मौन होकर भी स्वानुभूति की लय में क्या गुनगुनाते हो?
जिसे न हम सुन पाते हैं न ही कोई और सुन पाता है।
लेकिन... ऐसी मधुर तान छेड़ते हो,
जिसमें आप स्वयं अंतर्लीन हो जाते हो।
अंतस् की गहराई में बहुत दूर चले जाते हो।
या यूँ कहूँ कि स्वयं में खो जाते हो।
ऐसे में... ना किसी को देखना,
ना किसी से बोलना, पसंद करते हो।
देखो... कहकर टाल देते हो।
सच है, आप शिवरमा को कितना चाहते हो।
“स्वानुभूति की लय में गुरुवर, पावन गीत सुनाते हैं।
मध्यलोक से शिवरमणी को, गुरुवर आप रिझाते हैं।।
मुक्तिरमा को श्री गुरुवर ने, अंतर में ही वरण किया।
मुनि से सुर फिर मुनि बन करके, तुम्हें वरूँ यह वचन दिया।।”