मैंने अब तक दुनिया में कई काम निपटाये,
बाहर के लोगों से वार्तालाप किया,
परायों का सम्मान भी किया,
किंतु घर के लोगों से मिलने की,
बातचीत की, सम्मान की, फुर्सत ही नहीं!
कारण... वह तो करीब के हैं। अपने ही हैं।
उसी भॉति... परमात्म तत्त्व जो मैं हूँ,
उसके साथ न ही वार्तालाप हुआ, न उसका सम्मान
न ही उससे संबंध बना।
बस! अब पर से बंध छुड़ा दो, निज से संबंध करा दो।
ज्ञानसिंधु में प्रवेश देकर आत्मचिंतन में डुबो दो।
“ज्ञानसिंधु में प्रवेश करके, गहन आत्मचिंतन करते।
जग से द्रष्टि हटाकर गुरुवर, ज्ञान गगन केलि करते।।
कुंदकंद अकलंकदेव सम, आगम को कहते निर्भय।
इसीलिए चऊ दिश में गूँजी, विधा गुरुवर की जय-जय।।"