पूज्यश्री के विचार समझते हुए श्रावकों ने उनसे मंत्रणा की। फलत: वहाँ चौबीस तीर्थंकरों के लिये चौबीस वेदियाँ और चौबीस प्रतिमाएँ कराई निर्मित गईं। अचानक ६ जनवरी ९९ को मुझे सांगानेर से एक पत्र मिलता हैं, उसमें बिल्टी के साथ सूचना थी कि ‘सुधा का सागर' की सौ प्रतियाँ मेरे लिये भेजी गई हैं। मैं पुत्रों को बुलाता हूँ, श्री आजाद, श्री भारत भूषण और श्री चंद्रशेखर आते हैं। उनसे कहता हूँ कि पत्र में लिखित गैरेज (ट्रान्सपोर्ट) जिसके रास्ते में पड़ती हो, वह पुस्तकों का पैकेट लेता आवे। चंद्रशेखर पत्र ले लेते हैं, उसके रास्ते में वह गैरेज है। शाम को वे पैकेट सहित लौटते हैं।
भारत भूषण पैकेट खोलते हैं। मैं पुस्तकें देखने लगता हूँ, पुष्पाजी उन्हें एक अलमारी में जमाती हैं। अब हमें खुशी हैं, हमारे पास हमारी पुस्तक है।दूसरे दिन फिर पत्र पढ़ता हूँ, इसमें मदनगंज निवासी श्री निहाल चंद पहाड़िया की चर्चा है जो करीब ५१ वर्ष के हैं। वे स्व. पन्नालाल पहाड़िया और श्रीमती ज्ञानदेवी के सुपुत्र हैं। हाल ही में करीब दस लाख की राशि से श्री के.डी.जैन स्कूल मदनगंज के प्रांगण में पू. आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज का स्टेच्यू स्थापित करा रहे हैं, प्रेरणा मिली पू. सुधासागरजी से। श्री निहालचंदजी सन् ९५ में मुनिवर के निकट आ चुके थे। चौका, आहारदान, चिकित्सा सेवा, वैयावृत्ति के कार्यों ने उन्हें मुनिभक्त घोषित कर दिया। संयोग यह कि निहालजी की माता, श्रीमती ज्ञानदेवीजी पू. ज्ञानसागरजी को आहार देने का सौभाग्य पाती थीं। अब निहालजी वह क्षण पू. सुधासागरजी से पा रहे हैं।
निहालजी ने सागानेर में भगवान १००८ श्री आदिनाथ स्वामी की प्रतिमावाली वेदी पर सोने की पेन्टिंग का कार्य कराया है। उनके अगले पत्र के साथ एक हिन्दुभाई के त्याग का प्रसंग सामने आया, जिसे पू. क्षु. गम्भीरसागरजी की प्रेरणा ही कही जावेगी, जिसमें श्री जेठा लोबचन्दानी लिखते हैं- मैं पहली बार महाराज सुधासागरजी, गम्भीरसागरजी और धैर्यसागरजी के दर्शनार्थ नसियाजी (अजमेर) गया। वहाँ महाराजजी के प्रवचन सुने तो बहुत प्रभावित हुआ, अत: मैं हफ्ते में कई बार उनके दर्शन करने जाने लगा। साधुत्रय के चरणसान्निध्य से मुझे अलौकिक आनन्द मिलता था। उनके शब्द मुझे झकझोर देते थे, अतः उनके चरणों के समीप उपस्थित होकर, स्वप्रेरणा से मैंने जीवन भर के लिये मांस, मदिरा, बीड़ी, सिगरेट, पान, तम्बाकू, गुटका और चाय का त्याग कर दिया।
मुझे महाराज का आशीष मिला। मैं प्रसन्न हूँ, चैन से रहता हूँ। और पूर्व से अधिक स्वस्थ हूँ। दूसरा प्रसंग था, श्री ग्यारसीलाल लुहाड़िया (जैन) का । ५० वर्षीय ग्यारसीजी, मदनगंज-किशनगढ़ के निवासी हैं, वे स्व.श्री भंवरलालजी लुहाड़िया के पुत्र हैं। वे बतलाते हैं कि पू. ज्ञानसागरजी ने मदनगंज किशनगढ़ में दो चातुर्मास किये थे। उस समय इस नगर में बिजली नहीं थी, अत: अध्ययन कार्य लालटेन की रोशनी में किया करते थे। गुरुवर के साथ उस समय तीन क्षुल्लक जी थे, जिनमें से दो के नाम याद हैं - क्षुल्लक श्री सन्मतिसागरजी और क्षुल्लक श्री सुखसागरजी। वे अपने साथ तीर्थंकरों की मूर्तियाँ लेकर नहीं चलते थे। जब भी उनका विहार होता था तो श्रावक गण उन्हें छोड़ने साथ-साथ चलते थे, मगर ज्ञानसागरजी एक मील चलने के बाद ही रुकते और नौ बार णमोकार मंत्र पढ़ कर, श्रावकों को लौट जाने की आज्ञा दे देते थे। वे कहते थे कि साधुओं को तो भ्रमण - तीर्थाटन करना ही होता है, परन्तु श्रावक तो घर, व्यापार, कृषि से जुड़े हैं, अत: उन्हें वहाँ के लिये भी समय देना जरूरी है।
तीसरा प्रसंग है, श्री सुशीलकुमार बड़जात्या नसीराबाद का। ४५ वर्षीय बड़जात्या स्व. श्री सूरजकरणजी के पुत्र हैं। उन्होंने लिखा है। कि पू. आचार्यश्री ज्ञानसागरजी जब अंतिम दिनों में नसीराबाद में थे, तब वे ससंघ १८ माह वहाँ रुके थे। उनके संघ में तब आचार्य श्री विद्यासागरजी यहाँ मुनि के रूप में आये थे और आचार्य के रूप में लौटे थे। अन्य साधुओं में- मुनि विवेकसागरजी, मुनि सुपार्श्वसागरजी, ऐलक सन्मति सागरजी, क्षुल्लक सम्भवसागरजी, क्षुल्लक सुखसागरजी, क्षुल्लक आदिसागरजी एवं ब्र. प्यारेलालजी । श्री बड़जात्या लिखते हैं कि मुनि स्वरूपानंदजी भी संघस्थ थे, पर बाद में वे पुनः गृहस्थावस्था में आ गये थे।
मुनि विवेकसागरजी आचार्य विद्यासागर के संघ से पृथक् हो | गये थे, उन्होंने तीन आर्यिका दीक्षाएँ कराई थीं, जिनमें प्रथम आर्यिका पू. विशालमतीजी, द्वितीय पृ. विज्ञानमती जी एवं तृतीय पू. विद्युत मतीजी थी। मुनि सुपार्श्वसागर दक्षिण के थे। पत्र-संस्मरणों का लम्बा सिलसिला चला साल भर तक। इस ग्रन्थ को पूर्ण करते समय उनके दिनांक १४-३-९९ के पत्र को मैंने अंतिम संस्मरण माना है, जो इसतरह है- वे लिखते हैं कि मदनगंज | किशनगढ़ में ८७ वर्षीय श्रावक श्री मन्नालाल बेद (ऊटंडावाले) रहते | हैं, जो प्रारंभ से ही पू. ज्ञानसागरजी और पू. विद्यासागरजी से जुड़े रहे हैं, उन्होंने बतलाया है कि ज्ञानसागरजी संस्कृत में लावणी और गजल लिखनेवाले, उस दौर के एक मात्र महाकवि थे देश में। वे भेद-विज्ञान की व्याख्या में पारंगत थे।
एक विशेष बात मदनजी के पत्र में है, जो सम्भवत: सही हो, कि जब पू. विद्यासागरजी ब्रह्मचारी के रूप में, विद्याधर नाम से यहाँ पहुँचे थे, तब मन्ना वेद ने भी ज्ञानसागरजी से विद्याधर की सिफारिश की थी कि उन्हें पढ़ाने की कृपा करें । श्री कजोड़ीमलजी ने तो की ही थी।-“हरि अनंत, हरि कथा अनंता' की तरह यह कथा भी बढ़ती ही जा रही है, अत: प्रयास कर इसे यहाँ समाप्त करता हूँ। लिखने में और अभिव्यक्त करने में अनेक त्रुटियाँ मैंने की होंगी, जिन्हें हृदय में स्थान देकर मुस्काना होगा। संतों की तीन पीढ़ियों के तीन आदर्श यतियों की तीन जीवन गाथाएँ लिख कर मुझे साहित्य संसार के पुरोधाओं के समक्ष इस कार्य पर गर्व है। गर्व और गौरव के चलते, अपनी सरलता को मैं जीवन्त बनाये रहूँ और मेरा मन “मुनि-रमण-भूमि' बना रहे। ऐसा ध्यान करता हूँ।
आप पूछेगे- मैंने जीवन गाथाओं का लिखना ही क्यों पसन्द किया? उत्तर मेरी तरह ही सरल है- बाजार में अनेक वस्तुएँ होती हैं। खरीदने या लेने के लिए, पर ग्राहक उनमें से छाँट-छाँट कर अच्छी अच्छी ही उठाता है। मेरा यह कथन कवि सुन्दरदास के दोहे से स्पष्ट कर लीजिए
सुन्दर सौदा कीजिए, भली वस्तु कुछ खाटि।
नाना विधि का टाँगरा, उस बनिया की हाटि ॥
बहुत से लोग ऐसी जीवन गाथाओं में पांडित्य-तत्त्व न देखकर, इन्हें महत्त्व देने से कतराएँगे, उनके लिये मैं महाकवि दादू की दो पंक्तियाँ यहाँ दे रहा हूँ ।
दादू निबरे नाम बिन, झूठा कथे गियान ।
बैठे सिर खाली करें, पंडित-वेद-पुरान ।।
सो वे ध्यान रखें कि पांडित्य से ऊपर “साहित्य-तत्त्व' सदा रहा है, रहेगा। अब आप पूछेगे- सन्तों पर ही क्यों लिखते हैं, सामान्य श्रावकों, नागरिकों पर भी तो लिख सकते हैं? आप ठीक पूछ रहे हैं, मैंने बचपन में पढ़ा था कि सन्तगण आम्रवृक्ष की तरह होते हैं जो चोट खाने पर भी फल देते हैं।
तुलसी संत सुअंब-तरु, फूल-फलहि परहेत।
इतते ये पाहन हनत, उतते वे फल देत ।।
सच, उक्त पंक्तियों पर मुझे आज भी विश्वास है, जिस दिन सन्त पत्थर के बदले पत्थर से प्रहार करना शुरु कर देंगे, मैं उन पर लिखना बन्द कर दूंगा।
महावीर जयंती २९ मार्च, १९९९
२९३ सरल कुटी, गढ़ाफाटक जबलपुर (म.प्र.)
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