यदि मैं अपात्र हूँ तो,
मुझे खुशियाँ मत देना।
जब मैं पात्र बन जाऊँ,
तब मुझे मेरी गलतियाँ बता देना।
मेरी प्रसन्नता के खातिर,
बेमन से बोलने की अपेक्षा,
मौन से ही आत्मीय करुणा बरसा देना।
मेरे समर्पण को स्वीकृति दे देना।
“महामनीषी ज्ञानी ध्यानी, विद्या धन के दाता हैं।
जो आता है इन चरणों में, झोली भरकर जाता है।।
कमी न होती फिर भी धन की, है अपूर्व गुरु का भण्डारा।
ऐसे गुरु विधासागर को, वंदन मेरा बारम्बार।।”