जब मेरे पाप का उदय आया,
तब मैं इच्छित सामग्री हासिल न कर पाया।
और जब मेरे पुण्य का उदय आया,
तब मैं अपनी सहजता-सरलता न संभाल पाया।
जब अथाह संपदा का मालिक भी बन गया,
तब मैं अपनी संपत्ति का सदुपयोग न कर पाया।
जब लम्बी उम्र पाकर वृद्ध अनुभवी हो गया,
तब जीवन का मूल्य ही न समझ पाया।
इस तरह अनेक भव खोकर…
अब मेरे तीव्र पुण्यानुबंधी पुण्य का उदय आया,
जो वर्तमान में वर्द्धमान सम,
ज्ञानसिंधु की चेतन कृति का समागम पाया।
“पापोदय में दुनिया मुझसे, दूर हुई अति मुस्कायी।
पुण्योदय में मेरी आतम, सुख में संभल नहीं पायी।।
किंतु आपने सुरव औ दुःख में, मुझको जीना सिरवलाया।
अनंत उपकारी हितकारी, विधासागर मुनिराया।।”