जबसे आप मिले,
मैं अकेला हो गया।
कितना अच्छा हुआ,
जो मुझे मेरा भान हो गया,
पहले आप हैं मेरे अपने,
फिर है यह निजात्मा,
आप न होते तो,
स्वात्म को कहाँ जान पाते,
शुद्धात्म को कहाँ पहचान पाते,
अनमोल निधि दी है आपने,
भगवान होने की विधि बता दी है आपने।
“विधासागर गुरू ना मिलते, भव वन में भ्रमते रहते।
वन में तन्मय होकर हम यूं, मृतक समान पडे रहते।।
अनंत जीवन अर्पण कर दूँ, फिर भी ऋण ना चुक सकता।
हैं अनंत उपकार गुरु का, चरण कमल द्वय में नमता।।”