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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • ज्ञान का सागर : क्रमांक - 7

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    पढ़ाई का समय और लेखन का समय मिला कर इतना अधिक समय हो जाया करता था कि भोजन बनाने में कष्ट प्रतीत होने लगा, तब पं. भूरामलजी स्वार्जित राशि विद्यालय के भोजनालय में देकर, अन्य जैनछात्रों के साथ-साथ वहाँ का भोजन लेने लगे थे।

     

    लगभग दस वर्ष काशी में रहने के बाद नित नव साहित्य के प्रसून उनकी जीवनबेल में खिलने लगे। साहित्य-सर्जना में ऐसा मन लगा कि यौवन-काल की चरम अवधि उसी पर होमित करते रहे। घरपरिवार बनाने का भाव ही मन में न आ पाया। धर्म पर वे और साहित्य पर उनकी कलम अग्रसर रहे आये, फलतः उन्होंने बाल ब्रह्मचारी रहने का महान संकल्प धारण कर लिया - आत्मा के समक्ष, आत्मकक्ष में। लेखनकला प्राप्त कर लेने के बाद भी वे वहीं बनारस में बना रहना चाहते थे, परन्तु अग्रज और अनुजों के पत्र व्यवहार ने उनके कदम हिला दिये, ममता की पुकार ने उन्हें पुन: राणोली खींच लिया।

     

    राणोली में पैतृक मकान के अतिरिक्त कुछ न था जायदाद के नाम पर, किन्तु कुछ रिश्ते जायदाद से भी बड़े होते रहे हैं इस देश में खेत, मकान, ढोर-डाँगर में वह आकर्षण नहीं था कि वे कर्मयोगी बन गये श्री भूरामल को बुला सकते। यदि वहाँ, उस समयकाल में कुछ था तो एक विधवा माता की पुकार और भाइयों का वात्सल्य। शास्त्री श्री भूरामलजी राणोली पहुँच गये। माता वय प्रहार से, उस क्षण तक प्रौढ़ा (किंचित् वृद्धा) हो चुकी थीं, पर समय की मार और पति वियोग ने उन्हें पूर्ण वृद्धावस्था का रूप दे डाला था। छगनलाल जी उस समय तक सपरिवार बिहार प्रान्त में ही टिके थे। अत: माता जी के समीप श्री गंगाप्रसाद, श्री गौरीलाल और श्री देवीदत्त ही थे, जो उम्र और अनुभव में उस समय कम ही आँके जा रहे थे।

     

    कुछ ही माह बीते थे कि अग्रज श्री छगनजी राणोली लौट आये। स्वनिवास आकर वे वही पुरानी दुकान, जिसका कार्य कुछ दिनों से भूरामलजी ने सम्भाल लिया था, देखने लगे। एक से दो हो जाने से दोनों भाइयों को व्यापार और घर-परिवार के लिये वांछित समय मिलने लगा। शेष भाई कृषि कार्य देखते थे। भूरामल की यौवन सम्पन्न उम्र देखकर रिश्तेदार उनके विवाह सम्बन्ध की कानाफूसी उनकी माता से करते रहते। रोज-रोज की बातें माता की प्रेरणा में संचारशक्ति भरने में सफल हो गईं, अत: एक दिन उन्होंने पुत्र भूरामल से कह ही दिया -“बेटे, तेरी उमर अब विवाह की है, सभी रिश्तेदार मुझसे कहते रहते हैं, अतः आज मैं तुझसे कह रही हूँ कि तेरा विवाह कर डालूं।”

     

    माता की सहज वार्ता पर विद्वान पुत्र को हँसी आ गई। उनके मोतियों की तरह चमकदार दाँत ओठों से झाँक गये। फिर बोले - माँ ! मैंने तो काशी में ही जीवन पर्यन्त के लिये ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया था, अब भला तू ही बतला, कोई श्रावक व्रत धारण कर उसे कभी तोड़ता है ? बेटे के ज्ञानपूर्ण एक ही प्रश्न ने न केवल माता का, बल्कि सम्पूर्ण रिश्तेदारों का मुँह सिल दिया। सभी जन, मन की बात मन में ही रख चुप रह गये। उनके गृहस्थ जीवन का परिचय यदि उनके द्वारा लिखित श्लोक (जयोदय, दूसरे सर्ग का बारहवाँ श्लोक) से ही दिया जावे तो वह ऐसा माना जावेगा -

     

    सन्ति गेहुसि च सज्जनता अहा, भोगसंसृति शरीर नि:स्पृहाः।

    तत्त्व वतर्मनि रता यत: सुचित, प्रस्तरेष मणयो अपि हि क्वचित्॥

     

    गृहस्थों के मध्य भी कई सज्जन (श्रावक) हैं; जो संसार, शरीर और भोग से निस्पृहता रखते हैं। जिस तरह किसी-किसी पाषाण में मूल्यवान रत्न मिल जाया करते हैं। हम कह सकते हैं कि पं. भूरामलजी की, जीवन जीने की शैली, इन पंक्तियों से भिन्न नहीं थी, वे एक बड़े पाषाण (बड़े परिवार) में उस रत्न की तरह प्रदीप्त थे जिसमें दर्शन, ज्ञान, चारित्र की आभायें जगरमगर करती रहती थीं। जो शरीर, संसार और भोगों से उदासीन था। गाँव में जैन पाठशाला के बच्चों को जैनधर्म पढ़ाने का चाव पण्डित भूरामल के पैरों को रोक न सका, वे एक दिन पाठशाला जा पहुँचे। अब ग्राम में उनका समय तीन धाराओं में विभक्त हो गया। प्रथम धारा थी लेखन कार्य। द्वितीय धारा थी दुकान और तृतीय धारा थी धार्मिक ग्रन्थ पठन-पाठन और शिक्षण।

     

    क्या अमीर, क्या गरीब, गाँव के हर व्यक्ति के मुंह पर एक ही चर्चा थी- चतुर्भुज भैया के बेटा भूरामल बड़े ज्ञानवान हो गये हैं। हर घड़ी अपने आप को अच्छे कार्यों में व्यस्त रखते हैं। उनके आने से ग्राम के बालकों का भविष्य सम्भल रहा है। जागरुक कार्यकर्ताओं ने पं. भूरामलल शास्त्री की रुचि देखते हुए ग्राम में जैन पाठशालाओं की स्थापना की और पं. भूरामलजी से शिक्षक का पद सम्भालने का अनुरोध किया। ज्ञानरंजन पंडितजी ने स्वीकृति प्रदान कर दी, फलतः ज्ञान गंगा का प्रवाह बच्चों को स्पर्श करने लगा नित-नित। अब उनकी चर्या कुछ इस तरह हो गई - सुबह-सुबह देव दर्शन, प्रक्षाल और शास्त्र सभा। दिन में दुकान और लेखन। शाम को पाठशाला में छात्रों को शिक्षण। रात्रि में पुन: लेखन। कुछ ही वर्षों में शाला की उपयोगिता का उद्देश्य समाज के समक्ष आ गया, अत: राणोली की तरह ही ग्राम रहवासा (रैवासा) के जैनों के मन में प्रेरणा उठी कि उनके ग्राम में भी विद्यालय का स्वतंत्र भवन हो, भूरामलजी जैसे शिक्षक हों और उन्हीं की तरह आदर्श छात्र हों। वे पंडितजी से मिलने लगे। धीरे-धीरे पंडितजी की सत्प्रेरणा से उस ग्राम में दिगम्बर जैन छाबड़ा संस्कृत महाविद्यालय की कल्याणकारी स्थापना की गई। जिसके माध्यम से अनेक छात्र महान विद्वान बन सके। (सौभाग्य से सन् १९९७ में बिहार करते हुए मुनिरत्न श्री सुधासागर जी महाराज राणोली से रैवासा पहुँचे, तब उन्होंने उक्त महाविद्यालय एवं मंदिर का अवलोकन किया। चूंकि पू. सुधासागरजी को वास्तु शास्त्र का अच्छा अध्ययन है, अत: उन्होंने उसका लाभ मंदिर को दिया, फलतः उनके निर्देश से निर्माण की त्रुटियों व अन्य दोषों को हटाया गया एवं जीर्णोद्धार के माध्यम से परिवर्धित संरचना वास्तुशास्त्र के अनुकूल की गई। अब यह पहले से अधिक भव्य हो गया है। मुनिवर के आशीष से वहाँ के समाज ने मंदिरजी के आधार पर, उस क्षेत्र का नाम “श्री दिगम्बर जैन भव्योदय अतिशय क्षेत्र” रखा है।)

     

    वहाँ के लोगों ने बतलाया कि महाविद्यालय पं. भूरामल के मार्गदर्शन से कुछ वर्ष अच्छा चला था, बाद में संचालन समिति के सामने विभिन्न सामाजिक परिस्थितियाँ आ जाने से विद्यालय बन्द हो गया था। पं. भूरामल राणोल्ली में रह कर ही उसके संचालन सूत्र प्रदान करते थे, पर मुख्य कष्ट वित्तीय था, अतः भूरामलजी चुप रह गये। अचानक एक दिन ‘दाँता’ से एक श्रावकजी राणोली आये और पं. भूरामल से विनयपूर्वक मिले। बोले- मैं दाँता (रामगढ़) से आया हूँ, आपकी विद्वत्ता की महक हमारे नगर तक जा पहुँची है, मद्धाता ग्राम आपका ननिहाल भी है। अतः हमारे सकल दिगम्बर जैन-समाज ने एक मत होकर आपसे अनुरोध किया है कि आप दाँता आ जावें और वहाँ के संस्कृत विद्यालय को आशीष प्रदान करें। आपके उपकार से छात्रगण आगे पढ़ सकेंगे, आगे बढ़ सकेंगे; अत: यह प्रार्थना स्वीकार कीजिए।

     

    ज्ञान की ज्योति जलाने में पं. भूरामल कभी पीछे नहीं रहे, उन्होंने पूज्य मातेश्वरी घृतवरीजी से, फिर अग्रज छगनलालजी से और अनुजों से समुचित विचार विमर्श किया और आगन्तुक श्रावक को स्वीकृति प्रदान कर दी। पं. भूरामल के द्वारा समय प्रदान करने से दाँता के विद्यालय की पढ़ाई में चार चाँद लग गये। छात्रों को उनके द्वारा पढ़ाया जाना बहुत अच्छा लगता था। एक वर्ष से अधिक का समय भूरामलजी ने देकर विद्यालय को प्रकाश से भर दिया। पर वे और अधिक समय विद्यालय को न दे सके, क्योंकि ग्रन्थों का मौलिक-लेखन पहले से अधिक समय की माँग कर रहा था। फिर भी उन्होंने रहवासा के विद्यालय को दाँता रामगढ़ के विद्यालय में समाहित करा दिया और दाँता में एक विशाल भवन के निर्माण सूत्र प्रदान कर दिये। समय पर विद्यालय-भवन बन भी गया, जो आज भी पं. भूरामल के ज्ञान की कहानी सुना रहा है।


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