कर्मों को मुझसे,
पूर्व का हिसाब लेने की जल्दी है,
तो मुझे भी हिसाब चुकाने की बेसब्री है।
यह भावना... आपकी मधुर मुस्कान,
आपके सांत्वना के दो शब्द,
आपके नि:स्वार्थ वात्सल्य की नज़र ने ही,
मुझे प्रदान की है।
आप जैसे परम अंतरंग सखा गुरु,
जब मुझे मिल ही गए हैं,
तो अब कर्म शत्रु को निज गृह से बाहर कर,
सिद्धालय जाने में देरी क्यों करूँ!
आपने जो किया वह मैं भी करूँ।
आखिर हूँ तो आपका ही ना..!
“मिट्टी मंगल घट बन जाती, कुंभकार का हाथ रहे।
अज्ञानी ज्ञानी बन जाता, यदि गुरुवर का साथ रहे।।
मंगल घट सिर पर चढता है, शिष्य बसे रिद्धालय में।
महाकृपालु श्री गुरुवर को, धारूँ निज ह्दयालय में ।।”