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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • भारतीय शिक्षा के दार्शनिक आधार 

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    Vidyasagar.Guru

    शिक्षा जीवन के विकास की प्रक्रिया है। वह जीवन की साधना है, जीवन का साक्षात् स्वरूप है। व्यक्ति और समाज के जीवन में जो कुछ विकास हुआ वह शिक्षा के द्वारा ही हुआ है। सभ्यता और संस्कृति के विकास के पीछे शिक्षा की प्रेरणा रही है। वास्तव में शिक्षा जीवन के विकास का पर्याय है। राष्ट्र-जीवन के मूल्य एवं आदर्श ही शिक्षा के मूल्य एवं आदर्श होते हैं। प्राचीन और महान् संस्कृति के उत्तराधिकारी भारत ने अनुभव की एक लम्बी यात्रा के पश्चात् जीवन के आधारभूत सत्यों का आविष्कार किया है। उन सत्यों के आधार पर श्रेष्ठ जीवन-मूल्यों एवं आदर्शों का विकास हुआ है। भारतीय जीवन के ये सत्य ही भारतीय शिक्षा दर्शन के मूलाधार हैं। इन आधारों पर विकसित शिक्षा ही भारतीय जीवन का पर्याय बन सकती है। इनका यहाँ संक्षेप में उल्लेख किया जा रहा है। 

     

     

     

    एकात्म तत्त्व 

    भारतीय ऋषियों ने समस्त सृष्टि का अन्वेषण करके इस सत्य का साक्षात्कार किया कि समस्त चराचर जगत् में अधिष्ठानस्वरूप ऐसा परम चेतन, अविनाशी तत्त्व व्याप्त है जिसका यथारुचि या यथामति परमात्मा, ईश्वर, ब्रह्म आदि शब्दों से नामकरण किया गया है। ईशावास्य उपनिषद् का आरम्भ ही इस मन्त्र से है- “ ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्" -इस चराचर जगत् में सर्वत्र ईश्वर व्याप्त है। यह परमात्मतत्त्व या 'ब्रह्म' ही वह स्वयंभू तत्त्व है जिससे या जिसके कारण यह सृष्टि उत्पन्न हुई है। श्रीअरविन्द ने कहा है कि आत्मतत्त्व ही मूलभूत चेतन तत्त्व है, जिसका अस्तित्व होता है। इसी गतियुक्त चैतन्य या आत्मतत्त्व की हलचल से सृष्टि की उत्पत्ति होती है। सूक्ष्म से ब्रह्माण्ड तक सब कुछ इस आत्मतत्त्व की विविध संरचनाओं के अतिरिक्त कुछ नहीं है । जब यह चेतन तत्त्व जड़ तत्त्व से अपने को धीरे-धीरे उत्क्रान्ति द्वारा मुक्त करना चाहता है तो वही जीव, प्राणी या मनुष्य अपनी अन्तःक्रान्ति की प्रक्रिया द्वारा साधारण मनुष्य से कई गुना अधिक विकसित जीव को प्रकट करता है। " (लेटर्स आफ श्री अरविन्द, पृष्ठ 110 ) 

     

    इस चेतन आत्मतत्त्व का निरूपण भारतीय ऋषियों ने अपनी तपःपूता वाणी से किया है कि यह आत्मतत्त्व ही विश्व का मूलभूत कारण है तथा विश्व में परिव्याप्त है। सब विशेषों में एक सामान्य सत्ता अनुस्यूत है। जीव जगत् में समान प्रतीत होने वाले कोई भी दो जीव, वनस्पति जगत् में कोई भी दो पत्ते समान नहीं होते, किन्तु प्रकृति की इस अनन्त विषमता में चैतन्य सत्ता एक ही है। यह सृष्टि ईश्वर का आवासस्थल है। सारा जीवन, सारा जगत् ईश्वरमय है। " वासुदेवः सर्वम् इति" (गीता 7 / 19 ) । आधुनिक विज्ञान ने भी समस्त गति, क्रिया का मूल कारण 'ऊर्जा' को माना है जो अविनाशी है। ऊर्जा क्या है? ऊर्जा को दिशा कौन देता है? वैज्ञानिक इसे कोई रहस्यपूर्ण तथा आध्यात्मिक तत्त्व कहते हैं। डा० डी० एस० कोठारी कहते हैं, " सच यह है कि उपनिषदों के आत्मज्ञान और विवेक के अतिरिक्त इस रहस्य को समझने की और कोई रीति नहीं है।" इस प्रकार आधुनिक वैज्ञानिक और प्राचीन भारतीय ऋषि, जो वास्तव में वैज्ञानिक ही थे, एक ही निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि ईश्वर ही वह मूल सत्ता है जो सृष्टि की संरचना करती है और उसे संचालित करती है। विद्वज्जन इसे विकासवाद, चेतना, परमेश्वर या आत्मा की संज्ञा दे सकते हैं। 

    भारतीय जीवन-दर्शन की 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' आध्यात्मिक दृष्टि इस चराचर जगत् में भेद में अभेद देखती है एवं एकात्मता की अनुभूति करती है। इसी अनुभूति के आधार पर 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना प्रत्येक मानव के अन्तःकरण में विकसित करना शिक्षा का वास्तविक लक्ष्य है। 

     

    कर्मवाद एवं पुनर्जन्म का सिद्धान्त 

    भारतीय जीवन-दर्शन का दूसरा आधारभूत तत्त्व है कर्मवाद और उसके आधार पर जीवन का विकास करते हुए मुक्ति अर्थात् परमात्मा की प्राप्ति करना । जीवन के इस लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु प्राणी को सतत् सत्कर्मों के रूप में प्रयास करना होता है। जब तक लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती, उसे बार-बार जन्म ग्रहण करना पड़ता है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है- 

    बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।

    तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप ॥ ( गीता ४/५ ) 

     

    अर्थात् हे अर्जुन! मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं। हे परंतप ! उन सबको तू नहीं जानता, तू मैं जानता हूँ। 

     

    मानव के स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर माने गये हैं। यह सूक्ष्म शरीर बुद्धि, मानस, पंचप्राण एवं दस इन्द्रियों के सूक्ष्म भागों को मिलाकर 17 तत्त्वों से बनता है । जब मृत्यु होती है तो स्थूल शरीर मरता है, सूक्ष्म शरीर दूसरा शरीर धारण कर लेता है। गीता में कहा है, "जैसे हम फटे-पुराने वस्त्रों को त्याग कर नवीन वस्त्र धारण करते हैं, उसी प्रकार यह जीवात्मा न रहने योग्य पुराने शरीर को त्याग कर नवीन शरीर धारण करता है। 

    वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।

    तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही || ( गीता २ / २२ ) 

     

    यह पुनर्जन्म का सिद्धान्त भारतीय दर्शन की केवल मान्यता ही नहीं है अपितु सत्य वैज्ञानिक तथ्य सिद्ध हो चुका है। जो पश्चिमी जगत् पुनर्जन्म - सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करता, वहाँ अमेरिका के एक वैज्ञानिक ने पुनर्जन्म की 1200 घटनाओं का अध्ययन विभिन्न देशों में किया जो समाचार-पत्रों में प्रकाशित हो चुका है। 

     

    भारतीय दर्शन के अनुसार, जिस प्रकार समस्त भौतिक जगत् प्रकृति के नियमों से संचालित होता है, उसी प्रकार इस नैतिक जगत् का नियमन कर्म - सिद्धान्त के द्वारा होता है। अच्छे कर्म का फल अच्छा और बुरे कर्म का फल बुरा होता है। एक जन्म के कर्मों के फल दूसरे जन्म में भोगने पड़ते हैं। इसी नियम के अनुसार मनुष्य अच्छे कर्म करने हेतु प्रेरित होता है। इस प्रकार विकास करता हुआ वह अपने परम लक्ष्य की ओर अग्रसर होता है। प्रत्येक प्राणी अपनी-अपनी भिन्न-भिन्न सीढ़ियों पर खड़ा विकासोन्मुख है। 

     

    सृष्टि की सोद्देश्यता एवं परस्पर पूरक व्यवस्था 

    भारतीय दार्शनिक एवं विचारक सृष्टि की उत्पत्ति परम चेतन तत्त्व ब्रह्म से मानते हैं तथा चराचर सृष्टि उस उद्गम में मिलने के लिये प्रयत्नशील है। इसीलिये इसे सृष्टि चक्र कहा है। श्री अरविन्द के अनुसार, “जड़तत्त्व में प्राण और प्राण में जीव तथा जीव में मानस का अवतरण घटना मात्र नहीं है, बल्कि उसके पीछे दैवी प्रकृति का एक सु-आयोजित उद्देश्य है और वह है सच्चिदानन्द की ओर आरोहण । यह आरोहण स्वाभाविक एवं अनिवार्य है, क्योंकि इसी के कारण दैवी शक्ति का अपरा प्रकृति में अवतरण हुआ है। इस प्रकार आरोहण और अवरोहण मिलकर विकास का पूर्ण चित्र उपस्थित करते हैं। " 

     

    पश्चिमी वैज्ञानिक डार्विन ने विकास प्रक्रिया की व्याख्या करते अजैव जगत् में सोद्देश्यता को अस्वीकार किया है, किन्तु हेण्डरसन आदि वैज्ञानिकों ने सोद्देश्यता को बलपूर्वक स्थापित किया है। हेण्डरसन कहते हैं कि पृथ्वी पर जीवन के अवतरण से पूर्व पर्यावरण में उसके लिये तैयारी हो रही थी और इस प्रकार अजैव जगत् भी सोद्देश्य है । किन्तु अब धीरे-धीरे अन्य पाश्चात्य वैज्ञानिक प्रकृति की सोद्देश्यता तथा उसके पीछे किसी नियामक तत्त्व के अस्तित्व को अनुभव कर रहे हैं। अनेक प्रमुख वैज्ञानिकों ने अपने विचार प्रकट करते हुए लिखा है कि प्रकृति में व्यवस्था है, नियमों में सार्वभौमिकता है और विश्व में एक महान् अभिकृति (डिजाइन ) है तथा समग्र में एक प्रतिकृति ( पैटर्न) है, जिससे सिद्ध होता है कि कोई अनन्त बुद्धि है जो विश्व में एक व्यवस्था रखती है तथा विश्व कोई स्वतन्त्र यन्त्र नहीं, बल्कि इसका कोई हितकारी उद्देश्य है। ये विचार ' है साइन्स डिस्कवर्ड गॉड ? ' एवं 'ए सिम्पोजियम ऑफ माडर्न साइंटिफिक ओपीनियन' नामक पुस्तकों में मिलिकन, मेथर, एडिंगटन, आइन्स्टीन, जूलियन हक्सले, मैक्डूगल, जीन्स इत्यादि प्रमुख वैज्ञानिकों ने प्रकट किये हैं। 1

     

    1. यद्यपि चार्ल्स डार्विन के इस विवादास्पद सिद्धान्त को चुनौती देते हुए कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्राणिशास्त्री ग्रेवियल डायर ने अपने 'मोलीक्यूलर ड्राइव' नामक नये सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए कहा है कि विकास सम्बन्धी परिवर्तन का मुख्य कारण आकस्मिक आनुवंशिक परिवर्तन है, न कि "सर्वाइवल ऑफ दि फिटेस्ट" का सिद्धान्त। यह नया सिद्धान्त हाल के इस अनुसंधान पर आधारित है कि मानव एवं सभी जीव-जन्तुओं के 'जीन्स' में परिवर्तन होता है। देखिए, 28 मई, 84 का 'जनसत्ता' एवं 'इण्डियन एक्सप्रेस', नयी दिल्ली । 

     

    सृष्टि की सोद्देश्यता के साथ-साथ इसमें परस्पर पूरक व्यवस्था है। पश्चिम के दार्शनिकों ने 'अस्तित्व के लिये संघर्ष एवं योग्यतम का अस्तित्व' यह सिद्धान्त सृष्टि के समस्त व्यवहार का आधार माना है। भारतीय विचारकों ने इसके विपरीत, सृष्टि के समस्त अवयवों में परस्पर पूरकता का दर्शन किया है। 

     

    इसी कारण भारतीय जीवन - रचना में प्रकृति, व्यक्ति एवं समाज में सहयोग एवं परस्पर पूरकता के आधार पर सभी विकास करते दिखाई देते हैं। परमेश्वर के द्वारा सृष्टि में यह व्यवस्था निर्मित की गयी है। व्यक्ति और समाज का जीवन तो परस्पर पूरक है ही, उन्हें स्वजीवन के निर्वाह के लिये अन्य प्राणियों पर भी निर्भर रहना पड़ता है । समस्त प्राणिवर्ग के जीवन के लिये आवश्यक प्राणवायु वनस्पतियों द्वारा प्राप्त होती है। वनस्पतियों को स्वजीवन के लिये आवश्यक कार्बन डाईआक्साइड मनुष्य जैसे प्राणियों द्वारा दी जाती है। इस प्रकार सृष्टि में सभी का जीवन परस्पर आधारित है। 

     

    भारतीय जीवन में 'यज्ञ' का महत्त्व इसीलिये माना गया है। यह यज्ञ-चक्र आदान-प्रदान की प्रक्रिया है। इसी के आधार पर समस्त सृष्टि का जीवन सन्तुलित एवं समन्वित रूप से चल सकता है। आधुनिक काल में पाश्चात्य जीवन-दर्शन की मान्यताओं के कारण सृष्टि जीवन में असन्तुलन उत्पन्न हो गया है, जिसका परिणाम मानव को भुगतना पड़ रहा है। आज प्रकृति का जिस ढंग से मानव अपने स्वार्थ के लिये दोहन करने में संलग्न है उसके भयंकर परिणाम से सभी विचारक चिन्तित हैं। 

     

    अतः इस जगत् में जीवन को सुखी एवं विकसित करने हेतु भारतीय जीवन-दर्शन के यज्ञचक्र को चलाते रहना नितान्त आवश्यक है। पश्चिमी जगत् को आज नहीं तो कल, इसी मार्ग को अपनाना होगा। स्वार्थपरता एवं संघर्ष के व्यवहार से व्यक्ति और समाज ही नहीं, इस विश्व के स्थावर-जंगम - सभी के जीवन में अशान्ति एवं असन्तोष उत्पन्न होगा। 

     

    जीवन का लक्ष्य 

     

    भारतीय जीवन-दर्शन के अनुसार इस समस्त चराचर जगत् में एक शाश्वत चेतन परमात्म तत्त्व व्याप्त है। मनुष्य के भीतर भी वह आत्मा के रूप में स्थित है। उस परम आत्मतत्त्व की अनुभूति करना एवं जीवन में उसकी अभिव्यक्ति करना मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य है। स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में- " प्रत्येक आत्मा ही अव्यक्त ब्रह्म है। बाह्य एवं अन्तः प्रकृति, दोनों का नियमन कर अन्तर्निहित ब्रह्म स्वरूप को अभिव्यक्त करना ही जीवन का लक्ष्य है । " श्री अरविन्द ने इस बात को इन शब्दों में कहा है- “ जीवन का लक्ष्य है भागवत उपस्थिति और चेतना में प्रवेश करना और उनसे अधिकृत होना, भगवान से एक मात्र भगवान के लिये ही प्रेम करना, अपनी प्रकृति को भगवान की प्रकृति के साथ एकस्वर करना और अपने संकल्प, कार्यकलाप एवं जीवन को भगवान का यन्त्र बनाना। 

     

    श्री गुरुजी गोलवलकर ने जीवन के उद्देश्यों को सर्वसामान्य व्यक्ति की सीमित कल्पनाओं एवं व्यावहारिक धरातल की भाषा में कहा है- “समाज ही उस अव्यक्त ब्रह्म का विशाल एवं विराट् व्यक्त रूप है। अतः अपने जीवन को इस समाज रूपी परमेश्वर की सेवा में पूर्णरूपेण समर्पित करना ही जीवन का परम लक्ष्य है।" यह जीवन-लक्ष्य मनुष्य को पशु से भिन्न करता है। आहार, निद्रा, भय, मैथुन आदि प्रवृत्तियाँ मनुष्य में और पशु में समान रूप से पायी जाती हैं। मनुष्य और पशु में केवल यही अन्तर है कि मनुष्य का जीवन-लक्ष्य होता है, पशु का लक्ष्य नहीं होता। लक्ष्य ही मनुष्य में मनुष्यत्व निर्माण करना है। लक्ष्यहीन मनुष्य तो निरा पशु ही है। ईश्वर की सबसे महत्त्वपूर्ण कृति मानव-व्यक्तित्व है। भारतीय ऋषियों ने कहा है- " न हि मनुष्यात्श्रेष्ठतरं हि किंचित्" मनुष्यत्व से बढ़कर कुछ भी श्रेष्ठ नहीं है। 

     

    इस परम लक्ष्य - मोक्ष की प्राप्ति हेतु भारतीय ऋषियों ने धर्माधारित अर्थ और काम की सिद्धि आवश्यक मानी है। दुःखों से आन्त्यन्तिक विमुक्ति एवं परम आनन्द की प्राप्ति ! भारतीय चिन्तन एवं अनुभूति के आधार पर चिरन्तन सुख जड़ वस्तु में नहीं है। मनुष्य को धन, पद, प्रतिष्ठा, सुत, पत्नी, परिवार, सुयश आदि समस्त सांसारिक सुख प्राप्त होने पर भी उसे स्थायी शान्ति एवं सुख प्राप्त नहीं होता । वास्तव में मानव देह नहीं है, आत्मा है। उसके भीतर एक ज्योति है जो महाज्योति से मिलने के लिये आतुर है। जब तक मानव अपने मूल से वियुक्त है, तब तक उसके अन्दर का हाहाकार कभी शान्त नहीं हो सकता । आत्मा का परमात्म तत्त्व की ओर यह प्रबल आकर्षण मानवेतर अन्य किसी योनि में सम्भव नहीं है। अतः सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा की प्राप्ति ही मानव-जीवन का परम लक्ष्य है। ज्ञान, भक्ति, निष्काम कर्म एवं चित्तवृत्ति निरोध- इन साधना - मार्गों से वह अपने परम लक्ष्य चिरन्तन आनन्द की प्राप्ति कर सकता है। 

     

    भारतीय शिक्षा का लक्ष्य भी यही माना गया है। 'सा विद्या या विमुक्तये'- अर्थात् विद्या वह है जो मुक्ति प्रदान करे। 

     

    धर्म 

    आजकल भ्रमवश धर्म को अंग्रेजी भाषा के शब्द 'रिलीजन' के अर्थ में समझा जाने लगा है। भारतीय दर्शन में धर्म शब्द व्यापक अर्थ में प्रयोग किया जाता है। इसका पर्यायवाची शब्द किसी अन्य भाषा में उपलब्ध नहीं है। 'रिलीजन' शब्द तो भारतीय विचार के अनुसार उपासना-पंथ के समकक्ष माना जा सकता है। अतः धर्म शब्द को समझना आवश्यक है। इसके अर्थ को ठीक प्रकार न समझकर 'रिलीजन' के अनुवाद के रूप में इसका प्रयोग किया जा रहा है जिसके परिणामस्वरूप घोर अनर्थ व्याप्त है तथा धर्म भूमि भारत में धर्म-निरपेक्षता की नीति की आड़ में अधर्म पनप रहा है। 

     

    भारतीय दर्शन में धर्म को सार्वभौमिक नियमों के रूप में माना जाता है। धारणाद् धर्म इत्याहु: धर्मो धारयते प्रजाः । " जो सब प्रजाओं की धारणा करे (अर्थात् समाज - जीवन स्वस्थ एवं व्यवस्थित चले, इस धारणक्रिया के कारण) वह धर्म कहलाता है। वैशेषिक दर्शन के आचार्य कणाद के अनुसार “ यतो ऽभ्युदय निःश्रेयस् सिद्धिः स धर्मः । " - इस लोक व परलोक में समृद्धि एवं शान्ति दिलाने वाला ‘धर्म' कहलाता है । मनु ने धर्म के दस लक्षण बताये हैं- 

     

    धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।

    धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥ 

     

    धैर्य, क्षमा, दम, अचौर्य, शुचिता, इन्द्रिय-निग्रह, विवेक, विद्या, सत्य तथा अक्रोध, ये धर्म के दस लक्षण माने गये हैं। वास्तव में व्यक्ति-व्यक्ति में इन गुणों के व्यवहार के कारण ही समाज जीवन चलना सम्भव है। इनके अभाव में घोर अव्यवस्था उत्पन्न होती है। 

     

    धर्म के सम्बन्ध में, विशेष रूप से पश्चिमी जगत् में, यह भ्रान्त धारणा है कि जो व्यक्ति हिन्दू, बौद्ध, ईसाई, मुस्लिम आदि मतों में दीक्षित होकर किसी विशेष देवता, पैगम्बर या ईश्वर को मानते हुए, उसमें आस्था रखते हुए, उस पंथ के आचार्यों द्वारा बताये हुए या धर्म-ग्रन्थों में निर्दिष्ट किये गये कर्मकाण्ड का जितना अधिक पालन करते हैं, उतने ही अधिक वे धर्मात्मा या धर्म के पालन करने वाले होते हैं । किन्तु यह धारणा अत्यन्त भ्रान्तिपूर्ण है। धर्म तो जीवन का विशेष व्यवहार - तत्त्व है जिसके आधार पर सारी सृष्टि शान्तिपूर्वक व्यवस्थित ढंग से चलती आ रही है। वे सभी नियम और वे सभी व्यवस्थाएँ मिलकर धर्म का रूप ग्रहण करती हैं जिनसे किसी को किसी प्रकार की असुविधा न हो। अतः जो व्यक्ति बिना किसी को कष्ट पहुँचाये या असुविधा दिये अपने जीवन का व्यवहार चलाता है और सदा स्वयं असुविधा सहन करके भी दूसरे का हित करने की भावना रखता है, वही सच्चे अर्थों में धर्म- पालन करता है । व्यास जी ने महाभारत में धर्म के लक्षण बताते हुए कहा है कि दूसरे का हित करना ही पुण्य है और दूसरे को कष्ट देना ही पाप है- “परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्। "

     

    ईश्वरोपासना के सभी मार्ग सत्य 

    भारत में ईश्वर की उपासना धर्म का एक भाग है। अपनी रुचि एवं श्रद्धा के अनुसार ईश्वर की उपासना की विभिन्न पद्धतियाँ पंथों के रूप में प्रचलित हैं। इन सभी उपासना पद्धतियों का एक ही मन्तव्य है। भारतीय दर्शन के अनुसार सभी उपासना-पद्धतियों के मार्गों से ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है। इसी मान्यता के कारण भारतीय सभी उपासना-पद्धतियों के प्रति सहिष्णुता एवं आदर का भाव रखते हैं। विश्व के अन्य देशों के धर्मों के अनुयायियों में यह भाव नहीं है । मुस्लिम एवं ईसाई मतों के अनुसार ईश्वर की प्राप्ति या मुक्ति केवल उन्हीं के पैगम्बरों के द्वारा बताये मार्ग पर चलकर ही सम्भव है, अन्य मार्गों से नहीं। इसी कारण उन मतों के मानने वालों में दूसरे पन्थों के प्रति घोर असहिष्णुता पायी जाती है । इतिहास इस असहिष्णुता के परिणामस्वरूप रक्त-रंजित अत्याचारों की घटनाओं से भरा पड़ा है। भारतीय जीवन दर्शन के अनुसार “एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति " - ईश्वर या सत्य एक है, विद्वान लोग अनेक प्रकार से उसका वर्णन करते हैं। भारतीय लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते, अपितु समस्त धर्मों को सच्चा मानकर स्वीकार करते हैं। शिव महिम्नस्तोत्रम् के अनुसार - " जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न-भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हे प्रभो ! भिन्न-भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे मार्ग से जाने वाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं। 

     

    रुचीना वैचित्र्यादुकुटिलनानापपजुषाम् । 

    नृणामेको गम्यस्त्वमसि पत्रसामर्णव इव ॥ 

     

    गीता में भी भगवान कृष्ण ने कहा है- “जो कोई मेरी ओर आता है- चाहे किसी प्रकार से हो- मैं उसको प्राप्त होता हूँ। लोग भिन्न-भिन्न मार्गों द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं।' 

     

    ये मां यथा प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् । 

    मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥ ( ४/२२ ) 

     

    धर्मानुसार अर्थ और काम 

    भारतीय जीवन-दर्शन के अनुसार जीवन की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति का महत्त्व भी स्वीकार किया गया है। आत्मा की चिन्ता के साथ शरीर के महत्त्व को माना गया है। उपनिषदों में स्पष्ट कहा है कि " नाऽयमात्मा बलहीनेन लभ्यः " - दुर्बल व्यक्ति आत्मा का साक्षात्कार नहीं कर सकता। इसी प्रकार " शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् " - शरीर धर्म का प्रथम साधन कहा गया 

    भारतीय विचारों एवं पाश्चात्य विचारों में यही अन्तर है कि उन्होंने शरीर को साध्य माना है और भारत ने साधन । धर्म आधारभूत पुरुषार्थ है। धर्माधारित अर्थ और काम को भारतीय दर्शन में मान्यता प्रदान की गयी है। 

     

    अर्थ के अन्तर्गत आज की परिभाषा के अनुसार राजनीति और अर्थनीति का समावेश होता है। राज्य का आधार धर्म को माना है। अकेली दण्डनीति राज्य को चला नहीं सकती। समाज में धर्म न हो तो राज्य नहीं टिक सकता। भारतीय जीवन - रचना का केन्द्र विन्दु सदैव धर्म रहा है। राज्य अथवा राजनीति जीवन का एक भाग रहा है। भारत का राष्ट्रीय जीवन राज्य के उत्थान - पतन से सदैव अप्रभावित रहा और यही कारण है कि यहाँ का राष्ट्रीय जीवन सहस्रों वर्षों से अबाध गति से चलता आ रहा है, जबकि विश्व के अनेक प्राचीन राष्ट्रों का जीवन उनके राज्य की समाप्ति के साथ ही ध्वस्त हो गया। 

     

    सतयुग में भारत में राज्य - सत्तारहित समाज - रचना थी । यहाँ न राजा था, न राज्य था, न दण्ड देने वाला था, न दण्ड था, समाज के लोग आपसी समझ एवं कर्त्तव्यनिष्ठा, अर्थात् धर्म के आधार पर परस्पर रक्षा एवं सेवा करते थे। समाज की धारणा धर्म के कारण होती थी-

     न राज्यं न च राजासीत् न दण्डो न च दाण्डिकः । 

    धर्मेणैव प्रजाः सर्वा रक्षन्ति स्म परस्परम् ॥ 

     

    पश्चिमी देशों में राष्ट्र को राजनीतिक इकाई माना गया है, अत: वे 'राष्ट्र' और 'राज्य' में भेद नहीं कर पाये। भारतीय दर्शन के अनुसार राष्ट्र एक सांस्कृतिक इकाई है। राष्ट्र स्वयंभू है, अर्थात् स्वयं जन्म ग्रहण करता है। सामाजिक समझौता सिद्धान्त राष्ट्र पर लागू नहीं होता, राज्य पर यह सिद्धान्त लागू हो सकता है। यही कारण है कि भारत में किसी का भी राज्य रहा हो, अथवा कैसी भी राज्य - रचना हो, इससे राष्ट्रीय एकात्म जीवन विशेष प्रभावित नहीं होता। भारत में भाषा, वेश, खानपान, उपासना पद्धति आदि के भेद होते हुए भी जीवन के आदर्श, प्रेरणा एवं लक्ष्य समान होने के कारण राष्ट्र-जीवन एक है। 

     

    भारतीय दर्शन में अर्थ के महत्त्व को स्वीकार किया गया है। अर्थशास्त्र की रचना हुई है। सबकी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति आवश्यक मानी गयी मनु ने कहा है- 

    है। 

     

    धर्मार्थरिच्यते श्रेयः कामार्थो धर्म एव च। 

    अर्थ एवेह वा श्रेयस् त्रिवर्गः इति तु स्थितिः ॥ 

     

    कुछ को कर्त्तव्य एवं सम्पदा उचित लगती है, कुछ लोगों को सम्पदा एवं उसका भोग अच्छा लगता है। परन्तु वास्तव में अनुभव की बात यह है कि तीनों को मिलाकर ही मनुष्य का लौकिक जीवन स्वस्थ एवं सुखी होता है । भारतीय चिन्तन में भौतिक समृद्धि एवं उपभोग की उपेक्षा नहीं की गयी है। काम को साधारण रूप से सभी कर्मों की प्रेरणा - शक्ति माना गया है। " अकामा वा क्रिया क्वचित् " अर्थात् कोई क्रिया इच्छा के बिना सम्भव नहीं। इसी कारण भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में " धर्माविरुद्धो ... कामोऽस्मि " - धर्म के अनुकूल काम मैं हूँ, कहा । 

     

    भारतीय विचार के अनुसार अर्थ का नियन्त्रण एवं वासनाओं का संयम आवश्यक बताया है, क्योंकि वासनाओं या कामनाओं का कोई अन्त नहीं है। विद्वानों ने कहा है- " न जातु कामः कामानाम् उपभोगेन शाम्यति” अर्थात् जैसे अग्नि आहुति देने से धधक उठती है, उसी प्रकार वासना-विकार भी भोग से धधक उठते हैं। भले ही आयु क्षीण हो, पर वासनाएँ क्षीण नहीं होती। इसीलिये इन कामनाओं के नियन्त्रण के लिये धर्म का सहारा लेना आवश्यक है। 

     

    अर्थोपार्जन एवं अर्थ का उपभोग करते समय यदि धर्माचरण का ध्यान रखा गया हो तो ईर्ष्याद्वन्द्व से रहित, स्वस्थ एवं सुखी जीवन बिताया जा सकता है। इसीलिये भारतीय जीवन - रचना में अर्थप्राप्ति एवं काम की पूर्ति के लिये धर्म आधार माना गया है जो मानव को उसके अन्तिम लक्ष्य 'मोक्ष' की ओर बढ़ाता है। आज पश्चिमी जगत् में अनियन्त्रित अर्थोपार्जन, सुख-सुविधाओं के लिये भौतिक वस्तुओं का अत्यधिक संग्रह एवं आवश्यकताओं को बढ़ाते जाना - इस दुष्चक्र से ग्रस्त होकर जीवन में अशान्ति, असन्तोष एवं स्पर्धा व्याप्त है। जीवन में सुख-समाधान तो दूर, उन्हें शान्तिपूर्ण नींद के लिये भी औषधि की गोलियाँ खानी पड़ती हैं। वास्तव में भारतीय जीवन-दर्शन के अनुसार धर्माधारित अर्थ एवं काम ही मानव को सच्चा सुख एवं शान्ति प्रदान कर सकते हैं। 

     

    'वसुधैव कुटुम्बकम्' 

    धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष - पुरुषार्थ चतुष्टय की सिद्धि प्राप्त कर परिपूर्ण मानव के विकास की व्यवस्था भारतीय शिक्षा दर्शन में की गयी है। प्रत्येक व्यक्ति शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक विकास के द्वारा अपने व्यक्तित्व को अखण्ड बनायेगा । इस प्रकार परिपूर्ण मानव के आधार पर ही भारतीय चिन्तन में व्यक्ति से परिवार, समाज, राष्ट्र, मानवता और चराचर सृष्टि का विचार हुआ है। 

     

    इसी विचार - दर्शन के आधार पर सृष्टि की चराचर इकाइयाँ स्वायत्तता बनाये रखते हुए परस्पर पूरक बनकर आध्यात्मिक एकात्मता का साक्षात्कार कर सकेंगी एवं 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के आदर्श की स्थापना हो सकेगी। यही भारतीय शिक्षा का लक्ष्य है। 

     


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