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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • शिक्षा

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    Vidyasagar.Guru

     

    शिक्षा जीवन के विकास का पर्याय 

    शिक्षा मनुष्य-जीवन के परिष्कार एवं विकास की प्रणाली है। जीवन के प्रत्येक अनुभव को शिक्षा कहा जा सकता है। वास्तव में समस्त मानव-जीवन ही शिक्षा है और शिक्षा ही जीवन है। जो कुछ भी व्यवहार मनुष्य के ज्ञान की परिधि को विस्तृत करे, उसकी अन्तदृष्टि को गहरा करे, उसकी प्रतिक्रियाओं का परिष्कार करे, भावनाओं और क्रियाओं को उत्तेजित करे अथवा किसी न किसी रूप में उसको प्रभावित करे वह 'शिक्षा' ही है। शिक्षाशास्त्र में व्यक्तित्व के सन्तुलित एवं सम्पूर्ण विकास को शिक्षा का लक्ष्य माना गया है। शिक्षा मनुष्य की आन्तरिक शक्तियों का सर्वांगीण, अर्थात् शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का विकास है। 

     

     

    शिक्षा का सम्बन्ध जितना व्यक्ति से है, उससे अधिक समाज से है। मानव-जीवन में जो कुछ भी अर्जित है वह शिक्षा का ही परिणाम है। व्यक्ति का चरित्र, व्यक्तित्व, संस्कृति, चिन्तन, सूझ-बूझ, कुशलताएँ, आदतें तथा जीवन की छोटी से छोटी बातें शिक्षा पर निर्भर हैं। वास्तव में शिक्षा वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा मानव-शिशु सब प्रकार से विकसित होकर समाज में उपयुक्त स्थान ग्रहण करता है। शिक्षा के माध्यम से सहस्रों वर्षों से समाज द्वारा अर्जित अनुभव बालक को हस्तान्तरित कर दिये जाते हैं। शिक्षा के माध्यम से ही वह अपनी राष्ट्रीय थाती एवं संस्कृति को ग्रहण करता है। शिक्षा के द्वारा उसका शारीरिक, मानसिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास होता है। शिक्षा के द्वारा उसके चरित्र का निर्माण होता है, उसका समाजीकरण होता है और वह मनुष्य की संज्ञा पाने योग्य बनता है। 

     

    इस प्रकार शिक्षा के माध्यम से प्रत्येक पीढ़ी के साथ समाज की प्राचीन निधि का संरक्षण, संवर्धन एवं हस्तान्तरण होता रहता है। यदि शिक्षा न हो तो 'समाज' का जन्म ही नहीं हो। समाज जीवन का प्रवाह शिक्षा के कारण ही गतिशील होकर विकास की ओर अग्रसर होता है। अतः शिक्षा की प्रक्रिया को मूलतः सामाजिक दृष्टिकोण से देखना आवश्यक है। भारतीय वाड्मय में इसे ऋषि ऋण कहा गया है, जिससे उऋण होना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है। जब हम भावी सन्तति की शिक्षा की व्यवस्था करते हैं, उसके विकास का प्रयास करते हैं, तो हम उसके प्रति कोई उपकार नहीं करते, प्रत्युत् हमें जो कुछ धरोहर अपने पूर्वजों से प्राप्त हुई है उसे अगली पीढ़ी को सौंपकर उनके ऋण से उऋण होते हैं। एक विद्वान् ने इसी भाव को इन शब्दों में व्यक्त किया है- “हम भूत के ऋण से उऋण हो सकते हैं, यदि हम भविष्य को अपना ऋणी बना दें। " 

     

    साधारणतया 'अक्षर-ज्ञान' या पाठ्य-पुस्तक अथवा विभिन्न विषयों के पाठ्य-क्रम के अध्ययन को ही शिक्षा समझा जाता है। किन्तु वास्तव में शिक्षा का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। मानव के ज्ञान का बहुत ही थोड़ा अंश भाषा के द्वारा व्यक्त किया जा सकता है और उसमें से भी बहुत थोड़ा अंश लिपिबद्ध । अतः लिपि - ज्ञान अथवा भाषा - ज्ञान से शिक्षा का पूर्ण उद्देश्य सिद्ध नहीं होता । शिक्षण के अन्तर्गत वे सब क्रियाएँ आती हैं जिनके द्वारा कोई भी व्यक्ति या व्यक्ति समूह अपने पास के ज्ञान को दूसरे को देने का प्रयास करता है। यह प्रयास पाठशालाओं और विश्वविद्यालयों में ही नहीं, अपितु घर-घर में तथा खेत, खलिहान, कारखानों, दुकानों, कला भवनों, खेल के मैदानों और मल्लशालाओं में चलता रहता है। प्राचीन काल में कथा और कीर्तन एवं आधुनिक काल में रेडियो, सिनेमा, समाचार-पत्र आदि भी इस शिक्षण-प्रक्रिया की सीमा में आते । इस प्रकार मनुष्य का शिक्षण केवल विद्यार्थी जीवनकाल तक ही सीमित नहीं होता, अपितु जीवन-भर चलता रहता है। वास्तव में " समस्त मानव-जीवन शिक्षा है और शिक्षा ही जीवन है। " कभी-कभी हम विद्यालयों में औपचारिक शिक्षा प्राप्त न करने वाले अथवा असाक्षर व्यक्ति को अशिक्षित समझते हैं, जोकि अनुचित है। प्रायः देखा जाता है कि औपचारिक शिक्षा प्राप्त व्यक्ति अमानवीय व्यवहार करता है और निरक्षर व्यक्ति व्यवहार, भावना एवं ज्ञान में उससे कहीं अधिक श्रेष्ठ होता है। इसका अर्थ यह है कि शिक्षा अक्षर ज्ञान तक सीमित नहीं है। 

     

    उपर्युक्त विवेचन का यह अर्थ नहीं है कि औपचारिक शिक्षा के लिये शिक्षा-संस्थाओं की आवश्यकता नहीं है। वास्तव में शिक्षा संस्थाओं की राष्ट्र - जीवन के लिये एवं उसके विकास के लिये परम आवश्यकता है। जिस देश में 'शिक्षा' की व्यवस्था जितनी व्यापक और गहरी होगी, राष्ट्र - जीवन उतना ही अधिक पुष्ट और गम्भीर होगा। नयी पीढ़ी के जितने अधिक लोगों को और जितनी अधिक मात्रा में पिछली ज्ञान-निधि प्राप्त होगी, उसी पूँजी को लेकर वह जीवन के कार्य-क्षेत्र में उतरेगी। इस पीढ़ी से यह भी स्वाभाविक अपेक्षा है कि प्राप्त पूँजी में अपने प्रयत्न और अनुभव के आधार पर वृद्धि करे । इस प्रकार वह पूँजी बराबर बढ़ती जायेगी । इसके लिये यह आवश्यक है कि इस आदान-प्रदान की प्रक्रिया में कम से कम छीजन (Depreciation) हो। साथ ही उस ज्ञान और अनुभव के अनावश्यक अंगों का परित्याग और उपयोगी तत्त्वों का संरक्षण बड़े मनोयोग से करना होगा । उस ज्ञान- परम्परा का विनियोग राष्ट्र की आवश्यकताओं एवं देश, काल, परिस्थिति के अनुसार करने की प्रविधि (टेक्नीक) भी विकसित करनी होती है। इसके लिये अनुसंधान, चिन्तन एवं प्रयोग करने हेतु व्यक्तिगत एवं संस्थागत प्रयास करने होते हैं। ऐसे लोगों की आवश्यकता होती है जो इस ज्ञान - परम्परा को आत्मसात् करके सुबोध बना सकें। ऐसे लोगों को ही शिक्षक एवं आचार्य कहा जाता है तथा इसके संगठित प्रयास के लिये शिक्षण संस्था - विद्यालयों की आवश्यकता होती है। 

     

    शिक्षा एक संस्कार - प्रक्रिया है। मनुष्य अनजाने में ही अपने चारों ओर के समाज से संस्कार ग्रहण करता रहता है। उसमें समाज का प्रतीक व्यक्ति 'शिक्षक' का काम करता है। 'संस्कार' यद्यपि दोनों ओर से चलने वाली प्रक्रिया है, तथापि मनोविज्ञान के सिद्धान्त के अनुसार अनुकरण, संवेदना एवं सुझावात्मक प्रवृत्तियों के कारण समर्थ व्यक्ति की क्रियाएँ ही प्रभावी होती हैं। माता-पिता, परिजन, पुरजन, गुरुजन, अग्रपाठी, सहपाठी, समाज के नेता, अधिष्ठाता, ये सभी नवीन पीढ़ी पर विभिन्न प्रकार के संस्कार डालते हैं। अत: इन सब अग्रजनों को यह विचार करना चाहिए कि उनकी क्रियाओं का परिणाम केवल उन पर ही नहीं बल्कि दूसरों पर, विशेष रूप से नयी पीढ़ी पर पड़ता है। शिक्षा-संस्थाएँ अकेले ही मनुष्य का निर्माण नहीं करती। संस्कार का बहुत सा क्षेत्र शिक्षा-संस्थाओं के क्षेत्र से बाहर है। इसलिये शिक्षा संस्था एवं बाहर का वातावरण, दोनों संस्कारक्षम चाहिए, तभी बालक का सन्तुलित विकास सम्भव है । यदि इन दोनों क्षेत्रों में विरोध रहा तो विद्यार्थी के जीवन में एक अन्तर्द्वन्द्व खड़ा हो जाता है। समन्वित, एकीकृत, सर्वांगपूर्ण, अखण्ड व्यक्तित्व का विकास होने के स्थान पर उसकी प्रकृति में विभक्त निष्ठाओं का समावेश हो जाता है। समाज और उसके बीच एक खाई पड़ जाती है। अतः व्यक्ति एवं समाज के समुचित विकास के लिये शिक्षा - संस्थाओं एवं बाहर के परिवेश में संस्कारों की दृष्टि से सामंजस्य आवश्यक होता है। 

     

    भारतीय संस्कृति में शिक्षा को पवित्रतम प्रक्रिया माना गया है। गीता में श्रीकृष्ण ने ज्ञान को पवित्रतम घोषित किया है- " न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते । " महाभारत में कहा गया है- “नास्ति विद्यासमं चक्षुः " अर्थात् विद्या के समान कोई दूसरा नेत्र नहीं होता। भारतीय दर्शन में अज्ञान को अन्धकार और ज्ञान को प्रकाश माना गया है। शिक्षा एक प्रकाश है। अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाना शिक्षा का प्रमुख कार्य है। 

     

    डा० अनन्त सदाशिव अल्तेकर ने प्राचीन भारतीय शिक्षा के सन्दर्भ में लिखा है- "प्राचीन भारत में शिक्षा अन्तर्ज्योति और शक्ति का स्रोत मानी जाती थी जो शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक शक्तियों के सन्तुलित विकास से हमारे स्वभाव में परिवर्तन करती तथा उसे श्रेष्ठ बनाती है । इस प्रकार शिक्षा हमें इस योग्य बनाती है कि हम समाज में एक विनीत और उपयोगी नागरिक के रूप में रह सकें। यह अप्रत्यक्ष रूप में हमें इहलोक और परलोक दोनों में आत्मिक विकास में सहायता देती है। "

     

    शिक्षा आध्यात्मिक प्रक्रिया 

    शिक्षा जीवन का विकास है। भारतीय दर्शन के अनुसार जीवन का अधिष्ठान अध्यात्म है। अध्यात्म का सम्बन्ध आत्मा से है। आत्मा मनुष्य की सत्ता का अन्तरतम मर्म है। भारतीय चिन्तन में आत्मा को मन, बुद्धि, इन्द्रियों एवं अहंकार से परे माना है । इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि आत्मा की शक्ति से ही प्रेरित होती हैं। आत्मा के प्रकाश से ही वे विषयों के अधिगम में समर्थ होती हैं। आत्मा समस्त ज्ञान का आधार है। शिक्षा मुख्यतः ज्ञान की साधना है। ज्ञान चेतना का विकास है। इस प्रकार शिक्षा चेतना का ही संवर्धन है। हमारे धर्म-ग्रन्थों में कहा गया है कि विद्या श्रद्धा के द्वारा ही प्राप्त होती है। गीता में भी कहा गया है- श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानम्" । श्रद्धा से ही ज्ञान प्राप्त होता है। प्रेम, आदर एवं विश्वास के सम्मिलित भाव को ही श्रद्धा कहते हैं। ज्ञान चेतना का विस्तार होने के कारण श्रद्धा से इस विस्तार में अनुकूलता उत्पन्न होती है। श्रद्धा का विपरीत भाव अहंकार है। अहंकार से चेतना का संकोच होता है जो कि ज्ञान प्राप्त करने में बाधक है। भारतीय परम्परा में सरस्वती को विद्या की देवी का रूप देकर इस श्रद्धा के भाव को आध्यात्मिक रूप दे दिया है। सरस्वती का भव्य रूप कला सहित विद्या का साकार रूप ही है। सरस्वती को हमने माँ का स्थान दिया है। माँ अपने हृदय के रस से बालक का पोषण करती है, उस माँ के अनन्त उपकार को पुत्र श्रद्धा के पवित्र भाव से स्वीकार करता है। माँ सरस्वती विद्या एवं ज्ञान से हमारा पोषण करती है। हम भी श्रद्धा के पवित्रतम मातृभाव से उसकी आराधना करते हैं। 

     

    विद्या के अर्जन में गुरु अर्थात् शिक्षक का महत्त्व कम नहीं है। गुरु के सहयोग से ही बालक विद्या के मार्ग में आगे बढ़ता है। गुरु का सहयोग श्रद्धा और सेवा के द्वारा ही प्राप्त हो सकता है। श्रद्धा एवं सेवा से प्रसन्न होकर ही गुरु शिष्य को विद्यादान करने की ओर अभिमुख होता है। वास्तव में विद्या गुरु की ओर से शिष्य के प्रति आत्मदान है जो कि एक आध्यात्मिक प्रक्रिया ही है। विद्या का व्यवसाय नहीं हो सकता। व्यवसाय से प्रेरित विद्या साधारण कोटि की ही होगी। शास्त्रों, कलाओं और दर्शनों आदि की उत्तम विद्या धन से प्राप्त नहीं हो सकती । इसीलिये कोई भी धनवान केवल धन के बल से न विद्यावान बन सका और न बन सकेगा। 

    विद्या बौद्धिक साधना है। राग, द्वेष, क्रोध, अहंकार आदि मन के विकारों से बुद्धि आच्छादित हो जाती है, अर्थात् ज्ञान-शक्ति का नाश हो जाता है। गीता में कहा है- 

     

    क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः । 

    स्मृतिभ्रंशादबुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥ ( 2/63 ) 

     

    क्रोध से अविवेक उत्पन्न होता है और अविवेक से स्मरण शक्ति भ्रमित हो जाती है। स्मृति के भ्रमित होने से बुद्धि अर्थात् ज्ञान-शक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश होने से व्यक्ति अपने श्रेय - साधन से गिर जाता है। 

     

    विद्या की साधना की सफलता हेतु मन को इन विकारों से बचाये रखना परम आवश्यक है। इसीलिये प्राचीन भारतीय शिक्षा में ब्रह्मचर्य की महिमा थी । ब्रह्मचर्य कोई प्राचीन रूढ़ि नहीं है। वह संयम और साधना का सनातन मन्त्र है। संयम और साधना की पीठिका पर ही ज्ञान की साधना होती है। ये सब अध्यात्म की अभिव्यक्ति के रूप हैं। इसी अध्यात्म के द्वारा उत्तम शिक्षा एवं श्रेष्ठ प्रतिभा का विकास सम्भव है। शिक्षा, विद्या, साहित्य, विज्ञान, कला आदि के क्षेत्रों में जिन महान् पुरुषों ने कुछ श्रेष्ठ उपलब्धियाँ की हैं, उनको यह सफलता इसी साधना के आधार पर मिली है। 

     

    शिक्षा संस्कृति की प्रणाली 

    आजकल विद्यालयों में संगीत, नृत्य, अभिनय आदि के कार्यक्रम होते हैं जिन्हें 'सांस्कृतिक कार्यक्रम' कहा जाता है। इन आयोजनों और समारोहों में कला के कुछ रूपों को ही संस्कृति का सर्वस्व मान लिया जाता है। कला संस्कृति का एक अंग अवश्य है, परन्तु वह संस्कृति का सर्वस्व नहीं है। प्रायः ये कार्यक्रम मनोरंजन के लिये ही आयोजित किये जाते हैं। इन्हें मनोरंजन-कार्यक्रम कहना ही अधिक उपयुक्त है। परन्तु पश्चिम के विचारों के प्रभाव के कारण ही इन्हें 'सांस्कृतिक' कहा जाने लगा है। पश्चिम में जिसे संस्कृति कहा जाता है वह मुख्यतः प्रकृति का ही पोषण है। इसके पीछे प्रकृति के अनुरंजन की ही सहज प्रेरणा होती है। संयम और साधना के द्वारा प्रकृति का परिष्कार और उन्नयन संस्कृति कहलाती है। भारतीय संस्कृति की यही मूल धारणा है। प्रकृति के परिष्कृत आधार पर ही संस्कृति का निर्माण होता है। वस्तुतः संस्कृति एक आध्यात्मिक साधना है। नैतिक शील और संस्कारों में अभिव्यक्त होकर अध्यात्म की मर्यादाएँ प्रकृति का उन्नयन और संस्कृति का पथ-प्रदर्शन करती हैं। इसलिये संयम, शील और चरित्र का भारतीय संस्कृति में अधिक महत्त्व है। भारतीय शिक्षा में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। 

     

    वास्तव में, "ज्ञान, चरित्र एवं संस्कृति की त्रिवेणी के संगम से ही शिक्षा जीवन का तीर्थराज बनती है।" ज्ञान के अर्जन को शिक्षा माना जाता है। ज्ञान जीवन के विकास का साधन है, तथा जीवन का लक्ष्य भी है। ज्ञान का उद्देश्य सत्य की खोज है। ज्ञान के प्रकाश से ही जीवन के विविध पक्ष विकसित होते हैं। किन्तु अकेले सत्य ही जीवन का सर्वस्व नहीं हैं। 'शिवम्' और 'सुन्दरम्' का भी जीवन में स्थान है। संस्कृति 'सत्यम्', 'शिवम्' एवं 'सुन्दरम्' पर अधिष्ठित है। अतः संस्कृति सम्पूर्ण जीवन का परिष्कार एवं निर्माण है और ज्ञान के उपार्जन तथा सत्य के अनुसंधान के रूप में शिक्षा संस्कृति का केवल एक अंग है। किन्तु शिक्षा को केवल बौद्धिक ज्ञान का अर्जन न मानकर जीवन निर्माण के व्यापक रूप में समझा जाना चाहिए। शिक्षा और संस्कार के द्वारा मनुष्य का जीवन विकसित होता है। इसी विकास को सभ्यता और संस्कृति नाम दिया जाता है। व्यक्ति और समाज, दोनों का जीवन इस विकास के द्वारा समृद्ध होता है। शिक्षा प्राकृत मानव को सभ्य और संस्कृत बनाती है। शिक्षा आध्यात्मिक संस्कार की एक सामाजिक परम्परा है। इस प्रकार शिक्षा संस्कृति की एक प्रणाली है। 

     


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