प्रथम बार जब दर्श किया था,
बहुत ही आनंद हुआ था।
सूरज भी लगा था धोखा,
ऐसा दिगंबर रूप था अनोखा।
स्वात्म गुफा ही जिनका निवास,
ज्ञान-ध्यान के आभूषण जिनके,
समता पल-पल रहती पास।
ऐसे आलौकिक आत्मिक सौंदर्य के धनी,
हे... वीतरागी गुरूवर!
आत्मा के असंख्य प्रदेशों से आपको नमन!
बस आपके श्री चरणों का करू मैं अनुगमन!
“रत्नत्रय का मुकुट पहनते, स्वर्ण मुकुट का काम नहीं।
त्रय गुप्ति का कवच धारते, भय का किञ्चित् नाम नहीं।।
स्वात्म चतुष्टय निवास जिनका, मृण्मय गृह को त्याग दिया।
संत दिगम्बर विद्यागुरु को, सबने अपना मान लिया।।”