लेखनी लिखती है कि-
पूर्व कर्मानुसार होता है जनम
जन्म के बाद होता उसका नामकरण
परंपरानुसार या इच्छानुसार
करता है वह काम,
किंतु पुण्योदय से पाता है जब गुरु
तो बदल देते उसका नाम
बदलते ही नाम बदल जाते काम
रिश्ते-नाते और बदल जाता है धाम,
फिर तो गुरु से ही सुबह
गुरु में ही ढलती शाम।
शाश्वत सत्य को वह जान लेता है कि-
आँख नाक कान मिलते कर्म से
किराये के सामान हैं
अज्ञानतम दूर कर प्रगट किया जो तत्त्वज्ञान
यह गुरु का परम दान है।
गुरु तो बस गुरु हैं मुझे लघु ही रहना है
गंतव्य तक गुरु के पीछे ही चलना है
और एक दिन प्रभु परमातम होकर
गुरु का ऋण चुकाना है,
इसी लघुता के बल पर
एक दिन शिष्य अगुरुलघु गुण को पाता है
अनंत सिद्धों में जा मिलता है।
ऐसे ही निष्ठा से
तप संयम साधना से
विद्याधर हो गए विद्या के सागर
जो शाश्वत सिद्धालय पायेंगे
अनंत अव्याबाध सुख पाकर।