जब घड़ी आयी दीक्षा की,
प्रकृति सारी हर्षायी।
हर्षित हो नभ से मंद सुगंधित वर्षा की।
वह दिन तीन के पीछे शून्य,
अर्थात् तीस जून था।
त्रय रत्न के सिवा,
आपका कोई लक्ष्य न था।
पाकर रत्नत्रय का महल,
हो गया जीवन के प्रश्नों का हल।
सदा स्वात्म समाधि में स्थित,
जयवंतों धरा पर... मेरे गुरू विद्यासागर !
“तीस जून उन्नीस सौ अड़सठ, गुरुवर से दीक्षा पाई।
ज्यों ही वस्त्र तजे गुरुवर ने, नभ से जलधारा आई।।
दीक्षा उत्सव देव मनाये, सारी प्रकृति मुस्कायी।
सदा रहो जयवंत धरा पर, विद्यासागर मुनिरायी ।।''