मैं लगा कर्म फलों के छिलके बटोरने में,
तो छल से छला गया।
मैं लगा कर्म फलों के दल पाने में,
तो दल-दल में फंस गया।
मैं लगा कर्म फलों के रस पीने में,
तो तहस-नहस हो गया।
अब चाहता हूँ... जीवन सफल हो!
छिलका, दल, रस नहीं... सत् प्राप्त हो!
हे सदलगा के सन्त!
मुझे सत् दो... स्वभाव का सार दो!
“सोच बड़ी गंभीर गुरु की, सागर के जैसे गहरी।
सुमेरु सम उन्नत गुणवाले, गुरुवर आत्म सजग पहरी।।
जिनका प्रवचन सुनकर लगता, तीर्थंकर की ध्वनि खीरी।
नमन करूँ मैं मन वच वन से, संग ले चलो शिवनगरी।।”