चात्य मनोविज्ञान आज पर्याप्त विकसित अवस्था में है। उसका क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत हो चुका है। किन्तु वह क्षेत्र संवेदना, उद्वेग, प्रत्यक्षीकरण, कल्पना, विचार, स्मृति आदि मानसिक प्रक्रियाओं तथा उनको उत्पन्न करने वाले भौतिक कारणों और शारीरिक अवस्थाओं के अध्ययन तक ही सीमित है। उसके अनुसार हमको जो कुछ भी ज्ञान प्राप्त होता है वह सब ज्ञानेन्द्रियों से सम्बन्धित नाड़ियों द्वारा बाह्य जगत् की उत्तेजनाओं के प्रभाव मस्तिष्क के विशिष्ट केन्द्रों में पहुँचने से प्राप्त होता है। वह मानसिक विचारों और भावों को मस्तिष्क के भौतिक तत्त्वों की क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं के रूप में जानता है। वह संवेदना एवं चेतना को मस्तिष्क-बल्कुट (cerebral cortex) की क्रिया मानता है। वह मस्तिष्क के कार्य से भिन्न आत्मा व मन का अस्तित्व स्वीकार नहीं करता । 

     

    भारतीय मनोविज्ञान 

    भारतीय मनोविज्ञान का इतिहास अति प्राचीन है। पतञ्जलि का योगशास्त्र विशुद्ध मनोविज्ञान का शास्त्र है। इस शास्त्र में मानव की प्रकृति का अत्यन्त सूक्ष्म अध्ययन किया गया है। पाश्चात्य मनोविज्ञान की पहुँच स्थूल अर्थात् भौतिक तत्त्व से आगे है ही नहीं। पातञ्जल योग- मनोविज्ञान विशुद्ध प्रायोगिक विज्ञान है । पाश्चात्य मनोविज्ञान अधूरा है। उसकी सबसे बड़ी कमी यह है कि वह मन और आत्मा को अपने अध्ययन का विषय ही नहीं मानता। भारतीय मनोविज्ञान के अनुसार आत्मा और मन ( अन्त:करण - मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) के अध्ययन के बिना मानव-व्यवहार का अध्ययन ही व्यर्थ है । इन्द्रियाँ भी मन के सहयोग के बिना ज्ञान प्रदान नहीं कर सकतीं; हमें बाह्य जगत् का ज्ञान- इन्द्रिय-विषय सन्निकर्ष होने पर भी विषय का ज्ञान नहीं होता । भारतीय मनोविज्ञान के अनुसार भन इन्द्रियों द्वारा लाये हुए विषय को ग्रहण करता है तथा उसे बुद्धि को अर्पित करता है। बुद्धि चित्त के संस्कारों के आधार पर अहंकार के सहयोग से उस विषय को अर्थ प्रदान करती है एवं प्रतिक्रिया बाहर भेजती है। परन्तु यह समस्त प्रक्रिया चेतन सत्ता - आत्मा के प्रकाश में घटित होती है। मस्तिष्क, इन्द्रियाँ, मन (अन्तःकरण) - ये तो जड़ हैं; चेतना का केन्द्र आत्मा है, उसके बिना विषयानुभूति या ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। 

     

    आधुनिक पाश्चात्य मनोविज्ञान विशुद्ध भौतिकवाद पर आधारित है। वह दृश्य जगत् एवं इन्द्रियजन्य ज्ञान के अतिरिक्त कुछ स्वीकार करने को तैयार नहीं है, यद्यपि अब पश्चिम के भौतिक वैज्ञानिक भी सृष्टि के परे आध्यात्मिक सत्ता को मानने को बाध्य हो रहे हैं। सर आर्थर एडिंगटन ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'ऑन दि नेचर ऑफ दि फिजिकल वर्ल्ड' में कहा है- 

     

    “किसी अज्ञात क्रियाकलाप में कोई अज्ञात कारण प्रवृत्त हो रहा है जिसके विषय में हम कुछ नहीं कह सकते। हमें किसी ऐसे मूल तत्त्व का भौतिक जगत् में सामना करना पड़ रहा है जो इस भौतिक जगत् के परे का पदार्थ है । " 

     

    मनोविज्ञान के क्षेत्र में भी पश्चिमी विद्वान वैज्ञानिक प्रणाली द्वारा 'मन के परे' जाने के प्रयत्न में लगे हैं। पैरासाइकोलॉजी नाम का नया मनोविज्ञान विकसित हो रहा है। ई०एस०पी० (एक्स्ट्रा सेन्सरी परसेप्शन - अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष ) पर प्रयोग हो रहे हैं। 

     

    अमेरिका के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक डाक्टर राइन अनेक वर्षों से 'मन के परे' जाने की खोज में लगे हैं। 8 दिसम्बर, 1957 के 'दि अमेरिकन वीकली' में उनका एक लेख प्रकाशित हुआ था। इस लेख में वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि मृत्यु के बाद जीवन को विज्ञान असत्य सिद्ध नहीं कर सका है। आज पश्चिमी देशों में भी वैज्ञानिक इस बात को धीरे-धीरे स्वीकार करने लगे हैं कि इस समस्त भौतिक जगत् के पीछे कोई आध्यात्मिक चेतन सत्ता है । अतः पश्चिम का यह भौतिकवाद पर आधारित मनोविज्ञान मानसिक समस्याओं को पूर्णत: समझने में समर्थ नहीं है। 

     

    श्री अरविन्द ने मानव - मन पर विचार प्रकट करते हुए कहा है- " इसमें सन्देह नहीं कि प्राचीन पद्धतियों की अपेक्षा आज की यूरोपीय शिक्षा-पद्धति बहुत आगे बढ़ी हुई है, किन्तु उसकी त्रुटियाँ भी स्पष्ट दिखाई देती हैं। वह मानव मनोविज्ञान के अपर्याप्त ज्ञान पर आधारित है। " आज भारत में शिक्षा का आधार यही पश्चिम का आधुनिक अपूर्ण मनोविज्ञान बना हुआ है। अब भारत में मनोविज्ञान का अध्ययन पश्चिमी मनोविज्ञान तक ही सीमित है। अपने देश में ऐसे बहुत कम मनोवैज्ञानिक हैं जो 'भारतीय मनोविज्ञान' से परिचित हैं। अतः आज भारतीय मनोविज्ञान के अध्ययन की एवं उसके विकास की अत्यधिक आवश्यकता है। भारत में मनोविज्ञान वेदों और उपनिषदों तथा अन्य दार्शनिक विचारधाराओं से सम्बन्धित रहा है। भारतीय मनोविज्ञान का जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध माना गया है। पुरुषार्थ - विवेचन भी इसी आधार पर हुआ है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के मूल में भी मनुष्य की मनोवैज्ञानिक आवश्यकताएँ हैं। प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री एवं मनोवैज्ञानिक डॉक्टर सीताराम जायसवाल ने कहा है- " हमारी भारतीय परम्परा और पश्चिमी परम्परा, जिसमें यूरोप और उत्तरी अमेरिका प्रमुख हैं, मनोविज्ञान की ऐतिहासिक रूपरेखा में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। हमें इस अध्ययन में उन प्रकाश - स्थलों पर ध्यान देना है जो भारत और पश्चिम में मनोविज्ञान के विकास को स्पष्ट करते हैं। इस प्रकार तुलनात्मक रीति से मनोविज्ञान के इतिहास का अध्ययन विषय की एकता को बल प्रदान करता है। वह दिन दूर नहीं जब हम पूर्व और पश्चिम के भेद को भूल जायेंगे। जिस प्रकार हम विज्ञान के अन्य क्षेत्रों में विश्व दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं, उसी प्रकार मनोविज्ञान के अध्ययन में भी हमें विश्व दृष्टिकोण अपनाना होगा। लेकिन अभी मनोविज्ञान के क्षेत्र में भारत की देन की अवहेलना हो रही है। यह आवश्यक है कि हम संसार के अन्य देशों का, विशेषकर पश्चिमी देशों का, ध्यान भारत में हुए मनोविज्ञान के विकास की ओर आकर्षित करें। "1 

     

    विद्वान लेखक ने अपने इस ग्रन्थ में भारतीय मनोविज्ञान के विकास की ऐतिहासिक रूपरेखा का विशद ढंग से विवेचन करते हुए यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि भारतीय मनोविज्ञान का विकास दर्शन के वैज्ञानिक स्वरूप के साथ अति प्राचीन काल से हुआ है। लेखक ने ग्रन्थ के अन्तिम अध्याय में यह विश्वास प्रकट किया है कि विश्व में मनोविज्ञान का भावी विकास भारतीय आध्यात्मिक मान्यताओं के आधार पर होकर रहेगा। 

     

    उपर्युक्त विवेचन का सारांश यह है कि आज भारतीय मनोविज्ञान के अध्ययन एवं विकास की अत्यन्त आवश्यकता है। 'पश्चिमी मनोविज्ञान' के पुजारी 'भारतीय मनोवैज्ञानिक' अपने अज्ञान को यह कहकर छिपाते हैं कि भारत में मनोविज्ञान था ही नहीं। जो कुछ भारतीय मनोविज्ञान के नाम पर लिखा गया है वह वास्तव में भारतीय दर्शन है, मनोविज्ञान नहीं है। किन्तु इस मत के मानने वाले यह भूल जाते हैं कि भारतीय 'दर्शन' पश्चिम की 'फिलासफी' का पर्यायवाची शब्द नहीं है। पश्चिम में 'फिलासफी' कल्पना की उड़ान मानी जाती है। उसका तथ्यों एवं व्यावहारिक जीवन से सम्बन्ध नहीं रहता।

    1. डॉ० सीताराम जायसवाल - 'मनोविज्ञान की ऐतिहासिक रूपरेखा', पृष्ठ 31 

     

    भारतीय दर्शन  जीवन का व्यवहार होता है। इसलिये भारतीय मनोविज्ञान जीवन-दर्शन का अभिन्न अंग है। भारतीय दृष्टिकोण से दर्शन और जीवन एक है। मनोविज्ञान के अध्ययन का विषय जीवन के निमित्त सभी प्रकार के चेतन-अचेतन व्यवहार एवं चेष्टाएँ हैं। यही कारण है कि भारत में दर्शन और मनोविज्ञान अभिन्न विषय हैं। 

     

    आज के पश्चिमी मनोवैज्ञानिक यह मानते हैं कि वैज्ञानिक प्रणाली के द्वारा जिसे प्रयोग द्वारा सिद्ध किया जा सके, वह वैज्ञानिक है। आधुनिक पश्चिमी मनोविज्ञान वस्तुनिष्ठता ( आब्जेक्टिविटी) को आधार मानता है। भारतीय मनोविज्ञान में जीवन के दोनों पक्षों, अन्तः और बाह्य में से अन्तःपक्ष की प्रधानता है । अतः अन्तःपक्ष के अध्ययन की प्रणाली में व्यक्तिनिष्ठता (सब्जेक्टिविटी) भारतीय मनोविज्ञान की मान्यता के अनुसार उतनी ही प्रामाणिक है जितनी वस्तुनिष्ठता । आधुनिक मनोविज्ञान में फ्रायड और उसके अनुयायियों ने मानव मन के विषय में जो कुछ ज्ञात किया, उसका आधार प्रचलित वैज्ञानिक प्रणाली नहीं है। यदि मनोविश्लेषण में वैज्ञानिक प्रणाली का प्रयोग किया जाये तो कुछ भी ज्ञात नहीं होगा । वास्तविकता यह है कि विषय के अनुरूप अध्ययन की प्रणाली अपनानी पड़ती है। 

     

    पाश्चात्य मनोविज्ञान भौतिक विज्ञान पर आधारित होने के कारण केवल इन्द्रिय- सापेक्ष ज्ञान को ही मानता है। भारतीय मनोविज्ञान में ज्ञान इन्द्रियनिरपेक्ष तथा इन्द्रिय- मनः- सापेक्ष, दोनों ही प्रकार का माना गया है। भारतीय मनोविज्ञान में योगाभ्यास के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति ठीक दूसरे अभ्यासी के समान ही अनुभव प्राप्त कर सकता है, जो कि पूर्णतः वैज्ञानिक पद्धति है। भारतीय मनोविज्ञान की एक विशेषता और है कि इसके द्वारा मन की पूर्ण शक्तियों का ज्ञान तो प्राप्त होता ही है, साथ ही मन को विकसित करने की प्रणाली भी भारतीय मनोविज्ञान बताता है। पाश्चात्य मनोविज्ञान मानव मन की शक्तियों का ज्ञान भी अभी तक पूर्ण रूप से प्राप्त नहीं कर सका है, उसके विकास की बात तो उसके क्षेत्र की सीमा के बाहर मानी जाती है। श्री अरविन्द मन को छठी इन्द्रिय मानते है; उसके विकास को भारतीय शिक्षा-पद्धति का महत्त्वपूर्ण अंग मानते हैं। श्री अरविन्द ने कहा है, “पारेन्द्रिय ज्ञान ( टेलीपैथी), अतीन्द्रिय दर्शन, अतीन्द्रिय श्रवण, पूर्वबोध, पर- विचार - ज्ञान, चरित्र - ज्ञान, आदि बहुत-सी नयी विद्याएँ और खोजें मन की पुरानी क्षमताएँ हैं जिन्हें अविकसित छोड़ दिया गया है। ये सब मन की शक्तियाँ हैं। मानव - प्रशिक्षण में इस छठी ज्ञानेन्द्रिय के विकास को कोई स्थान नहीं मिला। भावी युग में निस्सन्देह इसे मानव मात्र के लिये आवश्यक प्राथमिक प्रशिक्षण में स्थान मिलेगा। "

     

    भारतीय शिक्षा दर्शन के अनुसार जिस परिपूर्ण मानव का विकास शिक्षा के माध्यम से हमें करना है उसकी पूर्ति प्रचलित आधुनिक पाश्चात्य मनोविज्ञान नहीं कर सकता । पाश्चात्य मनोविज्ञान अपूर्ण है, अतः भारतीय शिक्षा दर्शन के अनुरूप शिक्षा-पद्धति का आधार भारतीय मनोविज्ञान को ही बनाना पड़ेगा । भारतीय शिक्षा दर्शन एवं भारतीय मनोविज्ञान पर आधारित शिक्षण-पद्धति ही भारत की राष्ट्रीय शिक्षण-पद्धति होगी। अतः भारतीय विद्वानों एवं मनोवैज्ञानिकों को इस तथ्य को स्वीकार कर प्रयास करना होगा। भारतीय मनोविज्ञान अपने में पूर्ण है। आधुनिक पाश्चात्य मनोविज्ञान से कहीं अधिक विस्तृत क्षेत्र भारतीय मनोविज्ञान तथा योग - मनोविज्ञान का है। भारतीय मनोविज्ञान के अध्ययन से पाश्चात्य मनोविज्ञान की अपूर्णता की पूर्ति भी होगी और इस प्रकार शिक्षा-जगत् को एक सर्वांगपूर्ण मनोविज्ञान उपलब्ध हो सकेगा। 

     


    User Feedback

    Create an account or sign in to leave a review

    You need to be a member in order to leave a review

    Create an account

    Sign up for a new account in our community. It's easy!

    Register a new account

    Sign in

    Already have an account? Sign in here.

    Sign In Now

    There are no reviews to display.


×
×
  • Create New...