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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • विद्यालय में संस्कारक्षम वातावरण 

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    Vidyasagar.Guru

     

    विद्यालय - सरस्वती के पवित्र मन्दिर 

    "समस्त ज्ञान मनुष्य के अन्तर में अवस्थित है। आवश्यकता है उसके जागरण के लिये उपयुक्त वातावरण की ।" इस वातावरण के निर्माण हेतु किये गये संगठित प्रयास की संज्ञा ही विद्यालय है। विद्यालय ईंट और गारे का बना हुआ भवन मात्र नहीं है। विद्यालय आध्यात्मिक संगठन है, जिसका अपना स्वयं का विशिष्ट व्यक्तित्व होता है। विद्यालय पवित्र मन्दिर है, जहाँ विद्या की देवी के रूप में सरस्वती की निरन्तर आराधना होती है। विद्यालय साधना-स्थली है, जहाँ शील और चरित्र का विकास होता है। विद्यालय ज्ञान, कला, विज्ञान और संस्कृति का गतिशील केन्द्र है, जो समाज में जीवन-शक्ति का संचार करता है।

     

     

     

    विद्यालय प्रकृति की गोद में 

    प्राचीन भारत में विद्यालय की यह उक्त अवधारणा गुरुकुल आश्रमों एवं विश्वविद्यालयों में पुष्पित एवं पल्लवित होती थी। ये विद्या - केन्द्र नगरों से दूर खुले जंगल में नदी या जलाशय के समीप स्थापित किये जाते थे जिससे नगरों का कोलाहल और कुप्रभाव छात्रों को प्रभावित न कर सके। आकाश, अग्नि, वायु, जल तथा मिट्टी से बने हुए जगत् को ध्यानपूर्वक देखना, उसके महत्त्व को समझना ही वास्तविक शिक्षा है। यह शिक्षा नगरों के अप्राकृतिक वातावरण में स्थित विद्यालयों में पूर्ण रूप से नहीं दी जा सकती। खुला आकाश, खुली वायु तथा फूल और पत्ते मनुष्य के शरीर, मन और बुद्धि के विकास के लिये और उन्हें शक्ति देने के लिये अत्यन्त आवश्यक हैं। अतः यदि हम आदर्श विद्यालय स्थापित करना चाहते हैं तो हमें नगर से बाहर वन में, खुले आकाश के नीचे, विशाल मैदान में, प्राकृतिक दृश्यों के मध्य उसका प्रबन्ध करना चाहिए। 

    यदि सम्भव हो तो विद्यालय के साथ थोड़ी सी खेती के योग्य भूमि भी हो। इस भूमि से विद्यालय की आवश्यकता की पूर्ति हेतु खाद्यान्न और अन्य वस्तुएँ प्राप्त की जा सकेंगी। विद्यार्थी खेती-बाड़ी के कार्य में सहायता देंगे। दूध, घी आदि प्राप्त करने के लिये गायें रखी जा सकती हैं और विद्यार्थियों को इनकी सेवा का अवसर भी मिलेगा। अवकाश के समय छात्र अपने हाथ से बाग लगायेंगे, पौधों को पानी देंगे और बाग की सुरक्षा के लिये बाड़ लगायेंगे। इस प्रकार वे प्रकृति के साथ न केवल भावात्मक रूप से जुड़ेंगे, अपितु श्रम का आनन्द भी प्राप्त करेंगे। जब वायुमण्डल स्वच्छ होगा तो कक्षाएँ वृक्षों की छाया में बैठकर अध्ययन करेंगी। उनकी शिक्षा का कुछ समय शिक्षकों के साथ वनस्पतियों, फूलों, पत्तों के अवलोकन एवं निरीक्षण में एवं प्रकृति के रहस्यों को खोजने में व्यतीत होगा। सायंकाल का समय विद्यार्थी तारों की पहचान करने में, संगीत में, प्राचीन काल की कहानियाँ तथा ऐतिहासिक घटनाएँ सुनने में व्यतीत करेंगे। 

    विद्यालय के इस प्राकृतिक वातावरण में ही छात्र वास्तविक शिक्षा ग्रहण कर अपना सर्वांगीण विकास कर सकेंगे। अंग्रेजों की दासता के काल में चार दीवारों के भीतर स्थापित विद्यालय बालक के विकास के लिये उपयुक्त वातावरण कदापि प्रदान नहीं कर सकते। शान्तिनिकेतन के जन्मदाता श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने इन विद्यालयों का अत्यन्त की सजीव चित्रण करते हुए कहा है - " हम विद्यालयों को शिक्षा देने का एक प्रकार का कल या कारखाना समझते हैं। अध्यापक लोग इस कारखाने के एक प्रकार के पुर्जे हैं। साढ़े दस बजे या दस बजे घण्टा बजाकर कारखाने खुलते हैं। पुर्जों का चलना आरम्भ हो जाता है और अध्यापकों की ज़बान (जिह्वा) भी चलने लगती है । चार बजे कारखाने बन्द हो जाते हैं। पुर्जे अर्थात् अध्यापक भी अपनी जिह्वा बन्द कर लेते हैं। उस समय विद्यार्थी भी इन पुर्जों की कटी-छँटी दो-चार पृष्ठों की शिक्षा लेकर अपने-अपने घरों को वापस चले जाते हैं। इसके पश्चात् परीक्षा के समय विद्यार्थी की बुद्धि का अनुमान लगाया जाता है। अतः उस पर 'मार्क' अथवा 'नम्बर' लगा दिये जाते हैं। ' 

    “विदेशों में नगरों में पाठशालाओं और महाविद्यालयों के साथ छात्रावास भी हुआ करते हैं। भारत में भी अब नकल होने लगी है, परन्तु इस प्रकार के विद्यालयों को एक प्रकार के पागलखाने, अस्पताल या बन्दीगृह ही समझना चाहिए। "l 

    श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने प्राचीन भारत की गुरुकुल आश्रम पद्धति का समर्थन करते हुए कहा है- "शिक्षा के लिये अब भी हमें जंगलों और वनों की आवश्यकता है। गुरुकुल भी अवश्य होने चाहिए। वन हमारे रहने के लिये जीवित स्थान हैं। आज हमें भी उन वनों में और उन गुरुकुलों में अपने बच्चों को ब्रह्मचर्य का व्रत रखाकर उनकी शिक्षा को सम्पूर्ण करना होगा। समय के हेर-फेर से स्थितियाँ चाहे कितनी ही क्यों न बदल जायें, परन्तु इस शिक्षा-प्रणाली के लाभदायक सिद्ध होने में कदापि तनिक भी अन्तर नहीं पड़ सकता । कारण यह है कि यह नियम मनुष्य के चरित्र के अमर सत्य पर निर्भर है। "

    सारांश यह है कि यदि हम आदर्श विद्यालय चाहते हैं तो उसके लिये अपेक्षित वातावरण प्रकृति की गोद में ही मिलेगा। आज देश में प्राचीन गुरुकुल आश्रम पद्धति के आदर्श आवासीय विद्यालयों की अतीव आवश्यकता है। किन्तु यदि यह सम्भव न हो सके तो जिस भवन में बालक पढ़ाये जाते हैं उसमें अधिक-से-अधिक निर्बाध, सीधा, खुला प्रकाश और शुद्ध वायु छात्रों को निरन्तर मिलती ही रहनी चाहिए । विद्यालय के चारों ओर या बीच में इतना खुला मैदान भी हो कि अवकाश के समय छात्र उसमें खेलकूद सकें। विद्यालय प्रांगण में सुन्दर वाटिका हो तथा विद्यालय की भीतों पर फूल-पत्ते या बेल-बूटे लगे हों जिससे विद्यालय हँसता हुआ सा दिखाई पड़े। विद्यालय परिक्षेत्र में हमें अधिक से अधिक प्राकृतिक वातावरण निर्मित करने का प्रयास करना चाहिए।

     

    विद्यालय भवन सरलता, सुन्दरता एवं पवित्रता से युक्त 

    विद्यालय के भवन निर्माण में यही विचार करना चाहिए कि स्वस्थ एवं हरे-भरे वातावरण में छात्रों को अधिकतम खुला प्रकाश और निरन्तर प्रवाहित स्वच्छ वायु कैसे मिले । विद्यालय भवन में तड़क-भड़क न हो । सरलता, पवित्रता, स्वच्छता एवं सुन्दरता से युक्त भवन चाहिए। आजकल विद्यालयों की स्थापना हेतु अनुमान लगाते समय यूरोप, अमरीका के धनी देश हमारे सम्मुखआदर्श होते हैं । भवन, सामान और फर्नीचर आदि के अनुमान लगाते समय 75 प्रतिशत अनावश्यक वस्तुएँ होती हैं। हम जितनी अधिक अनावश्यक वस्तुओं को आवश्यक और अनिवार्य बनाते जायेंगे, उतनी ही अधिक हमारी शक्तियाँ व्यर्थ नष्ट होती रहेंगी। पहले हमारे देश में वास्तविक वस्तु अर्थात् शिक्षा की ओर अधिक ध्यान रहता था। अब उस मुख्य वस्तु की ओर कम ध्यान रखा जाता है, परन्तु तैयारियों पर सारे साधन और शक्तियाँ व्यय कर दी जाती हैं। आज हमारी अधिकांश शक्ति विद्यालय भवन और फर्नीचर की व्यवस्था में ही समाप्त हो जाती है। वास्तव में भारत में यदि हमें शिक्षा की व्यवस्था सामान्यजन का ध्यान रखकर करनी है तो विद्यालयों के लिये विशाल और भव्य अट्टालिकाओं की तथा मेज- कुर्सियों की आवश्यकता नहीं है। 

    " प्राकृतिक नियमों के अनुसार अति साधारण जीवन व्यतीत करना ही सभ्यता है। अधिक वस्तुओं से जकड़े रहना वास्तव में मूर्खता है। कम से कम यदि हम विद्यार्थी जीवन में इस आदर्श को अपने सम्मुख रखकर कार्य कर सकें तो चाहे और कुछ न हो, परन्तु हम बड़ी योग्यता और शक्ति प्राप्त कर सकेंगे। धरती पर बैठ सकने की शक्ति, मोटा खाने की, मोटा पहनने की शक्ति- ये सब साधारण शक्तियाँ नहीं हैं। सम्पन्न घरों के छात्रों को ये शक्तियाँ बिना अभ्यास के प्राप्त नहीं हो सकतीं। इस प्रकार की शिक्षा बचपन से ही दी जानी चाहिए परन्तु व्यर्थ के और अस्वाभाविक उपदेशों द्वारा नहीं, वरन् मान्यताओं और उदाहरणों द्वारा यह शिक्षा बच्चों के हृदयों पर अंकित कर देनी होगी। यदि यह शिक्षा नहीं दी जायेगी तो हमारे बालक न केवल अपने हाथ-पैर और अपने घर की धरती का ही अनादर करेंगे, बल्कि अपने कुल-पुरुषों को घृणा की दृष्टि से देखेंगे और प्राचीन भारत की साधना के महत्त्व को भली प्रकार समझ नहीं सकेंगे। " 

     

    विद्यालय में प्रेम, आत्मीयता एवं सद्भावना का वातावरण 

    विद्यालय के वातावरण को संस्कारक्षम बनाने हेतु स्वच्छता, व्यवस्था एवं सुन्दरता आवश्यक है, परन्तु शिक्षकों में छात्रों के प्रति प्रेम और आत्मीयता की भावना परमावश्यक है। शिक्षकों में भी परस्पर प्रेम, आत्मीयता और सद्भावना अपेक्षित है। शिक्षकों, प्राचार्यों एवं प्रबन्धकों में परस्पर तनाव एवं द्वेषपूर्ण भावनाओं से विद्यालय का वातावरण दूषित होता है। अतः विद्यालय के वातावरण को संस्कारक्षम एवं शिक्षाप्रद बनाने के लिये सभी में परस्पर प्रेम, आत्मीयता, विश्वास एवं सद्भावना आवश्यक है। प्रेम, आत्मीयता और सद्भावना की तरंगों से वायुमण्डल पवित्र एवं आध्यात्मिक बनता है जो ज्ञान की साधना के लिये आवश्यक है। 

     

    विद्यालय में संगीत एवं कला का वातावरण 

    विद्यालय आरम्भ होने से पूर्व, प्रातः एवं सायं, अवकाश-काल में मधुर संगीत के स्वरों से वातावरण में पवित्रता एवं दिव्यता घुल जाती है। इसकी व्यवस्था प्रत्येक विद्यालय में होनी चाहिए। इसी प्रकार संस्कारक्षम बोध-पट, कलात्मक एवं सौन्दर्यपूर्ण मूर्तियों चित्रों से वातावरण छात्रों की भावनाओं को परिष्कृत करने का सहज-सबल साधन बनता है। इससे मन में प्रसन्नता, आनन्द और उल्लास भरा रहता है। 

     

    प्रार्थना सभा का वातावरण पवित्रता एवं भक्तिभावपूर्ण हो 

    विद्यालयों में प्रार्थना सभा का आयोजन होता है। इसकी ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है, अन्यथा विद्यालयों में प्रार्थना का कार्यक्रम यंत्रवत् चलता है जिसका प्रभाव बालकों पर अच्छा नहीं पड़ता । प्रार्थना आध्यात्मिक विकास के लिये प्रभावी साधन है। इसका आयोजन प्रयत्नपूर्वक इस प्रकार किया जाये कि पवित्रता, शान्ति एवं भक्तिभावना छात्रों के हृदयों में सहज जाग्रत हो । संगीत - वाद्यों के साथ सस्वर कण्ठों से मधुर लय में प्रार्थना का गायन होना चाहिए। प्रार्थना सभा में सम्पूर्ण विद्यालय परिवार को, अर्थात् छात्रों, शिक्षकों, प्राचार्य एवं अन्य सभी कर्मचारियों को भाग लेना चाहिए। कहीं-कहीं विद्यालयों में प्रात:काल दैनिक यज्ञ का कार्यक्रम होता है। इससे वेद मंत्रों की ध्वनि विद्यालय के वातावरण में दैनिक गूँजती है और सारा वायुमण्डल सुगन्धित हो जाता है। इससे विद्यालय का परिक्षेत्र पवित्रता से ओत-प्रोत बनता है।

     

    विद्यालय में छात्रों की अनुशासनयुक्त क्रियाशीलता 

    विद्यालय पढ़ने का स्थान मात्र न होकर ऐसा केन्द्र होना चाहिए जिसे छात्र अपना घर, खेलने की भूमि, पुस्तकालय, बातचीत करने की चौपाल, अपनी कौतूहल - निवृत्ति की प्रयोगशाला और अपने हाथ-पैर तथा अंगों के संचालन और पोषण का अखाड़ा मानें अर्थात् विद्यालय ही छात्रों का गाँव, समाज, राष्ट्र, घर, मल्लशाला सब कुछ हो । वास्तव में इस प्रकार की अनुभूति सभी को विद्यालय के वातावरण में होनी चाहिए। इस प्रकार का क्रियाशीलता का वातावरण छात्रों की विभिन्न परिषदों एवं सहपाठ्य क्रियाकलापों के आयोजनों से निर्मित होता है। क्रियाशीलता में अनुशासन हो, छात्र स्वतंत्रता का अनुभव करें एवं उनमें स्वावलम्बन का विकास अपेक्षित है।

     

    विद्यालय में छात्रों और शिक्षकों का वेश 

    प्रायः विद्यालयों में छात्रों के लिये गणवेश निर्धारित रहता है। इससे विद्यालय का वातावरण अच्छा बनता है। इससे समता एवं अनुशासन की भावना का विकास छात्रों में होता है। छात्रों का गणवेश इस प्रकार निर्धारित होना चाहिए जो सादा, सुविधाजनक और कम खर्चीला हो, जिसे सर्वसामान्य अभिभावक सरलता से बनवा सकें और उन पर अनावश्यक आर्थिक बोझ न पड़े। इसी प्रकार शिक्षकों का वेश भी निर्धारित होना चाहिए जो सरल, सादा और भारतीयता के संस्कार देने वाला हो । शिक्षकों के वेश का प्रभाव शिक्षकों के साथ-साथ छात्रों और समाज पर भी पड़ता है। अतः यह ध्यान रखकर उनका वेश निर्धारित होना चाहिए। 

     

    विद्यालय में भारतीयत्व का वायुमण्डल 

    विद्यालय के सम्पूर्ण वातावरण में भारतीय संस्कृति एवं आध्यात्मिकता झलकनी चाहिए। विद्यालय भवन की वास्तुकला, साज-सज्जा, शिष्टाचार, भाषा, रीति-नीति, परम्पराएँ, छात्रों एवं शिक्षकों की वेश-भूषा, व्यवहार आदि भारतीय संस्कृति से ओत-प्रोत होना चाहिए । वातावरण में छात्र यह अनुभूति करें कि वे महान् ऋषियों की सन्तान हैं, उनकी संस्कृति एवं परम्पराएँ महान हैं तथा वे भारतमाता के अमृतपुत्र हैं । त्याग, संयम, सरलता, निःस्वार्थता, निष्कपटता आदि भारतीय संस्कृति के गुण विद्यालय में छात्रों और शिक्षकों के व्यवहार से सहज छलकने चाहिए। वर्तमान समय में, जबकि भारतीय जीवन पर पाश्चात्य भौतिकवादी सभ्यता का प्रभाव बढ़ रहा है, विद्यालय के वातावरण से भारतीय संस्कृति के सहज संस्कार छात्रों को मिलना परम आवश्यक है। 

     


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