जो हेय हैं...
उन्हें मैं पूर्ण रूप से छोड़ सकूँ,
ऐसी मुझमें दृढ़ विरक्ति नहीं,
और जो उपादेय हैं...
उन्हें मैं पूर्ण रूप से अपना सकूँ,
ऐसी भी मुझमें दृढ़ अनुरक्ति नहीं,
लेकिन दृढ़ श्रद्धा मेरे पास है कि,
ये सब कुछ मैं कर सकता हूँ।
मेरी श्रद्धा की अभिव्यक्तियों में,
सहायता करिये गुरुदेव!
“प्रथम भक्त बनता है मानव, तभी शिष्य बन पाता है।
तरु पर लगते फुल प्रथम ही, अंतिम में फल आता है।।
शिष्य दशा से सिद्धालय को, मुझको निश्चित पाना है।
असंख्य आतम के प्रदेश में, विधा दीप जलाना है।।”