(संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज की)
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✍🏻✍🏻शुभांशु जैन शहपुरा
ज्ञानोदय छंद
स्थापना
आँगन मन का सूना गुरुवर,मैंने तुम्हें बुलाया है
भक्ति भाव से देते निमंत्रण,श्रद्धा चौक पुराया है
रागद्वेष का मर्दन करके, कषायें मैंने बुहारी है
मन वेदी पर आन विराजो,इतनी अरज हमारी है
ऊँ ह्रीं आचार्य श्री विद्यासागर मुनीन्द्र!अत्र अवतर अवतर संवौषट। अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट सन्निनिधिकरणम
जन्म जरा मृत्यु से गुरुवर,हम इतने घबराये है
चरणों का प्रक्षालन करने,भक्त नयन भर लाये है
विद्यासागर संत,विमल है अनंत गुण के धारी है।
अचल भाव शुभ धर्म दिवाकर,अतुलनीय सुखकारी हैं।
ऊँ ह्रीं श्री 108 आचार्य विद्यासागर मुनीन्द्राय जन्मजरा मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा
पाप ताप से तपता चेतन,किंचित सुख ना पाते है
दर्श मात्र कर लेने से गुरु,शीतलता पा जाते है
विद्यासागर संत विमल है,अनंत गुण के धारी है।
अचल भाव शुभ धर्म दिवाकर,अतुलनीय सुखकारी हैं।
ऊँ ह्रीं श्री 108 आचार्य विद्यासागर मुनीन्द्राय संसार ताप विनाशनाय चन्दनम निर्वपामीति स्वाहा
अक्षय निधि को पाना है पर,मैं निज से अनजान रहा
देख आपकी कठिन तपस्या,अविनाशी का ध्यान लहा
विद्यासागर संत,विमल है अनंत गुण के धारी है।
अचल भाव शुभ धर्म दिवाकर,अतुलनीय सुखकारी हैं।
ऊँ ह्रीं श्री 108 आचार्य विद्यासागर मुनीन्द्राय अक्षयपद प्राप्तये अक्षतान निर्वपामीति स्वाहा
विषय वासना की ज्वाला में,जीवन वृथा गंवाया है।
जान आपका शील पराक्रम,काम देव शर्माया है।
विद्यासागर संत,विमल है अनंत गुण के धारी है।
अचल भाव शुभ धर्म दिवाकर,अतुलनीय सुखकारी हैं।
ऊँ ह्रीं श्री 108 आचार्य विद्यासागर मुनीन्द्राय कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा
क्षुधा तृषा बढ़ती ही जाती,तृप्त नही हो पाती है
सुनकर तेरी मीठी वाणी,क्षुधा शांत हो जाती है
विद्यासागर संत,विमल है अनंत गुण के धारी है।
अचल भाव शुभ धर्म दिवाकर,अतुलनीय सुखकारी हैं।
ऊँ ह्रीं श्री 108 आचार्य विद्यासागर मुनीन्द्राय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा
मोह अंध से अंधा होकर,निज को नहि पहचाना है
आज आपसे जाना मैंने,केवलज्ञान ठिकाना है
विद्यासागर संत,विमल है अनंत गुण के धारी है।
अचल भाव शुभ धर्म दिवाकर,अतुलनीय सुखकारी हैं।
ऊँ ह्रीं श्री 108 आचार्य विद्यासागर मुनीन्द्राय मोहांधकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा
कर्म अग्नि की ज्वाला भभके, हमको बहुत जलाती है
आप ध्यान करने से मेरी,मोह अग्नि बुझ जाती है
विद्यासागर संत,विमल है अनंत गुण के धारी है।
अचल भाव शुभ धर्म दिवाकर,अतुलनीय सुखकारी हैं।
ऊँ ह्रीं श्री 108 आचार्य विद्यासागर मुनीन्द्राय अष्टकर्म दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा
नाम मोक्षफल ज्ञात मुझे है,सिद्ध स्वरूप न जाना है
चरण छाँव जो मिली आपकी,उसे शिवालय माना है
विद्यासागर संत,विमल है अनंत गुण के धारी है।
अचल भाव शुभ धर्म दिवाकर,अतुलनीय सुखकारी हैं।
ऊँ ह्रीं श्री 108 आचार्य विद्यासागर मुनीन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा
कैसे भेंट चढ़ाऊँ तुमको,कुछ भी मेरे पास नही
सांसे अर्पित भक्त समर्पित,तुम बिन मेरा कोई नही
विद्यासागर संत,विमल है अनंत गुण के धारी है।
अचल भाव शुभ धर्म दिवाकर,अतुलनीय सुखकारी हैं।
ऊँ ह्रीं श्री 108 आचार्य विद्यासागर मुनीन्द्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा
जयमाला
दोहा
विद्यासागर संत है,संतो के सरताज
विमल गुणों से पूर्ण है अनंत धर्म जहाज
शिरोमणि जिन सूर्य है,अचल मेरु समजान
अतुलनीय चर्या रही,शुद्ध भाव पर ध्यान
कर्म मलो से लड़ते गुरु हैं ,सिद्धदशा पा जाने को
रागद्वेष का मल धोडाला, शुद्धात्म रस पाने को
पग पग पथ पर बढ़ते जाते,वसुविधि कर्म नशाने को
करते लाखो प्रणाम गुरुवर,विमल सुगुण अपनाने को
शब्द लयो का ज्ञान नही है कैसे तेरे गुण गाँऊं
महिमा अंनत रवि के जैसी,दीपक कैसे दिखलाऊँ
अनंत गुणधारी तुम भगवन,अनंत सुख अभिलाषी हो
यही भावना अनंत है मेरी ,सिद्ध लोक के वासी हो
धर्म शिरोमणि तुम हो गुरुवर, धर्मध्वजा फैराते हो
धर्म दीप को सतत जलाकर,तामस दूर भगाते हो
निज चेतन धर्मों को जाना,उस पर चलकर दिखलाया
धर्म दिवाकर बनकर तुमने,सारे जग को चमकाया
अचल मेरु सी चर्या है तव कर्म डिगा ना पाते है
दृढ संकल्पी गुरु के आगे ,सब बौने हो जाते है
ज्ञान ध्यान तप तेज को लखकर,सुर भी शीश झुकाते है
अचल मेरु सम दृढतर बनने चरणन दौड़े आते है
अतुलनीय चारित्र आपका नही किसी से तुलना हो
सारी सृष्टि फीकी पड़ती ,नही किसी से उपमा हो
भाव अधिक है ,शब्द भी बौने कैसे तुमको बतलाऊँ
सच मे अतुल हो भगवन मेरे हार मान चुप हो जाऊं
भाव शुद्ध है विशुद्ध चर्या ,जिन आगम पर चलते हो
शांत स्वभावी सौम्य विभासी ,तीर्थंकर सम लगते हो
भाव प्रभाव तुम्हारा गुरुवर सारे जग से न्यारा है
तुम शुभांशुसे हे गुरु प्रभुवर चमका भाग्य हमारा है
ऊँ ह्रीं श्री 108 आचार्य विद्यासागर मुनीन्द्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये पूर्णार्घ निर्वपामीति स्वाहा
दोहा
विद्यासागर सूरी के शिष्य रहे शुभ भाव
विमल अनंत व धर्म मुनि अचल अतुल मुनिराय
।।पुष्पांजलि क्षिपेत।।