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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • ज्ञान का सागर : क्रमांक - 2

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    राणोली के खेतों में चतुर्भुजजी का पुरुषार्थ धूप की तरह फैला रहता था। वे अपने कृषि कार्य में व्यस्त रहते थे। “खेती आप सेती” का सूत्र बचपन से ही सुना-गुना था। अत: न्यौछावर करते रहते थे अपने श्रमबिन्दु सीकर के खेतों खलिहानों पर। बालक अभी डेढ़ साल का भी न हो पाया था कि एक दिन भारी अचम्भा उपस्थित हो गया, भूरा हवेली के बड़े कक्ष में बाजू के बने कमरे में बैठा-बैठा खेल रहा था, माँ वहीं पानी से भरे हुए बर्तन तरतीब से जमा रही थी। दोनों अपने-अपने कार्यों में लीन थे, तभी एक काला साँप वहाँ से निकला, भूरा उसकी चमक और हलचल देख कर उसकी तरफ चल पड़े, उसकी पूंछ पकड़ी और खींच लिया अपनी तरफ। माँ की दृष्टि पड़ी तो जोर से चीखी - “बेटे छोड़ उसे, वह काटता है।”

     

    बेटा तो यह जानता ही नहीं था कि काटना क्या कहलाता है, छोड़ना क्या होता है। वह हँसता रहा, उसके मुंह से खेल-खेल में निकलने वाली आवाजें होती रहीं। तब तक सर्प बालक से लिपट गया। माँ डरती थी, अत: जोर-जोर से चिल्लाने लगी- कोई बचाओ मेरे भूरा को। तुरन्त किसी को समीप ने देख, पुनः भूरा से बोली - छोड़ दे बेटे, छोड़ उसे। माँ देखती है कि भूरा ने हाथ ढीला कर दिया, साँप हाथ से मुक्त हो चुका है, जो भूरा से लिपट गया था, वह उससे दूर हो गया है और घर से बाहर की ओर सरक गया है। माँ अवाक् देखती रही। सर्पराज बाहर चले गये। भूरा हँसते हुए खड़े हैं, उनकी केश-राशि उड़ रही है, चंदनी वदन चमक रहा है। जैसे कुछ हुआ ही न हो। माँ ने धन्यवाद दिया मन ही मन नागराज को। फिर दौड़ कर भूरा को गोद में उठा लिया। उसके सुर्ख कपोलों की गोलाई को चूम लिया। 

     

    जैसे मन में कह रही हो - आज तुम बच गये बेटे, वरना न जाने क्या हो सकता था ? भूरा तीन वर्ष के थे। छगन भैया छ: के तब तक घर में एक शिशु और आ गया माँ घृतवरी की कोख से, उसका नाम रखा गया - गंगा। जिन कक्षों में, जिन देहरियों पर, जिस झूले पर पहले छगन खेले, उन्हीं पर बाद में भूरा खेले और उन्हीं पर गंगा। भूरा को दर्पण देखने का भारी शौक था। कहीं से खेलकर लौटते तो दर्पण उठाकर देखने लगते, जैसे अपने आपको पहिचानने का सद् प्रयास कर रहे हों। काफी देर तक दर्पण लिये रहते तब माँ दर्पण छुड़ाकर नियत स्थान पर धर देती और भूरा से पूछती - क्या निहारता रहता है ? दर्पण में चार वर्ष का भूरा कुछ जवाब न दे पाता, सो यहाँ-वहाँ भाग जाता। बालक घर के हर सदस्यों से तो बोलता बतियाता ही था, बाहर से आनेवाले आगन्तुकों के पीछे पड़ जाता था। किसी से पूछता - तुम्हारा नाम क्या है ? आगन्तुक हँस कर अपना नाम बतलाते तब तक भूराजी दूसरा प्रश्न जड़ देते - आप कहाँ रहते हैं ? उत्तर मिलता तो फिर कोई प्रश्न - आप यहाँ क्यों आये हैं ? प्रश्नों से विद्वान आगन्तुक परेशान हो जाते। अत: कह पड़ते -“ये तो सिपाही की तरह पूछता है।

     

    क्या इरादे हैं भैया तेरे ?” घर तो घर, बाहर के लोग भी नहीं समझ पाते थे कि प्रश्न करने वाला वह बालक भविष्य में अनेक विकट प्रश्नों का समाधानकर्ता सिद्ध होगा। बालक का मन गिल्ली-डंडा खेलने में भी खूब लगता था। हवेली के पास तो पास, दूसरे मुहल्ले में भी यदि बच्चे खेल रहे होते तो भूरा वहाँ चले जाते और घंटे दो घंटे गिल्ली-डंडा में लीन रहते। उस काल में शाला नहीं थी नगर में। छगन एक ब्राह्मण शिक्षक के घर पढ़ने जाते तो भूरा उसे देखते रहते, और जब कभी, किसी दिन उनका बस्ता मिल जाता तो वे उसे उठा कर पढ़ने हेतु जाने का अभिनय करते। फिर लौटने का लौटकर सबक करने का अभिनय भी पूरा-पूरा करते, बस्ते से किताब निकालते, हाथ में लेकर खोलते, फिर उसकी तरफ ऐसी नजर गड़ाते, जैसे पढ़ने में तल्लीन हों। कभी स्लेट-पट्टी निकालकर खड़िया-बत्ती (चाक पेन्सिल) से उस पर आड़ी-टेड़ी रेखाएं खींचते और लिखने का अभिनय करते।

     

    घर के जिस किसी सदस्य की नजर उस पर पड़ती तो फौरन बस्ता छुड़ा कर हिफाजत तरज्जुत से धरते और भूरा को भाषण सुनाते - बड़ा पढ़ने वाला बना है, कभी पुस्तक फाड़ी तो बहुत पिटेगा। लोग नहीं जानते थे कि भूरा का जन्म पुस्तक फाड़ने के लिये नहीं, पुस्तकों की रचना करने के लिये हुआ है। माता अवश्य कभी-कभी विचार करती कि यह तो ऐसी लगन दर्शाता है, जैसे आगे चलकर बहुत बड़ा स्वाध्यायी बनेगा, जबकि यहाँ पाठशाला तक नहीं है। अब यदि आचार्य ज्ञानसागरजी की नहीं, पं. भूरामलजी शास्त्री की वंशबेल के इतिहास को परिज्ञान चाहिये हो तो हमें बारीकी से ध्यान देना होगा, तब उनकी वंश परम्परा, ऐतिहासिकता और भौगोलिकता को समझ सकेंगे। परम पूज्य मुनिपुंगव १०८ श्री सुधासागरजी महाराज ने एक बार विशद-वर्णन किया था इस विषय का, उन्होंने कहा था कि उक्त तथ्य जानने के लिये सीकर और खण्डेला की ओर दृष्टि पहले देनी होगी।

     

    सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक नगर खण्डेला प्रारंभ से ही लघु-उद्योग का क्षेत्र रहा है, अब वह तीव्रता से बढ़ रहा है। यह नगर सीकर के समीप अवस्थित है। पूर्व में सीकर भी जिला या जनपद नहीं, एक पृथक् राज्य था। सीकर राजाओं के राज्य-क्षेत्र का मुख्य नगर रहा है। यहाँ पर मौजूद राजमहल आज भी इसकी गवाही दे रहे हैं। सीकर राज्य की सीमा से लगा तब द्वितीय क्षेत्र था खण्डेला राज्य जनधारणा है कि दशवीं शताब्दी में खण्डेला-क्षेत्र कई वर्षों तक जैन राज्य के रूप में ही जाना जाता रहा है। वहाँ दशवीं शताब्दी में जैन खण्डेलवाल राजा राज्य करते थे। वह खण्डेलवाल-जाति का उद्गम स्थल निरूपित किया गया है।

     

    मगर दशवीं शताब्दी के पूर्व-खण्डेला राज्य में अन्य मतावलम्बी राजा राज्य करते थे। कोई वैष्णव हुआ, कोई आर्य, कोई अवैष्णव और कोई अनार्य। एक मायने में सबसे पृथक् धर्म और पृथक् झंडे थे। विभिन्न मत-मतान्तरोंवाले जनसमूह में, तब भी वहाँ जैन खण्डेलवाल-जाति का अस्तित्व था। खण्डेलवाल-जैन दिगम्बर जैनधर्म और जैन शासन के ध्वज के लिये तो प्रसिद्ध थे ही, वे दिगम्बर मुनियों के लिये भी भारी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके थे। हजारों की संख्या में मुनि-त्यागी-व्रती धर्म की प्रभावना करते थे। फलत: जनता और राजा जैन-खण्डेलवालों का बहुमान करते थे।

     

    एक बार खण्डेला राज्य में भयानक महामारी फैली। रोज कहीं न कहीं, नागरिक पीड़ित होकर प्राण त्याग रहे थे। वैद्यों-हकीमों के नुस्खे झूठे सिद्ध हो रहे थे। “मरता क्या न करता की स्थिति अनेक परिवारों के समक्ष आ चुकी थी, अतः कतिपय पीड़ित-जन वैद्यों का चक्कर छोड़कर, जैन-मुनियों की शरण में पहुँचने लगे और महामारी से बचा लेने की प्रार्थना करने लगे।

     

    ज्ञानवान मुनि महामारी का कारण समझ चुके थे, अत: उन्होंने पीड़ित-जनों को परामर्श दिया कि हमारे पास कोई जादू या तंत्र-मंत्र नहीं हैं, न ही मंत्रों-तंत्रों की दृष्टि से हमारे पास आना। तुम्हारे रोग की दशा पर वैद्यगण ही सही विचार कर सकते हैं। हम लोग तो यही कह सकते हैं कि आप सब जन छना पानी पीने की आदत बनाइये, पानी में गंदगी शीघ्र नहीं दिखाई देती, अत: पानी उबाल कर लें, या फासू (किंचित् गर्म) कर लें तो संकट समाप्त हो सकता है। विभिन्न जातियों के अनेक लोगों ने मुनिगणों की बात मानते हुए जल-छान कर लेने का क्रम बनाया तो उनके रोगियों को आराम मिलने लगा।

     

    जिन्हें आराम मिला, उन परिवारों के लोगों ने मुनिवरों की जयजय कार की। इस घटना से एक समूह में ईष्र्या जाग उठी। समूह विशेष के लोगों को आभास हुआ कि हमारे वैद्यों की साख तो गई ही, मुनियों का गुणगान अधिक होने लग गया है। अत: उन्होंने जैनों और मुनियों का दमन करने की योजना बनाई। वे तत्कालीन राजा के पास गये, और उन्हें विश्वास में लेकर उनके कान भरे। राजा उनके बहकावे में आ गया, फलत: विरोधियों की इच्छानुसार राजा ने प्रशासन तंत्र के प्रमुख अधिकारियों को गुप्त - आदेश दिया कि महामारी समाप्त करने के लिये योग्य पुरोहितों के माध्यम से एक “महामारी यज्ञ किया जा रहा है, जिसमें ग्यारह दिन में १००८ मुनियों का होम करना है, अत: तत्काल व्यवस्था बनायें कि प्रतिदिन कुछ न कुछ मुनि समिधा की अग्नि में झोंके जाते रहें।


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